प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, हर कंट्री हर कॉन्टिनेंट ज्यादा से ज्यादा पावरफुल होना चाहता है और ये भी उनका एक अहम है कि हम इनसे आगे निकलना चाहते हैं। और मैं देख पा रही हूँ कि हर जगह पर हमें विषमता दिखती है। हम फिर कहीं ना कहीं मुझे ऐसा होता है कि हम क्या कर सकते हैं? कि हम एक साथ आके रह सके जैसे कि हम बोलते हैं वसुधैव कुटुम्बकम। तो कहीं पर मैं बेबी एडप्शन की भी बात करती हूँ, तो उनको एकदम अलग ही चीजें लगती है ये सब के ऐसा अपना बच्चा अपना होता है।
एनिमल्स की बात करती हूँ तो भी उनको एकदम अलग लगता है, कि ये सारा अहम अगर हम सब में है तो हम कहाँ जा के अटकेंगे? क्योंकि कहीं ना कहीं ऐसा भी लगता है कि दुनिया का अंत भी आ रहा है। क्या हम कभी भी वसुधैव कुटुम्बकम ये कांसेप्ट को, ये कांसेप्ट तो नहीं है ये करुणा है। ये स्वीकार कर पाएँगे? और अगर कुछ भी है जो हम हमारे साइड से कर सके तो वो क्या हो सकता है? क्योंकि ये सब सोच के फिर बहुत दुख होता है ऐसा लगता है कि आई एम हेल्पलेस। तो क्या करना चाहिए ऐसे सिनेरियो में?
आचार्य प्रशांत: जहाँ-जहाँ गंदगी मची है सफाई भी वहीं करनी पड़ेगी ना। सारी गंदगी इंसान के मन में मची हुई है उसी को साफ करना पड़ेगा और तो कोई तरीका है नहीं। दुनिया में आप जितनी गंदगी देख रहे हैं वो सबका स्रोत तो इंसान का खोपड़ा है ना। फैक्ट्री तो यहाँ (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) है, उसी से माल, गंदा माल, कचरा तैयार होकर पूरी दुनिया पर छा गया। हथियार सारे यहाँ (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) पैदा होते हैं। उसके बाद हथियारों की फैक्ट्री में पैदा होते हैं। एटम बम किसी लैब में नहीं पैदा हुआ पहले इंसान के खोपड़े में पैदा हुआ। इंसान के खोपड़े ने सारी इक्वेशंस तैयार कर दी, ऐसा-ऐसा-ऐसा- ऐसा ये होगा, ये होगा, ये होगा। पहले यहाँ जब तैयार हो गया तो फिर फैक्ट्री में तैयार हुआ। तो सारी गंदगी जब यहाँ (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) है, सारी हिंसा जब यहाँ है तो सारी सफाई भी यहीं करनी पड़ेगी ना।
बच्चे हों या बड़े हों सबको समझाना पड़ेगा कि विविधता एक बात होती है विविधता को विषमता मत बनाओ। दो अलग हैं इसका मतलब ये नहीं है कि उनमें से एक श्रेष्ठ है, एक हीन है। और अगर कुछ श्रेष्ठ कुछ हीन तुम्हें लग भी रहा है तो पहले देखो कि क्यों लग रहा है? श्रेष्ठता और हीनता का आधार बता दो? अगर कोई इसलिए श्रेष्ठ लग रहा है कि बुद्ध है और कोई इसलिए हीन लग रहा है कि बुद्धू है तब तो ठीक है, चलेगा। पर अगर कोई इसलिए श्रेष्ठ लग रहा है कि पीला है और कोई इसलिए हीन लग रहा है कि काला है तो नहीं चलेगा। तो विषमताएँ पैदा करने से पहले यानी कि अर्थगत भेद, मूल्यगत भेद निश्चित करने से पहले अपने माही टटोल।
किसी को क्यों कह रहे हो कि वो ठीक है? किसी को क्यों कह रहे हो कि वो गलत है? तुम्हें कैसे पता कि वो ठीक है? तुम्हें कैसे पता वो गलत है? और बड़ी हिम्मत चाहिए जब तुम्हारे आसपास पूरा समुदाय ऐसा हो और सबके संस्कार ऐसे हो कि एक वो ठीक है ही है जैसे चलता है। और वो जो दूसरा है वो गलत है ही जैसे चलता है तो वहाँ पर ये सवाल उठाना भी। कि हमें कैसे पता है कि वो ठीक है? कैसे पता गलत है?
