रिश्ते प्रेम के सस्ते विकल्प तो नहीं || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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रिश्ते प्रेम के सस्ते विकल्प तो नहीं || आचार्य प्रशांत (2013)

आचार्य प्रशांत: सूफी था एक, उसके घर खाने को ज्यादा रहता नहीं था | बस उतना कि अपना, सुबह खा लिया अपना | शाम की ज्यादा फिकर नही, शाम को मिल गया तो अच्छा, नही मिला तो भी कोई बात नही और जो सूफी साधना है उसमें कम खाने पर बड़ा जोर रहता है, वैसे भी | एक बार उसके यहाँ बहुत सारे मेहमान आ गये | उसका एक मुरीद आया, बोला, इतने आ गये हैं | इनको खाने को भी देना होगा, कहाँ से देना है ? यहाँ तो गिनती की कुछ रोटियाँ पड़ी हुई हैं, तो कैसे दोगे ? तो उसने कहा, ऐसा करो जितनी रोटियाँ है, उनको एक थाल पर रखो और उन पर कपड़ा डाल दो | उन पर कपड़ा डाल दो और मेहमानों के सामने रख दो और मेहमानों से कहना, “जिसको चाहिए हो बस ऐसे कपड़ा हटाये, अपना निकालता जाये” |

अब मेहमान आये थे १०-२० | अपना खाने बैठे और छक करके खाते गये | कपड़ा उठाते, नीचे से रोटी निकालते और खाते जाते | उसके सारे जितने चेले थे सब देख हैरान की ये हो क्या रहा है | तो देखें सूफी बाबा की ओर, वो बोले, कुछ नहीं खाने दो | एक से रहा नहीं गया | वो गया उसने कपड़ा हटा ही दिया कि कैसे रोटियाँ ही रोटियाँ निकल रही हैं और कपड़ा हटाया तो क्या देखता है, एक भी रोटी नहीं है, और कहानी यहाँ खत्म हो जाती है |

बात चल रही थी आदमी को कितने पैसे की जरुरत है और ऐ.टी.एम. के आने से ये हुआ है कि अब आपको जेब में नहीं रखना पड़ता, नहीं समझ में आ रही बात ?

श्रोता: ‘मन’ खाता है | तनख्वाह मन में होती है |

आचार्य जी: आप निकालते चलो | ये मत पूछो कहाँ से आयेगा | हाँ, जाँचने जाओगे कि अब कितना बचा | कल और निकाल पाऊँगा कि नही, तो पाओगे कि कुछ नही है | आप बस निकालते चलो, पर निकालो उतना ही जितना पेट को जरूरत है और जाँच ही मत करो कि बकाया कुछ है भी, कि नहीं है | वो जो कपड़े के नीचे ढका हुआ था, वो बकाया था और जो आप निकाल रहे हो, उतने की आप को जरुरत है | आप बकाया मत जाँचा करो | आपको जो निकालना है, निकालो |

अब ये बात सुनने में मुझे मालूम है बड़ी बेहूदी लग रही है | हमारे चतुर दिमाग कह रहे, होगा, नही तो निकालेंगे कैसे | पूरी राशि (टोटल) पता होना चाहिए, ब्याज आया कि नही आया | बैंक ने भुगतान न लगा दिया हो, तो ये पड़ताल करना तो बहुत जरुरी है | आखबारों में वो हर रविवार को छपता है कि आर्थिक प्रबंध क्या-क्या करना चाहिए ? वो पूरा छपेगा | शुभा गुप्ता, मनोज गुप्ता, सारी परिवार की आय, सात लाख, उसमें इतना करते हैं, इतना करते हैं और इस साधन (इंस्ट्रूमेंट) में निवेश करना चाहिए | पूरी एक अध्ययन के लिए (केस स्टडी) आयेगी कि दोनों मियाँ-बीवी मिलकर पूरा सब है इतना कमाते हैं | इनके दो बच्चे हैं | इतना खर्चा है, कहाँ करें और लोग उसको पढ़ के ज्ञान प्राप्त करते हैं | पर ये जो कहानी है ये क्या कह रही है ? ये कुछ और ही कह रही है | ये बड़ी विचित्र बात कह रही है | वो कह रही है ढके रहन दो कितना है, कितना नहीं है | फिकर ही मत करो कितना है कितना नही है |जाँच ही मत करने जाओ, बकाया कितना है | तुमको खाना है न, तुम निकाल-निकाल खाते रहो | जिस दिन जाँच करने गये और कपड़ा हटा दिया | उस दिन पाओगे कुछ नही है और परेशान हो जाओगे |

