रिश्तों में हिंसा

Acharya Prashant

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रिश्तों में हिंसा
शुरुआत इसकी होती है — उस शिक्षा व्यवस्था से, उस परवरिश से, जिसमें हमें संबंध का मतलब ही नहीं बताया जाता। बस यह बता दिया जाता है कि जल्दी से जवान होते ही लड़की की शादी कर देनी है। आप दो लोगों को एक तरह से मजबूर कर रहे हो कि एक साथ रहो, जबकि वे एक-दूसरे को जानते-समझते नहीं। दिलों को मिलने दो। दो लोग यदि अपनी मर्ज़ी से, अपने अनुभव के आधार पर ज़िन्दगी को देख-समझ कर संबंध बनाएँगे, तो कुछ अलग बात होगी। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। अभी हम प्रेम और मोहब्बत की बातें कर रहे हैं, इस पर ही एक थोड़ा-सा मनहूस प्रश्न है। हाल ही में एक हादसा हुआ है, जिसको लेकर ये प्रश्न है। मेघालय में एक हत्याकांड — जिसमें एक नवविवाहिता ने अपने किसी प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति को मार दिया। वो भी एक हनीमून ट्रिप था, वो लोग वहाँ के नहीं हैं।

उससे कुछ ही दिन पहले मेरठ में भी एक हादसा हुआ, जिसमें एक पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति को मार दिया और किसी ड्रम में बंद कर दिया। उससे पहले पाकिस्तान से भी एक ख़बर थी कि सोशल मीडिया इन्फ़्लुएंसर कोई थी, जिनको इस बात पर मार दिया गया कि वो शादी नहीं करना चाहती। तो ये कौन-सा, ये किस प्रकार का प्रेम है? ये किस प्रकार के रिश्ते हैं जो बनते या आधार जिसका प्रेम बताया जाता है — पर इसके अंतर्गत हत्याएँ हो रही हैं?

आचार्य प्रशांत: देखिए, सबसे पहले तो इसमें डिस्क्लेमर लगाना ज़रूरी है, कि ये जिस मामले की आप बात कर रही हैं — इंदौर, मेघालय वाला, उसमें अभी जाँच जारी है और मामला आगे जाएगा, और न्यायालय के विचाराधीन होगा। तो उसमें निष्कर्ष क्या निकलता है, वो थोड़ा आगे की बात है।

लेकिन हाँ, ये भी सही है कि अभी कुछ बातें सामने आ रही हैं, मीडिया हमें कुछ बता रही है — और एक हत्या तो हुई ही। तो दो-तीन मामलों की बात करी, दो-तीन नहीं हैं बहुत सारे हैं। लगातार होता रहता है, हमें पता भी बस वही चलते हैं जो मीडिया में आ जाते हैं। ये जो मेघालय वाला किस्सा है — इसमें जो लोग शामिल हैं, उनकी उम्र कितनी है?

प्रश्नकर्ता: बहुत यंग हैं।

आचार्य प्रशांत: बहुत ज़्यादा यंग हैं। आप लोग जो यहाँ बैठे हो — इस पूरे मामले में, इस हत्याकांड में जो लोग शामिल हैं, वो ज़्यादातर लोग आप सबसे ही कम उम्र के हैं। जो हत्या के आरोपी हैं, उनमें से एक तो शायद 19 साल का है। है न? जो प्रमुख षड्यंत्रकर्ता है उस महिला के साथ में, वो शायद 21 साल का है। तो इसी उम्र के ये सब लोग हैं। और जो इसमें महिला भी है, वो भी मेरे ख़याल से 21–22 साल की ही है या 23 साल की है — ऐसा ही कुछ है। इन्हें कितनी समझ हो सकती है कि ये वैवाहिक जीवन में उतर गए? इन्हें कितनी समझ हो सकती है? महिला उतर चुकी थी, जो तथाकथित प्रेमी है वो उतरना चाह रहा है, उसके अरमान पूरे नहीं हो पाए। और ये सब कुछ चल रहा है — 19, 20, 21, 22, 24 की उम्र में। आपको समझ कितनी होती है?

एक ओर तो बहुत ही एक खूनी वारदात है। बर्बर हत्याकांड है, किसी की जान चली गई है — एक जवान व्यक्ति की जान चली गई है। इस पर जितना अफ़सोस किया जाए और जितनी निंदा की जाए, उतनी कम है। पर फिर ये भी पूछना पड़ेगा कि बात वास्तव में है क्या? और हम ऐसा क्या कर सकते हैं कि इस तरह की दुखद घटनाएँ आगे ना घटें?

जो लोग इसमें शामिल हैं, वो कोई पेशेवर अपराधी नहीं हैं। जो लड़की है, जितना हमें मीडिया से थोड़ा-बहुत पता चल रहा है — वो कहीं पर एचआर की नौकरी करती थी, एचआर डिपार्टमेंट में। वो जो लड़का भी है, वो भी वहीं पर कोई नौकरी करता था। जो बाक़ी सब भी हैं, वो भी ऐसा नहीं है कि वो कोई पेशेवर क़ातिल थे। तो ये कैसे हो गया? साधारण लोगों को हत्यारा किसने बना दिया?

