आचार्य प्रशांतः पूछ रहे हैं कि क्या तुलसीदास कृत रामचरित मानस श्रुति में आती है या स्मृति में। प्रमाण माना जा सकता है रामचरित मानस को। श्रुति में तो केवल वेद-वेदांत आता है न कुशल, और तो कुछ है ही नहीं श्रुति। और व्यावहारिक रूप से जब तत्व मीमांसा की या दर्शन की बात होती है तो श्रुति प्रमाण का अर्थ बस वेदांत होता है। तो उपनिषद् श्रुति है, बाकी सब स्मृति हैं। और स्मृति माने कोई न समझे कि बस जो सामाजिक नियम-कायदों की किताबें थीं जैसे मनु स्मृति वगैरह उसको ही स्मृति बोलते हैं।
स्मृति एक ज़्यादा व्यापक टर्म है। ये सब आता है पुराण, धर्मशास्त्र सारे। वहाँ पर धर्म से आशय होता है समाज की व्यवस्था को चलाने वाले नियम-कायदे। वहाँ धर्म से ये आशय है। धर्मशास्त्र कहलाते हैं न, धर्मशास्त्र। वो अपने आप में एक कोटि है किताबों की। उसमें यही सब है समाज कैसे चलेगा और उसमें फिर जो तुम्हारे महाकाव्य हैं वो भी आते हैं, जिसमें रामायण, महाभारत इत्यादि आते हैं।
तो स्मृति माने लगभग वो सब कुछ जिसको हम कह देते हैं कि धार्मिक साहित्य। वो सब कुछ ही स्मृति ही है। और श्रुति माने व्यावहारिक तौर पर मात्र वेदांत, माने उपनिषद्।
स्मृति क्यों रची गई? अच्छा तमाम जो बीच में और ज्ञानी लोग हुए थे, विद्वान लोग हुए थे, उन्होंने भी जो व्याख्याएँ, टीकाएँ सब करीं वो सब भी स्मृति में ही आती हैं।
स्मृति रची क्यों गई? उस काल की जो स्थितियाँ थीं उन पर उसके लिए गौर करना पड़ेगा। उपनिषदों का जन्म जन साधारण के बीच नहीं हुआ था। जन साधारण के बीच दरअसल मुश्किल होता है किसी भी ऊँची कृति को जन्म देना, अंजाम देना। असंभव नहीं, पर मुश्किल हो जाता है। दैनिक जीवन की वही चक्की चलती रहती है। लोगों के अपने सरोकार होते हैं। लोगों के बीच रहो तो लोगों की संगत से भीतर प्रभाव पड़ता है। तो जो हमारे ऊँचे-से-ऊँचे रचयिता थे, वो समाज से ज़रा दूर रहे।
उपनिषदों का जन्म समाज के बीच नहीं हुआ। उन्होंने बड़ी सावधानी रखी कि जिसको हम समाज कहते हैं, किसी भी तरीके से इसकी छाया भी उपनिषदों पर न पड़े। और समाज माने व्यक्ति, इंसान, आम इंसान, झुन्नु। तो बहुत इस बात पर सावधानी रख रहे थे, ज़ोर दे रहे थे। आम इंसान माने जो समाज की इकाई है, आम इंसान उससे बिल्कुल अस्पर्शित रहें। उसके मन से, उसकी वृत्तियों से, उसके सरोकारों से, स्वार्थों से बिल्कुल अस्पर्शित रहें वेद और वेदांत। तो इसलिए उनको कहा गया अपौरुषेय। माने जो साधारण पुरुष होता है, माने हम सब लोग, समाज के साधारण लोग हमसे वो नहीं आए हैं।
वेदों को अपौरुषेय माना जाता है और वेदों का ही शिखर क्या है? वेदांत है। वेदों में ही जो उच्चतम बात है उसको वेदांत बोलते हैं। उसका नाम ही है वेदांत। वेदांत माने वेदों की उच्चतम बात, जहाँ पर आकर वेद अपनी निष्पत्ति पा जाते हैं। वो शिखर जिसके लिए वेदों ने अपनी यात्रा शुरू करी थी अंत, वेदांत वहाँ पर आकर तो उसको अपौरुषेय बोला गया। अपौरुषेय माने क्या? अपौरुषेय माने उस पर किसी का हाथ नहीं लगा, इंसान का। किसी पुरुष का हाथ नहीं लगा है क्योंकि हम अपना हाथ लगाएँगे तो उन्हें गंदा कर देंगे।
तो एक गूढ़ अर्थ में ऋषियों ने कहा कि स्वयं हमने भी हाथ नहीं लगाया है। उन्होंने अपने आप को भी पीछे खींच लिया, बोले, ‘नहीं इस पर समाज का तो हाथ लगा ही नहीं हमारा भी हाथ नहीं लगा है।‘ ये अपौरुषेय हैं। हम भी बिलकुल अगर शुद्धतम अर्थ में पूछो तो इनके रचनाकार नहीं हैं। हम क्या हैं? बोले, ‘हम द्रष्टा हैं। हमने देख लिया, हमने रचा नहीं है।‘ तो ऋषि अपने आप को बोलते हैं बड़ी सुंदर बात, बोलते हैं, ‘मंत्र द्रष्टा, मंत्र द्रष्टा।‘
बोलते हैं, ‘जो मंत्र हैं माने जो श्लोक हैं वेदांत के, बोले हमने नहीं रचे हैं। हम तो पुरुष हैं। हम तो साधारण लोग हैं। हमसे कुछ आएगा तो उसमें कुछ-न-कुछ गड़बड़ रहेगी, कुछ मिलावट रहेगी।‘ बोले, ‘मंत्र द्रष्टा।‘ इसी बात को दूसरे तरीके से उन्होंने ऐसे कहा कि हमने सुना है, हमने रचा नहीं है। तो श्रुति हमने सुना, देखा। मंत्र द्रष्टा माने हमने देखा। 'आई सॉ। आई ऑब्ज़र्व्ड।' श्रुति, मैंने सुना, आई लिसन्ड। दोनों में ही भाव ध्यान का है, ध्यान का। ध्यान से देखा तो ये बात सामने आ गई। उसे वेदांत कहा, ध्यान से सुना तो वो बात सामने आ गई। हमने नहीं रचा। जो हमारा साधारण केंद्र है, भीतर अहंकार का उससे ये बात हमने नहीं कही है। अपौरुषेय, अपौरुषेय।
समझ में आ रही है बात?
