रोज़ अज़ल दा || संत बुल्लेशाह पर (2014)

Acharya Prashant

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रोज़ अज़ल दा || संत बुल्लेशाह पर (2014)

मैनूं लगड़ा इश्क़ अवलड़ा अव्वल दा, रोज़ अज़ल दा।

विच कड़ाही तिल-तिल पावे, तलिआं नूं चा तलदा।

मोइआं नूं एह वल-वल मारे, दलियां नूं एह दलदा।

की जाणां कोई चिणग कखी ए, नित सूल कलेजे सलदा।

बुल्ल्हा, शौह दा न्योंह अनोखा, ओह नहीं रलाइआं रलदा।

~ बुल्ले शाह

प्रश्नकर्ता: मुझे ऐसा लगता है कि मेरे हाथ में एक छोटा खिलौना है और मैं उस छोटे खिलौने को जब तक नहीं छोड़ूँगा तब तक जो बड़ा खिलौना है वो मेरे हाथ नहीं आ सकता। अगर मुझसे छोटा खिलौना छुड़वाना भी है तो मुझे बड़े वाले खिलौने का लालच देना होगा।

आचार्य प्रशांत: ये तो बिलकुल पक्का है कि अभी हाथ में खिलौने हैं, उन्हीं से काम चल रहा है। एक आम इंसान होता है, उसकी ज़िंदगी और कुछ नहीं है, खिलौनों को लगातार बदलने की कहानी है। एक खिलौने से अगले खिलौने की और भागो। अगले से उसके अगले की ओर। जो ना मिले वो और महत्वपूर्ण खिलौना हो गया। और ज़ोर लगाओ, उपाय, जुगत लगाओ। तो ये जो इंसान है जो खिलौनों की ही भाषा जानता है, इसको यही कहना पड़ेगा कि 'तुझे इससे बेहतर कोई खिलौना मिल जाएगा।' उसे और कुछ पता नहीं है।

तो, उससे कहना तो यही पड़ेगा कि 'तुझे छोटे खिलौने से कहीं ज़्यादा आकर्षक कोई और खिलौना मिल जाएगा।' आप उससे कोई और बात करोगे, वो राज़ी नहीं हो पाएगा। तो, ये जो घटना घटती है, जिसको हम खिलौनों का प्रतीक ले कर देख रहे हैं, इसमें दो छोर हैं। एक वो मन जो अभी घटना के प्रारम्भ में है। उस मन को बिलकुल यही कहना पड़ेगा कि 'छोटा खिलौना छोड़, बड़े की तलाश में जा।' लेकिन इस घटना के दूसरे छोर पर वो मन है, जो घटना के प्रारम्भ में नहीं, अंत में है। वो, वो मन नहीं है जिसे बड़ा खिलौना मिल गया है, बात पर ध्यान देना। घटना के प्रारम्भ में तुमसे कहना यही पड़ेगा कि, 'छोटा खिलौना छोड़ो। मैं तुम्हें…'

प्र: 'बड़ा खिलौना दूँगा।'

आचार्य: लेकिन कोई ये ना समझे कि घटना के अंत में कोई बड़ा खिलौना तुम्हें मिल गया होगा। जब घटना का अंत होता है, तो तुम्हें बड़ा खिलौना नहीं मिला होता है। तुम्हें तुम्हारा स्वरूप मिला होता है, और ये ज्ञान मिला होता है कि मैं वो हूँ जिसे किसी खिलौने की ज़रूरत नहीं।

अंतर समझना – ये नहीं हुआ है कि तुम, तुम रहे हो, और तुम्हें एक बड़ा खिलौना मिल गया है। फिर तो ये लालच की बात है। फिर तो ये लालच की बात है कि छोटे से, बड़े खिलौने की ओर चले गए और तुम क़ायम रहे। तुम ही तो हो न जिसे छोटा अच्छा लगता था, और बड़ा छोटे से ज़्यादा अच्छा लगता था। ये तो तुम्हीं हो न? नहीं, ये नहीं घटा है।

वो मन जो खिलौने चाहता था, उस मन को कुछ पता चल गया है, अपने बारे में। क्या पता चल गया है? कि 'मुझे खिलौनों की ज़रूरत नहीं।' ये दो बाते हुईं, वो दो बातें, अलग-अलग सिरों की बातें हैं। घटना के शुरू में निःसंदेह यही कहना पड़ेगा कि 'बड़ा खिलौना है, और तुम्हें मिलेगा।' लेकिन घटना का जब अंत होता है, तो तुम ये नहीं पाते कि तुम्हारे हाथ में कोई बड़ा खिलौना है। क्योंकि अगर तुम्हारे हाथ में बड़ा खिलौना है, तो तुम वही रहे, और तुम्हारे हाथ वही रहे जो छोटा खिलौना पकड़ते थे। फिर तो कुछ घटा ही नहीं! कोई घटना घटी ही नहीं। जब घटना घटती है, तो खिलौना नहीं बदलता, तुम और तुम्हारे हाथ बदल जाते हैं। वो मन बदल जाता है जिसे खिलौने की ख्वाहिश थी। तुम्हें खिलौना नहीं मिलता, तुम्हें तुम मिल जाते हो। तुम्हें अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, आत्मबोध।

तो कह सकते हो कि इसमें एक तरह की धोखाधड़ी है, कहा जा सकता है। क्यों? क्योंकि तुमसे कहा तो गया था कि?

प्र: 'बड़ा खिलौना मिलेगा।'

आचार्य: 'बड़ा खिलौना मिलेगा।' बड़ा मिला तो नहीं। बड़ा तो नहीं मिला, छोटा भी गया। और छोटा ही नहीं गया, धोखे की इंतहा ये हो गयी, कि तुम भी गए। अभी कम-से-कम इतना तो था, कि तुम थे, और छोटा खिलौना था, और भविष्य में बड़े-बड़े खिलौनों की उम्मीद थी और सपने थे। सपने गए, छोटा खिलौना गया, और इंतहा ये हुई कि तुम भी गए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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