एक साधारण लड़की है, और उसके घरवालों को तो अभी तक यक़ीन भी नहीं हो रहा है। उसके पिता का वक्तव्य आ रहा है बार-बार — “मेरी बेटी ऐसा कर ही नहीं सकती।” उसके मोहल्ले वालों का वक्तव्य आ रहा है — “ये तो हमारे पूरे मोहल्ले की बड़ी लाडली थी, और बड़ी एक सीधी-सादी लड़की जैसे सब साधारण भारतीय लड़कियाँ होती हैं। ये ऐसा कुछ कर ही नहीं सकती।” तो ऐसा कैसे हो जाता है? शुरुआत कहाँ से होती है? क्योंकि एक की जान चली गई, और कईयों की ज़िंदगी बर्बाद हो गई। नुक़सान तो सभी का हो गया है न? और जितने व्यक्ति थे, उनके साथ उनके परिवार भी जुड़े हुए हैं। वो सब परिवार भी एक तरह से तबाह हुए, तो ये हो कैसे गया?

शुरुआत इसकी होती है — उस शिक्षा व्यवस्था से, उस परवरिश से, जिसमें हमें संबंध का मतलब ही नहीं बताया जाता। बस ये बता दिया जाता है कि जल्दी से जवान होते ही लड़की की शादी कर देनी है — बस शादी हो जानी है उसकी।

और हम कहते हैं कि शादी होगी तो पति-पत्नी में प्रेम तो होता ही है। ऐसे कैसे प्रेम हो जाएगा? ये कभी समझाया नहीं जाता।

और हम कह देते हैं — शादी का एक बड़ा पवित्र रिश्ता होता है। पवित्रता माने क्या होता है? और ऐसे दो लोगों को तुमने एक साथ रख दिया कि अब एक घर में रहो, एक कमरे में रहो, जाकर हनीमून मनाओ — तो उनके रिश्ते में पवित्रता कैसे आ गई? ये भी कभी समझाया नहीं जाता। 20-22 साल में आपको कितनी अक़्ल होती है? आप ये बता दीजिए। पहले तो आपकी उम्र कम है। दूसरे, आपकी शिक्षा में और आपकी परवरिश में समझदारी का कोई तत्त्व कभी रहा नहीं है।

और आपको कह दिया है कि जाओ और ये कर लो। दो लोग यदि अपनी मर्ज़ी से, अपने अनुभव के आधार पर ज़िंदगी को देख-समझ करके संबंध बनाएँ, तो कुछ अलग बात होगी कि नहीं होगी? बोलो, होगी कि नहीं होगी? हमको तब दिखाई दे जाता है जब कोई वारदात हो जाती है और किसी व्यक्ति की जान ही चली जाती है, और बहुत भयानक कोई हादसा हो जाता है, तब हम उसका संज्ञान ले लेते हैं। पर इस तरीक़े के जो रिश्ते बना दिए जाते हैं, वो रिश्ते कितने जोड़ों को चुपचाप तबाह कर रहे हैं। कितने घरों में उन्होंने दुख का, तनाव का, अवसाद का माहौल पैदा कर रखा है — ये हमें कभी पता नहीं चलता, क्योंकि ज़रूरी नहीं है कि हर घर से चीख की आवाज़ सुनाई दे।

दो परिवार हैं — वो कैसे साथ आ रहे हैं? मीडिया से हमें जो पता चल रहा है, वो ये है कि उनके समुदाय में कोई परंपरा चलती थी कि चिट पर नाम लिखा जाएगा और चिटें मिलाई जाएँगी, और उनके आधार पर रिश्ता तय हुआ था। इस आधार पर जब रिश्ते तय होंगे तो रिश्तों में प्रेम होगा, पवित्रता होगी या हिंसा होगी? बस ये बता दो। क्या शुरुआत में ही हिंसा नहीं निहित है? क्या शुरुआत में ही हिंसा नहीं हो गई? बोलो।

आप दो लोगों को एक तरह से मजबूर कर रहे हो कि एक साथ रहो, जबकि उनमें वास्तव में किसी तरह का कोई मेल-मिलाप है नहीं। वो एक-दूसरे को जानते-समझते नहीं। पर आपने कह दिया — नहीं, हम तो मानते हैं कि आयोजित विवाह दो व्यक्तियों का नहीं, दो परिवारों का मिलन होता है। तो दो परिवारों की अब मर्ज़ी है, तो जाओ तुम दोनों इकट्ठे रहो। तो फिर वो जो दो परिवार हैं — वो संकट की घड़ी से इन दो व्यक्तियों को निकाल भी लिया करें न! तब तो ये दोनों परिवार बिल्कुल अलग खड़े हो जाते हैं, छिटक करके।

ज़िंदगी इन दो व्यक्तियों को देखनी है, पर ये दो परिवार हैं — ख़ासकर जो लड़की का परिवार होता है उसे बड़ी जल्दी होती है, कि "पराया धन" है — इसको जल्दी से जल्दी विदा करो।

और ऐसे-ऐसे ज्ञानी घूम रहे हैं समाज में, जो आकर के कोई श्लोक बता देंगे — जिस श्लोक में ये होगा कि जिस दिन से लड़कियों का मासिक चक्र शुरू हो जाता है —पीरियड्स, उस दिन से हर महीने पिता एक हत्या का दोषी बनता है अगर उसने लड़की का ब्याह नहीं कर रखा तो। माने बिना ब्याही लड़की अगर तुमने एक साल अपने घर में रख ली, तो 12 हत्याओं के दोषी बन गए तुम, बाप जी। और कहा जाता है — ये हमारे ग्रंथों में लिखा है, ये हमारे श्लोकों में है, ये हमारे संस्कारों में है।