ये बड़ी हिम्मत का द्योतक है, लोगों में इतनी हिम्मत होती नहीं कहते हैं हम भी भीड़ के साथ हो लेते हैं। भीड़ कहीं जा रही है दंगा करने आग लगाने हम भी साथ हो लिए और ये बात सिर्फ सामाजिक व्यवहार की नहीं है व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसे करो, ऐसे मत करो। इस उम्र में ये करो, अब वहाँ जाओ, अब ऐसा करो, अब ये कमाओ, अब ये नहीं करना चाहिए। इतना तो ऐसे खर्च करना चाहिए। ऐसे कुछ करके पैसे बचाने चाहिए। तुम्हें कैसे पता ये सब कुछ, बताओ? तुम्हें कुछ भी कैसे पता? मैंने एक दफ़ा आप लोगों को एक्टिविटी दी थी कि, अगर आपको बताया ना गया होता तो बताओ आपको क्या पता होता? और,
जो आपको पता हो जाए बिना किसी के बताए मात्र वो आपका है। बाकी सब आपकी गुलामी है।
ये सब बातें हमें करनी पड़ेंगी खुल के करनी पड़ेंगी क्योंकि गंदगी सारी यहाँ (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) है। उसकी सफाई का यही तरीका है, आत्म-जिज्ञासा। पूछो कि तुम्हारे खोपड़े में जो भरा हुआ है वो कहाँ से आया? और बड़ा बुरा लगता है जब दिखाई देता है कि अपना तो है ही नहीं। कोई और आकर गंदगी बाहर से खोपड़े में डाल गया और जिसने खोपड़े में गंदगी डाल दी हमने उस खोपड़ी को और संवर्धित कर दिया गंदगी को और मल्टीप्लाई कर दिया।
लेकिन सच्चाई के लिए जब प्रेम होता है, सफाई के लिए जब प्रेम होता है तो आदमी फिर गंदगी के तथ्य को नकारता नहीं है वो कहता है हम देख पा रहे हैं कि बहुत गंदगी है। साफ करेंगे। शायद देखते ही सफाई शुरू हो जाती है फिर तीसरी बार सब कुछ यहीं (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) है यहीं है सब कुछ, तो सब ठीक भी यहीं करना पड़ेगा। यहाँ ठीक करे बिना इधर-उधर तलवार भांझने से कुछ नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता: तो हम इंडिविजुअल लेवल पर तो आप हैं हमारे साथ और आप हमारा कचरा साफ कर रहे हैं। पर हम अगर कोई एकदम ही बेस लेवल पर है जो अभी बाकी कुछ समझ नहीं पा रहा उसे भी थोड़ा सा भी ऊपर लाने के लिए कि शायद ये इवेंचुअली आपके साथ जुड़े या कुछ भी, अच्छे रास्ते पे आ जाए। ऐसा कुछ करने के लिए हम इंडिविजुअल लेवल पे क्या कर सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: सब इंडिविजुअल लेवल पर ही करते हैं भाई। जब मैं पैदा हुआ था तो ऐसा थोड़ी था कि मेरे दादा जी ने आकर के मेरे नाम से मुझे 150 किताबें दे दी थी। और मेरे पिताजी ने मुझे 55 मिलियन का चैनल दे दिया था। मैंने भी तो इंडिविजुअल लेवल पर दो-दो, चार-चार, पाँच-पाँच लोगों से ना जाने कितने सालों तक बात करी होगी। आप थोड़ा सोचो तो, कहीं पहाड़ पर बैठकर आठ लोगों से बात कर रहा हूँ, कहीं कुछ कर रहा हूँ, कहीं कुछ कर रहा हूँ। ऐसे करते-करते अपनी भी सोच का परिशोधन होता है और आज आठ से बात कर रहे हो कल 18 होता है, 18 से 80 होता है बाद से बात बढ़ती है। और शुरुआत में तो कोई अपने विचारों में इतनी स्पष्टता रखता भी नहीं है कि सामने इकट्ठे 1000 लोग बैठ जाए तो 1000 लोगों को सही संदेश दे पाए। जिसकी जितनी पहूँच हो उसे जोर लगा कर के उतना करना पड़ेगा और जब जोर लगाते हो तो पहूँच बढ़ जाती है।
प्रश्नकर्ता: आई एग्री।
