रिश्ता उलझ गया है, छोड़ दूँ?

Acharya Prashant

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रिश्ता उलझ गया है, छोड़ दूँ?
जीवन का अर्थ ही है संबंध, हो ही नहीं सकता कि आप संबंधित हो ही न। आप दूसरे व्यक्ति से जो संबंध बनाते हो न, वो संबंध अनुचित होता है, हमें वो संबंध छोड़ना होता है। संबंध खंडहर हो गया है, उस संबंध से बाहर आना है। व्यक्ति को क्या छोड़ोगे आप, व्यक्ति को आपने पकड़ कब रखा था; पकड़ का नाम तो रिश्ता होता है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, कुछ समय से मेरे रिश्तों में उलझनें चल रही थीं तो मैंने आपका एक वीडियो देखा। उस वीडियो में आपने बताया था कि जैसे घर खंडहर हो जाए तो उसे छोड़ देना चाहिए, वैसे ही अगर रिश्ते बहुत ज़्यादा खराब हो गए हों और वो वापस से सुलझ न पाएँ तो वहाँ से निकलना बेहतर है। तो आचार्य जी, आपसे एक प्रश्न था कि घर तो ठीक है, वो टैंजिबल (छूने योग्य, देखने योग्य) चीज़ें हैं, उसको छोड़कर जाया जा सकता है, लेकिन क्या रिश्ते को छोड़ा जा सकता है?

आचार्य प्रशांत: रिश्तों को ही तो छोड़ा जा सकता है, व्यक्ति को छोड़ना ज़रूरी नहीं है, रिश्तों को तो लगातार छोड़ते ही रहना चाहिए। देखिए, जिसको आप कहते हैं ‘सुधारना’, वो एक तरह से निरंतर पुराने को छोड़ते रहने की ही तो प्रक्रिया है। आपके चेहरे पर गंदगी लगी है, मैं आपसे कहूँ, ‘जाइए, चेहरा धोकर आइए,’ एक तरह से आप अपने पुराने चेहरे को छोड़कर ही तो आ गए न, यही किया न आपने?

मान लीजिए, आपके चेहरे पर इधर-उधर मिट्टी ही मिट्टी छपी हुई है सब तरफ़ और आपसे कहा गया, ‘जाइए, बेहतर होकर आइए,’ तो आपने क्या करा? जो पुराना चेहरा, गंदा चेहरा, धूल भरा चेहरा लिए हुए थे, आपने उसको धो दिया, आपने पुराने चेहरे को छोड़ दिया। तो व्यक्ति को छोड़ने की बात मैं नहीं करता हूँ, व्यक्ति के प्रति तो करूणा चाहिए, व्यक्ति तो मेरे काम का लक्ष्य है। व्यक्ति से प्रेम है तभी तो ये जो काम है मैं कर रहा हूँ। ये काम इसलिए थोड़ी है कि इंसान को दुख देना है या इंसान कष्ट पाए, ये काम इसलिए है ताकि इंसान दुख से मुक्त हो पाए, जीवन में उसके आनंद आए।

आप दूसरे व्यक्ति से जो संबंध बनाते हो न, वो संबंध अनुचित होता है, हमें वो संबंध छोड़ना होता है। संबंध खंडहर हो गया है, उस संबंध से बाहर आना है। व्यक्ति को क्या छोड़ोगे आप, व्यक्ति को आपने पकड़ कब रखा था; पकड़ का नाम तो रिश्ता होता है।

कौन किसका होता है, ज़रा पकड़कर दिखाना किसी व्यक्ति को, देखते हैं कितना पकड़ सकते हो? अभी मौत आएगी ले जाएगी। और फिर तुम उसका शरीर पकड़ सकते हो, उसका मन पकड़कर दिखाओ? किसी का विचार, किसी की कल्पनाएँ, किसी की प्रेरणाएँ, किसी की हसरतें पकड़कर दिखाओ। तुम किसी को कामना करने से रोक सकते हो, किसी की इच्छाएँ पकड़कर दिखाओ। तो व्यक्ति को तो आप वैसे भी नहीं पकड़ते, आप उलझे होते हो उस व्यक्ति से रिश्ते में, वो रिश्ता गड़बड़ होता है।

