छात्र: सर, HIDP ने हमें ये बताया है कि स्वतंत्रता हमारे लिए बड़ा जरूरी है । पर सारे संबंधों की ज़िम्मेदारी के बीच स्वतंत्र होना कैसे सम्भव है ?
वक्ता: गिरीश ने बड़ा अच्छा सवाल पूछा है । गिरीश, हम जब से पैदा होते हैं तो रिश्तों के एक पूरे नेटवर्क में, एक पूरे जाल में, पैदा होते हैं और ये जाल बढ़ता ही चला जाता है । उम्र जितनी बढती है, उतने ही लोगों को जानने लगते हैं और सम्बन्ध, उतने ही बढ़ते चले जाते हैं । तो इस सब में स्वतंत्रता है कहाँ ? मुक्ति की संभावना ही कहाँ है ? कैसे पाएं?
पहली बात तो ये गिरीश की HIDP ने तुमसे बिल्कुल भी ये नहीं कहा कि स्वतंत्रता तुम्हारे लिए बहुत जरूरी है । हम तुमसे ये कह रहे हैं कि स्वतंत्रता तुम्हारा स्वभाव है । जरूरी नहीं है, क्यूंकि जरूरी होना तो बड़ी ऊथली बात है, सतही बात है । जरूरतों पे तो कोम्प्रोमाईज़ किया भी जा सकता है, समझौता कर लोगे एक बार को । स्वभाव पर समझौता नहीं किया जा सकता।
मुक्ति, स्वतंत्रता, तुम्हारा स्वभाव है ।
इसी कारण, किसी आदमी को बड़ी से बड़ी सजा क्या दी जा सकती है, पता है? क़ैद। कंफाइनमेंट।
क्यूंकि मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है।
क्या तुम्हें आज तक कोई ऐसा मिला है जो ग़ुलाम होना पसंद करता हो? क्या तुम कभी भी ये पसंद करोगे कि जीवन ग़ुलामी में बीते ? दुनिया में कोई भी न ऐसा हुआ था, ना आज है, जिसे मुक्त ना रहना पसंद हो, जिसे ग़ुलामी पसंद हो ! बात स्पष्ट है।
मुक्ति, स्वतंत्रता हमारा स्वभाव है । तुम्हें मुक्त होना ही है। और मुक्त नहीं रहोगे तो कष्ट में रहोगे।
पीड़ा रहेगी, एक बेचैनी रहेगी, बोरियत रहेगी, एक तड़प रहेगी। कुछ खटकता रहेगा कि कुछ बंधन है। कहीं न कहीं बंधा हुआ हूँ, एक ग़ुलाम हूँ। मैं तीसरी बार कह रहा हूँ, मुक्ति स्वभाव है।
तुम हो ही मुक्त । बंधन बाहर से आते हैं, मुक्ति बाहर से नहीं आती । मुक्ति तुम्हारे भीतर से आती है, क्यूंकि मुक्त तो तुम हो ही, वो तुम्हारा स्वभाव है । तुम हो ही वही ।
हाँ, बंधन हम बाहर से ले लेते हैं । बंधन सारे हमारी कमाई हैं। हम मांगते हैं बंधनों को, लादते हैं अपने ऊपर । ख़ूब कोशिश करके अर्जित करते हैं बंधनों को । और वही बात कही तुमने गिरीश कि जबसे पैदा होते हैं, तो ये सम्बन्ध बढ़ते चले जाते हैं और ये बंधन बढ़ते चले जाते हैं ।
लेकिन जो कुछ तुमने कहा वो सब कुछ समझ में आ जाये अगर तुम्हारे ही द्वारा प्रयुक्त एक शब्द को पकड़ें । तुमने कहा कि ‘रिस्पांसिबिलिटीज़‘ बढती चली जाती हैं । ये जो ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ शब्द है, इसका बड़ा दुरुप्योग किया गया है । हम सब ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ को एक बोझ समझते हैं, कर्त्तव्य समझते हैं । है ना? दायित्व ! हम सोचते हैं ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ का अर्थ है कि मैं बेटा हूँ तो मुझे इस-इस तरीके की हरकतें करनी ही करनी है । या मैं स्टूडेंट हूँ तो मुझे ये करना ही करना है । हमने ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ को आचरण से जोड़ दिया है । एक ख़ास तरीके के व्यवहार से, कर्म से।
‘रिस्पांसिबिलिटी‘ शब्द पर गौर करना होगा। रिस्पांसिबिलिटी शब्द की संरचना ही हमें सब बता देगी। ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ शब्द आया है, ‘रिस्पांस‘ और ‘एबिलिटी‘ शब्द को मिला कर। ‘The ability to respond is Responsibility’ .