आचार्य प्रशांत: मेरे साथ ऐसा भी हुआ है और ये कोई बिल्कुल बचपन की नहीं बात कर रहा हूँ। ये अद्वैत लाइफ एजुकेशन के दिनों की बात कर रहा हूँ कि मैं 800 किलोमीटर दूर कहीं पर गया हूँ बात करने के लिए और मेरे आने की खौफनाक खबर शहर में फैल गई है। और ऑडिटोरियम में लोग बैठे हैं कुल आठ और ऑडिटोरियम है 800 लोगों का। 800 लोगों का ऑडिटोरियम 800 किलोमीटर दूर यात्रा करके पहूँचे हैं उसमें आठ बैठे हैं क्योंकि मशहूर तो हम हमेशा से ही थे। ये कर देगा, वो कर देगा। तो जितने मिले उन्हीं से बात कर लेंगे, कभी 800 तो 800, कभी आठ तो आठ, कभी 8 करोड़ तो 8 करोड़।
प्रश्नकर्ता: 800 करोड़।
आचार्य प्रशांत: कभी 800 करोड़ बहुत बढ़िया, लेकिन बात से ही होगा। यहाँ (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) ही है सब कुछ। और यहाँ करे बिना आप भारत की संसद में जाकर के नियम कानून भी बनवा लें तो उससे भी कुछ नहीं होगा, मनुष्य चेतना का प्राणी है। सर्कस का जानवर थोड़ी है कि उसको नियम बता दोगे तो सब ठीक चलेगा, नियम बताने से सर्कस ठीक चल सकता है। मनुष्य के संसार को ठीक चलाना है तो उसको चेतना दो, ज्ञान दो। जान लगाइए ये मत कहिए कि मैं क्या करूँ? मैं तो बस चार लोगों को ही जानता हूँ, मैं क्या करूँ? मैं तो बस अपने मोहल्ले में ही लोगों को जानती हूँ, अपने ऑफिस में ही लोगों को जानती हूँ। घेरो, पकड़ो, बात करो और बहुत-बहुत सारी निराशा बर्दाश्त करो “निराशी निर्ममो भव भूत्वा।” निराशा ऐसी चीज़ नहीं है कि रोने लग गए।
मिलेंगे कितना याद नहीं आता अनगिनत बार हुआ होगा। कुछ थे अपने से थे, मैं उनके लिए एक बार बहुत सारा खाना ले कर गया। किसी को किसी का पति उठा ले गया, किसी की बीवी ले गई, किसी के माँ-बाप आ गए धरने पर बैठ गए उसको उठाकर ले गए। तो पहले तो मैं बहुत दुखी हुआ कि बताओ यार इतना खानावाना लेकर के आया हूँ। कुछ नहीं। फिर मैंने कहा अब ना चूक चौहान इससे बढ़िया कोई मौका मिलेगा? बैठ के डेढ़ घंटे तक मैंने सारा खाना खाया। ब्लेसिंग इन डिसगाइस। रोने से कोई फायदा है? उतने में किसी तरीके से पिंजरे से छूट कर फड़फड़ाती हुई एक दो चिड़िया आ गई एक अपने बाप से छूट के आई थी, एक अपने पति से छूट के आई थी। मैंने कहा खाना तो हो गया खत्म ये थोड़ा सा बचा है तुम्हें चखना चाटना हो तो ले लो। ये सब चलता रहा है बहुत अरसे तक चला है। आज आप देखते हो कि ऑडिटोरियम पैक्ड है ऐसे होता नहीं है। बहुत अकेली शुरुआतें करनी पड़ती हैं अपनी नजर में लगता है बेवकूफ बन गए। कोई बात नहीं चलने देते हैं। चलिए बताइए।
प्रश्नकर्ता: नहीं नहीं आचार्य जी धन्यवाद। ये हेल्प करेगा मुझे।
(2)
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, आचार्य जी आपसे जुड़ने के बाद मेरे जीवन में धीरे-धीरे बदलाव आया है। लेकिन जब हम, जब मैं आपकी बातों को या फिर संस्था से जुड़ी बातों को आसपास के लोगों के पास रखता हूँ या उनसे साझा करता हूँ, तो जो भीतर झुनू बैठा है वो यह सवाल करता है कि जब मुझे खुद पर ही इतना सारा काम करना है। इतना सारा कुछ बाकी है, इतनी सारी खामियाँ हैं तो मैं क्या दूसरों के पास जाके इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहा हूँ?