इसके बिल्कुल विपरीत जितना स्मृति साहित्य है वो सीधे-सीधे इंसानों द्वारा रचा गया है और उस पर इंसानों ने अपना ठप्पा भी लगा रखा है। नाम, आपने लिख दिया न संत तुलसीदास रचित रामचरित मानस। लेकिन बिल्कुल शुद्धतम अर्थ में आपसे मैं पूछूँ कि वेद किस ऋषि ने रचा तो आप नहीं बता पाएँगे। रामचरितमानस आप बता सकते हो, एक व्यक्ति ने रची है। पर वेद अपौरुषेय हैं, किसी व्यक्ति ने नहीं रचे। कहते हैं, ‘उतना काफ़ी है।‘
मीमांसा दर्शन है मीमांसा दर्शन। छः दर्शन होते हैं न, उसमें मीमांसा दर्शन वो एक मामले में बड़ा अद्भुत है। वो कहता है कि कोई भगवान भी नहीं चाहिए, वेद पर्याप्त हैं। वेद इतनी ऊँची बात है क्योंकि वो ध्यान का परिणाम हैं। हमने सुना, हमने देखा तो उससे वेद आए और जो हम सबसे ऊँची बात सुन सकते थे, सबसे ऊँची बात देख सकते थे, उसको कहा उपनिषद्, वेदांत।
स्मृति साहित्य, वहाँ सीधी-सी बात है। ये इंसानों ने लिखा है और श्रुति में आप इजाफ़ा नहीं कर सकते। आप ये नहीं कह सकते कि अब मैं श्रुति को और बढ़ाने जा रहा हूँ लेकिन स्मृति साहित्य कितना भी लिखा जा सकता है, लिखा गया, आज भी लिखा जा रहा है। आप रामचरित मानस की बात कर रहे हैं वो कोई बहुत पुराना ग्रंथ थोड़े ही है। अभी है मध्यकाल का। तीन-सौ, पाँच-सौ, सात-सौ साल, ग्रंथ-पर-ग्रंथ लिखे जा रहे हैं वो सब स्मृति साहित्य में आते हैं। और स्मृति साहित्य क्यों लिखा गया? अभी मैंने वो बात शुरू करी थी पूरी नहीं हुई। हमें उस काल की स्थितियों पर ध्यान देना होगा।
तो हमने कहा कि श्रुति की रचना समाज से हटकर हुई थी, दूर हुई थी क्योंकि यहाँ बीचो-बीच रहकर के और जो यहाँ पर वही खुरपेच चलती रहती हैं और क्या बोलें उसको, वही दिनभर का नून, तेल, लकड़ी का कार्यक्रम। उसमें कोई ऊँचा काम हो नहीं सकता। बड़ा मुश्किल होता है। दूर चले गए थे। अब दूर जाकर के वो मंत्र द्रष्टा तो हो गए ऋषि। लेकिन इन्होंने जो देख लिया, जो सुन लिया वो आम आदमी के पहुँच से बहुत आगे की बात थी। उनको नहीं समझ में आता।
आम आदमी की अपनी दुनिया, अपने सरोकार वो यही सब कर रहा है। झुन्नू, धनियाँ, नुन्नू, लकड़ी ले आओ, ये कर दो, सास से लड़ाई हो गई, पड़ोसी को नीचा दिखाना है, यही उसकी दुनिया है। इसी में वो जीता-मरता है। वहाँ जाकर ऋषियों ने कुछ और ही बिल्कुल जान लिया। अब उन्होंने जो जाना वो उच्चतम है और वही ऐसी चीज़ है जो हर आदमी के काम की है। वो इतनी दूर निकल गई है चीज़ कि उसको आम आदमी तक लाएँ कैसे? वो आसमानों की बात और आम आदमी ज़मीन पर रेंगता है।
कैसे लाएँ? तो वो जो श्रुति थी उसको आम आदमी तक लाने के लिए स्मृति का फिर प्रावधान किया गया। स्मृति एक प्रोविज़न है, प्रोविज़नल है, अंतरिम है। स्मृति अपने आप में कोई आखिरी बात नहीं होती। वहाँ आपने आखिरी बात आखिरी, अंत, वहाँ आपने कहा वेदांत तो आखिरी बात। स्मृति को कोई नहीं कहेगा कि आखिरी बात है। वो क्या है? अंतरिम, माध्यमिक, बीच की, कुछ समय के लिए, प्रोविज़नल कि बैठा हुआ है आम आदमी अपने गाँव-शहर में और अपने वही दिन-रात की गुटरगूँ करता हुआ। बोले, ‘तो कुछ तो समझाएँ,’ तो उसके लिए फिर कहानी वगैरह रची गईं और उसके लिए नियम-कायदे रचे गए।