तो लोग बाहर से भले ही न मानें और कह दें कि नहीं, अब हम ये सब पुरानी बातें नहीं मानते, पर कुछ दबाव तो पड़ता ही है। और जितने ये होते हैं — चाचा, ताऊ, फूफा, फूफी, बुआ, ये सब लग कर के कि, "अरे! लड़की जवान हो गई है, लड़की जवान हो गई है, जल्दी ब्याह दो।" कॉलेज जाना आप शुरू कर देते हो 17-18 की उम्र में, और लड़की कॉलेज गई नहीं कि छोटे शहरों में अभी भी यही है, कस्बों में, गाँवों में — कि इसको अब ब्याह दो। देखो कॉलेज जा रही है, तो ब्याह करने की उम्र तो आ ही गई है।

अब तो अपराध हुआ है। जिन्होंने अपराध करा है, उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। लेकिन एक जागरूक समाज होने के नाते, क्या ये हमारा कर्तव्य नहीं है कि पूछें कि साधारण लोगों को अपराधी बना किसने दिया? वो जितने भी लोग थे, उनकी तो ज़िंदगी बर्बाद हो ही गई। एक बेचारा जान से चला गया, और बाक़ी सब या तो अब फाँसी झूलेंगे या आजीवन क़ैद में पड़े रहेंगे। और उनके परिवार का, माँ-बाप का जो बुरा हाल होगा, वो परिवार झेलेंगे। तो वो तो सब हो ही गया। लेकिन हमें ये भी तो पूछना पड़ेगा ना कि साधारण लोगों को अपराधी और हत्यारा बना कौन रहा है? कौन बना रहा है?

क्योंकि ये, फिर कह रहा हूँ, ये कोई हिस्ट्री-शीटर हैं ये लोग? वो लड़की क्या बचपन से इधर-उधर चोरी-चकारी करती घूमती थी? लोगों को डंडा मारती थी? पाँच-सात मुक़दमे उस पर पहले से दर्ज़ थे? ऐसा कुछ था क्या? मैं पक्ष नहीं ले रहा हूँ उसका।

किसी भी हालत में आप किसी व्यक्ति पर आघात करो, वो भी प्राणघातक आघात — तो आपको उसकी पूरी सज़ा मिलेगी, मिलनी चाहिए।

पर कुछ सवाल हमें ख़ुद से भी पूछने ज़रूरी हैं, अगर नहीं पूछेंगे तो इस तरह की घटनाएँ आगे भी घटती रहेंगी। आ रही है बात समझ में? अब पहले से प्रेम-प्रसंग है। जहाँ तक मुझे पता है या मैं जितना अनुमान लगा सकता हूँ — मामला शायद जाति पर आकर अटक रहा होगा, और आर्थिक स्थिति पर आकर अटक रहा होगा। वो जो भी लड़का था, 20–21 साल, 22 साल का, वो कमाता नहीं होगा ठीक से और जाति का मेल नहीं बैठ रहा होगा। तो इसीलिए हुआ कि इनसे ब्याह तो हो नहीं सकता, ब्याह कहीं और होगा।

शादी कोई छोटी बात होती है? आप एक लड़की हो, आपको अपना घर छोड़ के जाना है किसी और के घर में — ये कोई छोटी बात होती है? दूसरे के घर की गंध दूसरी है, खाना-पीना दूसरा है, लोग दूसरे हैं, चेहरे दूसरे हैं, व्यवहार दूसरे हैं, रिश्ते दूसरे हैं, सब अलग है। और आपसे कहा गया, आप जाओ, उसके घर जाओ। और वहाँ जाकर भी आप एक ख़ास किरदार निभाओगे। वो क्या है? कि अब आप यहाँ पत्नी बनो, बहू बनो। और सिर्फ़ घर नहीं बदलेगा, आपकी ज़िंदगी में और भी कुछ बदल जाना है — शारीरिक संबंध अब शुरू हो जाएगा।

और लड़कियों के लिए शारीरिक संबंध का दूसरा और थोड़ा ज़्यादा व्यक्तिगत, ज़्यादा गहरा अर्थ होता है क्योंकि उनके लिए शारीरिक संबंध से आगे गर्भ आ जाना है, जो कि लड़कों को नहीं होना है। वो बड़ी फिर अंदरूनी और निजी बात हो जाती है। और ये ज़्यादातर जो समुदाय होते हैं जहाँ आयोजित विवाह की बड़ी जल्दी होती है। यही वो जगह होती हैं जहाँ पर लड़की को ज़्यादा लड़कों से शादी के पहले तक मिलने-जुलने नहीं दिया जाता। नहीं मिलने-जुलने दिया जाता ना? यही है ना? ऐसा ही है ना? शादी से पहले इधर-उधर किसी से मिलना नहीं, किसी पराए मर्द की तुम पर छाया नहीं पड़नी चाहिए।

और फिर शादी होती है और एक पराया मर्द आता है, जिसको वो जानती नहीं, पहचानती नहीं। अधिक से अधिक एक बार देखा है या दो बार फ़ोन पर बात करी, और कहा जाता है — अब चली जाओ इसके साथ। और अब तुम्हें इसके साथ शारीरिक संबंध बनाना है। हमें पूछना पड़ेगा ख़ुद से कि किसी लड़की के मन में फिर विद्रोह की आग उठेगी कि नहीं उठेगी? उठेगी कि नहीं उठेगी? और भारत हमारा देश है, यहाँ की सब लड़कियाँ भी यहाँ की बराबर की नागरिक हैं। तो देशवासियों के नाते ही सही, पर उनके लिए कुछ सोचना पड़ेगा कि नहीं?

