रस नज़दीकी में है || आचार्य प्रशांत, मीराबाई पर (2014)

Acharya Prashant

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रस नज़दीकी में है || आचार्य प्रशांत, मीराबाई पर (2014)

वक्ता: मीरा कहती हैं:

दास भक्त की दासी मीरा

रसना कृष्ण रटे

उसके साथ सूर कहते हैं:

सोइ रसना

जो हरि गुण गावै

सवाल किया है कि रसना यानि ज़बान, जिह्वा की सार्थकता ईश्वर के गुण गाने में बताई गयी है। आशय क्या है हरि गुण से? और फिर जो यह जीभ दिन-भर की, इधर-उधर की हजारों बातें करती है, क्या वो सब निर्थक हैं?

शाब्दिक अर्थ बहुत महत्त्व का नहीं होता, जब हम संतों की दुनिया में होते हैं। रसना को मीरा के और सूर के संबंध में सीधे जिह्वा कह देना उचित नहीं होगा। उसका गहरा और व्यापक अर्थ लेना होगा।

वो सब कुछ जहाँ से रस की प्रतीति होती है, वो रसना है। उसके केंद्र में जो शब्द है उस पर गौर करिए: ‘रस’। आपके भीतर का वो उपकरण, जो रस को चखे और रस को चखने में अपने अनुभव को रस का नाम दे उसे रसना मानिये, मात्र ज़बान ही ही नहीं।

एक तो बड़ा सतही अर्थ हो जाएगा कि दासी मीरा रसना कृष्ण रटे, कि मीरा ने इतना ही कह दिया है कि मीरा दासों की दासी है, और वो दिनभर ज़बान से कृष्ण का नाम लेती रहती है। रसना कृष्ण रटे यानि ज़बान कृष्ण रटे। बड़ा रूखा-सूखा अर्थ है, बड़ा रसहीन अर्थ है ये; इसमें कुछ रखा नहीं है। मीरा जैसे नहीं है ये अर्थ, न इसमें गहराई है, न मिठास।

रस हम सभी को आता है। हम सब रस भोगी ही हैं। रस का अर्थ प्रसन्नता भी है, रस का अर्थ आनंद भी है। इस पर निर्भर करता है कि अर्थ किसके लिए है।

सतही मन के लिए रस बस प्रसन्नता की उत्तेजना है, आत्मा से संयुक्त मन के लिए रस का अर्थ आनंद है।

रसना हम सब की है, अंतर बस इतना है मीरा में और हममें, कि रसना कहाँ है।

जब मन अकड़ कर खड़ा होगा, तो उसको हर उस विषय में रस मिलेगा, जो उसकी अकड़ को समर्थन दे। जहाँ अकड़ की बात आती है, वहाँ अकड़ के पीछे डर होता है। अब आप देखिये कि हम सब को, जो एक आम आदमी है, उसे रस कहाँ मिलता है? आप पाएंगे उसे रस दो ही जगहों पर मिलता है, वो दो जगह भी मूलतः एक ही है।

उसे रस मिलता है या तो उन विषयों में जो उसके छोटे होने के भाव और छोटे होने के डर, अपूर्णता का डर, मृत्यु का डर, हर तरह की हीनता की प्रतीति, इनसे मुक्ति दिलाए। कोई ऐसा विषय है, जो आपको पल दो पल के लिए ही सही यह अहसास करा दे कि ‘नहीं, तुम छोटे नहीं हो।’ इस विषय को हासिल कर लो, विषय माने कुछ भी, वस्तु, विचार, व्यक्ति, कुछ भी। इस विषय को हासिल कर लो, तो तुम्हें तुम्हारे हीनता, लघुता के भाव से मुक्ति मिल सकती है। तुम्हें उसमें रस आ जाएगा या फिर हमें रस मिलता है वहाँ पर, जहाँ हमें बड़प्पन की अनुभूति होती हो।

