प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, मेरा नाम अभिषेक तिवारी है। मेरा प्रश्न आपसे ये है कि मन हमेशा ग़लत चीज़ों की ओर क्यों आकर्षित होता है? जैसे सर, मैं अभी एक स्टूडेंट हूँ। मैं एक विद्यार्थी हूँ तो मेरा जो मुख्य कार्य होना चाहिए वो पढ़ाई होना चाहिए। लेकिन उसके पश्चात भी मेरा मन जैसे जो मोबाइल वगैरह हो गया, मोबाइल में लगा हुआ है। और भी व्यर्थ की चीज़ों में मन लगा हुआ है जैसे मुझे पता है कि मेरे स्वास्थ्य के लिए मुझे क्या करना है लेकिन उसके बाद भी मैं अनियंत्रित तौर पर, हर विधा में अपनेआप को मन के अधीन होकर छोड़ देता हूँ। मतलब मैं चाहकर भी मन से अपने कोई काम नहीं करा पाता हूँ।
आचार्य प्रशांत: देखिये, मन जो है वो अहम् से चलता है। मन 'मैं' के पीछे चलता है। मन में आपके नहीं कोई कभी विचार आएगा अगर उसका आपसे, माने मैं से कोई सम्बन्ध हो ही न। ठीक है। तो वैसे तो मन में पूरी दुनिया आती-जाती रहती है। तमाम तरह के विचार, भावनाएँ उठते-गिरते रहते हैं लेकिन उन सबके केंद्र में 'मैं' होता है, मैं। और ये जो मैं है ये बड़ा व्याकुल रहता है अपनी भलाई खोजने को। ये जो मैं है ये एक ‘डरी हुई’ चीज़ है और परेशान है। बड़ा बेचैन रहता है।
ये चाहता है कि किसी तरह इसकी परेशानी दूर हो, इसकी बेचैनी मिटे। अपने बारे में इसकी जो एकदम मूलभूत मान्यता है, वो ये है कि इसमें कोई कमी है, कोई खोट है। ऐसा इसको लगातार अनुभव होता रहता है कि कमी या खोट है लेकिन ये साफ़-साफ़ जान भी नहीं पाता कि कमी है कहाँ पर, खोट है कहाँ पर? तो ले-देकर बस ये इतना करता है कि ॲंधेरे में हाथ-पाँव मारता रहता है और मन में आपके जो कुछ भी चलता रहता है, वो चलता मैं के इशारे पर ही है। माने मैं को पूर्ति देने के लिए ही है। मैं अपनेआप को अधूरा मानता है न, तो वो पूरेपन को लेकर बड़ा व्याकुल रहता है कि मुझे पूरापन मिल जाए, 'काश' पूरा हो जाऊँ। और इसीलिए मन में न जाने कितने बेमतलब, निरर्थक, अधकचरे, ऊटपटांग ख़्याल चलते रहते हैं। ज़रा आप मैं की मज़बूरी और मन की दशा समझिए।
मैं की मज़बूरी ये है कि वो बहुत तीव्रता से अनुभव करता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है तो ज़रूर, लेकिन ये जानता भी नहीं है विवश, बेचारा; कि कहाँ क्या गड़बड़ है, बस उसे लगता है कुछ ठीक नहीं है, कुछ ठीक नहीं, पर क्या ठीक नहीं है अगर आप उससे साफ़-साफ़ पूछें तो वो ये बता नहीं पाएगा। और इस कारण मन तमाम तरह के कचरे से भरा रहता है क्योंकि जब आप नहीं जानते कि आपमें जिस चीज़ की कमी है वो क्या है और वो कमी कैसे पूरी होगी तो आप हर जगह तलाशते हो कि कुछ मिले जो उस कमी को पूरा कर सके। तो इसीलिए मन दुनियाभर के ख़्याल रखता है।
आप कहते हैं न, मन चंचल होता है। कहते हैं न, मन यूँही व्यर्थ ही ऊटपटांग जगहों पर भागता रहता है। वो यूँही नहीं भाग रहा, वो मैं के इशारे पर भाग रहा है। मन अहम् का गुलाम होता है तो मन जो है वो मैं के इशारे पर भाग रहा है, 'मैं' कह रहा है जाओ वहाँ तलाश कर आओ, क्या पता वहाँ मिल जाए, जाओ वहाँ ढूँढकर आओ क्या पता वहाँ मिल जाए।