सही संबंध रखना ही अध्यात्म है। और सही संबंध आप दूसरे से तब रखते हो जब आप खुद को जानते हो और दूसरे को भी जानते हो, तो पता होता है कि आपस में हमारा सही रिश्ता क्या होगा। न हम खुद को जानते हैं, न दूसरे को जानते हैं; दूसरे को जानने के लिए पहले आवश्यक है कि खुद को देख पाने वाली आँखें हों। जिसके पास वो आँख नहीं है कि स्वयं को देख सके, वो दूसरे को तो क्या ही देखता होगा! तो नतीजा होता है गलत संबंध।

आप खाना बनाते हो, उस खाने में हर चीज़ की जगह होती है – तेल की भी जगह होती है, सब्जी की भी जगह होती है, मिर्च की भी जगह होती है, हल्दी की भी जगह होती है। होती है न? कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे कोई रिश्ता रखना ही नहीं है। रिश्ता तो हमें सबसे रखना है, लेकिन पता होना चाहिए कि क्या रिश्ता रखना है। मटर के दो दाने और मिर्च पाउडर के दो चम्मच डालकर के आपने सब्जी तैयार कर दी है, बताइए अब क्या बनेगा?

सब कुछ जल जाएगा, तो रिश्ता गलत हो गया। आप जानते ही नहीं थे कि आप कौन हो, मिर्च कौन है, तो जीवन में मिर्च कितनी होनी चाहिए, उसका स्थान क्या है। सही स्थान दोगे तो वही मिर्च जीवन को स्वाद दे देगी, रस दे देगी; गलत स्थान दोगे तो वही मिर्च जीवन को जला डालेगी। ये नहीं कहा जा रहा है कि मिर्च का त्याग ही कर दो। वास्तव में अगर त्याग भी कर रहे हो तो वो भी एक प्रकार का रिश्ता ही है, तो रिश्ता तो ले-देकर आपको हर चीज़ से रखना ही पड़ेगा।

जीवन का अर्थ ही है संबंध, हो ही नहीं सकता कि आप संबंधित हो ही न। होशपूर्वक ये देखना पड़ता है कि क्या संबंध रखना है और किससे। इंसान अपने कपड़ों से, मोजों से एक संबंध रखता है और पगड़ी से दूसरा, ठीक? हम ये तो नहीं कह रहे कि पगड़ी से रिश्ता मत रखो या मोजों से, जुराबों से रिश्ता मत रखो, लेकिन आपने मोजे को सिर पर पहन लिया और पगड़ी को पाँव में बाँध लिया तो दिक्कत हो जाएगी। हमें रिश्ता बनाना नहीं आया। और कोई आपको कहे, ‘अरे! तुमने देखो, पगड़ी को पाँव में बाँध लिया’ और पगड़ी उठाकर फेंक दे, कहे, ‘मैं पगड़ी का त्याग करता हूँ,’ तो ये आपने कोई बहुत होशियारी का काम तो करा नहीं है। आपसे ये नहीं कहा जा रहा था कि आप पगड़ी को अपने जीवन से विदा कर दीजिए, आपसे कहा जा रहा था, पगड़ी को पगड़ी का और मोजे को मोजे का स्थान दीजिए।

संबंध का मतलब होता है — जिससे संबंध बना रहे हो उसे जीवन में उपयुक्त स्थान देना। जिसकी जो जगह है उसे वो जगह दो न भाई! मिर्च को मिर्च की और मटर को मटर की जगह दो, पगड़ी को पगड़ी की और मोजे को मोजे की जगह दो, और दवा को दवा की और ज़हर को ज़हर की जगह दो। मिर्च मटर नहीं बन सकती, दवा ज़हर नहीं बन सकती। और अगर सही तरीके से, सही स्थिति में, सही अनुपात में लिया जाए तो वो ज़हर भी दवाई बन जाता है। और कोई दवाई ऐसी नहीं है जिससे अगर गलत रिश्ता रख दो तो वो ज़हर न बन जाए। मुझे कोई दवाई बता दो जिससे तुम अगर गलत रिश्ता रखो तो वो ज़हर नहीं बन जाएगी? दवाई ही ज़हर है अगर रिश्ता गलत है। और ज़हर दवाई बन जाएगा अगर रिश्ता सही कर लिया तो।