दोनों की दिशा एक ही है, बात बिलकुल एक ही है। छोटे होने के भाव से, छोटे होने के डर से दूर भागना और बड़प्पन की दिशा में भागना, यह दोनों एक ही बातें हैं पर हमें रस इनमें आता है। हमे रस इनमें इसलिए आता है क्योंकि हम अपने को अपना ही सहारा देते हैं। हमने अपनेआप से कह रखा है कि हम खुद अपने मालिक हैं, और जब हम अपनेआप से कहते हैं कि हम खुद अपने मालिक हैं तो याद रखिए यह उपनिषदों का अहम् ब्रह्मास्मि नहीं है, यह बुद्ध का अप्प दीपो भवः नहीं है, यह तत् त्वम् असि श्वेत केतु नहीं है।

जब हम कहते हैं कि हम अपने मालिक खुद हैं, तो यह सिर्फ़ हमारा बड़बोलापन है। यह एक खोखले आदमी का डरा हुआ वक्तव्य है। यह मात्र अहंकार है। जब हम कहते हैं खुद जान लूँगा, खुद समझ लूँगा, खुद जी लूँगा, खुद आगे बढ़ लूँगा, अपने बूते पा लूँगा, जो है सो मैं ही हूँ, तो इसमें सत्य कहीं पर भी नहीं है। इसमें सिर्फ सड़न है, हमारे हीनता के भाव की, हमारी वासनाओं की और डर में दुगदुगाती हमारी ज़िन्दगी की।

जब हम अहंकारपुरित होते हैं तब हमारी रसना सब उन चीज़ों में होती है, जो हमें बड़ा दिखाएँ।

मीरा कह रहीं हैं कि रसना कृष्ण रटे, मीरा की रसना है कृष्ण को रटने में; दासी मीरा, रसना कृष्ण रटे। जो दास हो जाए, उसको ही कृष्ण को रटने में रस मिलेगा और जो मालकीयत के थोथे भाव से भरा हो, उसको रस मिलेगा दुनिया भर के हज़ार और विषयों में। नाम दोनों उसे रस का ही देंगे, तलाश भी गहराई से दोनों को एक ही रस की है लेकिन खोजने के तल में बड़ा अंतर है।

जो अहंकार में रस खोज रहा है, वो करीब ऐसा ही काम कर रहा है जैसे कि आप मुक्त उड़ान को पाताल में खोजो।

आप गलत जगह पर गलत चीज़ खोज रहे हो। जो रसना कृष्ण से मिलनी है, वो कृष्ण से ही मिलेगी; वो कामना में नहीं मिलेगी। जो रस कृष्ण देंगे, वो रस सिर्फ़ कृष्ण ही दे सकते हैं, कामनाएं नहीं देंगी। जो रस आत्मा से ही बहना है, वो रस आत्मा से ही बहेगा, अहंकार से नहीं बह पाएगा।

तलाश सब को एक ही की है। हम सब एक ही हैं, तो तलाश भी सब को एक ही की है, बस कुछ खोजने निकल पड़े हैं और जो खोजने निकल पड़ता है, वो अपने ही तल पर खोजता रह जाता है। उस तल पर मिलेगा नहीं। तलाश सबको उसी रस की है, जिसका नाम सत्य है। उपनिषद् कहते हैं रसोवई सख, वह रस रूप है। रस का अर्थ होता है सार, एसेंस, जूस कि जैसे बाहर-बाहर दिख रहा हो जो, उसके भीतर की मिठास, उसके भीतर का सत्व, वह ‘वह’ है। वह रस रूप है।

जब सार खोजने निकले हो, तो संसार को तो पार करना पड़ेगा न? गन्ने के छिलके में तो रस नहीं मिलेगा। छिलके को तो पार करना पड़ेगा न? है, गन्ने में ही है पर छिलका चाटते रहोगे तो रस की अनुभूति तो नहीं होगी, कि हो जाएगी? हम सब ऐसे ही हैं, हम छिलके चाटते हैं। जो हमारा आम संसारी है, उसका चित्रण कर लीजिए, वो बैठ कर के छिलका चाटता है और फिर जीवनभर शिकायत करता है कि जीवन में रस क्यों नहीं हैं। है, छिलके के आसपास ही रस है, थोड़ा गहरे उतरो। तुम जो खोज रहे हो, वो मिलेगा और जिसमें खोज रहे हो उसी में है पर वो नहीं है, उसका रस है। छिलका नहीं, छिलके के भीतर का रस।

