ऋषियों को परमात्मा के बारे में कैसे पता? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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ऋषियों को परमात्मा के बारे में कैसे पता? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: उपनिषदों के ऋषि कहते हैं कि परमात्मा अति सूक्ष्म या अति वृहद है और हमारे हृदय में स्थित है। इस बात का प्रमाण क्या है, और उन्हें कैसे पता?

आचार्य प्रशांत: इस बात का कोई प्रमाण नहीं होता कि वो सूक्ष्म से सूक्ष्म या बृहद से बृहदतर है। इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं होता कि वो हृदय में स्थित है। उसके होने का ही कोई प्रमाण नहीं होता, उसको अप्रमेय कहा जाता है।

अप्रमेय माने जिसको प्रमाणित नहीं किया जा सकता; जिसको किसी अन्य साधन का प्रयोग करके प्रमाणित नहीं किया जा सकता, उसको सत्य कहते हैं। लेकिन प्रमाण इस बात का ज़रूर मिल सकता है तुम कितनी भी सूक्ष्म गहराइयों में चले जाओ विचार की, संसार की, तुम ठहर नहीं पाते। और इसका प्रमाण क्या है? इसका प्रमाण तुम खुद ही हो।

तुम कितने भी विस्तार में दौड़-धूप कर लो, यहाँ चले जाओ, वहाँ पहुँच जाओ; इसको पकड़ लो, उसको छोड़ दो; पृथ्वी का एक कोना से दूसरा नाप लो लेकिन फिर भी तुम्हें चैन नहीं पड़ता। तो इस बात का प्रमाण उपलब्ध है कि तुम कितना भी विस्तार ले लो, उसके अंदर तो वो नहीं है जिसके लिए तुम आकुल रहते हो। तो बस ये कहा जा सकता है कि बड़े से बड़े में भी वो समाता नहीं है क्योंकि जो सबसे बड़ा हो सकता था हमारे अनुभव में, हमारे देखे, हमने उसको भी आज़मा कर देख लिया। और हमने यह भी देख लिया कि जो बड़े से बड़ा है और जो छोटे से छोटा है, है वो कुछ मूल भौतिक-मानसिक तत्वों का विस्तार या संकुचन ही।

चीज़ एक ही है; और वो चीज़ भौतिक है, मानसिक है जिसको विचार में लाया जा सकता है, जिसको अनुभव में पकड़ा जा सकता है। उसको तुम जब बहुत फैला कर के देखते हो तुम कह देते हो ये ब्रह्मांड है। और उन्हीं तत्वों को जब तुम संकुचित करके देखते हो, एकाकी करके देखते हो, तो तुम कह देते हो ये अणु हैं। लेकिन अणु की सूक्ष्मता हो या ब्रह्मांड की विशालता, है तो वो एक ही तत्व का विस्तार न। कौन-सा तत्व? जिसको तुम पदार्थ बोलते हो। जिसको अगर बाहर देखो तो कह दोगे कि ये तत्व भौतिक है। और जिसको जब अनुभव में ले लेते हो तो कह देते हो ये तत्व मानसिक है।

तो समझने वालों को एक बात समझ में आई, उन्होंने कहा कि खूब दूर तक जा करके देख लिया, 10 मील दूर जा करके देख लिया और ये समझ में आ गया है कि दसवें मील पर जो अनुभव हुए हैं वो मूलतः आठवें मील पर हो रहे तत्वों का ही विस्तार हैं। और आठवें मील पर जो अनुभव हुए वो छठे मील पर हो रहे तत्वों का विस्तार हैं।

इसी को सांख्य योगी कहेंगे कि जो कुछ भी सामने अनुभव में आ रहा है वो बन तो प्रकृति के तीन गुणों से ही रहा है। हाँ, जो उत्पाद निकल कर के आ रहा है उन तीन गुणों के अलग-अलग प्रकार के योग से और मिश्रण से, वो जो पदार्थ है वो अलग दिखाई देता है। ठीक है! लेकिन मूल तत्व तो एक ही है हर पदार्थ का।