हम लोग कहते हैं, ‘अरे! ज़िंदगी में फ़लाना व्यक्ति गलत आ गया।’ व्यक्ति नहीं गलत आ गया, कोई व्यक्ति नहीं गलत होता, व्यक्ति व्यक्ति होते हैं, तुम्हें उससे रिश्ता बनाना नहीं आया। तुम्हें नहीं पता कौवे को कहाँ रखना है और हंस को कहाँ रखना है। कौवा कौवा है और हंस हंस है, दोनों की अपनी-अपनी जगह है। तुम ये भी नहीं कर सकते कि सब जगहों पर हंसों को बैठा दो, कौवे का भी स्थान होगा, बिना कौवे के बात बनेगी नहीं। क्लच की जगह क्लच की जगह है, एक्सेलेरेटर की एक्सलेरेटर की जगह है और स्टीयरिंग व्हील की जगह तुम वो टायर वाला व्हील नहीं लगा सकते, दोनों की अपनी-अपनी जगह है।

अब आप बोलो कि मुझे ऐसी गाड़ी चलानी है जिसमें व्हील ही न हों, तो गलत हो गया न? व्हील तो होंगे, लेकिन स्टीयरिंग वाले व्हील को स्टीयरिंग पर जगह देनी है और चक्के वाले व्हील को चक्के पर जगह देनी है। बात कुछ आ रही है समझ में? लोगों में नहीं होता है अच्छा या कुछ बुरा, आपने उसको कैसे देखा उसमें बुराई होती है। और उसको हम नहीं देख पाते क्योंकि आप अपने आप को नहीं जानते। अच्छे से समझो, ज़िंदगी में जिन लोगों को बहुत ऊँची जगहों पर बैठाना चाहिए हम उनकी उपेक्षा कर देते हैं, जो लोग दूसरी जगहों के हकदार होते हैं उनको हम सिर पर बैठा लेते हैं।

अब एक बच्चा है — बच्चा प्यारा होता है, नटखट है, भोला है, अच्छी बात है — आप उसे कंधे पर भी बैठा लेते हो, लेकिन इसका मतलब ये थोड़ी है कि आपने उसको स्वामी बना लिया है। ये मज़े की बात है, उसे थोड़ी देर के लिए कंधे पर बैठा लिया, वो भी खुश हो गया और फिर उसको उतार दिया नीचे। आपके जीवन में कोई बच्चा है, आप उसको स्थाई रूप से कंधे पर जगह दे दो तो ये आपकी गलती है या बच्चे की? और फिर आप कहो, ‘ये जो बच्चा है ये राक्षस है, दुष्ट कहीं का, असुर है, कंधे पर देखो क्या कर रहा है!’ जैसे कहते हैं न कि कंधे में बैठाया तो कान में पेशाब कर दिया।

बच्चे की क्या गलती है भाई, पाँच-सात मिनट को बैठाया था कंधे पर ठीक था। तुमने उसको कह दिया, ‘तू कंधे पर घर बना ले,’ ये तुम्हारी गलती है न, बच्चे ने क्या करा है? और फिर उसमें जब कहा जाएगा कि त्यागो, तो ये नहीं कहा जा रहा कि बच्चे को त्याग दो, ये कहा जा रहा है कि बच्चे को तुमने जो स्थान दे रखा है वो स्थान ठीक नहीं है। बच्चे को बच्चे का स्थान दो, बच्चे की ऊँगली पकड़कर उसको चलना सिखाओ, बच्चे को कुछ ज्ञान दो, बच्चे की कुछ भलाई करो, बच्चे को हर समय सिर पर थोड़ी बैठा सकते हो। समझ में आ रही है बात?

दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो सदैव अच्छा हो तुम्हारे लिए और दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पूर्णतया वर्जित है। सही रिश्ता बनाना सीखो, हमने कहा न कि ज़हर भी वर्जित नहीं है; सही स्थिति में और सही अनुपात में सही ज्ञान के साथ ज़हर दवाई का काम कर सकता है। दुनिया में कुछ भी वर्जित नहीं है, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो तुम्हारे लिए सदैव अशुभ हो और दुनिया में कुछ भी ऐसा भी नहीं है जो तुम्हारे लिए सदैव शुभ हो। ठीक है?

होश के साथ, चेतना के पूरे प्रकाश और सक्रियता के साथ ये देखा करो कि तुम कौन हो और इसलिए कौनसी चीज़ को तुम्हें कितना महत्व देना है और किस दिशा में महत्त्व देना है, किस आयाम में महत्व देना है। और इसमें ये बात भी याद रखना कि जब तुम ये जान जाते हो, ‘तुम कौन हो,’ तो फिर तुम सिर्फ़ अपनी ज़रूरतों का ख्याल रखना छोड़ देते हो। जब तक तुम्हें अपने बारे में पता नहीं होता, जब तक व्यक्ति खुद को लेकर के अज्ञान में रहता है, तब तक वो हो सकता है कि यही बात सोचे कि मेरा भला हो जाए, मैं दुनिया की चीज़ों का इस्तेमाल कैसे कर लूँ।

जब तुम दुनिया की चीज़ों का इस्तेमाल करने निकलते हो न, तो उसीको तुम बोलते हो, ‘रिश्ता बना लिया।’ हमारा किसी भी चीज़ से जो रिश्ता है वो दाँत और मांस का ही होता है। लोगों को देखा है जब वो बोटियाँ चबा रहे होते हैं? वही तो रिश्ता है — हम दाँत हैं और जो हड्डी पर मांस चढ़ा हुआ है वो दूसरा व्यक्ति है, और ये जो मांस नोचा जा रहा है ये रिश्ता है। ये सब तभी तक होता है जब आप खुद को लेकर अंधेरे में हो। जैसे ही आप स्वयं को जानने लगते हो, वैसे ही आप दूसरे के लिए भी शुभ हो जाते हो। मतलब इसका ये है कि जो रिश्ता सचमुच आपके लिए अच्छा होगा, वो दूसरो के लिए भी अच्छा होगा। फिर आप ये नहीं कर पाओगे कि रिश्ता ऐसे बनाया कि आपका पेट भर रहा है और दूसरे की जान जा रही है।

स्वस्थ, सही, सम्यक संबंध की पहचान ये होती है कि वो दोनों पक्षों के लिए एक समान शुभ होता है। ऐसा रिश्ता जिसमें एक की कामनापूर्ति होती है और दूसरे को दुख मिलता है, वो रिश्ता दोनों में से किसी के लिए भी ठीक नहीं हो सकता। तो जब आप थोड़ा होश, थोड़ी जाग्रति के साथ अपनी ज़िंदगी को देखते हो ईमानदारी से, तो फिर आप ऐसा रिश्ता बनाते हो जो दूसरे के लिए भी अच्छा होगा। फिर रिश्तों में उलझाव वगैरह नहीं आता। ये सब जो, अगर मैं सही समझ रहा हूँ, तो ये तुम प्रेमी-प्रेमिका, गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड उसी दिशा से आते हो न, वही बात करना चाहते हो या कुछ और है?