फल है तुम्हारे सामने, गन्ना है तुम्हारे सामने। इसको छोड़ना नहीं है, त्याग नहीं करना है, पलायन नहीं करना है, इसी को गहरे भेद देना है और रस की प्राप्ति हो जाएगी। वही आत्मा है न, जो भीतर बैठी हुई है, जो अंतरयामी है। रस न छिलका चाटने से मिलेगा, न गन्ने का परित्याग कर देने से।

दो तरह के लोग होते हैं: जिसे हम आम संसारी कहते हैं, वो क्या करता है? वो छिलका चाटता है। जिसे हम आम सन्यासी कहते हैं, वो क्या करता है? वो कहता है गन्ना ही दूर हटाओ। असली कौन? जो छिलके के इतने करीब आता है कि छिलके की जान जो है, उसको पा जाता है।

जो दिख रहा है, उसको ध्यान से देखो। तुम हो न? अपनेआप को ध्यान से देखो। संसार है न? उसे ध्यान से देखो। जो ध्यान से देखना शुरू करता है, उसे दो बातें समझ में आती हैं: पहला, संसार को अपना मालिक बनाना मूर्खता है क्योंकि यह तो छिलका है। छिलके की गुलामी क्या करें? दूसरा, छिलके को छिलका जाना, ये कृपा छिलके की तो नहीं है।

दोनों बातों को ध्यान से समझिएगा: पहली, ‘’मैं जिसको महत्त्व दिए बैठा था ज़िन्दगी में, वो सब छिलका-छिलका है, ऊपर-ऊपर का है, सतह-सतह का है; उसमें कोई पाप नहीं है, उसमें कोई अपराध नहीं है, उसमें कोई गलती नहीं है बस वो छिलका है और छिलका तो छिलका होता है न?’’ छिलका ज़हरीला नहीं होता। छिलके में कोई बीमारी भी नहीं बैठी होती, बस यह है कि रस नहीं मिलेगा वहाँ। रस नहीं मिलेगा।

तो पहली बात उसे यह दिखाई देती है कि, ‘’यहाँ रस नहीं है, मैं इसको महत्त्व नहीं दे सकता।’’ दूसरी बात उसे ये दिखाई देती है: जो करीब आता है, जो जानने की कोशिश करता है कि, ‘’मैं छिलके को छिलका जान पाया’’ यह ताकत मुझे छिलके ने नहीं दी। इस जान पाने को, इसी ज्ञान को भक्ति कहते हैं। तब आप अपनेआप को दास कहते हो।

भक्ति क्या है? भक्ति इस ज्ञान का नाम है कि नकली को नकली जानने की ताकत नकली नहीं दे सकता।

कोई और ही है, जो मुझे यह ताकत दे रहा है और वारे जाऊं उसके। ‘’मैं तो छिलका ही था। मेरी आँखों में वो पैनापन कहाँ था कि मैं जान पाता कि छिलका महत्वहीन है। मैं खुद छिलका! जैसे संसार छिलका, मैं भी तो संसारी ही हूँ। मैंने कब अपनेआप को संसार से अलग जाना। तो छिलके में यह ताकत, यह दृष्टि, यह समझ कहाँ से आती कि वो छिलके को छिलका जान पाता? कोई और है, जो मुझे बख्श रहा है ये ताकत कि मैं समझ पा रहा हूँ, कि मैं जान पा रहा हूँ। वरना मेरे बस की कहाँ थी?’’ ये ज्ञान है और जब ये ज्ञान बिलकुल गहरे पैठ जाता है तो सिर झुक जाता है, उसी का नाम भक्ति है।

भक्ति कोई फ़िज़ूल का यकीन, कोई विश्वास, मन में कोई छवि बना लेने का नाम नहीं है। भक्ति का अपना एक विज्ञान है और वो बहुत ठोस है, बहुत सटीक है; आप उसे काट नहीं सकते। भक्ति का अपना एक तर्क है, बड़ा गुहीय तर्क है वो, उसे काटा नहीं जा सकता; तर्कातीत तर्क है।