और वेदांत में कहीं कोई नियम-कायदा मिला आज तक? किसी उपनिषद् में कोई मिला कोई, ये नियम है, ये कायदा है ऐसा कर लो, वो कर लो, ये सब कहीं नहीं मिलेगा। पर आम आदमी ऐसा कि उसको नियम-कायदा बताओ नहीं तो वो घबरा जाता है या फिर वो उत्श्रृंखल हो जाता है। तो कुछ किताबें रची गईं नियम-कायदों की, कुछ किताबें रची गईं किस्से-कहानियों की। वो सब स्मृति साहित्य हुआ कि इसको ऊँची बात तो समझ में आ नहीं रही है। कुछ तो समझा दो। कुछ मिला-जुलाकर कुछ दे दो इसको। प्लस कृषि प्रधान उस समय पर अर्थव्यवस्था थी तो बहुत इस पर ज़ोर भी नहीं था कि हर आदमी पढ़ा-लिखा हो। सब खेतीबाड़ी करते थे। अब खेतीबाड़ी में कोई बहुत अनुसंधान तो होता नहीं था कि कोई डिग्री चलती हो, बीटेक इन एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग, कुछ नहीं। जिन तरीकों से अभी सौ-साल पहले तक खेती होती थी भारत में, उन्हीं तरीकों से पिछले तीन-हज़ार साल से चल रही है। कोई तकनीकी प्रगति हुई है क्या? आप तीन-हज़ार साल पहले का किसान देखें और उन्नीस-सौ-पचास का किसान देखें, वो बिल्कुल सेम एक जैसी तकनीक का इस्तेमाल करके अपनी फसलें उगा रहे थे।
फिर भारत में वो हरित क्रांति हुई जिसमें हमने कहा, ‘नहीं साहब, चावल आप इस तरीके से, धान आपको करना है तो जापानी तकनीक से आप धान करो। ये करो, वो करो और हमने नए तरीके दिए।‘ नहीं तो जो आम किसान था उसको पढ़ने-लिखने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि जैसे एक-हज़ार साल पहले खेती होती थी वैसे ही आज भी खेती होती है। तो बाप-दादे जैसे कर रहे तो उसे कर लेना है। वो पढ़-लिखकर के क्या ज्ञान हासिल करे। .उसे ज्ञान की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। उसके लिए तो जो चली आ रही थी परंपरा, वही पर्याप्त थी। उसके आर्थिक जीवन में भी, उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और अपने व्यक्तिगत पारिवारिक जीवन में भी उसे कोई ज़रूरत ही नहीं थी न कोई ज्ञान प्राप्त करने की।
ऊपर से वो वर्ण व्यवस्था का भी कार्यक्रम जिसमें ब्राह्मणों के अलावा जो बाकी वर्ण थे उनके लिए ज्ञान की कोई आवश्यकता बताई भी नहीं गई, या है भी तो थोड़ा-बहुत तुम अपने-अपने क्षेत्र का ज्ञान ले लो, तुम्हें उससे ज़्यादा ज्ञान की ज़रूरत नहीं।
तो आम आदमी की ये जो थी शैक्षणिक स्थिति थी। कि वो पढ़ा लिखा है नहीं और वो अपने ही सब पचड़ों में मशगूल है। तो उस तक कैसे श्रुति जैसी श्रेष्ठतम बात लाई जाए। तो इसके लिए फिर सरल भाषा में, कुछ संस्कृत में लिखा गया है, कुछ संस्कृत में नहीं भी लिखा गया है। सरल भाषा में, संस्कृत में जो लिखा गया है उसमें विषय वस्तु ऐसी रखी गई कि समझ में आ जाए वो बात। तो कथाओं की रचना हुई कि लो भाई! तो श्रुति का उद्देश्य भी यही है कि, स्मृति का उद्देश्य भी यही है कि जो श्रुति की बात है उसको किसी तरीके से सादाहरण बनाकर के, हल्का बनाकर के आम आदमी तक ले आ दो। ये स्मृति का उद्देश्य है।
फिर श्रुति इतनी ऊँची है कि वो आपको बिना किसी सहारे के छोड़ देती है। वो कहती है कि तुम, तुम ही तो श्रेष्ठतम, तुम ही उच्चतम, तुम ही आत्मा हो।
वो बाहर नहीं जन्मेंगे कहीं, आस ये अवरुद्ध करो। हरि भीतर ही प्रकटेगें अभी, यदि स्वयं से तुम युद्ध करो।