श्रोता: मास्टर कार्ड है |

आचार्य जी: बस निकालो और खाओ, कभी कम नही पड़ेगा |

श्रोता: जितनी जरुरत है |

आचार्य जी: कभी कम नही पड़ेगा | अक्षय पात्र है वो पूरा | निकालते जाओ और खाते जाओ और पूछो मत कहाँ से आ रहा है | निकालते जाओ खाते जाओ | पूरे (टोटल) पर कपड़ा डाल दो | पूरा (टोटल) ‘भविष्य है’, निकाल के खाना ‘वर्तमान है’ | पूरा (टोटल) ‘भविष्य है’ | जो बकाया (बैलेंस) है, वहाँ पर वो बकाया ‘भविष्य है’ और जो आप निकाल रहे हो, सिर्फ वही ‘वर्तमान है’ | आप उससे ताल्लुक रखो, मुझे निकालना है |

अभी के लिए है, न निकालने को या किसी की ये समस्या है कि आज घर जाने के लिए पैसे नही है | अभी के लिए हैं न, खुश रहो | कल की फिक्र छोड़ो | अपने आप आ जायेगा और हम सवाल पूछेंगे, कहाँ से आयेगा ? बिना करे कहाँ से आयेगा | तो करो मरो, जाओ | उसको तो जो सन्देश देना था दे गया | पूरे (टोटल ) पर डालो कपड़ा और मौज से खाओ |

आचार्य जी: आचार्य जी, ‘लापरवाह’ और ‘बेपरवाह’ में तो वही बात हो गयी न, तो कैसे पता चलेगा कि ‘लापरवाह’ हो रहे हैं या ‘बेपरवाह’ |

आचार्य जी: दोनों इशारा करने में ‘परवाह’ का बड़े अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करते हैं | ‘परवाह’ क्या है ये समझ जाओ | उसके बाद ‘लापरवाह’ और ‘बेपरवाह’ का इस्तेमाल करना | अगर ‘परवाह’ का अर्थ है वो वाला जिस अर्थ में उस छात्र ने इस्तेमाल किया था ‘परवाह’ को कि मेरे अभिभावक मेरी ‘परवाह’ करते है | तब तुम्हें ‘परवाह’ से मुक्त (बेपरवाह) होने की जरुरत है | क्योंकि ये ‘परवाह,’ बंधन है और तुम्हें इस बंधन से मुक्त होने की जरुरत है | अगर ‘परवाह’ का अर्थ है वो वाली परवाह की बेटा में तुम्हारी बहुत ज्यादा परवाह करता हूँ, तो फिर तो तुम्हें ‘बेपरवाह’ हो जाना चाहिए, ‘बेपरवाह’ | दूसरी ओर जब कोई असंवेदनशील हो, तब उसको ‘लापरवाह’ कहना उचित है | फिर वो ‘लापरवाह’ वहाँ पर वो वाली परवाह है जो ध्यान खींचने के लिए उपयोग होती है | ‘बेपरवाह’ में जो ‘परवाह’ है उसका बिलकुल उलटा अर्थ है | वहाँ ‘परवाह’ का मतलब है, ‘स्वार्थ’ और ‘लापरवाह’ में जो ‘परवाह’ है वहाँ पर ‘परवाह’ का अर्थ है, ‘ध्यान‘(अटेंशन) खींचना|

श्रोता: जैसे आचार्य जी हमने कहा कि कल ए. टी. एम. में पैसा कहाँ से आयेगा | इस बात को लेकर ‘लापरवाह’ हो रहे हैं या ‘बेपरवाह’ ?