ज्ञान है जानना। और जब आप अपनेआप जानते हो, तो आप ये भी जानते हो कि, ‘’मैं जान कैसे गया।’’ जो वास्तव में जानेगा, वो विषय पर ही ध्यान नहीं देगा। वो जानने की प्रक्रिया पर भी ध्यान देगा न? यदि आप बिलकुल भी मंद बुद्धि नहीं हो, तो आप सिर्फ़ यह नहीं कहोगे कि, ‘’मैं समझा’’; आप यह भी कहोगे कि, ‘’मैं यह भी समझा कि समझना क्या है।’’ और जब आप यहाँ पर उतरते हो कि यह समझना क्या है, तब आप कहते हो यह जो कुछ भी है, मेरे बस का तो नहीं था। यह तो मिला है कहीं से। किसी ने दिया है और फिर सिर झुक जाता है। फिर आप कहते हो कि, ‘’बस कृतज्ञता ज्ञापित कर सकता हूँ, और क्या करूं?’’

संसारी मन किसी सुन्दर दृश्य को देखता है, तो बस वो दृश्य तक ही रह जाता है। खोजी मन समझने की कोशिश करता है कि यह दृश्य क्यों इतना सुंदर है। ज्ञानी मन यह जान पाता है कि मुझे यह दृश्य इतना सुन्दर लग रहा है, इस दृश्य की सुंदरता मेरे भीतर है, और

भक्त परम ज्ञानी होता है।

वो कहता है: ‘’यह सुंदरता मैं अनुभव कर पाया, इसका श्रेय मैं तो नहीं ले सकता वरना हो सकता था कि यह सुन्दर पर्वत अपनी जगह होता, मैं भी अपनी जगह होता, यह आँखें भीं अपनी जगह होतीं और मुझे यह अनुभूति होती ही नहीं, जो अभी हो रही है।’’

बात को गौर से समझिये। ज्ञान के जितने उपकरण होते हैं सब अपनी जगह होते, जो ज्ञेय है वो भी अपनी जगह होता, जो ज्ञाता है वो भी अपनी जगह होता, उनके मध्य का संबंध भी अपनी जगह होता लेकिन फिर भी हृदय में वो स्पंदन न उठता जो इस पर्वत को देख कर उठ रहा है। बिलकुल हो सकता है ऐसा। क्यों नहीं हो सकता? ‘’और ये जो उठ रहा है, यह उस पर्वत से नहीं मिला मुझे।’’

क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि पर्वत हो फिर भी वो स्पंदन न उठे ह्रदय में? हो सकता है न? तो इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यही है कि स्पंदन इस पर्वत से तो नहीं उठ रहा। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि आप हों और पर्वत हो और तब भी ह्रदय में वो शांति न उतरे, जो अभी उतर रही है। इसका क्या अर्थ है? कि वो शांति न पर्वत की है, न आपकी है, वो शांति किसी और की है।

पर्वत बहाना है, आप भी बहाना हो, वो शांति असली है। आप दोनों आकस्मिक हो। पर्वत मात्र बहाना है, खिड़की की तरह है कि खिड़की खोली तो आसमान दिख गया। पर इसका क्या यह अर्थ है कि खिड़की ने आसमान पैदा किया? खिड़की ने अवसर दिया कि आसमान देख सको। पर्वत ने अवसर दिया कि उस सौंदर्य को और शांति को अनुभव कर सको पर वो सौंदर्य पर्वत का नहीं था।

जैसे आसमान खिड़की का नहीं होता, उसी तरह सौंदर्य पर्वत का नहीं था, पर्वत बहाना था; अवसर दे रहा था। ठीक उसी तरह जब खिड़की खुलती है और आप आसमान को देखते हो, तो क्या इसका यह अर्थ है कि आपने आसमान पैदा किया। आसमान आपका भी नहीं था। आप पर्वत के सामने खड़े हो, जो सौन्दर्य, जो शांति आपको अनुभव हो रही है, वो न पर्वत की है न आपकी है। वो किसी और की है। ये संयोग मात्र है कि अभी एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई है कि आप शांत हो पाए हो और वो परिस्थिति सिर्फ़ पर्वत के सामने ही नहीं पैदा होती है, आप अच्छे से जानते हो कहीं भी हो जाती है।