प्रश्नकर्ता: कुछ और।

आचार्य प्रशांत: लेकिन ये जिसको हम ‘रिश्ता’ कहते हैं, ये अगर हमारी कामना से ही निकल रहा है सिर्फ़, तो ये अच्छा नहीं होता है। ये याद रखना — दूसरे की ओर इस दृष्टि बस से मत चले जाना कि इससे कुछ पा लेना है। दो ही तरफ़ के रिश्ते होते हैं जो बहुत परेशान करते हैं, एक तो यही स्त्री-पुरुष वाले और दूसरी फिर दिशा होती है कि माँ-बाप से। इन दोनों से अगर बचे हुए हो तो फिर दोस्त-यार। रिश्तों का और कोई तीसरा प्रकार तो कम ही होता है।

अगर पत्नी से, प्रेमिका से आपका झंझट नहीं है तो माँ या बाप से होगा। उनसे भी नहीं है तो दोस्त-यार से होगा, इसके अलावा कहाँ कोई झंझट होता है! फिर इसके बाद तुम्हारा जो व्यावसायिक जीवन है वो आ जाता है। उसमें कुछ लोगों को अपने बॉस वगैरह से झगड़ा होता है, वो उस रिश्ते की बात करते हैं। और उसको आमतौर पर रिश्ता नहीं बोला जाता, वो तो ऐसे ही है बाजारू चीज़ तो उसमें क्या रिश्ता बोलना! तो गौर से देखा करो, ‘ये जो चल रहा है मेरे और दूसरे व्यक्ति के बीच में ये क्या है? इसमें मेरा क्या है? इसमें इसका क्या है? इसमें हम दोनों को ही क्या मिल रहा है? और हम जिस प्रकार से संबंधित हैं, उसमें अगर दोनों को ही कुछ नहीं मिल रहा, तो हम ऐसे संबंधित हैं ही क्यों? हम क्यों नहीं किसी दूसरे तरह का संबंध बना सकते?’

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, खुद को जानने का कोई तरीका होता है?

आचार्य प्रशांत: वो रिश्तों से ही होता है। जिनसे संबंधित हो, देखो कि उनको लेकर के मन में क्या भावना है। अब जैसे किसी को दोस्त बोलते हो और परीक्षा का परिणाम आए और पता चला कि तुम्हारे दोस्त ने टॉप कर दिया है, देखो कि तुरंत भीतर से क्या भाव उठा, बड़ी खुशी उठी या ईर्ष्या उठी? यही क्षण है स्वयं को जानने का। आत्मज्ञान की यही विधि है — अपने संबंधों, अपनी प्रतिक्रियाओं को देखो। और प्रतिक्रिया अपने संबंधों को ही तो दी जाती है। जिससे संबंधित हो उसको तो प्रतिक्रिया करोगे, जिससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं, उसको क्या प्रतिक्रिया करोगे तुम? तो खुद को जानने का यही तरीका है, अपनी प्रतिक्रियाओं को देखना।

तुम्हें किसी ने आकर बताया — मान लो मोहन नाम का तुम्हारा कोई दोस्त है — ‘मोहन ने टॉप किया,’ देखो भीतर से कैसी भावना उठती है। और कहने को मोहन तुम्हारा बहुत अच्छा यार है और जैसे ही पता लगा उसने टॉप किया, देखो भीतर से क्या होता है। या पता चला कि तुम्हारा कोई दफ़्तर में सहकर्मी है उसका प्रमोशन हो गया, प्रोन्नति हो गई। उसने ज़्यादा बड़ी कार खरीद ली, वो अपनी कार लेकर आया है, दिखा रहा है, तुमसे भी कह रहा है, ‘आओ, बैठो! एक राइड लेकर आते हैं।’ अब तुम बैठ तो गए हो, पर ऐसे बैठे की उसकी सीट जला दी तुमने! ऐसा दाह उठा कि जब उठे तुम, तो नीचे से सीट काली थी, तो इससे पता चल जाएगा हम कौन हैं। यही तो आत्मज्ञान की विधि है; और क्या विधि होती है आत्मज्ञान की।