तो दसवें मील पर जो मिला वो आठवें मील पर जो चीज़ मिली थी, उससे कुछ अलग नहीं थी। आठवें मील पर जो मिला वो छठे मील पर मिली चीज़ से कुछ अलग नहीं था। दिखने में अलग था पर उसकी गहराइयों में जाओ तो वही चीज़ समझ में आएगी कि है। ठीक वैसे जैसे कि सब पदार्थ दिखने में अलग-अलग होते हैं पर भीतर जाओ तो पाओगे कि सब में परमाणु होते हैं।‌ तुम कह सकते हो कि भई अणु-परमाणु भी तो सबके अलग-अलग होते हैं न! सोडियम एटम ऑक्सीजन एटम से अलग होता है।‌

फिर और उसमें गहरे जाओगे तो तुम्हें पता चलेगा कि लो, जो भेद दिखाई देते थे वो भी मिट गए। भीतर क्या है? अभी मैं फिज़िक्स (भौतिक विज्ञान) की थोड़ी-सी पुरानी थ्योरीज़ (सिद्धांतों) को ले रहा हूँ, अभी मैं कुआर्क और स्ट्रिंग की नहीं बात करूँगा, अभी सीधे-सीधे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन की बात कर लेते हैं। तो वो सब कुछ जो बाहर-बाहर से अलग-अलग दिखाई दे रहा है, भीतर जाओ तो पता चलता है वही तो चल रहा है — ई, एन, पी। उनकी बस संख्याएँ अलग-अलग हैं, उनके कन्फीग्रेशन (विन्यास) अलग-अलग हैं तो हमें लगता है कि चीज़ अलग है। अलग कुछ नहीं है।

जिसको ये समझ में आ गया कि अलग कुछ नहीं है वो कह देता है कि फिर अब दसवें मिल से बारहवें मील पर जाने पर अलग मिल क्या जाएगा? इसी का पूरा खेल चल रहा है, उसको चाहो तो तुम कह दो प्रकृति के तीन गुण हैं और चाहो तो कह दो इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन, प्रोटॉन हैं। मैं नहीं कह रहा हूँ कि इलेक्ट्रॉन-प्रोटॉन-न्यूट्रॉन सत-रज-तम होते हैं। ये जोड़ मत बैठा लीजिएगा। लेकिन बात ये है कि कुछ मूल चीज़ें हैं उन्हीं का आपको विस्तार देखने को मिल रहा है और उन्हीं का संकुचन देखने को मिल रहा है।

ज्ञानी ये बात समझ जाता है, वो ये उम्मीद रखनी छोड़ देता है कि और आगे जाएगा तो उसे कुछ नया मिल जाएगा। वो समझ जाता है कि ये जो आयाम है ना अनुभव का, ये जो आयाम है पदार्थ का, इस आयाम पर विस्तार तो मिल सकता है, नवीनता नहीं मिल सकती। विस्तार का मतलब समझ रहे हो? कि जो अनुभव तुमको आज से 20 साल पहले हुआ था वही अनुभव एक नया रूप धर के नए कपड़े पहन के नया नाम ले के अपनेआप को फिर तुम्हारे सामने ले आ देगा। वो बिल्कुल अलग दिखेगा पर वो वास्तव में वैसा ही होगा।

अच्छा एक बात बताना, तुम्हें जीवन भर जो अनुभव होते हैं, उन अनुभवों में भय, आश्चर्य, लोभ, मद, मात्सर्य, मोह, आकर्षण, इनके अलावा कुछ होता है। हाँ, ये हो सकता है कि आज आकर्षण एक चीज़ का हुआ हो और पाँच साल बाद आकर्षण दूसरी चीज़ का हो। ये हो सकता है कि आज एक चीज़ से भय हो और दस साल बाद किसी दूसरी चीज़ से भय हो, लेकिन ले दे कर के सब अनुभवों के आधार में कुल यही तो पाँच-सात चीज़ें हैं न। और इन पाँच-सात के भी आधार में एक ही चीज़ है उसको अहम् वृत्ति बोलते हैं।तो नया क्या हो रहा है हमारे साथ? नया कुछ भी नहीं हो रहा।