मान लीजिये आपकी कोई चीज़ खो गई है। आपकी एक सुई खो गई है, ठीक है। और आप नहीं जानते कि आपने वो चीज़ कहाँ खोई है तो उसे आप कहाँ-कहाँ ढूँढते हैं? उसे आप फिर पूरी दुनिया में ढूँढते हैं न। अब सुई तो चलिए छोटी चीज़ लग रही है। मान लीजिये जो छोटी सी चीज़ है, वो एक छोटा सा हीरा है, एकदम छोटा सा हीरा। और वो आपने खो दिया कहीं और वो आपके लिए बहुत क़ीमती है, प्राणों से ज़्यादा क़ीमती है आपके लिए वो हीरा। तो आप उसे दुनियाभर में तरीक़े-तरीक़े से तलाशते फ़िरेंगे न।
जो मिलेगा उसी से पूछेंगे, कभी कालीन के नीचे खोजेंगे, कभी बिस्तर पर टटोलेंगे, कभी पुराने कपड़ों में, कभी पुरानी आलमारियों में, जहाँ-जहाँ आपका बस चलेगा, आप वहाँ-वहाँ जाएँगे। तो मन का भी जहाँ-जहाँ बस चलता है वो वहाँ-वहाँ जाता है। उसका हीरा खोया हुआ है। फिर हम कहते हैं कि मन के भटकाव पर क़ाबू कैसे पाएँ। अरे! भाई, मन तो मैं के इशारे पर जा रहा है एक तरह का नौकर है वो। और नौकर तो मालिक की आज्ञा से ही रुकता है। और मालिक है तड़पता हुआ, मालिक नौकर को शांत कैसे बैठने देगा, जब तक मालिक की तड़प नहीं शांत हुई?
तो मैं की अपूर्णता का उपचार करना ही एकमात्र तरीक़ा है मन को शांत करने का। जो लोग मन को शांत करना चाहते हों, उन्हें मैं की तड़प का उपचार करना पड़ेगा और मैं की तड़प के उपचार को कहते हैं, आत्मज्ञान। मैं को जानना ही मैं का उपचार है क्योंकि क्या बीमारी है उसको? बीमारी उसको ये है कि वो नहीं जानता है कि वो कौन है और उसने क्या खोया है। और आत्मज्ञान का मतलब ही है मैं को जानना। तो जब बीमारी है न जानना तो उसका उपचार तो यही होगा न कि जानो। तो आत्मज्ञान मैं की बीमारी का इलाज़ है और मैं की बीमारी का इलाज़ हो जाता है, तो मन की जो ये नाहक चंचलता है, ये अपनेआप फिर शांत पड़ जाती है।
आत्मज्ञान क्या है?
आत्मज्ञान है अपने बारे में मान्यताओं में न जीना। अपने बारे में कल्पना और छवि में न जीना। अपने यथार्थ से परिचित होना ही आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान का कोई पारलौकिक अर्थ नहीं होता। आत्मज्ञान कोई बहुत गोपनीय बात नहीं है। आत्मज्ञान का इतना ही अर्थ है कि आप देखो अपनेआप को और समझ जाओ कि 'किन वृत्तियों पर चल रहे हो, किस नीयत से जी रहे हो, क्या पाना चाहते हो, क्या खोना चाहते हो, किस बात से डरते हो?' यही आत्मज्ञान है।
तो अपनेआप को देखना पड़ता है, अपने कर्मों को देखना पड़ता है और वहाँ जानना पड़ता है कि ये हैं मेरे छुपे हुए डर और इस प्रकृति की हैं मेरी कामनाएँ। और जब अपने बारे में पता चलता है कि मैं ऐसा हूँ तो आप जैसे हैं वैसा रहने की विवशता ख़त्म हो जाती है।
यह एक आपको बड़ी रोचक बात लगेगी। एक बार जो अपनेआप को जान गया, वो वैसा रह ही नहीं जाता, जैसा वो पहले था। जो अपनी हालत से परिचित हो जाता है, उसकी हालत बदल जाती है। हम अगर बुरी हालत में हैं तो इसीलिए क्योंकि हम जानते ही नहीं हैं कि हम बुरी हालत में हैं या हम यदि अनुभव भी करते हैं कि हमारी हालत बुरी है तो भी वो क्यों बुरी है, कैसे बुरी है, इससे हम वाक़िफ़ नहीं होते। हम अपने बारे में मान्यताओं में जीते हैं। हम अपने बारे में भी छवियों में जीते हैं।
जैसे कोई आईने के सामने खड़े होकर अपना मुँह न देखना चाहे बल्कि अपनी कोई मनचाही तस्वीर ही बार-बार देखे और कहे– मैं ऐसा हूँ। हम अपने भी यथार्थ से नहीं अपनी किसी तस्वीर, किसी छवि के सहारे जीते हैं। सत्य से हम बहुत दूर होते हैं।