आचार्य जी: कुछ भी हो सकते हो | कैसे कह रहे हो कि ए.टी.एम. में पैसा | बात जो भी कही जा रही है अगर होश में हो तो एक अर्थ है और बेहोशी है तो दूसरा अर्थ है |

हर शब्द के दो अर्थ होते हैं — “तुम किस तल पर हो बस ये देख लो” |

‘परवाह’ का एक बड़ा प्यारा अर्थ भी है | मैं ‘परवाह’ करता हूँ |

श्रोता१: आचार्य जी, मैंने केवल अपने आपको देखा है, ‘बेपरवाह’ होने के नाम पर हम ‘लापरवाह’ हो जाते हैं | नुकसान ये होता है कि हम ‘लापरवाह’ हो जाते हैं |

श्रोता२: ‘बेपरवाह’ और ‘लापरवाह’

आचार्य जी: वही है, बिलकुल वही है |

श्रोता३: केयर फ्री – बेपरवाह, केयरलेस – लापरवाह

आचार्य जी: और दोनों में ‘परवाह का बिल्कुल विपरीत प्रयोग है | ‘परवाह’ का अर्थ ये भी हो सकता है कि मैं ध्यान दे रहा हूँ पूरा |ध्यान से सुनना, और ‘परवाह’ का अर्थ वो भी हो सकता है जो बच्चा कह रहा था | अब स्वार्थ की निरंतरता |

श्रोता: आचार्य जी, डर वाले विडियो में ‘बेपरवाह’ बनाम ‘लापरवाह’ है, उसमें उदाहरण दिया है कैमरे का और आईने का | आइना जितनी देर साथ है उतनी देर छवि बनाएगा | कैमरा उसको संचित करके रखेगा |

आचार्य जी: कृपया देखें, एक बात को बहुत साफ़तौर पर समझ लें कि

केवल जो संबंध संभव है वो प्यार का है |

और ये शारीरिक विवेचन से निरुपित नही किया जा सकता | अभिभावक और बच्चे का जो संबंध है, वो शारीरिक संबंध है, और उसकी कोई अहमियत नही है |

अहमियत सिर्फ प्रेम के संबंध की होती है |

सिर्फ इसलिए कि किसी के शरीर से आपका उत्पादन हुआ है, आपके शरीर का | ये तो बड़ी कारखानानुमा बात है न | इससे कोई संबंध नही स्थापित नही हो गया | तुम्हारा ये जो पेन है किसी कारखाने से ही निकल के आ रहा है | मुझे जो उन्होंने पैदा किया, इसलिए मुझे उनसे प्यार है, ये कहना उतनी ही बेहूदी बात है | जैसे ये पेन कहे कि मुझे अपने कारखाने से प्यार है |

श्रोता: नही, हम ये भी कहते है न कि पैदा किया है उन्होंने, फिर इतना बलिदान दिया है |

आचार्य जी: उस कारखाने ने भी उसे बनाने के लिए कच्चे माल को अर्पित किया | नही तो इसके पास कहाँ से कच्चा माल आता | जो भी तुम्हारे हाथ में है | ये कभी उस कारखाने का था, तो इतना बलिदान हुआ है तभी तुम्हारे हाथ में आ पाया न |

श्रोता: नहीं, भाव नही जुड़े हुए हैं |

आचार्य जी: नहीं, भाव क्या हैं ? सुनने में तुम्हें बड़ा ताज्जुब होगा हैं कि तुम्हारी काsamरखाने के पास बहुत भाव हैं | जैसे तुम्हारे पास भाव हैं | वैसे तुम्हारी कारखाने के पास हैं | तुम गरम होते हो मशीन नहीं गरम होती, कोई अंतर है | तुम्हारी आँखें रिसाव करती है, मशीन में तेल नहीं रिसता | तुम्हारा कोई भाव नही है जो एक मशीन न दिखाती हो | मुझे बता दो अंतर कहाँ पर है | तुम्हारा एक-एक काम मशीन भी करती है | बताओ अंतर कहाँ है ? सबंध सिर्फ व्यक्तित का व्यक्तित से होता है | रिश्ते का रिश्ते से कोई सम्बन्ध नही होता | बाप का बेटे से कोई संबंध नही हो सकता और ये बात इतनी सीधी है हमें समझने में इतनी दिक्कत क्यों आती है, मैं जान नही पा रहा हूँ |