वेदांत तो ये है। कि आत्मा से बड़ा कोई सत्य नहीं और आत्मा माने हृदय तुम्हारा। तुम कहाँ बाहर को देख रहे हो और तुम ही सर्वशक्तिमान हो। तुम्हें कोई नियम-कायदा कोई क्या बताएगा, क्या पढ़ाएगा। लेकिन आम आदमी तो छोटे से अपने अहंकार में जीता है और अपनी वासनाओं, कामनों का गुलाम रहता है। तो उसको सामाजिक नियम-कायदे देने पड़ते हैं। न दो तो वो पागलपन करेगा इधर-उधर, उपद्रव करेगा। तो इसलिए फिर कायदों की किताबें लिखी गईं। बहुत तरीके की फिर उसमें संहिताएँ आ गईं, स्मृतियाँ आ गईं। राजनैतिक रूप से मनुस्मृति आजकल विवादास्पद है तो आपने मनुस्मृति-मनुस्मृति सुना है।
मनुस्मृति से ज़्यादा प्रचलित और भी स्मृतियाँ थी और देश के अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से नियम-कायदों का पालन होता था। ज़रूरी नहीं है कि राजाओं ने जो अपने पूरे नियम-कायदे बनाए और अपनी जो प्रशासनिक संहिताएँ बनाईं वो मनुस्मृति पर ही आधारित हों। याज्ञवल्क्य, पाराशर, नारद तमाम लोगों के अपने-अपने कोड थे।
कोई राजा किसी बात पर चल रहा है, कोई किसी पर चल रहा, और कोई किसी पर भी नहीं चल रहा, वो अपने पर चला रहा है। और ये सब जो नियम-कायदे बनाए गए, इनमें भी उद्देश्य यही था कि देखो श्रुति पर आधारित बनाना। जैसे कथाओं को कहा गया कि श्रुति पर आधारित बनाना भाई। वैसे नियम-कायदों को भी कहा गया श्रुति पर आधारित बनाना। लेकिन अब इसमें बीच में जो है, खेल हो गया। खेल ये हो गया कि श्रुति पर आधारित कुछ नियम-कायदा या कथा बनाने के लिए श्रुति पहले समझ में भी तो आनी चाहिए ठीक से और श्रुति इतनी ज़बरदस्त चीज़ है कि नहीं समझ में आती सबको।
वेदांत पर ही आधारित इतने संप्रदाय बन गए। अब शंकराचार्य ने आकर के उसका जो शुद्धतम रूप था, वो बता दिया अद्वैत। कि वेदांत माने ही अद्वैत होता है। तो शंकराचार्य के जाने के तीन-सौ साल के अंदर-अंदर तीन, चार, पाँच, छः तरीके के और संप्रदाय खड़े हो गए जो बोलने लगे, ‘नहीं, नहीं श्रुति का अर्थ अद्वैत नहीं होता, श्रुति का अर्थ द्वैत होता है।‘ और शंकराचार्य तब तक थे ही नहीं तो क्या खंडन करते फिर। तो श्रुति समझना आसान नहीं होता और खासतौर पर श्रुति का जो शुद्धतम अर्थ है वो पता चल जाए तो बड़ा खतरनाक लगता है आदमी झेल नहीं पाता। झुन्नू की हालत खराब। तो बता भी दिया गया कि अद्वैत।
तो शंकराचार्य के जाने के बाद तरीके-तरीके से द्वैत को वापस लाने की चेष्टा की गई। जितने आप और संप्रदाय सुनते हो न कि वेदांत पर आधारित सब ये संप्रदाय हैं वो सब द्वैत आधारित ही हैं। उनके नाम अलग-अलग हो सकते हैं। विशिष्ट अद्वैत नाम दे देंगे, द्वैत-अद्वैत नाम दे देंगे या द्वैत ही नाम दे देंगे, भेद-अभेद नाम दे देंगे पर वो सब द्वैतात्मक है।
तो कुल मिलाकर के वेदांत के दो ही अर्थ हैं, ‘एक अद्वैत और एक द्वैत।’ और द्वैत वाले पाँच-छः हैं। वो बारहवीं शताब्दी से लेकर के सोलहवीं शताब्दी तक चलते रहे। एक के बाद एक संप्रदाय द्वैत आधारित बनते रहे, क्यों? क्योंकि शंकराचार्य जो बोल गए थे वो बात झेली नहीं जा रही थी। वो बात तो यही है कि बेटा तुम कुछ नहीं हो। अहंकार मिथ्या है। अहंकार से ये झेला ही नहीं जाता कि हम मिथ्या हैं, तो फिर द्वैत बनाया जाता है। अहंकार कहता है, ‘हम मिथ्या नहीं हैं। हम तो ईश्वर की पैदाइश हैं। जब ईश्वर मिथ्या नहीं तो हम मिथ्या कैसे हो गए!’