‘रिस्पांसिबिलिटी‘ कहीं से कोई ड्यूटी नहीं है । ड्यूटी तो दो कौड़ी की होती है । ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ बहुत ऊँची चीज़ है । ड्यूटी तो दुसरे तुम्हारे ऊपर डालते हैं । ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ का अर्थ है ‘the ability to respond’. ‘रिस्पांस- एबिलिटी‘,मैं समझ सकता हूँ कि स्थिति क्या है और स्थिति के अनुरूप मैं जवाब दे सकता हूँ, इस काबिलियत का नाम है ‘रिस्पांसिबिलिटी‘.
तुम मुझसे ये सवाल पूछ रहे हो गिरीश, मैं इस सवाल को समझ सकता हूँ और फिर उस सवाल का एक समुचित उत्तर दे सकता हूँ, ये है ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ . किसकी ? मेरी । ‘The ability to respond’.मैं समझ सकता हूँ और उस समझ के फलस्वरूप एक एक्शन होता है, इसी का नाम है ‘रिस्पांसिबिलिटी‘. वो ड्यूटी नहीं है, ड्यूटी तो एक बोझ होती है मन पर। ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ मन को हल्का करती है। ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ है तुम्हारी स्वतंत्रता, ड्यूटी है तुम्हारा बन्धन। ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ तो बड़ा प्यार शब्द है, हमने उस शब्द को बड़ा ज़हरीला कर दिया है। देखो ना, हमारे मन में जब भी ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ की बात आती है, तो कैसा-सा लगता है… कि चलो भईया, दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा, और जीवन है ज़हर तो ….
श्रोता{एक साथ}: पीना ही पड़ेगा।
{तालियों की गूँज}
वक्ता: ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ हमें जीवन को सिर्फ और सिर्फ ज़हर ही जैसा लेने पर मज़बूर कर देती है । कि कर्त्तव्य है, करना ही पड़ेगा। मन हो ना हो, रिस्पांसिबिलिटी निभाओ । और नहीं निभाओगे तो ताने पड़ेंगे । नहीं निभाओगे तो तुम्हारा अपना ज़मीर, वो तुम्हें धिक्कारेगा । ये सब बड़ी नासमझी की बातें हैं, ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ का इन सब से लेना-देना ही नहीं है । ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ का अर्थ है कि मैंने अपने मन पर कोई कर्त्तव्य, कोई ड्यूटी नहीं लाद रखी, इसलिए जैसी स्थिति होगी, वहां पर मैं एक समुचित काम कर पाऊंगा । जो स्थिति होगी, उस स्थिति में उचित क्या है, ये जान पाने की, कर पाने की क्षमता मुझमें है, बस यही है ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ ।
ये ‘रिस्पांसिबिलिटी‘ तुम्हारी स्वतंत्रता नहीं छिनती, गिरिश । वो नकली वाली छीन लेती है । असली रिस्पांसिबिलिटी कभी तुम्हारी स्वतंत्रता नहीं छीनेगी । HIDP तुमसे कहता है, रिस्पांस देने के क़ाबिल बनो । तुम सिर्फ रिएक्शन जानते हो । रिएक्शन और रिस्पांस में अंतर क्या है समझते हो ?
रिएक्शन होता है, जैसे सोडियम पर या पोटैशियम पर तुमने पानी डाल दिया और अब सोडियम या पोटैशियम के पास कोई विकल्प नहीं है । विस्फ़ोट हो के रहेगा । ये रिएक्शन है। सोडियम को समझ ही नहीं है कि क्या हो रहा है, फिर भी वो रिएक्शन करेगा । रिएक्शन का अर्थ ही है कि मुझे पता कुछ नहीं है कि क्या हो रहा है, फिर भी हुए जा रहा है ।
रिस्पांस इसका विपरीत है । रिस्पांस कहता है, मैं ठीक-ठीक जान रहा हूँ कि बात क्या है और इस जानने के फलस्वरूप मैं एक उत्तर दे रहा हूँ । हम रिएक्शन में जीते हैं और रिस्पांसिबिलिटी, रिएक्शन से बहुत ऊँची बात है, अगर तुम रिस्पांसिबिलिटी के सही मायने समझ सको । नकली रिस्पांसिबिलिटी का जो अर्थ है उसमें उलझ के मत रह जाना ।
ठीक है गिरीश?
छात्र: जी सर।
-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।