आपको आज भी वही अनुभव हो रहे हैं जो आपको अपने जन्म के पहले दिन हुए थे। आपको घर में भी वही अनुभव हो रहे हैं जो आपको दफ्तर में और बाज़ार में होते हैं। आप प्रधानमंत्री बन जाइए, आपको वही अनुभव हो रहे होंगे जो किसी अदने से चपरासी को होते हैं कहीं पर। कोई फ़र्क नहीं है। बिलकुल कोई फ़र्क नहीं है!

ये बात बहुत लोगों को विचित्र लगेगी। कहेंगे ऐसा कैसे हो सकता है? एक बहुत अदना कर्मचारी हो और एक देश का वरिष्ठतम अधिकारी हो, प्रधानमंत्री, इन दोनों के अनुभव एक कैसे हो सकते हैं? बिलकुल एक हैं। आयाम एक है, बस मात्रा में अंतर है। आयाम एक है, बस संख्या में अंतर है। ये दो चीज़ें बदल सकती हैं — मात्रा और संख्या। लेकिन आयाम वही है; चीज़ वही है। बात समझ रहे हो? जैसे कि छोटा आलू और बड़ा आलू और एक छोटा आलू और एक दर्जन बड़े आलू। छोटे आलू और बड़े आलू में किस चीज़ का अंतर है? मात्रा का। और एक आलू और एक दर्जन आलू में किस चीज़ का अंतर है? संख्या का। पर आलू तो आलू है।

एक होगा बेचारा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, उसको एक छोटा आलू मिला है। उसको क्या मिला? —एक छोटा आलू; और होंगे आप प्रधानमंत्री, आपको एक दर्जन बड़े आलू मिले; मात्रा भी ज़्यादा है, संख्या भी ज़्यादा है लेकिन मिला क्या है? आलू ही तो मिला है न! बात समझ में आ रही है न। कुतर्क मत करने लग जाइएगा कि नहीं उसको आलू नहीं पनीर भी मिलता है। ये सब बेकार की बातें मत करिए। जिन्हें समझना है वो बात को समझ रहे होंगे।

समझ में आ रही है बात?

तो ऋषियों ने ऐसा नहीं करा कि सूक्ष्म और सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम के अतीत जो है उसको पा लिया है और तुम बेचारे वंचित रह गए हो; तुम कह रहे हो उनको कैसे मिल गया, और क्या प्रमाण है कि उनको मिल भी गया, फर्ज़ी नहीं उड़ा रहे हैं वो?

नहीं। उन्हें कोई बात समझ में आ गई। उन्हें समझ में आ गया है कि ज़िंदगी के 20 साल में जो हुआ है न वही आगे 80 साल तक दोहराएँगे और 20 साल में जब नहीं मिला तो 80 साल में भी नहीं मिल जाना है। अपना एक पोस्टर है जो बोलता है 'पुराने रास्तों पर चल के नई मंज़िल तक कैसे पहुँच जाओगे!' बिलकुल वही बात है जो ऋषि को समझ में आ गई है। क्या? पुराने रास्तों पर बस कोई एक मील चल रहा है, कोई बहुत सफल आदमी है जीवन में समाज में, वो 1000 मील चल रहा है पर रास्ता तो पुराना ही है न। उस पर मिल सकती है नई मंज़िल? नहीं मिलेगी। लेकिन हम यही सोचते हैं। हम सोचते हैं गलत काम को अगर एक हज़ार बार करेंगे तो उसमें से कोई सही परिणाम आ जाएगा; आ सकता है? हम सोचते हैं पुराने काम को ही अगर हज़ार बार करेंगे तो कोई नया परिणाम आ जाएगा, आ सकता है क्या?