तो श्रुति सबको समझ में आ जाए ज़रूरी नहीं है न। तो फिर जो स्मृतियाँ लिखी गईं, उनमें ज़रूरी नहीं है कि श्रुति का सही अर्थ झलकता हो। तो तमाम तरीके के पुराण लिखे गए वो सब स्मृति में आते हैं पर वो बहुत सारे पुराण ऐसे हैं बल्कि कह सकता हूँ ज़्यादातर बातें ऐसी हैं जो श्रुति से मेल ही नहीं खातीं। मेल भी छोड़ दो मतलब बिल्कुल ज़मीन-आसमान का अंतर है। बेसिर-पैर की बातें भी बहुत हैं पुराणों में। तो भले ही स्मृति के लिखे जाने का औचित्य ये था कि श्रुति की जो क्लिष्ट और जटिल बात है, जो ऋषियों ने अपने एकांत में आविष्कृत करी थी, देखी थीं या सुनी थीं, उनको जन साधारण तक लाना है ये भले ही स्मृति का उद्देश्य हो लेकिन वहाँ ऋषियों से शुरू करके जन साधारण तक लाने के बीच में, रास्ते में बड़ी मिलावट हो गई, घोर मिलावट।
ऐसा भी नहीं कि मतलब पाँच-दस प्रतिशत की मिलावट, वो निन्यानवे प्रतिशत ही मामला मिलावटी हो गया। हाँ, कहीं-कहीं पर स्मृति में भी श्रुति की सुंदर खुशबू, प्यारी महक आ जाती है, कहीं-कहीं पर। पर ज़्यादातर तो मामला बहुत मिलावटी है।
समझ में आ रही है बात ये?
अब जिस बात का विरोध उपनिषद् चिल्ला-चिल्लाकर करते हैं। अगर उपनिषदों के साथ चिल्लाना शब्द जोड़ा जा सके, नहीं तो बड़ा अजीब लगता है कि उपनिषद् चिल्ला रहे हैं। पर यदि सिर्फ़ समझाने के लिए मुहावरे के तौर पर बोलूँ कि जो बात उपनिषद् चिल्ला-चिल्लाकर मना करते हैं। अब गरुद पुराण जैसे पुराण हैं, उस बात को वो सामने रख रहे हैं कि आप मरते हो तो जीवात्मा निकलती है। यहाँ जाती है, वहाँ जाती है। फलाना पेड़ पार करती है। फलानी नदी पार करती है। फिर ये जाप करो तो जीवात्मा वहाँ पहुँचेगी। तो बड़ी गड़बड़ हो गई। गड़बड़ इसलिए भी हो गई क्योंकि ये जो पूरा स्मृति साहित्य है न ये कोई एक दिन में नहीं रचा गया। जो प्रमुख उपनिषद् हैं, ये सब बातें थोड़ा आपको जो इसका इतिहास है वो पता होना चाहिए। जो प्रमुख उपनिषद् हैं वो बुद्ध, महावीर से थोड़ा पहले के हैं।
तो पाँचवी-छठी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध, महावीर का ये काल है। और उससे पहले जो हैं कई उपनिषद् आ चुके थे। खासकर जिनको हम प्रमुख उपनिषद् बोलते हैं वो ज़्यादातर बुद्ध से सौ, दो-सौ, चार-सौ साल पहले के हैं। फिर जब बुद्ध महावीर थे उस दरमियान भी कुछ उपनिषद् रचे गए और कुछ उनके तुरंत बाद। तो हम ये कह सकते हैं कि मोटे तौर पर ईसा पूर्व दसवीं शताब्दी से लेकर के ईसा पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी तक उपनिषदों का मोटे तौर पर पूरा रचना का कार्यक्रम हो चुका था।
जब सब हो चुका है स्मृति, पूरी स्मृति कह रहा हूँ श्रुति पूरी प्रकट हो चुकी है, उसके पाँच-सौ साल बाद तो पुराणों का रचना काल शुरू होता है। माने ईसा से अगर दो-सौ, तीन-सौ साल पहले तक आप जितने उपनिषद् जानते हो, ग्यारह प्रमुख और एक-सौ-आठ मुक्तिका वाले, वो सब बिल्कुल प्रकट होकर जम चुके थे। तो उनके पाँच-सौ साल बाद पुराणों की रचना अब शुरू होती है। ईसा के जाने के दो-सौ, तीन-सौ साल बाद, दूसरी-तीसरी शताब्दी से पुराणों की रचना और पुराणों की रचना कहाँ तक चलती है? वो बारहवीं, तेरहवीं, पंद्रहवीं, सोलहवीं शताब्दी तक पुराण रचे गए हैं। अभी तक, हाल तक। और बहुत सारे पुराण उस समय की भी पैदाइश हैं जब भारत में विदेशी संस्कृति और विदेशी साम्राज्य आ चुके थे। तो उनका प्रभाव भी उन पुराणों पर दिखाई देता है, विशेषकर जो द्वैतात्मक प्रभाव है। वो दिखाई देता है। तो ये स्मृति का खेल है पूरा। बहुत बाद की है स्मृति और बहुत उसमें दुर्भाग्यवश मिश्रण, घपला भी हो गया है।
समझ में आ रही है बात?