आत्मज्ञान का मतलब है– “जानो कि तुम्हारी सच्चाई क्या है।” जैसे-जैसे आपको पता लगने लगता है कि आप क्या चाह रहे हो, चीज़ों में थोड़ा गहराई में आप जाना शुरू करते हो, वैसे-वैसे जो कचरा है वो अपनेआप फिर आप पर अपनी पकड़ छोड़ने लग जाता है।
ये बात पूर्णतया स्पष्ट नहीं हुई होगी। इसमें जो कुछ भी अटक रहा है उस पर आप प्रतिप्रश्न करें।
प्र: आचार्य जी, मेरा प्रश्न ये है कि ये जो अहम् है या ये जो मैं हूँ, ये मेरा मन है, मेरी आत्मा है या मेरा शरीर है? ये किससे प्रभावित होकर मेरा अहम् इन दिशाओं में भागता है?
आचार्य: नहीं, जब आप कहते हैं मेरा शरीर; तो जिसके शरीर की बात कर रहे हैं वो अहम् है। जब आप कहते हैं मेरा मन; तो जिसके मन की बात कर रहे हैं वो मैं है। उसकी अपनेआप में कोई वस्तुता नहीं होती है। वो अपनेआप में कोई तथ्य, कोई सब्स्टेंशियल (पदार्थगत) वस्तु है नहीं, लेकिन फिर भी हमारे देखे तो वो सब कुछ है।
हमारी तो चेतना के मध्य में ही 'मैं' बैठा होता है तो हमारे लिए तो वही सब कुछ है। तो अभी हम उसकी बात ऐसे ही करेंगे कि जैसे वो वास्तव में कुछ होता है। ठीक है? इस चर्चा के संदर्भ में हम ऐसे ही मैं की बात करेंगे जैसे वो सचमुच कुछ होता है। हालाँकि जब आप और आगे बढ़ते हैं तो आप जानते हैं कि वो अपनेआप में कुछ होता नहीं है, वो एक ख़ालीपन मात्र है वो कुछ भी नहीं है। वो कुछ ऐसी सी चीज़ है जिसका एहसास होता है पर वो वस्तु नहीं होती है। भ्रम हो जाते हैं न, कई बार कोहरे में भूत दिखने लगता है न।
तो लगता तो है कि भूत है, पर होता नहीं है। अहम् वैसा ही है। लेकिन अभी यही मानिए कि है। तो अहम् क्या होता हैं? नहीं, आत्मा नहीं, आत्मा तो सत्य है। अहम् वो है जो आपकी हर गतिविधि के केंद्र में बैठा हुआ है, जो आपकी भावना के केंद्र में है, आपकी पहचान के केंद्र में है, जो आपके कर्मों के केंद्र में है, उसको अहम् कहते हैं।
तो आपने, मैंने कहा– मेरा मन। तो जिसका मन वो मैं। आप कहते हो न मेरा हाथ, किसका हाथ? जिसका हाथ वो अहम्। और वही जिसका हाथ है वो सन्तुष्ट नहीं हैं, न हाथ से, न हाथ में पकड़ी गई वस्तु से। वो सन्तुष्ट नहीं रहता है, जब वो सन्तुष्ट नहीं रहता है तो वो हाथ का भी अनाब-शनाब प्रयोग करता है और उसका हाथ जगत के सामने हमेशा भिखारी की तरह पसरा हुआ ही रहता है।
तो वो अपने हाथ को दुनिया की तरफ़ बढ़ाता रहता है कि कभी ये पा लूँ, कभी वो पकड़ लूँ। कभी वो विरोध में तनी मुट्ठी बन जाता है और कभी वो चौराहे पर किसी भिखारी की हथेली बन जाता है। ये मैं है। ये मैं है जो हाथ को संचालित करता है। ये मैं है जो हाथ के माध्यम से पूरी दुनिया से कोई रिश्ता बनाता है उसे मै बोलते हैं, वही अहम् है, अहम्।
प्र: आचार्य जी, एक सवाल और था इससे सम्बन्धित।
आचार्य: जब तक स्पष्ट न हो जाए आप पूछते रह सकते हैं उसमें कोई दिक्क़त नहीं है।
प्र: मेरा सवाल आचार्य जी ये है कि ये जो अहम् है, ये मेरी समझ से बाहर का जो वातावरण है या जो हमारे रिश्ते हैं या फिर हम जो जीवन जी रहे हैं मनुष्य का। जो हम धरती पर आकर जी रहे हैं। अहम् उससे ही मुख्य तौर पर प्रभावित रहता है या उसी की सन्तुष्टि के लिए सारे काम करता है लेकिन इसको हम अपनेआप में हम अगर सन्तुष्ट कर भी लें, लेकिन जो वो परिस्थितियाँ फिर से बन जाती हैं तो उस परिस्थिति में फिर ये बह जाता है तो इसके लिए आचार्य जी क्या कर सकते हैं हम लोग?