आप कह देते हो — अब चले जाओ। अब तो शादी हो गई है, तो प्रेम तो हो ही जाएगा। जब प्रेम हो गया, तो संभोग हो ही जाएगा। और ये सब कुछ बिल्कुल जल्दी-जल्दी होना है, दिन गिन-गिन करके होना है। कई बार तो ब्याह के नौवें महीने में ही बच्चा जन्म जाता है। बड़ा महत्त्व है हमारे यहाँ पर सुहागरात का, और किसको तुम धक्का दे रहे हो सुहागरात के लिए?

एक बार अपने आप से पूछो तो सही — वो, जिसको तुमने कहा था कि तेरे ऊपर किसी लड़के की, मर्द की छाया नहीं पड़नी चाहिए। उसको तुमने कह दिया — अब उस कमरे में चली जा। समझ में आ रही है बात? उसके बाद, चलो हम सब इंसान हैं, मिट्टी के लोग हैं। गलतियाँ सबसे होती हैं — होती हैं ना? आप बहुत सोच-समझकर, समझदारी से भी कोई रिश्ता बनाओ, तो हो सकता है कि उसमें कोई खोट रह गई हो। बिल्कुल हो सकता है, क्योंकि इंसान है भाई — गलतियाँ हो जाती हैं। जब गलती हो जाए, तो फिर भूल-सुधार के लिए हमारे पास कोई व्यवस्था है क्या? कोई है व्यवस्था?

गलत शादी हो गई, और कई बार पहले महीने में ही पता चल जाता है कि गलत शादी हो गई। क्योंकि बड़ा अंतरंग संबंध होता है पति-पत्नी का। कई तलों पर उनमें आपस में मेल होना चाहिए — कम्पैटिबिलिटी होनी चाहिए। जिसमें शारीरिक भी शामिल है, भावनात्मक भी शामिल है, मानसिक, वैचारिक — बहुत कुछ शामिल है। इतने तलों पर अगर उनमें सामंजस्य है, मेल है, तब तो आप कह सकते हो कि ये दोनों जने अब ज़िंदगी एक कमरे में बिता सकते हैं। नहीं तो कैसे एक कमरे में रह लोगे दो लोग?

और पता चलता है शादी के बाद कि किसी तल पर गड़बड़ हो रही है। हाँ, तो पहला प्रयास तो यही होना चाहिए कि किसी तरह से सुलह हो जाए, किसी तरह से मेल हो जाए, किसी तरह से उनमें सामंजस्य बैठाया जा सके, कि ठीक हो जाए। पर ऐसा मेल बैठाने के लिए हमारे पास कोई व्यवस्था है क्या? लड़की किसको जाकर बताए? किसको जाकर बताए? लड़का भी किसको जाकर बताए? बताओ तो। ये सब तो गंदी बातें हैं — जिनकी चर्चा की नहीं जानी चाहिए, ख़ासकर लड़की तो बिल्कुल नहीं कर सकती। और अपने घर वालों से कैसे करेगी? अपना घर तो छोड़कर आ गई है। फ़ोन पर कितना बताएगी माँ को? क्या बताएगी? बहुत निजी बातें होती हैं — क्या-क्या खोलेगी राज?

उसको तो धकेल दिया है कि जा — पराए घर में। अब वो क्या-क्या राज बताए घर को कि अब यहाँ क्या-क्या... और सब कुछ अत्याचार के ही दायरे में नहीं आता है। मेल भी एक दूसरी चीज़ होती है। बात ये नहीं है कि पति अत्याचार कर रहा होगा या पत्नी अत्याचार कर रही हो। अत्याचार की बात नहीं होती है, एक हॉस्टल में भी जाकर के दो लोग रहते हैं। वहाँ पर आपको एक कमरे होते हैं, शेयरिंग रूम्स होते हैं। वहाँ पर आपसे पूछे बिना आपको रूममेट अलॉट हो जाता है। हो जाता है? आप लोग रहे हो इस तरह से। पूछा नहीं जाता रूममेट अलॉट हो गया, अब ऐसा नहीं है कि आपका रूममेट कोई दुष्ट व्यक्ति है लेकिन फिर भी कई बार पहले हफ़्ते में या महीने में ही पता चल जाता है कि ये जोड़ी जमेगी नहीं। तो फिर आप दोनों परस्पर बातचीत करके वार्डन के पास चले जाते हो और एक दरख़ास्त दे देते हो कि "साहब, हमारे कमरे बदल दो।" तो एक व्यवस्था वहाँ पर है कि अगर जोड़ी नहीं जमी तो क्या करना है?

हमारे पास कोई काउंसलिंग मैकेनिज़्म है? समझाने की कोई व्यवस्था है? सुलह की कोई व्यवस्था है? और सुलह अगर हो ही नहीं सकती, तो फिर किस तरह से ये दोनों व्यक्ति अलग हो जाएँ — इसकी कोई व्यवस्था है? तो आपने तो कह दिया है कि जन्म भर का साथ है, बल्कि सात जन्म का साथ है। तुम्हें साथ रहना ही है, तो अब अलग होने का फिर एक ही तरीक़ा बचता है। जब अलग होने का आपने कोई सभ्य तरीक़ा बना ही नहीं रखा, तो अलग होने का किसी विक्षिप्त क्षण में किसी व्यक्ति को हो सकता है कि एक ही तरीक़ा दिखाई दे, कि हत्या कर दो। क्योंकि इसके अलावा तो अलग हमें होने दिया ही नहीं जाएगा। ये सबसे घटिया तरीक़ा है अलग होने का, ये कोई तरीक़ा ही नहीं है।