जो वास्तविक ज्ञानी होता है, वो यहाँ तक पहुँचता है। वो कहता है: जो असली घटना घट रही है, उसका विषयों से कोई लेना देना नहीं है। रस विषय में नहीं है, रस पर्वत में नहीं है, रस मन में भी नहीं है; रस किसी और का है, उसी को नमन करूँगा।’’ और फिर एक बार आप जान जाते हो जब कि, ‘’असली वही है; पर्वत भी बहाना है और मैं भी बहाना, ये पूरा संसार बहाना,’’ तो आप क्यों किसी और का नाम लोगे? फिर आप वही हो जाओगे जैसे मीरा की रसना कृष्ण रटे।

आप कहोगे: ‘’जो असली है उसी का नाम लूँ न। पर्वत-पर्वत क्या करता हूँ, हिमालय-हिमालय क्या करता हूँ; वो, जो असली बैठा हुआ है भीतर। हिमालय तो बहाना था, हिमालय तो खिड़की था, खिड़की की पूजा थोड़ी ही करने लग जाऊंगा।’’ फिर आप उसी की पूजा करते हो, वो, जो असली है।

सूर कह रहे हैं:

सोइ रसना जो हरि गुण गावै।

और किसके गुण गाओगे फिर? और रस मिलेगा ही कहाँ? ये जो हरि गुण गा रहा है, ये वो व्यक्ति है जिसने छिलके चाटना बंद कर दिया है। और देखिये मज़ेदार बात: रस कब मिला? जब छिलके में गहरे पैठ गये। छिलके चाटना तभी बंद करोगे, जब छिलकों का परिच्छेदन कर दोगे, बाहरी तहों के भीतर घुस जाओगे। वहाँ रस की प्राप्ति होगी, अब छिलकों से तुम्हारा सरोकार बहुत रहेगा नहीं। छिलके पीछे छोड़ आए तुम। छिलकों का त्याग नहीं किया है, छिलकों को पीछे छोड़ आये हो। छिलकों से दूर नहीं भागे हो, छिलकों के भीतर घुस गये हो।

जो झूठा सन्यासी होता है, वो संसार से दूर भागता है और जो असली ज्ञानी होता है वो संसार के भीतर प्रवेश कर जाता है। और फिर संसार के केंद्र में जो रस बैठा है, जो हरि बैठा है, जो आत्मा बैठी है, वो वहाँ तक पहुँच जाता है।

तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं हुआ है। तुम्हें पूरा अवसर दे दिया गया है। तुम्हें गन्ना थमा दिया गया है। अब बाकी तुम्हारे विवेक पर है। तुम जीवन भर चाटते रहो उसे बाहर से या रस को पा लो।

संसार, परमात्मा का छिलका है और एक नहीं परत-दर-परत छिलके हैं, प्याज़ की तरह। ऐसा है ये अस्तित्व। इन्हीं छिलकों के बीच में, इन्हीं के सत्व रूप में रस का निवास है; उसका निवास है।

पूछा है ये जो जीभ दिन भर की हजारों बातें करती है, वो सब क्या निरर्थक हुईं? इस प्रश्न में ही बहुत अब सार्थकता बची नहीं है। बात जीभ की थी ही नहीं न? संतों के वचनों को कभी साहित्यकारों के हाथ में नहीं दे देना चाहिए। वो उनके साहित्यिक अर्थ निकाल लेते हैं। वो मीरा को और सूर को भी कवि बना देते हैं। होगा, शब्दकोश में कोई भी अर्थ होगा लेकिन तुम वो अर्थ समझो, जो मीरा का अर्थ है। तुम्हें शब्दकोश के अर्थ से क्या प्रयोजन है? तुम मीरा के अर्थ को देखो। वो कहाँ से गा रही है, ये देखो। वो शब्दकोश पढ़कर नहीं गाती है। वो ह्रदय से गाती हैं और ह्रदय का शब्दकोश अलग होता है।

हमारी बदकिस्मती रही है कि ऐसा शब्दकोश कभी लिखा नहीं गया, जिसमें शब्दों के आत्यंतिक अर्थ हों। हमारे शब्दकोश तो ऐसे हैं, जिसमें आनंद और प्रसन्नता पर्याय के रूप में लिखे हुए हैं और इससे बड़ी मूर्खता नहीं हो सकती कि आप ख़ुशी को और आनंद को सोचें कि ये तो पर्यायवाची हैं। अस्तित्वगत शब्दकोश अलग होता है। उसे ह्रदय की आँखों से पढना पड़ता है। वहाँ से सुनो।