आचार्य: नहीं-नहीं, एक-एक कदम लें। सबसे पहले तो ये कि ये अहम् कहाँ से आता है? ये अहम् जन्म से ही आता है। अहम् वृत्ति जन्म से ही मौजूद होती है, वो आपको दुनिया से या समाज से नहीं मिलती है। आपको समय से, समाज से, शिक्षा से, परिवार आदि से, धर्म से, मैं का विषय मिलता है।
उदाहरण के लिए– मैं पैदा हुआ। अब कुछ समय बाद उसको बता दिया जाएगा कि तुम अमीर हो तो उसको अपने लिए एक विषय मिल गया, ये विषय शायद उसे परिवार से मिला है, मैं अमीर हूँ। दूसरे को मिल गया मैं ग़रीब हूँ। एक को विषय मिल गया कि मैं हिन्दू हूँ, एक को विषय मिल गया कि मैं ईसाई हूँ। ये सब बाहर से आ रहीं चीज़ें। ठीक है न।
एक को विषय मिल गया कि मैं फ़लानी विचारधारा का समर्थक हूँ क्योंकि उसके परिवार में सभी लोग उसी विचारधारा के मानने वाले थे, एक को विषय मिल गया कि मैं फ़लानी विचारधारा का विरोधी हूँ, एक को मिल गया कि मैं लड़की हूँ, एक को मिल गया मैं लड़का हूँ। तो ये सब आपको समाज से मिलता है लेकिन मैं भाव तो आप गर्भ से ही लेकर पैदा होते हैं। ठीक है। अब बताइए इससे आप क्या पूछ रहे थे कि समाज से क्या?
प्र: आचार्य जी मेरा सवाल ये था कि ये जो अहम् है, ये जो भी उसके वातावरण में चीज़ें हो रही हैं।
आचार्य: हाँ, उनसे प्रभावित होता है।
प्र: उनसे प्रभावित होता ही है और उन्हीं की सन्तुष्टि के लिए ये इधर-उधर भागता रहता है।
आचार्य: नहीं-नहीं, ये उनकी सन्तुष्टि के लिए नहीं भागता है। ये अपनी सन्तुष्टि के लिए भागता है उनके माध्यम से। सन्तुष्टि तो इसे अपनी ही करनी है। पूरी दुनिया को तो ये बस संसाधन के तौर पर इस्तेमाल करता है। सन्तुष्टि इसे किसी और की नहीं करनी है, इसकी मूल बेचैनी अपनी है। पूरी दुनिया के प्रति तो ये भोग का या हिंसा का या भय का या लोभ का रवैया रखता है। भई! जब आप अधूरे होते हैं तो दुनिया से आपके दो ही तरह के रिश्ते होते हैं, एक तो ये कि जो बचा-खुचा भी मेरे पास है कहीं दुनिया वो लूट न ले जाए, एक ये आपका सम्बन्ध होता है और एक ये होता है कि अरे! जो मुझमें अधूरापन है, जो मेरी अपूर्ण कामनाएँ हैं, मैं दुनिया में कहाँ जाकर उनको पूरा कर लूँ। तो ये मैं जो है, ये दुनिया से इन्हीं दो तरह के रिश्ते बनाता है बस। अब बताइए क्या पूछ रहे थे?