जैसे कोई एक ही रास्ते पर रोज़ सुबह निकलता हो, रोज़ शाम लौटता हो और अगली सुबह फिर निकल पड़ता हो इस उम्मीद में कि आज हो सकता है किसी नई जगह पहुँच जाऊँ।

जैसे कोई 2003 के विश्व कप की हाइलाइट्स रोज़ देखता हो, बार-बार देखता हो और रोज़ आशा करता हो कि क्या पता इस बार भारत जीत जाए। हार गया था भारत फाइनल में।‌ और है कोई जो उम्मीद बाँधे बैठा है कि क्या पता अब जीत जाए। वो रोज़ सुबह टीवी लगाता है और जो रिकॉर्डेड हाइलाइट्स हैं, उनको फिर से देखता है और कहता है इस बार तो जीत ही जाए। कैसे जीत जाएगा! तुम सौ बार देखो, तुम पाँच हज़ार बार देखो। आम आदमी की ज़िंदगी ऐसी ही है।

जो चीज़ें असफल हो चुकी हैं, हम उनको बदलना नहीं चाहते। हम अपने आपको एक झूठी सांत्वना, झूठी आशा में रखते हैं कि क्या पता कल कुछ बदल जाए, ऐसे ही बदल जाए। नहीं, ऐसे ही नहीं बदलेगा। ज़्यादा करके नहीं बदलेगा। कुछ बहुत अलग करना पड़ेगा; कुछ आयामगत रूप से भिन्न करना पड़ेगा।

बात समझ में आ रही है? ये समझ रहे हो!

ये एक आयाम है, इसको क्या बोलते हैं, एक्सिस (अक्ष) या डायमेंशन (आयाम)। ठीक है, ये एक आयाम है, आयाम। इस आयाम पर कोई चीज़ अगर छोटी होती गई तो उसे हम कहते हैं कि वो सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जा रही है — अणु रणीयान उसको बोलते हैं। और उसी आयाम पर कोई चीज़ अगर विस्तार लेती जाए बड़ी होती जाए, अपनी मात्रा, अपनी संख्या में इज़ाफ़ा करती जाए तो उसको हम कहते हैं वो आगे बढ़ रही है, उसको कहते हैं महत्त्व महीयान, वो बड़ी होती जा रही है।

लेकिन छोटी हो रही हो बड़ी हो रही हो, है तो इसी एक्सिस पर न, इसी डायमेंशन में है। ऋषि को ये बात समझ में आ गई है। वो बोले, इस पर हम दौड़ लगाएँगे ही नहीं। क्योंकि हमें जो चाहिए वो हमें अब मिल नहीं रहा है, वो इस पर मिल ही नहीं सकता। इस पर मिलना होता तो जहाँ हम खड़े हैं, वहीं मिल गया होता। क्योंकि आगे भी क्या है? वही जो यहाँ पर है; और पीछे भी क्या है? वही जो यहाँ पर है। तो आगे-पीछे जाकर के क्या प्रयोग करें? क्या करें, क्या श्रम करें? अगर इस आयाम पर सत्य मिलना होता, मुक्ति मिलनी होती, चैन मिलना होता तो ठीक वहीं मिल गया होता जहाँ हम खड़े हैं। यहाँ नहीं मिल रहा न तो यहाँ मिलेगा ही नहीं, कहीं नहीं मिलेगा। मूर्ख हैं वो जो दौड़ लगाते रहते हैं उम्र भर ये सोच करके कि इस आयाम पर सफल हो सकते हैं, नहीं हो सकते।

तो फिर वो क्या करते हैं? वो कहते हैं, अब विधि लगानी पड़ेगी ऊपर जाने की। बात समझ रहे हो? तुम क्या खोज रहे हो? तुम आकाश के तारे खोज रहे हो। लेकिन तुम अपनेआप को बड़ा पुरुषार्थी बड़ा कर्मठ मानते हो, “मैं तो साहब जवान आदमी हूँ और बहुत बुद्धिमान हूँ, ये कर सकता हूँ वो कर सकता हूँ।” तो तुम तारे खोजने के लिए पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ जाते हो। मिल जाएँगे क्या? मेहनत तो तुमने बहुत करी है!