आचार्य प्रशांत: जो दूसरों के पास जाकर बातें कर रहे हो वही काम है जो तुम्हें अपने ऊपर करना है। अपने ऊपर कैसे काम करोगे? बाथरूम में बैठकर के हाथ-पाँव मलोगे? अपने ऊपर कैसे काम किया जाता है? अपने ऊपर कैसे काम किया जाता है? हम जो कुछ हैं दूसरों के संदर्भ और संबंध में हैं तो अपने ऊपर भी काम दूसरों के माध्यम से ही किया जाता है ना। इतना तो समझाया है द बेस्ट वे टू लर्न इज टू टीच खुद को सीखना है तो दूसरों के माध्यम से सीखना पड़ेगा। ये तो एकदम ही जान छुड़ाने का तरीका है कि कह दिया अभी मुझे पूरी तरह समझ में नहीं आया है इसीलिए मैं अभी दूसरों तक आचार्य जी का संदेश लेकर नहीं जाऊँगा। ना तुम्हें कभी पूरी तरह समझ में आएगा, ना तुम कभी संदेश लेकर जाओगे, ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी। कम एस यू आर एंड फाइट एस यू आर। आचार्य जी ने बुलाया है युद्ध में उतरने को नहीं, अभी तो हम पूरी तरह से शस्त्र विद्या में पारंगत नहीं है। ना कभी तुम पारंगत होने वाले ना कभी तुम युद्ध में उतरने वाले, पारंगत हुआ जाता है युद्ध में उतर करके।
मुझ में कौन सी प्रवीणता थी जो मैं युद्ध में उतर पड़ा था। जिस उम्र में आजकल के ये लड़के, निब्बे रील बना रहे होते हैं, उस उम्र में मैं युद्ध में उतर पड़ा था। मुझ में क्या था? कुछ नहीं था पर एक फैसला था कि लड़ाई अगर सही है, तो उसे पीठ नहीं दिखा सकता। उतर पड़ा युद्ध में और युद्ध में उतरने से ही जो बन गया वो आज तुम्हारे सामने हूँ। नहीं, अभी हमारी तैयारी पूरी नहीं है पर हमें तो आता नहीं है। मुझे क्या आता था? मेरी क्या तैयारी थी? नहीं पहले सीखेंगे धीरे-धीरे ना वो कबीर साहब ने भी तो बोला ना धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होए। ये बात कामना पर तो नहीं लगाते हो तुम वहाँ तो हपक कर टूट पड़ते हो। तब बोलते हो? धीरे-धीरे रे मना इसको 0.25 पे कर दो। धीरे-धीरे रे मना वहाँ तो 5x पर धीरे-धीरे और जब कोई सही काम करने की बात आती है तो 0.25 कर देते हो। अपनी सारी खामियों के साथ, अपनी सारी कमजोरियों के साथ जाओ और खड़े हो जाओ, चांटे खाओ, तोड़े जाओ। ये सब अपमान नहीं है इसी में तुम्हारी प्रगति है।
कह रहे हो कि अभी तुम्हें पूरी तरह से बात समझ में आई नहीं है। अभी तुम्हें लगता है ये तो आचार्य जी की बात है तो मैं क्यों बोल रहा हूँ? और जो दुनिया भर के और काम करते हो वो क्या अपनी समझ से कर रहे हो? बाकी सब काम भी तुम तुम्हें कुछ समझ में नहीं आए हैं। पर उनको करते वक्त जरा भी संकोच नहीं होता। एकदम नहीं झिझकते कि ये काम जब मैंने समझे नहीं तो करूँ क्यों? 12वीं अपनी समझ से करी थी? ग्रेजुएशन में स्ट्रीम अपनी समझ से चुनी थी? ये कांसेप्ट तुम्हारा अपना है कि इतनी एजुकेशन होनी चाहिए? उसके बाद जॉब होनी चाहिए? फिर शादी होनी चाहिए? ये सब कुछ जब तुमने अपनी समझ से नहीं करा तो सारा का सारा नियम कायदा अनुशासन आचार्य जी के ऊपर ही क्यों लगा देते हो? कि वहाँ हम तभी सामने आएँगे जब हम बात को पूरी तरह समझ जाएँगे।
तुम पूरी तरह समझ गए थे कि मनुष्य और मनुष्य का रिश्ता क्या होता है विवाह करने से पहले? वहाँ तुम कुछ नहीं समझे थे पर कूद पड़े। लेकिन जब सच के लिए संघर्ष करने की बात आती है तो बड़ी भारी शर्त रख देते हो। कहते हो जब पूरी तरह समझ जाएँगे सिर्फ तभी सत्य के लिए उतरेंगे। ये सत्य के प्रति समर्पण नहीं है कि जब हम समझ जाएँगे तभी उतरेंगे ये सिर्फ वही पुराना आदिम डर है। डर को कोई इज्जतदार नाम देना बंद करो।
प्रश्नकर्ता: नहीं आचार्य जी, मैं जब मैं इस चीज के बावजूद भी लोगों के सामने अपनी बात रखता हूँ। बस मैं यही चाह रहा था कि इसमें और मैं क्या सुधार कर सकता हूँ?