जो लोग नई गाड़ियाँ वगैरह खरीद रहे हैं उन्हें सतर्क रहना चाहिए, सीटें जलने का खतरा होता है! अपने ही घर वाले होते हैं, अपना ही भाई होता है, वो आगे बढ़ रहा होता है, देखो, भीतर से क्या होता है। या किसी का तुम्हें पता चला नुकसान हो गया और तुमने अगर पकड़ लिया कि उसी वक्त खुशी की एक तरंग ही उठ गई, तो जान लेना राक्षस हो। और सब राक्षस हैं, किसी के नुकसान की बात पता चले और मन पुलकित न हो जाए ऐसा होता ही नहीं, यही तो आत्मज्ञान है।

आत्मज्ञान माने कुछ थोड़ी कि भीतर कोई गुप्त आत्मा बैठी हुई है और जाकर के उसको किसी विधि से तलाशना है कि वो आत्मज्ञान कहलाता है। हमारे भीतर राक्षस बैठे हुए हैं और उन्होंने बड़े सम्मानीय और सामाजिक चेहरे, नकाब पहन रखे हैं। उन राक्षसों का नकाब उतारना, भीतर जो गंदगी है उसका साफ़-साफ़ चेहरा देख पाना, यही आत्मज्ञान है। कहीं गए कुछ खेल रहे थे; और किसके साथ खेल रहे थे? अपने भांजा छोटा है उसके साथ खेल रहे थे। और भांजे ने हरा दिया — और बहुत छोटा है, पंद्रह साल छोटा है तुमसे और उसने हरा दिया तुमको, ठीक? तुम सत्ताईस साल के हो, भांजा पंद्रह साल का है, उसने हरा दिया तुमको और तुम्हें क्रोध आ गया — ये आत्मज्ञान का क्षण है।

‘मैं एक बच्चे से हारना बर्दाश्त नहीं कर सकता। वो भी वो जो मेरे रिश्ते में भतीजा-भांजा है मेरा। और उसने हरा दिया और देखो, मैं कुपित हो गया। और कुपित ही नहीं हो गया, बेईमानी करने लग गया, बोले, ‘तू हारा है।’ छोटे बच्चे के साथ और बेईमानी कर रहे हैं, वो भी खेल में, ये आत्मज्ञान है। और ऐसे ही होते हैं हम।

बाज़ार गए हैं, वहाँ बेचारी फुटपाथ पर एक सूखी सी बुढ़िया बैठी हुई है। वो पालक, मेथी, चार टमाटर, प्याज लेकर बैठी हुई है बेचने के लिए। और उसको देखते ही पहला ख्याल ये आया कि इस बुढ़िया से तो माल सस्ता मिल जाएगा, आज सब्जी इसी से ले लेता हूँ। ये आत्मज्ञान का क्षण है कि कितना मैं गिरा हुआ आदमी हूँ कि ये बेचारी वृद्धा दिख रही है, बिल्कुल दो हड्डी की बची है और इसको भी देखकर के मुझे विचार पहला यही आया कि इसका ये पालक, मेथी ज़रा आज सस्ते में ले लेता हूँ। क्योंकि ये तो बुढ़िया है, सस्ते में दे देगी सबकुछ। ये आत्मज्ञान का क्षण है।

कोई सामने आकर दमदार आदमी खड़ा हो गया और उसको देखते ही चेहरे से मुस्कान फूटने लग गई, करबद्ध हो गए, ऐसे (हाथ जोड़ते हुए) करके खड़े हो गए। और नहीं देखा, कैसे झूठी मुस्कुराहट लोग लपेटते हैं चेहरे पर, लपेट ली है और थोड़ा मीठी, मधुर वाणी में बात करने लग गए। ये आत्मज्ञान का क्षण है कि जैसे ही सत्ता सामने आती है, जैसे ही सामने ताकत का दृश्य खड़ा होता है, रीढ़ एकदम झुक जाती है। ये आत्मज्ञान का क्षण है। और बुढ़िया को लूटने को तैयार थे, कोई साधारण सा, ऐसे ही कोई सामने एमपी , एमएलए (विधायक) खड़ा हो गया है और जी-जी करना शुरू कर दिया उसको, यही तो आत्मज्ञान है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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