मीरा ज़बान भर से कृष्ण को नहीं गाती। वो कृष्ण को जीती है। कृष्ण आत्मा है और मीरा ने आत्मा को पा लिया है, स्वयं को पा लिया है। कृष्ण कोई विषय नहीं है। कृष्ण कोई बुढ्ढा खिलौना नहीं है कि जिनको मीरा हाथ में लेकर घूम रही है। ठीक है, ज़बान तो उतना ही कर पाएगी न जितना ज़बान कर सकती है, तो मीरा को यह सब बोलना पड़ता है कि मेरे पति हैं कृष्ण, कि मोर मुकुटधारी हैं, कि मुरली वाले हैं, कि बड़े सुन्दर हैं और मीरा जब यह सब कुछ कह रही है तो ये मत समझ लेना की मीरा छवियों में जी रही है।

जब मीरा कह रही है कि कृष्ण को पा लिया, तब मीरा इतना ही कह रही है कि कृष्ण मेरी आत्मा में विराजमान हैं, आत्मा ही हैं। उसके अलावा और किसको पाया जाता है? ये जो जीभ दिन भर की हजारों बातें करती हैं, क्या वो सब निरर्थक हैं? मीरा, जो मोर मुकुट की बात करती है, क्या वो निरर्थक है? जीभ तो बातें ही करेगी न? आँख तो दृश्य ही देखेंगी न? कान तो शब्द ही सुनेंगे न? बाहर-बाहर तो छिलका ही होगा न?

निरर्थक नहीं हैं, छिलका है। वो सब चलता रहेगा। वो रहेगा। जीवन जीने की कला इसमें है कि उस पर रुक न जाया जाए। जो भी कहें, जो भी सुने उसके केंद्र में सत्य ही बैठा रहे। अमूल्य है छिलका, यदि उसके भीतर रस है और कचरा है छिलका अगर भीतर से खाली है। दो आदमी हैं, दोनों किसी जौहरी की दुकान से एक डब्बा लेकर निकलते हैं।

एक आदमी उस डब्बे को दिल से लगाये हुए है, प्राण से ज़्यादा सहेजे हुए है और दोनों डब्बे बिलकुल एक जैसे हैं, बिलकुल एक जैसे डब्बे। एक आदमी उसको सीने से लगाये हुए है और दूसरा आदमी डब्बा बाहर लेकर निकलता है और डब्बा उछाल के कचरे के डब्बे में डाल देता है। छोटे-छोटे डब्बे थे, एक से डब्बे थे। एक उसको ऐसे समेटे हुए हैं, जैसे उससे कीमती कुछ हो नहीं सकता और दूसरे ने उसको फेंक दिया। दोनों में अंतर क्या था? एक के भीतर हीरा था।

डब्बे की कीमत भी हीरे की कीमत जितनी हो जाती है, जब डब्बे के भीतर हीरा होता है। जिस डब्बे के भीतर, जिस छिलके के भीतर हीरा हो, उस छिलके की कीमत उतनी ही है जितनी हीरे की। है छिलका ही, पर बड़ा कीमती छिलका है। और जिस डब्बे के भीतर हीरा न हो वो क्या है? कचरा, फेंक दो। यही सूत्र संसार के सारे विषयों और विषयों को देखने वाली दृष्टि पर भी लागू होता है।

सारे शरीर एक जैसे हैं, सारे छिलके एक जैसे हैं। शरीर-शरीर में कोई भेद नहीं होता। पर एक शरीर के भीतर हीरा बैठा हुआ है, उसकी कीमत हीरे जितनी ही है और दूसरे शरीर के भीतर हीरे का कुछ पता नहीं। उसकी कोई कीमत नहीं। शब्द सारे एक जैसे हैं पर एक शब्द निकल रहा है गहरे बोध से। उस शब्द को प्राण प्रण से सुनो और ठीक वही शब्द निकल रहा है बेहोशी से, उसको छोड़ दो।