व्यक्ति का व्यक्ति से संबंध हो सकता है और वो ‘प्रेम’ है | अजीब हैं न हम लोग ? एक औरत और एक आदमी अगर पूर्णतया शारीरिक सम्बन्ध रखें | तो हम कहते हैं कि बड़ी अनैतिक बात है और माँ और बच्चे का क्या संबंध होता है वो तो और ज्यादा शारीरिक है | वो तो उसके शरीर के अन्दर से निकल के ही आया है | पूर्णतया शारीरिक संबंध है | फिर तो हमारे मापदंडों के अनुसार ये तो घोर अनैतिक हुआ, महाअनैतिक हुआ | शरीर का शरीर से ही तो संबंध है | थोड़ी देर अपनी सारी विचारणा को पीछे रख के देखो, तुम्हें ये बात दिख जायेगी | फिर इसी कारण से माओं और उनके बच्चों में कभी कोई बास्तविक संबंध हो नही पाता | क्योंकि माँ कभी भुला नही पाती कि ये मेरे शरीर से निकला, बच्चा ये भूल नही पाता इसलिए कोई संबंध भी नही हो पता इसीलिए दुनियाँ भी ऐसी है |

ये जो आदमी सड़क पर हत्या कर रहा है | ये पहले बच्चा ही तो था न ? इसका दिमाग उसी दिन भ्रष्ट हो गया जिस दिन इसका अपनी माँ से संबंध गड़बड़ रहा | हमको ये बात तो बड़ी दिखाई देती है कि राष्ट्रों में युद्ध चल रहा है | हमको ये नहीं दिखाई देता कि वो जो राष्ट्र लड़ रहे हैं आपस में, वो बच्चे हैं, जो घर से निकल कर आ रहे हैं और माँ से निकल के आ रहा है | ये जो माँ से बच्चा निकल के आ रहा है | इस संबंध में हिंसा है | वही हिंसा फिर बम गिराएगी किसी दूसरे देश पर | हिंसा कि शुरूवात वहीं हो रही है पर वो ममता लगती है | आपको हिंसा दिखाई नहीं देती, वो घोर हिंसा है | फिर आपको ताज्जुब होता है कि ये बच्चा बड़ा हो करके मार क्यूँ रहा है, बलात्कार क्यूँ कर रहा है, प्रतियोगी क्यूँ है, ईर्ष्यालु क्यूँ है ? क्योंकि उसका एक शरीर धारण करना ही एक गलत माहौल में हुआ है |

जब शुरूआत ही, आगाज ही ऐसा है तो अंजाम और क्या होगा | ठीक-ठीक बताओ, कौनसी माँ है जो खुश है अपने बेटे से ? कौनसा बेटा है जो खुश है माँ से ? ईमानदारी से बताइये | एक बार को सच को देखिये आँख डालकर | फालतू में झूठों में मत जीते रहिए और हो भी नहीं सकते |

उसमें भी एक जो खुफ़िया बात है वो समझिये | हमने कहा मन फालतू बातों में इसलिए उलझा रह जाता है, ताकि उसको असली मुद्दे की ओर न देखना पड़े | आप माँ से झूठें संबंध इसलिए स्थापित करे रहना चाहते हो, ताकि प्रेम का संबंध न स्थापित न करना पड़े | हमें असली से बचना है इसलिए नकली को खूब महत्व देते हैं | उसको खूब सजाते है, उसको खूब गौरव की चीज बना देते हैं | हमें प्रेम से बचना होता है इसलिए संबंधों को खूब बड़ा चढ़ा देते हैं | माँ से अगर बास्तव में प्रेम हो गया, तो बड़ी दिक्कत हो जायेगी, मन को मिटना पड़ेगा | माँ से प्रेम न हो सके इस कारण हम उस रिश्ते को कैद करते हैं हम फिर | हम कहते हैं, मैं बेटा हूँ | ये माँ है, ऐसी ऐसी बात हों, और प्रेम में कोई सीमायें, मर्यादायें तो होती नही हैं |