पर प्रश्न ये भी उठता है ना कि हमने एक समाज के तौर पर क्या बेहतर तरीक़े एक जोड़े को सौंप रखे हैं? उपलब्ध करा भी रखे हैं क्या? वो क्या करें? किससे बात करें? और ये बहुत संवेदनशील काल है। दो लोगों को आपने एक साथ कर दिया है, और ये दोनों लोग परस्पर अजनबी हैं। ये बहुत-बहुत संवेदनशील काल है।

चिड़ियाघर वग़ैरह में भी या जो अभयारण्य होते हैं — जो वाइल्ड लाइफ़ सेंचुरीज़ वग़ैरह होती हैं — वहाँ भी जब ऐसा होता है कि नर बाघ और मादा बाघ, अब इनको एक साथ किया जा रहा है, तो वहाँ जो सब वन विभाग के अफ़सर, कर्मचारी होते हैं, वो बहुत सतर्क रहते हैं शुरू के कुछ दिनों तक। वो कहते हैं, "ये यहाँ अकेली रहती थी। अब बाघों की — टाइगर्स की — आबादी बढ़ाने के लिए हम एक नर बाघ ले आए इसके पिंजरे में या इसके क्षेत्र में। पता नहीं इनमें दोनों में आपस में क्या केमिस्ट्री होगी। कुछ भी गड़बड़ हो सकती है।" और गड़बड़ बहुत होती भी है। इनमें परस्पर हिंसा भी हो जाती है, प्रकृति में होती है ये हिंसा। तो बहुत सतर्क रहते हैं। कहते हैं — शुरू के कुछ हफ़्ते या कुछ महीने बहुत संवेदनशील हैं, सतर्क रहो, देखते रहो। और जहाँ दिखाई दे कि कुछ गड़बड़ हो रही है, कुछ दिनों के लिए इनको अलग करो। फिर उसके तरीक़े होते हैं, व्यवस्था होती है, उपाय होते हैं कि कैसे क्या करना है।

एक समाज के तौर पर हमारे पास कोई तौर-तरीक़ा, व्यवस्था, उपाय है? हमने कभी सोचा है? या बस हमारा इतना काम है कि लड़के-लड़की को पकड़ करके धकेल दो कि अब तुम जाओ, तुम्हारा जोड़ा बन गया। अब तुम गृहस्थी चलाओ। आप एक कंपनी भी जॉइन करते हो — जो कि बहुत छोटी बात है, क्योंकि लोग कंपनियाँ बदलते रहते हैं। आप एक कंपनी जॉइन करते हो, आप एक कॉलेज जॉइन करते हो। तो जो लोग नए वहाँ पर आते हैं, उनके लिए वहाँ पर काउंसलिंग एंड कंसल्टेशन सेल्स होती हैं। क्योंकि पता होता है कि कोई नया अगर आया है, चाहे वो स्टूडेंट हो कि एम्प्लॉयी हो, उसको यहाँ पर जमने में समस्याएँ आ सकती हैं। क्योंकि हमारे यहाँ की संस्कृति अलग है। हर कंपनी की, हर कॉलेज की संस्कृति, कल्चर, माहौल अलग-अलग होता है।

तो लड़के-लोग, लड़कियाँ — सब अलग-अलग जगहों से, अलग शहरों से, दूसरी कंपनियों से आ रहे हैं पढ़ने के लिए, काम करने के लिए। बिल्कुल हो सकता है कि वो यहाँ तालमेल न बैठा पाएँ। तो उसके लिए वहाँ बाक़ायदा सेल्स होती हैं, जो सक्रिय रूप से अपना काम कर रही होती हैं कि देखते रहो कि कोई खटपट हो रही है क्या? अगर कोई खटपट हो रही है तो पहले ही सूंघ लो, और हस्तक्षेप करके मामला ठीक करने की कोशिश करो। सुलह कराने की कोशिश करो।

हमने कोई ऐसी व्यवस्था बनाई है क्या? बात समझ में आ रही है? मैं फिर कह रहा हूँ — जिन्होंने ये करा है, वो तो अब भुगतेंगे। वो तो अपने जन्म से ही गए, उन्होंने तो अपनी ज़िंदगी ही बर्बाद कर ली। लेकिन और ज़िन्दगियाँ न बर्बाद हों — इसके लिए हमें ईमानदारी से कुछ बातों पर विचार करना पड़ेगा, आइना देखना पड़ेगा। ख़ासकर जिन घरों में जवान लड़कियाँ हैं और माँ-बाप बहुत आतुर हुए जा रहे हैं कि जल्दी से इसको अब धकेल दो, इसका ब्याह करके — उनको थोड़ा सतर्क हो जाना चाहिए। और लड़कों के घरवालों को भी सतर्क हो जाना चाहिए, कुछ भी हो सकता है।

असली समाज वो होता है जो अपराधियों को भी अपराध से वापस खींच लाए। कि छंटे हुए अपराधी थे — पुराने, मंजे हुए ये हत्यारे, हिस्ट्री शीटर वग़ैरह थे — उनको भी अपराध की दुनिया से वापस खींच लाए। ये होता है एक असली, स्वस्थ समाज। और एक रोगी समाज की पहचान ये होती है कि वो साधारण लोगों को भी अपराधी बना देता है।

साधारण लड़की, साधारण लड़का — वो अब ज़िंदगी भर के लिए हत्यारे बन गए और अब उनको जो सज़ा मिलनी चाहिए, वो मिलेगी। आप कुंडलियाँ मिला रहे हो, कुंडलियाँ तो ये जितने मामले आप गिना रही हैं, इनमें भी तो मिलाई गई होंगी कुंडलियाँ। कुंडली मत मिलाओ भाई, दिलों को मिलने दो। और जैसे ही मैं बोलता हूँ "दिलों को मिलने दो," हमारे लोकधर्मी समाज की बुनियाद काँपने लग जाती है — कि "अरे! अरे! अरे! इसने कैसी बात कर दी! ये कोई आचार्य है? ये दुराचार्य है! देखो, ये कैसी गंदी बातें कर रहा है कि दिलों को मिलने दो!"