और एक दूसरा है, वो कहता है, “नहीं, नहीं, नहीं। ये स्थूल काम करने से नहीं होगा, कि इधर से उधर दौड़ गए।” वो क्या करता है? वो कहता है चलो मिट्टी खोदते हैं। वो मिट्टी का ढ़ेला लेता है, उसका शोध शुरू कर देता है। वो मिट्टी के कण तक पहुँचता है, उस कण में भी वो भीतर घुस जाता है। उस सिलिका के मॉलिक्यूल (अणु) तक पहुँच जाता है। वो उसको भी तोड़ डालता है। उसके हाथ में सिलिकॉन आ जाता है, उसके हाथ में ऑक्सीजन आ जाता है, वो उनको भी तोड़ डालता है, उनके भी अंदर घुस जाता है। उसको भी तारे मिल जाएँगे क्या? बोलो।

तुम जहाँ खड़े हो, वहाँ से बहुत दूर तक दौड़ जाओ तो हो सकता है तुमको पहाड़ मिल जाए बहुत विशाल, महत्त्व महीयान, बहुत बड़ा पहाड़ मिल गया, तारे मिल जाएँगे क्या? और तुम जहाँ खड़े हो, वहाँ से ही तुम ढ़ेला उठा करके, उस ढ़ेले को तोड़ डालो, उसके बिलकुल हृदय में प्रवेश कर जाओ पदार्थ के, पदार्थ में भी कितना गहरे प्रवेश कर जाओ तो भी तारे मिल जाएँगे क्या? क्यों नहीं मिलेंगे? भूल कहाँ पर हो रही है? भूल ये हो रही है कि हम जो कुछ कर रहे हैं इसी आयाम में कर रहे हैं। तारे कहाँ हैं? वो ऊपर हैं।

यही आदमी की मूल भूल है। क्या? हम जो कुछ करते हैं अपनी आयाम में करते हैं। इसी आयाम को प्रकृति का आयाम कहते हैं, पदार्थ का आयाम कहते हैं, जगत का आयाम कहते हैं। और अगर अपनी ओर मुँह करके बात करनी हो तो इसको अहम् का आयाम कहते हैं। क्या कहते हैं? अहम् का… अहम् के आयाम पर वो तुम्हें नहीं मिलेगा जो तुम चाहते हो।

जो सूक्ष्म से सूक्ष्मतर है, जो स्थूल से स्थूलतर है, वो सब कहाँ है? इसी अहम् के आयाम पर है। यहाँ नहीं मिलेगा। हाँ, तुमको ये गौरव ज़रूर बना रहेगा, ये ठाठ बना रहेगा, क्या? “हमने कुछ करके दिखाया। हम सूक्ष्मतम तक पहुँच गए और हम स्थूलतम तक पहुँच गए।” तुमको इस जगत के सब पुरस्कार मिल जाएँगे। तुम्हें हो सकता है कि नोबेल पुरस्कार मिल जाए। क्योंकि तुमने बहुत बड़ी चीज़ करके दिखा दी है। लेकिन तुमको वो नहीं मिलेगा जिसके लिए खुद महाशय नोबेल भी तरसते थे, क्या? चैन।

बात समझ में आ रही है!

तो ऋषि को ऊपर का अगर कुछ मिल भी गया है तो वो उसका प्रमाण नहीं दे सकते। आपने प्रमाण माँगा। प्रमाण लेकिन उनको इस बात का ज़रूर मिल गया है कि यहाँ नहीं है। और अध्यात्म इसी कला का नाम है — ये जानना कि यहाँ नहीं है, कि कहाँ नहीं है? कहाँ-कहाँ उसको नकारा जा सकता है। कहाँ पाया जा सकता है, इसकी बात करना बेईमानी है, वो बहुत अहंकार हो जाता है।

कि यही बात करने निकल पड़े कि कहाँ मिलता है सत्य? आत्मा का अड्डा क्या है? ब्रह्म का पता क्या है? ये बहुत बड़े अहंकार की बात है। ये नहीं करनी होती है। हमें क्या कहना है — कहाँ नहीं है? यहाँ नहीं है भाई यहाँ नहीं है। और यहाँ नहीं है तो यहाँ फ़ालतू तलाशने से, ज़ोर लगाने से, मेहनत करने से, जीवन समय ज़ाया करने से कोई लाभ नहीं है। आ रही है बात समझ में?