मन प्रेम से भागता रहे इसके लिए हमने रिश्ते गढ़ लिए हैं |

लगातार मन ‘प्रेम’ से भागता रहे इसके लिए ‘रिश्ते’ ठीक है, अच्छे हैं | अब प्रेम क्यों चाहिए ? मैं उसका बाप हूँ, वो मेरा बेटा है | प्रेम क्यों चाहिए ? बहुत सुविधाजनक है कि नहीं ? कितनी सुविधा है | वो कौन है ? बाप | मैं कौन हूँ ?बेटा | इसमें कहीं ये सवाल भी है कि प्रेम कहाँ है ? बाप कहाँ है ? ये रहा | बेटा कहाँ है ? ये रहा | प्रेम कहाँ है ? फालतू बातें मत पूछो | ‘रिश्ते’ गढ़ने में सुविधा हो जाती है | अब कोई सवाल नहीं करेगा कि प्रेम कहाँ है | दो लोग जा रहे हैं, कोई मिले इतना बताना काफी है, ये कौन हैं ? मियाँ-बीवी | अच्छा ठीक है, जाओ | कोई पूछेगा ही नही कि अच्छा मियाँ-बीवी हैं तो क्या, प्रेम कहाँ है ? ये सवाल कोई पूछता है कभी, नही पूछता |सुविधा हो गयी न | मियाँ-बीवी हैं, काम चल रहा है | हाँ, यही मियाँ-बीवी न हों, तो पूछेगा कि ये बताओ तुम मेरे कौन हो ? वो वाले सवाल, वो सारे | अब दिक्कत है | अब देखना पड़ेगा प्रेम की ओर, मानना पडेगा कि हाँ प्रेमी हैं |

मियाँ-बीवी से कभी कोई सवाल करता है क्या ? क्या आप एक-दूसरे से प्यार करते हो ? ये ठीक है | आप कौन हो ? पति- पत्नी ? ये कौन है ? बच्चा | प्यार कहाँ है ? बेकार प्रश्न | हाँ, आपका कोई संबंध न हो, तब प्रेम का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाएगा | तब आपको अपने आप से ही पूछना पड़ेगा कि मैं इसके साथ क्यों हूँ ? और अगर उत्तर आता है कि ‘प्रेम’ तो बड़ा आनंद है |

कोई संबंध नही है आपका किसी के साथ | कोई नाम नही है उस संबंध का | फिर भी आप साथ में हो | तब बनी कोई बात | तब उत्तर है ‘प्रेम,’ वनार प्रेम की जरुरत क्या है |

जहाँ कारण है वहाँ ‘प्रेम’ नही | सत्य के लिए एक नाम ये भी है, ‘अकारण’

ये पेन तुम्हारे पास क्यों है ? क्योंकि तुम्हारा है तो प्रेम नही हो सकता, क्योंकि ‘कारण है’ | तुम किसी के साथ गाड़ी में क्यों जा रहे हो | क्योंकि तुम्हारी बीवी है, तो कारण है तो ‘प्रेम’ नही हो सकता | जहाँ आपने संबंध स्थापित किये | वहाँ आपने अपने आपको एक कारण दे दिया, एक वजह दे दी | वजह तो मन की है मन तो बहुत खुश रहता है वजहों में | कार्य-कारण, कार्य-कारण, कार्य-कारण | वो इन्हीं में जीता है | वो खुश हो गया | हाँ वजह मिल गयी है | अब मैं इसे समझ सकता हूँ | समझ नही सकता, अब समावेशित (कोम्प्रीहैण्ड ) कर सकता हूँ | अब ये मेरी सीमा में है | तो मैं किसी के साथ क्यों जा रहा हूँ ? वो, भाई है न मेरा इसलिए | अच्छा मुझे पैसे कमा के इसको क्यों देने है, वो माँ है न मेरी इसलिए | अब मन इसका तात्पर्य निकाल सकता है | पर मन पूरी तरह उजड़ जाता है | जब यह(मन) तुमसे पूछता है कि उसके पास क्यों जा रहे हो और आपके पास कोई उत्तर नही होता | ये मन कि म्रत्यु है | मन इस म्रत्यु से बड़ी बुरी तरह से डरता है | अतः मन प्यार को बर्दाश्त ही नही करेगा | मन सम्बन्ध के लिए बड़ा उत्सुक होगा | लेकिन प्यार को बर्दाश्त ही नही करेगा | यही कारण है कि जैसे ही प्यार जड़ें जमाना शुरू करेगा, मन बहुत ही जल्दी इसको सम्बन्ध में रूपांतरित कर देगा |