अच्छा — तुम जिस्मों को मिला देते हो बिना दिलों को मिलाए, तुम अश्लील नहीं हो? और जहाँ तुम शरीरों को मिलाने का आयोजन कर रहे हो बिना ये देखे कि हृदय मिले हैं कि नहीं — बताओ, वो धर्म है कि अधर्म है? ना बंधो, ना बाँधो।

खरा आदमी वो है, असली सच्चा इंसान वो है — जो ना ख़ुद बर्दाश्त करता है कि कोई उसे दबाए, बाँधे रखे और ना ही वो किसी भी कीमत पर दूसरे की ज़िंदगी को बंधन में डालना चाहता है।

आ रही है बात समझ में? स्कूलों, कॉलेजों में सही शिक्षा होनी चाहिए, घरों में सही परवरिश होनी चाहिए। प्रेम वास्तव में है क्या — ये सिखाना ही असली संस्कार है। हम अपने बच्चों को ना तो दूसरे वर्गों से, ना दूसरे वर्णों से, ना पर्यावरण से प्रेम सिखाते हैं, तो उनमें दूसरे व्यक्तियों से ही प्रेम कहाँ से आ जाएगा? बोलो। ये सब जो 15 से 25 साल के लोग हैं — 15 से 25 साल में, पिछले भारत में तो नफ़रत ही नफ़रत का इन्होंने माहौल देखा है। और जिस इंसान के भीतर नफ़रत ही नफ़रत भर गई है, वो अपने निजी रिश्तों में भी अगर उसी नफ़रत का ज़हर उगलने लग जाए, तो ताज्जुब क्या? बोलो।

कोई गहरा आदमी, कोई सुलझा आदमी, कोई प्रेमपूर्ण व्यक्ति तो हत्या करेगा नहीं ना? कि करेगा? और जो आप लोग यहाँ पर जो पुरुष वर्ग बैठा है, बहुत सारे कुंवारे बैठे हैं, शादी के लिए लालायित — वो भी सावधान हो जाएँ। सिर्फ़ इसलिए कि लड़की का बाप, लड़की का हाथ तुम्हारे हाथ में देने को तैयार है, हाथ में ले मत लेना। और ना उतना ही परिचय काफ़ी होता है कि — हाँ-हाँ, अब छोरा-छोरी छत पर जाकर के 5 मिनट के लिए आपस में बात करेंगे, और उससे आगे पूछ रहे हो — "हैं जी, तो जी आपने जी बी.कॉम किया जी?" और भी बहुत कुछ होता है। समझ में आ रही है बात?

और दोष आधुनिकता को मत दे देना — कि ये तो अब नई हवा बह रही है, ये तो जो मॉडर्निटी की लहर है, इसके कारण लड़कियाँ बिगड़ गई हैं, और देखो — इसने ये क्या घोर पाप कर डाला? पति की हत्या कर दी! ठीक है, अब आपको दिखाई देता होगा कि पति की हत्या हो रही है। पत्नियों की हत्या तो हमेशा से होती रही है। इतने कानून बनाने पड़े पत्नियों की हत्या को रोकने के लिए, और बच्चियों की हत्या का तो कोई गणित ही नहीं है। भारत की आबादी से 5 करोड़ बच्चियाँ ग़ायब हैं। वो भी पारिवारिक हत्याकांड ही माना जाएगा कि नहीं?

पत्नी, पति को मार दे — या पति, पत्नी को मार दे — तो हम कहते हैं परिवार में हत्या हो गई। और गर्भ में लड़की थी या नवजात लड़की पैदा हुई, आपने उसको मार दिया — वो भी तो पारिवारिक हत्याकांड ही है। तो वो तो चलता ही रहा है भारत में। तो ऐसा कुछ नहीं है कि आज आधुनिकता की लहर की वजह से हत्याएँ होनी शुरू हो गईं। वो हो ही रही हैं लगातार। वो तब तक होती रहेंगी जब तक ये जो प्रेम शब्द है, हम इसको सम्मान देना नहीं सीख लेते।

दुनिया में कोई देश नहीं है जहाँ दहेज हत्याएँ हुई हों भारत के अलावा। इक्का-दुक्का कहीं कुछ हो गया होगा तो हो गया होगा। ये जो हज़ारों नहीं, लाखों दहेज हत्याएँ हैं — ये तो अद्भुत हिसाब भारत के ही मत्थे हैं। संबंधों का — आप बताओ ना मुझे और क्या आधार हो सकता है? प्रेम नहीं तो और क्या आधार होगा? और अगर कोई और आधार है, तो फिर हिंसा हो जाए, हत्या हो जाए। तो उसमें आश्चर्य क्या?