सुनने की ज़रूरत क्या है? लेकिन याद रखना शब्द कहीं से भी निकल रहा होगा, होगा तो वही, जो शब्दकोश में मौजूद है। नये शब्द तो कहीं से अविष्कृत नहीं होंगे। मैंने अभी जितनी बातें बोलीं हैं पिछले आधे घंटे में, क्या मैंने उसमें कोई ऐसा शब्द प्रयोग किया है जो मैंने न सुना हो? सारे शब्द शब्दकोश से ही आ रहे हैं न? सब छिलके हैं और कीमत शब्दकोश में लिखे शब्दों की नहीं है। कीमत उस स्रोत की है, जहाँ से शब्द उद्भूत हो रहा है। कीमत उस हीरे की है, जो डब्बे के भीतर रखा हुआ है। ऐसे ही जीना होता है संसार में।

जो भी कुछ सामने आये यदि वह सम्प्रक्त है केंद्र से, आत्मा से और स्रोत से, तो उसे उतनी ही कीमत दो, उसे उतना ही सम्मान दो, उसे उतना ही प्रेम दो, जितना तुमने स्रोत के लिए रखा है। और यदि वह मात्र छिलका है, तो उसको यू हीं उछाल दो, जैसे छिलके को उछालना चाहिए।

तो तुमने पूछा ये जो हम दिन भर बातें करते रहते हैं, वो निरर्थक हैं? तुम जानो। तुम जानो कि तुम्हारी बातें कहाँ से आ रहीं हैं। तुम जानो कि तुम्हारे डब्बे के भीतर हीरा है कि नहीं है। मैंने तो कहा था यह सूत्र संसार पर और संसार को देखने वाली दृष्टि, दोनों पर लागू होता है। जब मैं तुमसे कह रहा हूँ जिस डब्बे में हीरा हो उसे रखो, उसे सम्मान दो और उसे प्रेम दो और जो डब्बा खाली हो उसे छोड़ दो, उसे त्याग दो; यह देख पाने के लिए कि डब्बे में हीरा है कि नहीं है तुम्हारे पास दृष्टि होनी चाहिए जो हीरे को हीरा जान सके। इसीलिए ये सूत्र संसार, और संसार को देखने वाली दृष्टि दोनों पर लागू होता है।

यह बातें जब तुम सुन चुकोगे, तब तुम्हें अपनेआप से यह प्रश्न करना पड़ेगा कि मेरे पास वो दृष्टि है, जो हीरे को हीरा और डब्बे को डब्बा जाने, जो छिलके को छिलका और रस को रस जाने; वो दृष्टि तुम्हारी नहीं हो सकती। वो दृष्टि पाने के लिए तुम्हें मीरा होना होगा, तुम्हें अपनेआप को उस दृष्टि को देना होगा। समझो इस बात को। वो दृष्टि पाने के लिए दृष्टि को ये अधिकार देना होगा कि वो तुम्हें पा ले। तुम नहीं पाओगे।

हासिल करने की तुम्हारी सारी कोशिशें व्यर्थ ही जानी हैं। डब्बा हीरे को कब पहचान पाया है? यदि डब्बों को इतनी अक्ल ही होती कि वो हीरे को जान लें तो डब्बे ‘डब्बे’ क्यों रहते? डब्बा तो हमेशा खाली होता है। डब्बा नहीं पहचानेगा हीरे को। हीरे को हीरा स्वयं जानता है। यह हीरे का आत्मबोध होता है। वो ही जानता है अपनेआप को। तुम नहीं जानोगे।

कोई फार्मूला मत माँगना कि, ‘’मैं कैसे जानूं कि कौन सी चीज़ असली है और कौन सी नकली है।’’ जब तक तुम यह सवाल पूछ रहे हो तुम चतुराई दिखा रहे हो। तुम कह रहे हो कि, ‘’मैं जान जाऊं, मैं पता कर लूँ कि बात असली है कि नकली।’’ नहीं हो पाएगा। चतुराई छोड़ो, सरल हो जाओ, सहज हो जाओ, दास हो जाओ।

दास होने का अर्थ है अपनेआप को छोड़ देना। दास होने का अर्थ है इस श्रद्धा में अपनेआप को छोड़ देना कि अपनेआप को छोड़ दूंगा, तो मेरा भला ही होगा।