इसीलिए, मैं कहा करता हूँ हर चीज़ जो संस्कृत में लिखी हुई है, उसको झटके से बोल मत दिया करो कि शास्त्र है। साहित्य है, अच्छा साहित्य है, प्यारा साहित्य है, सम्मान देंगे उसे पर ये नहीं कह देना शास्त्र है। शास्त्र तो वो जो अहम् को मुक्ति दिलाने की बात करे, उसके अलावा तो कुछ शास्त्र होता नहीं। कोई आकर के आपको संस्कृत का श्लोक सुना दे, पहले पूछा करो कौन-कौन से ग्रंथ से लाए हो।
श्रुति प्रमाण होता है, स्मृति प्रमाण आपने शब्द ही न सुना हो कभी कि स्मृति प्रमाण है। किसी किताब से उठाकर के तुम संस्कृत में कुछ बोलने लग गए, उसका कोई महत्व नहीं है। वो ऐसी बात है कि मैं भी किसी हिंदी की किताब से उठाकर के कुछ बोलने लगूँ, हिंदी, अंग्रेज़ी, बंगाली, गुजराती, उर्दू। मैं भी कहीं से कुछ बोलने लग जाऊँ तो बात प्रमाणित थोड़े ही हो गई।
वैसे ही सिर्फ़ इसलिए कि तुमने संस्कृत में कोई श्लोक बोल दिया बात प्रमाणित नहीं हो गई न। बताओ कहाँ से लाए हो? कहीं सुना है पुराण प्रमाण? नहीं, पुराण प्रमाण कुछ नहीं होता। इसी तरह मनुस्मृति में भी कोई बात लिख दी गई तो प्रमाणित नहीं मानी जाती। भारत का संविधान ही नहीं मानता मनुस्मृति को। आप किसी न्यायालय में चले जाइए और बोलिए कि मैंने ऐसा इसलिए कर दिया क्योंकि मनुस्मृति में लिखा है। आपको न्यायालय बचाएगा नहीं जेल होनी होगी तो हो ही जाएगी, भले ही आप मनुस्मृति पर चले हों।
ये प्रमाण नहीं होते। वेदांत प्रमाण होता है। और वेदांत की कोई बात ऐसी है नहीं जो आपको किसी प्रकार के आचरण की तरफ़ प्रेरित करे। वेदांत का एकमात्र लक्ष्य है बोध। कहते हैं, ‘तुम समझो, झूठ को काटो और कुछ है नहीं।‘
श्रुति में और स्मृति में एक और मैं आपको विशेष अंतर है वो बता ही देता हूँ। भारत बड़ा वयस्क देश है। कुछ लोगों ने कह दिया बुड्ढ़ा, पुराना, वृद्ध, बुज़ुर्ग मैं कहता हूँ परिपक्व, एडल्ट, मैच्योर।
तो ये जो नई-नई उत्तेजना होती है न, ये भारतीय दर्शन में नहीं है। भारतीय दर्शन इसीलिए बहुत ठहरा हुआ, संभला हुआ है। उसमें उछल-कूद के लिए बहुत स्थान नहीं है। श्रुति में आप नहीं पाएँगे कुछ ऐसा जो बहुत आवेगों को, उत्तेजनोओं को समर्थन देता हो। ऋषि आवेग, उत्तेजना वगैरह छोड़कर के गए थे वो जंगल में बैठने, जहाँ शोर-शराबा नहीं, उछल-कूद नहीं, ये सब नहीं। क्योंकि उनको बात समझ में आ गई थी कि जितने आवेग होते हैं, उत्तेजना होती हैं, कामनाएँ होती हैं और छवियाँ होती है, इमेजिनेशंस होती हैं, कल्पनाएँ, ये सब क्या हैं? उन्हें पता था ये अहंकार का भोजन है। इनमें कुछ रखा नहीं है। इसका संबंध नहीं जोड़ना चाहिए अध्यात्म से। वो चीज़ भारतीय है, परिपक्व शांत, बोध, ज्ञान। बुद्ध जिसकी हमें प्रतिमूर्ति जैसे नज़र आते हैं। इसीलिए मैं उनको बोलता हूँ कि उनसे ऊँचा वेदांती शायद ही कोई हुआ हो।
शांत, बोध, ज्ञान सब समझ में आ रहा है। सब देख रहे हैं। और फिर जब कहीं पर कोई नया-नया संप्रदाय पैदा होता है न जो नई-नई उत्तेजना होती है, उसमें उछल-कूद बहुत होती है। वो उछल-कूद भारतीय है ही नहीं। वो भारत में आई।
देखिए नौवीं शताब्दी से भारत पर पश्चिम की दिशा से हमले होने शुरू हो गए। उन हमलों के साथ-साथ विजेताओं की संस्कृति भी आई, धर्म भी आया क्योंकि जो जीतता है न, ऐसा नहीं हो सकता कि फिर उसके धर्म और उसकी संस्कृति को भी विजेता न माना जाए। वो आता है तो फिर अपना पूरा सब बोरिया-बिस्तर और मानसिक सामग्री वो सब लेकर के आता है और वो सब जो लेकर आया होता है क्योंकि वो विजेता से संबंधित होती है तो इसलिए फैलती है।
तो नौवीं शताब्दी से वो सब आना शुरू हो गया। और बारहवीं शताब्दी से तो फिर राज ही हो गया दिल्ली पर ही। बारहवीं शताब्दी से दिल्ली पर राज हो गया। पहले जो उधर से लहरें आईं एक-एक करके, वो सिंध तक पहुँचती थीं, पंजाब तक पहुँचती थीं। बारहवीं शताब्दी में तो दिल्ली पर ही काबिज़ हो गईं और फिर वो सिलसिला चलता रहा अठारहवीं शताब्दी तक और अठारहवीं शताब्दी के बाद दो-सौ सालों तक फ्रेंच और पुर्तगाली और सबसे ज़्यादा जैसा हम जानते हैं अंग्रेज़ ये लोग।