आचार्य प्रशांत: सुधार यही कर सकते हो कि बिल्कुल निर्लज्ज होके बेइज्जत हुआ करो क्योंकि बात तो बिल्कुल ठीक कही है तुमने। नहीं समझे हो आप अभी पूरी तरह जब नहीं समझे हो तो तर्क करोगे तो चोट भी खाओगे। सामने वाला सवाल करेगा। हो सकता है कि सही जवाब ना दे पाओ, नहीं दे पाओगे तो बेइज्जती होगी। मैं कह रहा हूँ उस बेइज्जती को बर्दाश्त करना सीखो। ठीक है? ये मत कह दो कि बिल्कुल प्रवीण हो के और उत्कृष्ट हो के परफेक्ट होकर सामने आऊँगा, वो परफेक्शन कभी नहीं आने वाला।
युद्ध में उतरो और जब चोट पड़ेगी तभी अपनी कमजोरी पता चलेगी, तभी अपने दोष पता चलेंगे और तभी तो अपनी कमजोरियों से आप लड़ पाओगे। जो संघर्ष में नहीं उतरा वो इसी मुग़ालते में रह जाता है कि मुझ में तो बहुत कम कमजोरियाँ हैं अखाड़े में उतरो तब पता चलता है ना कि किस हैसियत के हो। अखाड़े में ज्यादातर लोग उतरते ही इसीलिए नहीं है कि उतरेंगे तो सब दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। जो अपने बारे में बड़ी उज्जवल छवि बनाकर बैठे हैं। एकदम चूर-चूर हो जाएगी। अगर उतर रहे हो, तो डटे रहो और एक बात के प्रति सतर्क रहना जब चोट लगे, मार खाओ, हार पाओ तो स्वीकार करना कि हार हुई है और कहना धन्यवाद उसका जिसने हराया। अब कल फिर लौट के आऊँगा और कम हारूँगा। जहाँ पर हम बौने सिद्ध हुए जहाँ पर हम अक्षम सिद्ध हुए वहीं पर तो अब हमारी प्रगति होगी ना। तो जाओ और बिल्कुल मस्त होकर के पिटो। याद है ना ऋषिकेश में क्या कहा था?