कुछ बुरा नहीं हो जाएगा मेरा यदि मैंने अपनेआप को छोड़ दिया।’’

दास होने का अर्थ है: ‘डोरी सौंप के तू द्देख एक बार’। दोरी सौंप दी। कुछ बुरा नहीं होगा मेरा। जब इतनी सहज श्रद्धा होती है, तब वो दृष्टि उपलब्ध होती है जो हीरे को हीरा जान ले। तब तुम उस दृष्टि को उपलब्ध होते हो, जो हीरे को हीरा जानती है। तुम उपलब्ध हो जाते हो। वो दृष्टि तुम्हें कभी नहीं उपलब्ध होगी। आसमान कभी तुम्हारे कटोरे में नहीं समाएगा, तुम्हें आसमान में समाना होगा।

तो बोलो, दिन भर तुम्हें जितनी बातें करनी हैं करो। मैं नहीं कह रहा हूँ कि ऊपर-ऊपर का मौन साध कर के बैठ जाओ, बिलकुल नहीं। तुम्हें बात करना पसंद है, दिन भर बोलो। बस ये देख लेना कि शब्द मौन से आ रहे हैं कि नहीं। बस ये देख लेना कि डब्बे में हीरा रखा है या नहीं। डब्बे तो खूब लेकर के घूम रहे हो। घूमो, कोई दिक्कत नहीं। बस यह देख लेना कि डब्बा खाली तो नहीं है क्योंकि खाली डब्बा तो खाली डब्बा ही होता है; मूल्यहीन।

जितनी बातें करनी हैं करो, जितने संबंध बनाने हैं बनाओ, जीवन में जितनी गति रखनी है रखो; बस ये देख लेना कि जो हो रहा है, उसके पीछे कौन बैठा है। बीच-बीच में निचोड़ लिया करो, देख लिया करो कि रस है कि नहीं है। करो, जो करना है। करने के लिए ही हो। फिर दोहरा रहा हूँ: छिलका कोई अपराध थोड़ी ही है। छिलके में त्यागने जैसी थोड़ी कोई बात है बशर्ते रस हो।

जीवन जीने के लिए है, संसार होने के लिए है। सब अच्छा है, सब सुंदर है, अपनी जगह पर प्यारा है पर पूरा होना चाहिए। तुम्हारी इन्द्रियाँ तुमसे जितनी गति करतीं हैं, करो। तुम्हारा मन तुम्हें खूब विचार देता है, बेशक सोचो। बस विचारों के पीछे जो है, ये देख लेना कि वो विचारों में मौजूद रहे। ऐसा न हो कि विचार अपना मालिक खुद बना बैठा है और होता बहुधा यही है। हमारे सारे विचार अहंकार से ही निकलते हैं। तुम खूब सोचो यदि तुम्हारे विचारों के पीछे निर्विचार बैठा हो। जितना सोचना है सोचो।

मीरा ने कुछ कम गाया है? गाती ही रही, गाती ही रही; बातूनी थी, गीतवी थी। तुम्हारा आम आदमी उसको देखे तो कहे: ये देखो, जब देखो, तब चब-चब, चब-चब, बक-बक, बक-बक; शांत ही नहीं होती। सुबह उठती है तो गाती है, दोपहर को गाती है, शाम को गाती है, सपनों में भी गाती ही रहती है। मीरा ने कोई ऊपर-ऊपर का मौन साधा ही नहीं। क्यों साधना है ऊपर-ऊपर का मौन जब शब्द ही मौन से आ रहे हों? तो बाहर का मौन कौन साधे?

जिसे तुम खुल के जीना कहते हो, तुम्हें जो करना है करो, तुम्हें जो भोगना है भोगो, तुम्हें जहाँ जाना है जाओ, तुम्हें जो हासिल करना है करो, बस ये सतर्क रहना कि इन सब के पीछे क्या है। ठीक? कोई वर्जना नहीं है। कोई बाध्यता नहीं है। थोड़ी सतर्कता बस, थोड़ी सजगता। रस है कि नहीं? मीरा है कि नहीं? और कुछ भी नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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