पाँच महीने, साल भर के अन्दर लड़की कहेगी, शादी कर लेते हैं | क्योंकि उसका डरा हुआ मन प्यार की जड़ों को जमने ही नही देगा | वो प्यार को मारने की कोशिश करेगी | चलो शादी कर लेते हैं | मन बहुत गहरे डरा हुआ है और वो सवाल भी यही करेगी नही तो फिर बताओ हम साथ क्यों हैं ? अगर शादी नही तो साथ क्यों हैं ? बड़ा मासूम सवाल है | पर इस सवाल से यही पता चलता है कि मन वजहों में जीता है, और प्रेम में कोई वजह है नही | मन को वजह चाहिये | मन को कार्यकारण में जीना है, और प्रेम में कोई वजह है नही | आप जबाव दो, कोई वजह नही है तो वो तिलमिला जायेगी | हैं! वेबजह ही समय ख़राब कर रहा है | पर इसके अलावा प्रेम है क्या ? बेवजह, अकारण |

हमारे पास कारण है | है तो वो फ़ालतू ही गाना, पर अच्छा है | लव मी फ़ोर अ रीजन, लेट द रीज़न बी लव | बात बिलकुल ठीक की गयी है | अपने से आगे प्रेम का कोई कारण होता ही नहीं | हमें कारण चाहिए, हमें न्यायोचित चाहिए | तुम उसको क्यों प्यार करते हो ? क्या इससे ज्यादा वेबकूफ़ी का कोई सवाल हो सकता है | तुम उसको क्यों प्यार करते हो ? लेकिन ये सवाल हैं जो कि पूछे जाते हैं | मजाकिया तौर पर कभी-कभी तो ये प्रश्न हम स्वयं अपने आप से पूछते हैं | ‘प्रेम’ का क्षण होता है, जब बीत जाता है | तब अपने आप से पूछते हैं | लेकिन मैं क्यों उससे प्यार करता हूँ ? और जबाब मिलेगा नहीं | फिर जो थोड़ा सा ‘प्रेम’ उठ रहा होगा | आप गला घोंट दोगे, क्योंकि जवाब नहीं मिला | मन जबाब चाहता है |

जब मैं बोलता हूँ, ये माँ बेटे और इन सब पर तो बहुतों को लग जाता है, कि ये तो रिश्ते खत्म कर देना चाहते हैं | खत्म नहीं कर देना चाहते हैं | दिखा रहे हैं कि तुम्हारे रिश्ते हैं ही नहीं, खत्म क्या करना है | परछाई खत्म की जाती है ? है ही नहीं | सपने खत्म किये जाते हैं ? हैं ही नहीं | तुम्हारे संबंध खत्म क्या करने हैं ? हैं ही नहीं | तुम्हारे ये सारे संबंध हैं ही नही | तुम्हारे पास जो सब कुछ है, ये बीमारियाँ हैं |

एक ही संबंध होने दो और वो संबंध प्यार का हो |

वो तुम्हारे पास नही है | मैं भूतों को नहीं मार रहा हूँ | भूतों को मारा नहीं जा सकता | उनका अस्तित्व ही नहीं होता | मैं केवल ये कह रहा हूँ कि कुर्सी खाली है | तुम केवल कल्पना कर रहे हो ही इस पर भूत बैठा हुआ है | कुर्सी पर किसी को आने दो | तुम्हारे पास प्यार है नहीं | प्यार को होने दो |

श्रोता: आचार्य जी, क्या कोई उदाहरण हो सकता है इसका, समझने के लिए |

आचार्य जी: कैसे हो सकता है बेटा उदाहरण | किसी दो लोगों के ‘प्रेम’ को तुम कैसे उदाहरण बना सकते हो | ये इन दोनों में प्रेम है आपस में, दे दिया उदाहरण | बड़ा घना प्रेम है | अब लो दे दिया उदाहरण, तुम्हें क्या मिला ? दो, पानी दो, पानी दो, लो पियो | तुम्हें क्या मिला ? उदाहरण माँग रहे हो | वही हमारे छात्र ऐसे, एक उदाहरण दीजिये | अबे क्या उदाहरण ? दो लोग आपस में ‘प्रेम’ कर रहे हैं | उसमें तुम्हें कैसे उदाहरण मिल गया | हाँ तुम्हें ये उदाहरण मिल जाएगा कि ऐसे पकड़ लो तो इसको प्रेम कहते हैं, और ऐसी-ऐसी जगहें हैं वहाँ जा के बैठ जाओ और ऐसी-ऐसी बातें करो तो ये शायद प्रेम कहलाता है | तुम वही सब करोगे और वो और ज्यादा जुकरई हो जाती है | अन्दर कुछ है नहीं, बाहर-बाहर हाथ चला रहे हो |