पिटते रहो उठते रहो। उठने से पहले पिटना जरूरी है और पिटने के लिए मैदान में उतरना जरूरी है। सबसे अभागे वो हैं जो उतरते ही नहीं मैदान में।
प्रश्कर्ता: आचार्य जी इसमें एक ये दिक्कत आती है कि उस पिटने के चक्कर में कई बार अहंकार आ जाता है। क्योंकि एक ऐसी बहस हुई बहस करता रहा, करता रहा, करता रहा तो उनकी तरफ से जो बात थी वो बिल्कुल बेबुनियाद थी वो विगनिज्म पर था। तो मैं बहुत लंबे-लंबे सारी बातें आपसे जो सीखा वो साझा कर रहा था फिर वो मुझे उकसाना चाह रहे थे, उकसाना चाह रहे थे और वो सफल हुए उकसाने में। क्योंकि फिर आखिर में मैंने कुछ अहंकार वश उनको ऐसा बोल दिया जो थोड़ा टेंजेंशियल था। तो फिर समझ फिर रियलाइज हुआ कि धक्का सा लगा कि क्या कर दिया मैंने।
आचार्य प्रशांत: सुनो, तुम्हारे ऊपर कोई दायित्व नहीं है कि तुम एक आदर्श महापुरुष बनकर सामने आओ। जब संघर्ष करोगे तो उसमें तुम्हारे गुण दोष सब सामने आएँगे। लजाने की कोई बात नहीं है। तुमसे किसने कह दिया कि तुम्हें वहाँ पे परफेक्शन का आइडल बन के खड़ा होना है। तुम्हारा अहंकार सामने आ गया तो है इसलिए सामने आया, हाँ है अहंकार। हम पाखंड करेंगे अगर बोलेंगे कि अहंकार नहीं है, है सामने आ गया है हम लजा नहीं रहे हैं हम बेहतर हो के लौटेंगे। तुम देखो कि तुम्हारा एजंप्शन क्या है? तुम्हारा असंप्शन ये है कि जो वीगन नहीं है उसके सामने तुम्हें परफेक्ट होकर खड़े होना है क्योंकि तुम वीगन हो। क्या तुम परफेक्ट हो? अगर नहीं हो तो तुम्हें ये बुरा क्यों लग रहा है कि अंत में उन्होंने तुम्हें भड़का दिया, उकसा दिया। और तुमने कोई इगोइसिस्टिक रिएक्शन कर दिया। कर दिया तो कर दिया, कर दिया तो कर दिया।
सही उद्देश्य के लिए उतरे हैं भाई और अपनी सब खामियाँ लेकर उतरे हैं। अपनी सब कमजोरियाँ लेकर उतरे हैं। तुम मैदान में हमारी खामियाँ और कमजोरियाँ भी सामने आएँगी। तो हम लजा नहीं जाएँगे कि अरे तुम तो देखो अध्यात्म की ओर से आए हो। फिर तुम में अहंकार क्यों? हाँ भाई अध्यात्म की ओर से आए हैं। साधक हैं, और साधक में अहंकार होता है। मुक्त पुरुष में नहीं होता। अध्यात्म की ओर से आए हैं तो साधक ही तो हैं। मुक्त थोड़ी हो गए हैं। तो अहंकार अगर हम में है तो इसमें कौन सी बड़ी बात हो गई? हाँ तुम मूर्ख हो। अहंकार तुम में भी है और हम में तुम में अंतर ये है कि हम में अहंकार है लेकिन वो विलीन होने की दिशा में है। और तुम में अहंकार है वो और दृढ़ होता जा रहा है। अहंकार दोनों में है और अहंकार की दिशाएँ अलग-अलग है। हमारा अहंकार आत्ममुखी है। तुम्हारा अहंकार मायामुखी है।
ये बहुत लोगों के साथ होता है। कहते हैं बहस करते हैं, बहस कर रहे थे तो हमें क्रोध आ गया। तो उन्होंने कहा ये देखो तुम तो आचार्य जी के शिष्य हो, तुम्हें क्रोध क्यों आ गया? अरे! आचार्य जी के शिष्य को, क्या आचार्य जी को भी आता है? और ऐसा जबरदस्त आता है कि दीवार तोड़ दें। तो? कई बार दीवार तोड़ना जरूरी भी होता है इतनी सड़ी हुई दीवार है हम नहीं तोड़ेंगे तो किसी के सर पे गिरेगी वो। अर्जुन भी दीवार बनके एक बार खड़े हो गए थे तो श्री कृष्ण खुद बिल्कुल क्रोध में कंपन करते हुए हाथ में रथ का पहिया उठाके भागे थे भीष्म की ओर। तुम्हें किस बात की लाज आ रही है अगर क्रोध आ गया तो। तुमने देखो अपने ऊपर कितनी बड़ी शर्त रख दी वो कह रहा है देखो, मैं तो हूँ ही मूर्ख, मैं मांस भी खाऊँगा, मैं सब तरीके की बदतमीजियाँ भी करूँगा और मैं खुले में करूँगा। और तुम उसके सामने अखाड़े में हो और तुम कह रहे हो मेरे ऊपर बहुत भारी शर्त है कि मैं बिल्कुल आइडियल कोड ऑफ कंडक्ट से चिपक कर चलूँगा। क्यों भाई? क्यों?