इनकी सबकी सोच द्वैतात्मक थी। अरबों से लेकर अंग्रेज़ों तक उनकी सबकी सोच द्वैतात्मक थी और उस द्वैतात्मक सोच का प्रभाव भारत पर बहुत पड़ा। अरबों से लेकर अंग्रेज़ों तक, अब ये बड़ा लंबा एक अर्सा है। देखिए लगभग एक-हज़ार साल का। नौवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक बल्कि बीसवीं शताब्दी के मध्य तक लंबा, लगभग हज़ार साल। और विजेता जो थे वो सब द्वैत वाली सोच के थे। और विजेता की जो सोच होती है, विजेता की जो संस्कृति होती है वो विजित लोगों पर छा जाती है। और बहुत सारा जो द्वैतात्मक स्मृति साहित्य है वो इसी समय लिखा गया है, नौवीं शताब्दी से लेकर पंद्रहवीं, सोलहवीं शताब्दी के बीच में।
उसको विशुद्ध रूप से भारतीय भी नहीं माना जाना चाहिए। बहुत सारे जो द्वैतात्मक सिद्धांत हैं वो भी इसी दरम्यान दिए गए हैं, बारहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी के बीच में। और आप सोचिए बारहवीं, सोलहवीं शताब्दी के बीच में सामाजिक माहौल कैसा था, सिंहासन पर कौन था, ताकतें कौनसी थीं, समाज पर किसका कब्ज़ा था? जिनका कब्ज़ा होता है न, वो पूरा माहौल ऐसा बना देते हैं कि सब लोगों को मेरी तरह सोचना पड़ेगा और उनकी तरह सोचने में जो राजा होता है, जो जीती हुई ताकत होता है, उसकी तरह सोचने में लोग भी अपना भला देखते हैं।
दूसरी बात श्रुति अद्वैत है और अद्वैत में झुकने के लिए कोई स्थान नहीं है। अद्वैत तो सीधा है, ‘नेति-नेति।’ जो गलत है सो गलत है संघर्ष करो। अब ज़बरदस्त एक सत्ता है जो दिल्ली पर बैठ गई है, बंगाल पर बैठ गई है, धीरे-धीरे करके पूरे देश पर छाती जा रही है, उससे संघर्ष कैसे करें, हिम्मत ही नहीं है और संसाधन भी नहीं है और ताकत भी नहीं है।
तो फिर एक अल्टरनेट फ़िलोसॉफ़ी निकालनी पड़ती है। वो अल्टरनेट फ़िलोसॉफ़ी फिर वही सब हो गई। ड्रीम लैंड, कल्पनाएँ, मान्यताएँ। जिनमें संघर्ष बाद में आता है। बस ये आता है, चुपचाप सिर झुका दो। सब ईश्वर की मर्ज़ी है, वो देख रहा है। वो कर रहा है। उसकी लीला है। हमें क्यों संघर्ष करना है! खुश रहो, नाचो-गाओ, खुश रहो। व्यक्तिगत तौर पर अच्छा आचरण करो, सफ़ाई रखो, ऐसे रहो, वैसे रहो।
तो ये सब भी आप पाते हो कि स्मृति साहित्य में बहुत मौजूद है। और जिनसे लड़ना चाहिए उनसे लड़ नहीं सकते हो। जिन्होंने तुम्हें दबाया, जिन्होंने अत्याचार करे, उनसे लड़ नहीं सकते हो तो तुम जाकर के सारा अपना आवेग, अपना क्रोध, अपनी भड़ास किस पर निकाल देते हो? अपने ही साथ के लोगों पर। वर्ण व्यवस्था के माध्यम से महिलाओं को हीन स्थान देकर के। जिससे लड़ना चाहिए उससे तो लड़ नहीं पा रहे। तो किसको दबाए दे रहे हो? किसके ऊपर छाए जा रहे हो? सारी आक्रामकता किस पर दिखा रहे हो? कि तू निचले वर्ण का है, आवाज़ मत उठा देना मार दूँगा।
जिससे मरने-मारने का खेल खेलना चाहिए था, उसके सामने तो तुम कुछ कर नहीं पा रहे, अपने ही भाइयों को दबा रहे हो और अपने ही घर की महिलाओं को, अपने ही समाज की महिलाओं को दबा रहे हो। तो जातिवाद और नारियों के लिए थोड़ा-सा गड़बड़, थोड़ा नहीं कई बार तो बहुत ज़्यादा गड़बड़ रुख ये सब भी हमें स्मृति साहित्य में मिल जाता है।
इन सबके पीछे तत्कालीन सामाजिक कारण हैं। उसको समझना पड़ेगा कि कब ये सारा स्मृति साहित्य रचा गया था। सारा-का-सारा नहीं, तीसरी शताब्दी से शुरू हो रहा है जैसा हमने कहा ईसा के बाद तीसरी शताब्दी से, पर बहुत सारा उसमें से। तो उसमें हमें बहुत तरीके की गड़बड़ बातें मिल जाती हैं। अब जाति व्यवस्था आपको खूब मिल जाएगी पुराणों में और मनुस्मृति तो खैर है ही बदनाम। और भी तो धर्मशास्त्र उसमें उठाओ, उसमें भी ये सब बातें मिल जाएँगी। उन सबके पीछे कारण हैं और इनको पढ़ो और उपनिषदों को पढ़ो तो समझ में ही नहीं आता कि क्या ये दोनों ही सनातनियों के हैं क्योंकि जो बात स्मृति में है, श्रुति तो सीधे-सीधे उसका खंडन करती है। श्रुति बोलती है ये बात बिल्कुल मानी नहीं जा सकती।
बात समझ रहे हो?