पति-पत्नी हैं — वो कह रहे हैं, "हमें तो लड़का ही चाहिए।" तीन लड़कियाँ पैदा होंगी, तीनों को मार देंगे। लड़कियों को मारा, वो तो दिख रहा है। पर ये बताओ, इन पति-पत्नी में आपस में भी प्रेम है क्या? प्रेम से तो जैसे हम सर्वथा अपरिचित हैं, और ये बात कितनी विडंबना की है क्योंकि भारत तो प्रेम का देश है। अध्यात्म में भी प्रेम मार्ग हमने ही निकाला। वो सब झूठा है भाई — प्रेम प्रेम सब कहें, प्रेम न चीन्है कोई।

“प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम न चीन्है कोई।”

संतों ने पहले ही सावधान कर दिया था कि तुम प्रेम प्रेम बोलते बहुत हो — धार्मिक लोगों, तुम प्रेम जानते नहीं हो। “जा मारग साहब मिले, प्रेम कहावे सोय।”

“जा मारग साहब मिले, प्रेम कहावे सोय।”

इतनी बातें बताई ज्ञानियों ने, संतों ने असली प्रेम के बारे में। हमने वो बातें सुनी कहाँ? हमने प्रेम को कर्तव्य बना लिया। "तुम्हें प्रेम करना चाहिए" ऐसे थोड़ी होता है। या तो प्रेम होता नहीं है, या फिर प्रेम के नाम पर कुछ और बहुत उल-जुलूल होता है। ये छोरा-छोरी एक-दूसरे को देखकर फिसल गए और कह रहे हैं "हमें प्रेम हो गया।" या तो प्रेम होगा ही नहीं, दिख रहा होगा साफ़-साफ़ कि दो लोग हैं साथ-साथ रहते हैं पर प्रेम जैसी कोई बात नहीं है। या फिर प्रेम होगा तो उसी तरीक़े का होगा — फिल्मी प्रेम।

वास्तविक प्रेम — बड़े दुख की बात है, भारत वंचित रह गया।

उसके बाद हमें फ़क़्र होता है कि भारत में तलाक कम होते हैं। और हमें ये नहीं समझ में आता कि हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत इतना नीचे क्यों है? हमारे यहाँ तो स्टेबल फैमिलीज़ हैं ना, तो ये परिवार खुश क्यों नहीं हैं? ये नहीं कि ग़रीब हैं इसलिए खुश नहीं हैं — जो मध्यम वर्गीय परिवार हैं, उच्च मध्यम वर्गीय परिवार हैं, वो भी खुश क्यों नहीं हैं? हमें नहीं समझ में आता। हमें नहीं समझ में आता कि दुनिया में सबसे ज़्यादा हृदय रोग भारत में क्यों पाए जाते हैं? भारत हार्ट अटैक कैपिटल ऑफ़ द वर्ल्ड क्यों है? कौन-सी चीज़ है जो भारतीयों के दिल पर बोझ की तरह बैठी हुई है? हमें नहीं समझ में आता।

तुम दो लोगों को एक प्रेमहीन रिश्ते में डाल दोगे — तो वो भी तनाव का, अवसाद का, हृदयाघात का कारण बनेगा कि नहीं बनेगा? आदमी, औरत दोनों ढो रहे हैं बस। वहाँ कोई हत्या नहीं हो रही, वहाँ खून के छींटे नहीं दिखाई दे रहे पर गड़बड़ तो वहाँ भी है। कितनी ये ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बात है। आप किसी के बाप हैं, आप किसी की माँ हैं और आप उनको एक रिश्ते में धकेले दे रहे हैं। कितनी ये हिंसा की बात है, आपको अपनी लड़की से कभी भी ज़रा भी प्यार था?

प्यार होता तो आप ऐसे उसे धकेल देते कि — "जा तू वहाँ चली जा ताकि हम अपनी ज़िम्मेदारी से ख़ुद को मुक्त कह सकें। हम कह सकें कि “अरे चलो, दो लड़कियाँ थीं, गंगा नहा आए — एक का तो हो गया।" ऐसे ही बोलते हैं बेटियों के बाप — "पहली को निपटा दिया, गंगा नहा लिए। दूसरी और निपट जाए तो बैतरणी पार हो जाए।" बिल्कुल इसी भाषा में बात होती है। ये प्यार की भाषा है सचमुच?

और दूसरी ओर लड़के हैं, उनके रोमांटिक ख़्वाब हैं। पर अपना ना व्यक्तित्व ऐसा है, ना दिल ऐसा है, ना ज़िंदगी ऐसी है कि किसी लड़की से स्वस्थ संबंध बना सकें। तो बेचारे माँ-बाप का मुँह देखना शुरू कर देते हैं, 22 साल के होते ही — “ब्याह करा दो।" फिर माँ-बाप कोई भी लड़की ले आते हैं। वो एकदम प्रफुल्लित हो जाते हैं कि — "आ गई अब इसको चलो” अपने दम पर तो हमें कोई मिलनी भी नहीं थी। मम्मी ले आई, दादी ले आई, चाची ले आई। चलो, मिल गई।

वो इंसान है, मिल नहीं गई। अभी तो तुम्हें उसका लाल साड़ी वाला रूप दिखाई दे रहा है और घूँघट कर रखा है। अभी कमरे में आएगी, दरवाज़ा बंद होगा और तुम्हें दिखाई देगा कि संस्कारी आवरण के पीछे एक दहकता हुआ इंसान है, जिसके पास उसके अपने अरमान हैं, अपना क्रोध है, अपनी हिंसा है, अपने मत हैं। और अब तुम्हें कहा गया है कि, तुम्हें उसके साथ उम्र भर निभाना है। कैसे निभा लोगे?