प्र: आचार्य जी, ये सवाल मेरा यही था कि जैसे ये बाहर से प्रभावित है या बाहर ही ये अपनी सारी चीज़ें ढूँढ रहा है या खोज रहा है तो ये अन्दर से सन्तुष्ट कैसे होगा? जो आपने बोला, आत्मज्ञान होने के बाद।
आचार्य: अब ये थोड़ा सा नया और रोचक हुआ। देखिये, बाहर जो ये खोज रहा है न चीज़ें, वो चीज़ें ये बाहर बहुत बार खोज चुका है। उदाहरण के लिए आपकी मान लीजिए कुछ उम्र हो, बीस वर्ष या पच्चीस या तीस वर्ष। आप आज जो खोज रहे हैं वो भ्रमवश आपको लगता है कि नया है। आप कल जो खोजेंगे वो आशावश आपको लगता है कि और नया होगा लेकिन जब आप ध्यान से जगत को और जगत के प्रति अपने प्रयासों को देखते हैं तो आप पाते हैं कि आप आज जो खोज रहे हैं वो आप कल-परसों भी खोज चुके हैं और पा भी चुके हैं और पाकर पछता भी चुके हैं। आपको आज जो चाहिए वो कोई बहुत नई चीज़ नहीं है, वो आपको पहले भी मिल चुकी है तो नयापन वहाँ कुछ नहीं है। दुनिया में एक ही चीज़ है जो रूप बदल-बदलकर बहुत बार आपके सामने आती है। ठीक है।
उस चीज़ के पीछे आप बचपन से पड़े हुए हैं। अनगिनत बार आपने उसको पाया है और खोया है। आपने आशा बाँधी है, फिर आप निराश भी हुए हैं। जब आपको ये स्पष्ट हो जाता है कि अरे! ये वही पुरानी तो चीज़ है, बस इसका आवरण बदल जाता है। इसका चेहरा, रूप-रंग बदल जाता है, नाम बदल जाता है। मैं फिर उसके पीछे भागना शुरू कर देता हूँ। फिर जबतक मिलती नहीं है तबतक पछताता हूँ और अगर कभी मिल गई तो पाकर और निराश हो जाता हूँ कि अरे! इसमें वो बात तो बनी ही नहीं जिसकी आशा थी।
जब व्यक्ति ये देख लेता है तब वो फिर दुनिया के पीछे पागलों की तरह भागना बंद कर देता है, फिर एक विवेक आता है, फिर वो समझ जाता है कि जीने के लिए क्या औचित्य सही है। उसी को फिर विवेकपूर्ण जीवन कहते हैं, उसी को निष्काम कर्म भी कहते हैं। अभी भी ये स्पष्ट न हुआ हो तो कहें।
प्र: सर, स्पष्ट हो गया है मुझे काफ़ी हद तक। सर, एक सवाल और था मेरा इसी से सम्बन्धित कि ये बार-बार उसी गड्ढे में जाकर क्यों गिरता है? तो वो जैसे आपने अभी बताया की एक बार सन्तुष्ट होता है, फिर वो नई धारणाएँ, भ्रम बनाता है, उसके बाद फिर उसी में जाता है। तो ये विवेक पा लेने के बाद उसका कुछ माध्यम हो जो हम लोग पा लें तो ये दोबारा न जाए उस तरफ़।
आचार्य: क्योंकि सब गड्ढे अलग-अलग रूप लेकर आते हैं न। गड्ढा एक ही है, अतिप्राचीन, बहुत-बहुत पुरातन। गड्ढा एक ही है लेकिन वो नये-नये कलेवर लिए रहता है, नयी -नयी आवाज़ों से आपको पुकारता है, नयी-नयी आशाएँ और सपने दिखाता है तो व्यक्ति को लगता है क्या पता इस बार कुछ नया हो जाए। अभी तक बात नहीं बनी अतीत में, पर क्या पता इस बार बात बन जाए, तो आशा बनी रह जाती है और ये जो आशा है ये उठती है अज्ञान से।
देखो कुछ नया हो, वास्तव में कुछ सार्थक हो, उसको पा लेने की आशा में तो कोई बुराई नहीं है, पर जिस चीज़ से पाँच बार चोट खा चुके हो, वही जैसे कहा गड्ढा पुराना जिसमें पाँच बार पहले ही गिर चुके हो उसी की ओर पुनः बढ़ने में, बेहोशी में तो निश्चित रूप से बुराई है न। अहम् ही है जिसकी भलाई के लिए काम करना होता है, अहम् ही है जिसे मुक्ति दिलानी होती है और अहम् को मुक्ति दिलाने की जगह उसको पीड़ा और देते चलो तो ये क्या बुद्धिमानी हुई?