एक फिल्म आयी थी उसमें वो उससे पूछता है कि तुम्हारा संबंध-विच्छेद (ब्रेकअप) क्यों हुआ ? तो उसके दो तीन हो चुके होते हैं पहले | बोलती है, जो दूसरा वाला था वो इधर, उधर जगहों पर हाथ बहुत चलाता था, तो इसलिए मैंने संबंध-विच्छेद (ब्रेकअप) ही कर लिया | इतनी कहानियाँ भरी पड़ी हैं, उससे तुम्हें क्या मिल जाएगा | हजार प्रेमी हुए हैं उनकी बड़ी कहानियाँ हैं, उससे तुम्हें कुछ होता है ? कुछ नहीं हो सकता और अगर कुछ होगा तो उल्टा-पुल्टा ही होगा | अब उसमें लिखा है, ‘हीर ने रांझा का हाथ थामा’ | अब उस हाथ के थामने में जो बात है, वो तुमको ये पढ़ के कैसे पता चल जायेगी ? वो जो घटना घटी है कि हाथ ही छू लिया | तुम्हें वो शब्द पढ़ के पता चल जानी है और कह रहे हो उदाहरण दो | कैसे?

राम गये, अहिल्या को देखा वो मूर्ती सी बनी हुयी थी पत्थर की और देखने भर से वो पिघल गयी | इससे तुम्हें क्या पता चल जाएगा ? कि मैं किसी को देखूँगा और वो पिघल जाएगा | ये ‘प्रेम’ की बड़ी घटना है, अदभुत, कि एक औरत है, वो पथ्थर ही हुयी पड़ी है | उन्होंने बस देख लिया और वो जीवित हो गयी, पिघल गयी | इससे तुम्हें क्या पता चल जाएगा | पर हम ऐसा ही करते हैं | हमारे लिए प्रेम का अर्थ वही जो दिखाई पड़े | फिर वही इन्द्रियगत बातें हैं | आँखों से जो दिखाई पड़े, तो इसीलिये फिल्मों में जो हो रहा होता है, वो ‘प्रेम’ है | क्योंकि आँखों से दिख रहा है न | कूद रहे हैं, फाँद रहे हैं | तरणताल (स्वीमिंग पूल) में कूदो, दो लोग एक साथ, ये प्रेम है | तरणताल (स्वीमिंग पूल) में दो लोगों का एकसाथ कूद जाना प्रेम है | फिर तो ये जितनी प्रतियोगितायें है ये सारे प्रेमी आपस में कर रहे होंगे | सब इकठ्ठे ही कूदे पड़े हैं |

श्रोता : सारी भैसें तालाब में तैरती हैं | वो भी समूह में इकठ्ठे ( सब हँसते हैं )

आचार्य जी: ये प्यार में होता है | दो लोग तरणताल (स्वीमिंग पूल) में कूदते हैं | करो, नक़ल करो कि ये सब प्रेम कहलाता होगा | हम नकल के अलावा और क्या कर रहे हैं ? तुम्हें कोई न बताता कि शादी जैसी कोई चीज होती है, तो तुम कभी करते ? एक सवाल पूछ लो अपने आप से | तुम्हें कोई न बताता कि शादी जैसा कुछ होता है तो कर लेते ? तो क्या प्रेम का फल शादी है? प्रेम का तो नहीं है कोई संबंध | तुम्हें कोई न बताता कि मधुमास (हनीमून ) जैसी कोई चीज होती है तो तुम कभी जाते ? तो क्या प्रेम से निकल रहा है हनीमून, बोलो ? |

श्रोता: नहीं |

आचार्य जी: पर कोई अगर तुम्हें न भी बताता कि ‘प्रेम’ होता है तो ‘प्रेम’ हो जाता | ‘प्रेम’ तब भी रहता और स्त्री और पुरुष के बीच में ही नहीं रहता |

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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