उसको हर तरह की छूट है वो गाली दे सकता है, वो बदतमीजी कर सकता है वो कुछ भी कर सकता है। तो सारी शर्तें तुमने अपने ऊपर ही क्यों लगा ली है? फिर ये वैसी सी बात है कि दो मुक्केबाज मुकाबले में उतरे हैं उनमें से एक तो ऐसा बेईमान है कि वह सिर्फ़ मुक्के नहीं चला रहा वो लातें भी चला रहा है। वो लातें ही नहीं चला रहा उसने अपने ग्लव्स में ब्लेड भी लगा रखे हैं ताकि वो तुम्हें मारे तो तुम ब्लेड से कट जाओ। वो हर तरह की बेईमानियाँ कर सकता है और तुम कह रहे हो कि मेरे दोनों हाथ पीछे बाँध दो आदर्शों की रस्सी से और फिर मैं अब मुक्केबाजी करूँगा। क्यों बाँध रहे हो अपने हाथ? भाई क्यों बाँध रहे हो? क्रोध जबरदस्ती नहीं लाना है पर साधक ही हो अहंकार तो तुम्हारे जीवन का तथ्य है, अहंकार जब है तो क्रोध आ सकता है। आ गया तो इसमें रोने की क्या बात है?
ये बहुत बड़ी गलती करते हैं। आध्यात्मिक लोग। सच की तरफ से लड़ने वालों को बड़ी हीन भावना रहती है। बड़ा ग्लानी भाव, बड़ा अपराध बोध रहता है उन्हें अपने प्रति कि नहीं हमें तो बहुत आइडियल तरीके से चलना चाहिए ना। नहीं तो हम में और उनमें अंतर ही क्या रह जाएगा? और गीता पढ़ रहे हो यहाँ कृष्ण है। तुम मारोगे अभिमन्यु को अगर घेर करके इतने सारे एक को घेर कर मारोगे तो इतना तो फिर हम भी कर सकते हैं कि सूरज जब अभी डूबा नहीं है तो भी उसे बादलों के पीछे छुपा सकते हैं। जयद्रथ का मरना जरूरी है। कौन सी गीता पढ़ी फिर तुमने? “नरो वा कुंजरो वा” नहीं जानते हो क्या? शिखंडी को नहीं जानते हो क्या? कर्ण का पहिया नहीं याद है तुमको? गीताकार ही जब अपने ऊपर आदर्श व्यवहार का जिम्मा नहीं ले रहे हैं तो तुम किस लिए बहुत सुसंस्कृत बने बैठे हो। कि मैं तो अच्छा बच्चा हूँ जो हमेशा अच्छे-अच्छे काम ही करता है।
अच्छे काम नहीं करने होते हैं। सच्चे काम करने होते हैं।
दुर्योधन की जाँघ अगर तोड़नी जरूरी है तो तोड़ो। ये थोड़ी कहोगे कि। नहीं नहीं हम तो नियम कायदों के भीतर ही रह के लड़ेंगे फिर चाहे दुर्योधन पूरे भारत को क्यों ना बर्बाद कर दे। युधिष्ठिर मत बनो, अर्जुन बनो। युधिष्ठिर अपना ही लोक धर्म चलाते थे और अर्जुन का धर्म था कृष्ण क्योंकि अर्जुन को बोला था कृष्ण ने कि सारे धर्मों को छोड़कर के मात्र मेरी शरण में आओ। युधिष्ठिर तो अपना ही धर्म युधिष्ठिर को बड़ा बुरा लगा था। अरे! हमारा रथ पृथ्वी से थोड़ा ऊपर चला करता था। आज कह दिया अश्वत्थामा तो नरो वा आज हमारा रथ जो है वो जमीन पर चलने लग गया है और ये कैसे कर दिया कि दुर्योधन की जाँघ पे प्रहार करा दिया कृष्ण आपने। तुम युधिष्ठिर के छात्र हो? कि कृष्ण के छात्र हो?
प्रश्नकर्ता: कृष्ण के।
आचार्य प्रशांत: लोक धर्म के संस्कारों को अपना बंधन मत बना लेना, खुल के लड़ो। सच के लिए जब लड़ा जाता है ना तो उसमें फिर संसार की शर्तें अपने ऊपर नहीं रख ली जाती।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद आचार्य जी।