ये हुआ है सनातन धर्म के साथ। फिर यही सब देखकर के जैसे दयानंद सरस्वती जी थे उन्होंने कहा था वेदों के वापस लौटो। 'गो बैक टू द वेदाज़।' उन्होंने पुराणों को सीधे-सीधे अस्वीकार कर दिया। बोले इन पुराणों के कारण ही हिंदुओं की इतनी फ़जीहत हुई है। मैं अस्वीकार करने को नहीं कहता। मैं कहता हूँ, ‘जिन बातों का, जिन सूत्रों का, जिन कथाओं का कोई वेदांत सम्मत अर्थ निकलता हो, उसको बिल्कुल स्वीकार करो और जिनका नहीं निकलता उन्हें अस्वीकार करो।‘
श्रुति सर्वोच्च न्यायालय है, सुप्रीम कोर्ट। जो बात श्रुति की बात से मेल खाती है वो स्वीकार होगी बाकी सब कचरा, हम नहीं मानते। लिखा होगा कहीं हम नहीं मानते। उपनिषद् गवाही देते हैं तो मानेंगे और तुम उपनिषदों के खिलाफ़ बात करोगे तो चाहे संस्कृत में करो, चाहे जिसमें करो उपनिषदों के खिलाफ़ है तुम्हारी बात, हम नहीं मानेंगे। सनातन धर्म क्या है?
उपनिषदों के धर्म को सनातन धर्म बोलते हैं। वेदांत ही सनातन धर्म है। आप खुद ही बोलते हो वैदिक धर्म है हमारा। आप कहीं जाकर पढ़ो, हिंदुओं के क्या ग्रंथ है? कहें वेद और वेदों के दर्शन का क्या नाम है? वेदांत।
तो सनातन धर्म क्या है? वेदांत है। सनातन दर्शन क्या है? वेदांत दर्शन है। किसी किताब में कोई बात अगर वेदांत से मेल खाती है तो उसको यहाँ (सिर पर) रखेंगे बिल्कुल और नहीं खाती तो कचरा। और वेदांत अपने आप में कोई नियम-कायदों का सिलसिला नहीं है। इतना समझाया है वेदांत कोई बिलीफ़ सिस्टम नहीं है। वेदांत में कहीं कोई कहानियाँ नहीं है, कोई थियोलॉज़ी नहीं है। वेदांत तो सिर्फ़ एक जिज्ञासा है जो सब पर लागू होती है। आप ये भी नहीं कह सकते कि वेदांत तो हिंदुओं का है बस, सबका है। मानव मात्र का है वेदांत। वेदांत जिज्ञासा का नाम है। वेदांत ईमानदारी का नाम है।
वेदांत कहता है, ‘अपने आप को, इस दुनिया को ध्यान से देखो।‘ ज़्यादातर बातें जिनको आज के हिंदू, धर्म समझकर स्वीकार करते हैं, कहते हैं ये हिंदू धर्म है, वो हिंदू धर्म है ही नहीं। उसका वेदांत से कोई लेना ही देना नहीं। ज़्यादातर चीज़ें जो आज का हिंदू कर रहा है, वो सब तो बाहरी प्रभावों के दबाव में हिंदू धर्म में प्रविष्ट हो गई हैं। वो बातें है ही नहीं सनातन की जिनके लिए आज का हिंदू लड़ने को मरने-मारने को तैयार हो जाता है, बोलता है मेरा धर्म, मेरा धर्म, मेरा धर्म। भाई जिसको तुम अपना धर्म बोल रहे हो तुम्हारा धर्म है ही नहीं और जो तुम्हारा धर्म है, वो तुम्हें कभी किसी ने बताया नहीं।