तुमने तो एक रोमांटिक स्वप्न सजा रखा था कि आएगी ड्रीम गर्ल आएगी। वो ड्रीम गर्ल तो देखो अब ड्रीम गर्ल को झेलो। फिर इधर-उधर मिमियाते घूमते हो। दोस्त पूछते हैं क्या हुआ? क्या हुआ? भाभी कैसी है? कह रहे हैं, “मत पूछो, अरमानों में आग लग गई।” वो तुम्हारे अरमान पूरा करने के लिए पैदा हुई है? जैसे तुम मूर्ख वैसे ही वो मूर्ख। कुछ तुम्हारे अरमान, कुछ उसके अरमान और दोनों के अरमान भिड़ जाते हैं। कोई लड़का नहीं है, जो चेहरा और शरीर देखकर शादी का फैसला ना करता हो।

5-10% महत्त्व आप और चीज़ों को भी दे लेते होंगे, कि शिक्षा कैसी है, इत्यादि-इत्यादि। आमतौर पर 5-10% महत्त्व भी आप इस बात को दे लेते हो, कि जाति तो ठीक है ना? नहीं तो 80-90% वज़न लड़के बस इसी बात को देते हैं कि सुंदर और सेक्सी है कि नहीं है। बाक़ी 20% में दहेज आ जाता है, जाति आ जाती है, एजुकेशन आ जाती है, और दो-चार और कुछ आ जाता होगा। पर 80% तो यही रहता है। जो नॉन-नेगोशिएबल कंडीशन होती है, वो तो यही होती है — लड़की सुंदर है। "लगदी लाहौर दी" — वो गाना शुरू ही ऐसे होता है, "तेरे लिए लड़की देखी है, बड़ी अच्छी लग रही है।" वो कुछ और नहीं बता रही माँ उसको, बस ये बोल रही है — “बड़ी सोनी दिखती है।” तुम कर लो ब्याह सोनी देख करके, तुम्हें पता चलेगा आगे अभी!

ये जो पूरी उत्कंठा है ना हीरो बन के — "ऐसे-ऐसे (अपने बालों को संवारते हुए) वाह! मिल गई सोनी," अभी देखना वो। और ये सब कुछ क्यों होता है? क्योंकि तुम डेस्परेट हो। क्योंकि सामाजिक वर्जनाओं के चलते तुम्हारे दिमाग़ में हर समय सेक्स ही सेक्स उबलता रहता है। तो इस कारण तुम किसी लड़की से कभी साधारण दोस्ती कर ही नहीं पाए, उसे इंसान की तरह कभी देख ही नहीं पाए। 20 साल, 25 साल के हो गए हैं, लड़की इनके लिए अभी भी दूसरी प्रजाति की चीज़ होती है।

दिख जाती है, दूर से ऐसे करते हैं — "ओ देख-देख-देख! दिख गई, दिख गई, दिख गई!" सचमुच ऐसा करते हैं, ख़ासकर छोटे शहरों में अभी भी यही हाल है। पाँच-सात खड़े हो जाएँगे, आती-जाती को ऐसे ही — "वो दिखी, वो दिखी।” क्या दिख गया है? गोरिल्ला दिख गया है? क्या दिख गया है? तुम्हारी ही प्रजाति का मनुष्य है। तथ्यों से इतने दूर हो जाते हो फिर कि बस कल्पनाएँ बचती हैं। उन कल्पनाओं को पूरा करने के लिए जल्दी से कहते हो कि "माँ, तुझे दिखता नहीं कि शायद मैं जवान हो गया हूँ?"

वो कद में छोटी हो सकती है, समाज में उसका स्थान छोटा हो सकता है, ऐसा ही समाज है हमारा। लेकिन भीतर से वो तुम्हारे बराबर की इंसान है। और जब वो तुम्हारी ज़िंदगी में आएगी, और अगर सही मेल नहीं बैठा है, तो तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद कर देगी — ठीक वैसे जैसे उसकी ज़िंदगी बर्बाद हो रही है। हार्ट अटैक ज़्यादा पुरुषों को ही होता है। बेटा, भारत में पुरुषों की औसत आयु 71 साल है और महिलाओं की 75 साल है। 4 साल पूरा ज़्यादा जिएँगी मौज में। रोमांटिक स्वप्न सलोने ज़्यादा तुम्हारे ही थे — और तुम ही को हार्ट अटैक पहले होगा।

मुझे नहीं मालूम ऐसा है कि नहीं, मैंने अपने अनुभव में ऐसा कभी देखा नहीं है। पर लोग बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में, और भारत अभी भी 50% से ज़्यादा ग्रामीण ही है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी ऐसा होता है कि लड़के की तरफ़ की महिलाएँ लड़की को पीछे के किसी कमरे में ले जाती हैं और उसका पूरा शरीर ऐसे पकड़ के, दबा-दबा के देखती हैं। जैसे मवेशी ख़रीदते समय उसमें उंगली डाल-डाल के देखा जाता है कि ये फर्टाइल कितना है। लड़की को अलग कमरे में ले जाकर के उसके शरीर की भी जाँच-पड़ताल करती हैं — लड़के के पक्ष की महिलाएँ — कि ये उर्वर निकलेगी कि नहीं। डिग्निटी, गरिमा कोई चीज़ होती है?

और तुम लोग पहुँच के बैठ जाओगे — बिल्कुल, अभी लड़का आया है देखने के लिए। वो वहाँ से साड़ी-वाड़ी पहन करके शरबत और समोसा लेके आएगी, और तुम्हारी नज़रें उसको नापेंगी। वो अधिक से अधिक एक बार ऐसे आँख उठा के तुमको देख लेगी, और इस प्रक्रिया से तुम्हारे वैवाहिक जीवन की शुरुआत होगी — हा-हा-हा! और तुम कहोगे कि पवित्र रिश्ता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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