जल्दी से ये मत पूछ दिया करो — आपने आत्मा को देखा है? आप भगवान से मिले हैं? आपका सत्य से परिचय है? आप ब्रह्मविद् हैं? आपको कैसे पता? अरे! हमें कुछ नहीं पता। पर हमें ये ज़रूर पता है कि कैसे पता नहीं चलेगा। हमने कुछ नहीं पाया पर हमने इतना ज़रूर पा लिया है कि कैसे नहीं पाया जा सकता। तो अब मिलें ना मिलें वो अलग बात है, एक बात पक्की है — फ़िज़ूल श्रम करके पागल नहीं बनेंगे, थकेंगे नहीं। गलत जगहें उम्मीद नहीं बाँधेंगे।

समझ में आ रही है बात? स्पष्ट है, सबको? नकारते हुए चलना होता है। आत्मा का नहीं, अहम् का अनुसंधान करना है। सच को नहीं, झूठ को खोजना है बार-बार। और अगर कोशिश कर सको तो बाहर जो झूठ है उससे पहले भीतर के झूठ को खोजना है।

हम क्यों इसी आयाम पर खोजते रहते हैं, भटकते रहते हैं सफलता ना पाने के बावजूद भी? या अगर ज़रा सी भी सफलता मिल गई तो उसी से क्यों आल्हादित हो जाते हैं? इसको क्यों नहीं छोड़ना चाहते हम, इस आयाम को? तारे चाहिए और दौड़ लगा रहे हैं ज़मीन पर! ये मूर्खता हम क्यों करते रहते हैं? क्यों करते रहते हैं? क्योंकि ज़मीन जानी पहचानी है। आदत लगी है ना ज़मीन की!

श्रोता: सिखाया भी यही गया है।

आचार्य: सिखाया भी यही गया है। शिक्षा भी यही मिली है।

श्रोता: शिक्षा भी यही दी गई है हमको।

आचार्य: ऊपर जाना थोड़े श्रम का कष्ट का काम है, ढ़र्रे टूटते हैं। दूसरी बात, वो जगह है अंजानी। वो जगह है अंजानी। हमें एक परिचित असफलता मंज़ूर है। हम कहते हैं असफलता भी मिल रही है तो उस असफलता से हमारा पुराना परिचय है। हम जानते हैं उस असफलता में कितना दर्द होगा। पहले से ही हमें उसका अंदाज़ा है, अनुभव है। तो वो असफलता हम झेल लेंगे। ऊपर अगर सफलता भी मिल रही होगी तो वो अपरिचित होगी, नई होगी; और नए से हमको लगता है डर। और नए से डर क्यों लगता है? क्योंकि भीतर बैठा है चोर, जिस को पता है कि पोल-पट्टी कभी भी खुल सकती है। तो वो जो पुराना, तयशुदा, सुरक्षित माहौल है, उसी में बने रहना चाहता है।

चोर अपने अड्डे से आसानी से बाहर निकलता है क्या? उसे पता है बाहर निकलेंगे तो, बाहर निकलता भी है तो कैसे इधर-उधर देखता रहेगा, भीतर कंपित रहेगा, सब पर शक करेगा। ऐसे ही हम हैं। जिस आयाम में, जिस तल पर हमने रिश्ते बना लिए हैं, घर सजा लिए हैं, तमाम तरह की सहूलियतें और सुरक्षाएँ बना ली हैं, उसको हम छोड़ना नहीं चाहते। उसी पर पिटते हैं, उसी पर मिटते हैं, पर उससे उठते नहीं हैं। पिटना भी मंज़ूर है, मिटना भी मंज़ूर है, उठना मंज़ूर नहीं है — ये हमारी ज़िंदगी है।

समझ में आ रही है बात?

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=eFFscojLjck

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