ध्यान से देखो जब जीवन में परिस्थितियाँ आएँ। पूछो अपनेआप से इसमें सचमुच ऐसा क्या है जो मुझे तृप्त ही कर देगा? उदाहरण के लिए कोई बोले कि आपको बड़ा मैं सम्मान दूँगा। मान लीजिये आप तीस वर्ष के हो गए हैं, कोई बोले मैं आपको बड़ा सम्मान दूँगा, आप मेरा फ़लाना काम कर दीजिये, मैं बहुत बड़े मंच पर आपका स्वागत या सम्मान समारोह आयोजित करूँगा। ठीक है। इस तरह से कोई आपको बोले। तो मन में लालच उठ सकता है, आप कह सकते हो कि अच्छा ये आदमी जो भी शर्त पूरी करने को कह रहा है हम कर देते हैं। ये आदमी जो भी दाम माँग रहा है हम दिए देते हैं, बदले में हमें बहुत सारा सम्मान मिलेगा और बहुत लोग ताली बजाएँगे। बहुत लोग जान जाएँगे हमको।
और फिर आप बगल में थोड़ा सा देखें मुड़कर के तो आपका, मान लीजिये छोटा भतीजा बैठा हुआ है और भतीजा है कुल तेरह-चौदह साल का टीनेजर। और वो क्या कर रहा है? वो तरह-तरह के मुँह बनाकर के इंस्टाग्राम पर अपनी तस्वीरें डाल रहा है। वो बड़े भद्दे किस्म के मुँह बना रहा है लेकिन वो मुँह ऐसे बना रहा है जिससे लोगों का ध्यान आकृष्ट होगा क्योंकि जब आप भद्दापन करते है तो उससे भी लोग आप पर फिर ध्यान देते हैं। देते हैं न?
बल्कि सही काम करके लोगों का ध्यान नहीं मिलता, भद्दा काम आप करें तो लोगों का ध्यान ज़रूर मिल जाएगा। तो आपका तेरह-चौदह साल का भतीजा बैठा है और वो अपनी भद्दी तस्वीरें डालकर के गिन रहा है कि मुझे आज लाइक कितने मिले और उसपर कमेंट कितने आ गए मेरी पोस्ट पर और शेयर कितने हो गए, ये सब चीज़ें अपना बैठकर गिन रहा है। तत्काल आपको कौंध जाना चाहिए कि मैं तीस का, भतीजा तेरह का, हम दोनों में अंतर ही कहाँ है?
वो भी तो यही बैठकर गिन रहा है कि समाज में कितने लोगों ने मुझे लाइक कर दिया और बहुत बड़े मंच पर मेरा सम्मान किया जाएगा तो मैं भी तो वहाँ बैठकर यही गिन रहा होऊॅंगा कि मुझे कितने लोगों ने लाइक कर दिया और जब आप ये देखेंगे तो फिर आप ये भी देखेंगे कि अंतर कहाँ हैं? उनमें भी जो किसी भी बड़े-से-बड़े पद की आशा इसलिए रखते हैं कि उनको जगत से सम्मान मिलेगा। चाहे वो विश्व के सब राष्ट्रपति प्रधानमंत्री लोग हों, अगर उनकी उम्मीद यही रही है कि मैं कोई ओहदा पा लूँ ताकि लोग मुझे जानें और मुझे इज़्ज़त दें।
चाहे वो कोई सरकारी नौकरी पाने का आकांक्षी हो, जो कह रहा हो कि एक बार मुझे ये बड़ा पद मिल गया, ये वाली नौकरी मिल गयी, कुछ भी, मैं कलेक्टर बन गया तो बहुत लोग मुझे सलाम ठोकेंगे और चाहे फिर वो तेरह साल का आपका भतीजा हो जो इंस्टाग्राम पर कुछ-न-कुछ करके लोगों से वाहवाही पाना चाहता है, अंतर कहाँ है?
एक बार जब आप तमाम तरह के अलग-अलग दृश्यों में, घटनाओं में, मनुष्य की मूल वृत्ति को पहचानना शुरू कर देते हैं और आप कहना शुरू कर देते हैं कि तेरह साल वाला और तीस साल वाला और साठ और अस्सी साल वाले ये सब एक ही है तो फिर आप उस वृत्ति के गुलाम नहीं रह जाते। बात आ रही है समझ में?
प्र: जी आचार्य जी।
आचार्य: एक व्यक्ति है, वो जब छठीं-आठवीं में पढ़ता था तो अपने नंबर गिना करता था। नंबर गिनता था कि मेरे नंबर कितने आ गए और क्यों गिनता था? क्योंकि बड़ी होड़ थी उसमें, बड़ा प्रतिस्पर्धी मन था, दूसरों से आगे रहना है नंबरों में। फिर वो मान लीजिये इंजीनियरिंग करने किसी कैंपस में गया और वहाँ से जब निकल रहा था तो वो गिन रहा था कि प्लेसमेंट में पैसे कितने मिले, वहाँ भी वो एक ऑंकड़ा गिन रहा था।
जब वो छठीं में था तो एक ऑंकड़ा गिनता था कि मेरे नंबर कितने आये? और वो भी तुलनात्मक रूप से। रिलेटिवली कितने नंबर आये, दूसरों से कम हैं, ज़्यादा हैं। जब वो प्लेसमेंट के लिए बैठा तो वहाँ भी वो अपने अंक ही गिन रहा था कि मुझे जो ऑंकड़ा मिला है, 'सीटीसी' वो दूसरों से कम है कि ज़्यादा है और फिर वो एक दिन और आगे बढ़कर के कहता है कि अब मैं उद्यमी बन गया, मैं आंत्रप्रेन्योर बन गया। क्यों? क्योंकि अभी भी वो ऑंकड़ों के ही तलाश में है कि और बड़ा ऑंकड़ा चाहिए। सिर्फ़ तनख़्वाह से जितना पैसा मिलता है पूरा नहीं पड़ रहा और बड़े ऑंकड़ो में खेलूँगा। बताइए इस व्यक्ति का ज़रा भी आंतरिक विकास हुआ है क्या? क्या ये व्यक्ति अभी भी वही नहीं है जो कक्षा छः में था? कक्षा छः में भी ये संख्याओं के पीछे दौड़ रहा था और दूसरों से प्रतिस्पर्धा कर रहा था, जब ये बाईस-चौबीस साल का हुआ और कैंपस से नौकरी पाने की बात आई तब भी ये संख्या के पीछे ही दौड़ रहा था, प्रतिस्पर्धा कर रहा था और अब ये कहता है– मैं तीस-चालीस साल का हूँ और मैं उद्यमी हूँ। मेरा अपना कारोबार है, आंत्रप्रेन्योर हूँ और अब दुनिया में बड़ा सम्मान भी पा रहा है कि आंत्रप्रेन्योर हैं, पर अभी भी दिन-रात इसकी नज़र किस पर रहती है? बस कुछ संख्याओं पर। तो बताइए क्या ये व्यक्ति मानसिक रूप से अभी भी वही नहीं है जो ये दस साल की उम्र में था?
प्र: जी, आचार्य जी।
आचार्य: जब आप ये देखते हो न कि अरे! कुछ नया तो हो ही नहीं रहा है, कुछ बदल तो रहा ही नहीं है, ये तो वही पुराना खेल है जो अलग-अलग तरीक़े से बार-बार खेला जा रहा है तो फिर आप ज़िंदगी में कुछ नया कर पाते हो। क्योंकि पुराना तो बस ऊब देता है न, बोरियत। पुराने को दोहराने में क्या आनंद है? कुछ भी नहीं।
प्र: जी आचार्य जी। सर, मेरा सवाल ये है कि जैसे आपने अभी समझाया पूरा कि कैसे ये सारी प्रक्रिया हो रही है लेकिन आचार्य जी मेरा सवाल ये है कि जो बहुतायत संख्या है वो ऐसे ही प्रवृत्ति वाले लोगों की है सबसे ज़्यादा। और जब मैं सोचता हूँ या आपने जैसा अभी मार्गदर्शन किया तो अगर मैं वैसा जीवनयापन करूँ तो मेरे मन में ये आता है अभी भी कि मैं कहीं भाग तो नहीं रहा हूँ इन चीजों से? मतलब मैं ये चीज़ें नहीं कर पाऊँगा या फिर मेरे लायक नहीं हैं, मैं भाग रहा हूँ परिस्थिति से? लेकिन मुझे पता है कि वो वास्तविकता नहीं है।
आचार्य: आप उससे यदि भाग भी रहे हैं तो यदि सत्य की दिशा में भाग रहे हैं तो रास्ता तो उधर भी कठिन ही है न। देखिये, जीवन का तो अर्थ ही है कठिनाई। और कठिनाई दोनों दिशाओं में है, कठिनाई मूर्खता की दिशा में भी है और कठिनाई बोध की दिशा में भी है।
तो जो मूर्खता की दिशा को छोड़ेगा, उसने मूर्खता के साथ आने वाली सारी कठिनाइयों का त्याग तो करा निश्चित रूप से। बिलकुल ऐसा करा है कि अब मैं उन कठिनाइयों को नहीं झेलूँगा लेकिन साथ-ही-साथ ये भी तो समझिए कि उसने अपने लिए नई कठिनाइयाँ भी तो चुन लीं हैं। तो उसको भगोड़ा कहना उचित नहीं होगा।
हम उदाहरण जिस व्यक्ति का अभी ले रहे थे कि जब छठीं में था तो अंकों के लिए प्रतिस्पर्धा करता था, अंकों के लिए प्रतिस्पर्धा करना भी मेहनत का काम है, फिर नौकरी के लिए भी प्रतिस्पर्धा मेहनत का काम है, फिर अगर कोई स्वरोज़गारी हो जाता है, अपना ही काम-धंधा शुरू कर देता है वो भी मेहनत का काम है बड़ी।
तो यदि कोई इन सब रास्तों को छोड़ता है तो ऊपर-ऊपर से ऐसा लग सकता है कि उसने मेहनत का रास्ता छोड़ दिया लेकिन उसने मेहनत का रास्ता नहीं छोड़ा है क्योंकि इनको छोड़कर के अब आप जिस दिशा में जाएँगे वो रास्ता और ज़्यादा मेहनत का है। अरे भाई! मूर्खता छोड़ी है, मेहनत थोड़े ही छोड़ दी है। अंधे रास्तों पर चलना छोड़ा है, चलना थोड़े ही छोड़ दिया है। पुरानी ही किसी चीज़ का पुनर्चक्रण छोड़ा है, नवनिर्माण थोड़े ही छोड़ दिया है। है न?
तो मेहनत इसमें भी है कि रातभर एक गड्ढा खोदो और दिन को उसको भर दो, फिर पुनः रात को खोदो, फिर दिन को उसको भर दो। मेहनत इसमें भी है और कोई कहे, 'मैं ये काम नहीं करता', कोई कहे, ;मैं ये काम नहीं करता' तो मुझे बताइए वो मेहनत से इनकार कर रहा है या मूर्खता से?
प्र: मूर्खता से।
आचार्य: मूर्खता से। लेकिन आरोप उसपर ये लग सकता है कि उसने मेहनत से इनकार कर दिया है। कोई कह सकता है, 'अरे! तुम जीवन की चुनौतियों को पीठ दिखा रहे हो।' इस तरह के व्यंग्य सुनने को मिल सकते हैं, हैं न? और जीवन की चुनौती का उन्होंने अर्थ क्या करा है कि रातभर गड्ढा खोदो और दिन में गड्ढा भर दो, फिर रात में खोदो, फिर भर दो।
इसको वो कहते हैं यही तो असली जीवन है, यही तो जीवन की चुनौती है। चलो इन चुनौतियों का सामना करो। अरे भाई! चुनौतियों का सामना करने को हम तैयार हैं, पर मूर्खता करने को हम तैयार नहीं हैं। है न? तो हम ये नहीं करेंगे, अगर हमें मेहनत करनी ही है तो हम निर्माण करेंगे। हम एक भव्य नयी जीवन की इमारत खड़ी करेंगे, एक सुन्दर मन्दिर खड़ा करेंगे, है न?
अगर हमें गड्ढा खोदना ही है तो हम किसी मन्दिर की नींव खोदेंगे न, ताकि फिर उसपर कुछ भव्य सा, सुन्दर सा निर्मित हो सके, ठीक है। तो इस बात में मत आइएगा कि आप उद्यम को, साहस को और श्रम को पीठ दिखा रहे हैं, नहीं, नहीं। हमने मूर्खता का त्याग करा है, हमने पौरुष का त्याग नहीं कर दिया, हमने श्रम और उद्यम का त्याग नहीं कर दिया बल्कि सही काम करने में कहीं ज़्यादा श्रम और साहस लगता है।
प्र: धन्यवाद आचार्य जी।