राम, कृष्ण, शिव - सबमें खोट दिखती है? || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

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राम, कृष्ण, शिव - सबमें खोट दिखती है? || आचार्य प्रशांत

प्रश्नकर्ता: मेरा सवाल ये है कि बहुत सारी कहानियों में, जैसे राम और कृष्ण की कहानी हम पढ़ते हैं या कोई और भी। इन अवतारों को बचपन से ही बहुत ऐसे दिखाया जाता है कि इनमें बचपन से ही सारे गुण थे, या ये बचपन से ही अच्छे थे, निपुण थे हर कार्य में। आपका भी जब मैं डिस्क्रिप्शन (विवरण) पढ़ रही थी, तो उसमें लिखा हुआ था कि आप बचपन से ही असाधारण बालक थे। तो क्या एक एक्स्ट्रा ऑर्डनेरी स्टेट (असाधारण अवस्था) विकसित की जा सकती है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, दोनों तरह की बातें मिलती हैं कथाओं में। ये तो मिलता है कि बचपन से ही विशेष थे, लेकिन साथ-ही-साथ जो साधारण मानवीय गुण हैं, वो भी अवतारों के वर्णन में खूब देखने को मिलते हैं। तो आप नहीं कह सकते कि आपको अवतारों में बस विशिष्टताएँ ही मिलती हैं।

सीता खो गयी हैं, राम रो रहे हैं, इसमें आपको मानवीयता नहीं दिख रही है? ये तो कोई भी साधारण पति या प्रेमी करेगा। कुछ जान नहीं पा रहे हैं, तो इंसानों को तो छोड़ दो, पेड़-पौधों, पक्षियों से पूछ रहे हैं, “तुम देखी सीता मृगनयनी?” इसमें आपको कौनसी सिद्धि दिखाई दे रही है? कोई विशेष सिद्धि वगैरह होती, तो आँख बन्द करते, पता चल जाता कि रावण ले गया।

यहाँ तो उनको पूरी तरह मानवीय ही दिखाया गया है न? अगर मानवीय नहीं दिखाएँगे, तो अवतार की जो पूरी प्रक्रिया है, वो बाधित हो जाएगी। अवतार क्या होता है? अवतार वो होता है जो बहुत कुछ आपके जैसा है, लेकिन आपके जैसा होते हुए भी वो संकल्प और साहस करता है आत्मा जैसा होने का; उसको अवतार बोलते हैं।

उसमें दोनों चीज़ें पायी जाती हैं एक साथ। अवतार आदर्श नहीं हो सकता। आदर्श का क्या मतलब होता है? आदर्श का मतलब होता है कि एक विचार है, एक कल्पना है, और उसी कल्पना के तल पर उसका निर्माण कर दिया गया है। लेकिन अवतार कोई तभी हो सकता है, जब उसमें आपको कुछ मानव सुलभ गुण और दुर्बलताएँ भी देखने को मिलें। अगर आपको कोई ऐसा अवतार मिलता है जिसमें आपको कोई कमियाँ, कोई खामियाँ नज़र नहीं आ रही हैं, तो वो अवतार है ही नहीं।

अवतार का मतलब ही है कि एक साधारण मनुष्य में जो भी गुण होते हैं, दोष होते हैं, विकार होते हैं, सीमाएँ होती हैं, वो सब उसमें थीं; उनके होते हुए भी, देखो वो कैसे जी गया, क्या कर गया। तो अवतार का सृजन ही किया जाता है, आपको प्रेरणा देने के लिए कि आप ही के जैसे तो थे। आप ही के जैसे थे, लेकिन देखो, कितनी दूर तक निकल गये।

कृष्ण युद्ध में पराजित होने को तैयार खड़े हैं। ये साधारण मानवीयता नहीं है क्या? बोलो। कृष्ण उस क्षेत्र की जितनी गोपियाँ हैं, महिलाएँ हैं, उन सबके साथ प्रसन्न होकर के प्रमोद कर रहे हैं, क्रीड़ा कर रहे हैं, ये साधारण मानवीयता नहीं है क्या?

पौराणिक कथा है कि गोपियाँ नहा रही हैं, वो पेड़ पर चढ़ गये हैं या फिर उनका वस्त्र इधर-उधर छुपा रहे हैं, इसमें आपको दिव्यता क्या दिख रही है? यह तो आपको साफ़-साफ़ बताया जा रहा है कि जैसे कोई भी आम व्यक्ति होता है, उनमें वो सब भी था, लेकिन उसके बाद भी वो गीता तक पहुँच गये। क्या आप भी ये कर सकते हो?

तो कृष्ण का चरित्र फिर एक चुनौती की तरह आपके सामने रखा जाता है। भारत में ये कभी करा ही नहीं गया कि बोल दिया जाए कि वो तो बचपन से ही अनूठे थे। हाँ, उनके अनूठेपन की भी कुछ कहानियाँ मिलती हैं। जैसेकि ये है कि छोटे थे तभी ऐसे उठा लिया गोवर्धन को ऊँगली पर। जब वैसी कहानियाँ मिलती हैं, तो मैं कहता हूँ, भई! उसका प्रतीक समझो, अर्थ समझो। तीन-चार साल, पाँच साल पहले, भागवत की कहानियों पर पूरा एक कोर्स किया था, जिसमें ये सारी कहानियाँ ली थीं और एक-एक का क्या प्रतीकात्मक अर्थ होता है, वो खोलकर के समझाया था।

कालिया नाग है, कोई भी साँप ऐसा तो होता नहीं जिसके इतने सारे सिर हों। न कोई साँप ऐसा होता है जिसने साम्राज्य बसा रखा हो, जमुना के भीतर। तो कालिया काहे का प्रतीक है और कालिया दहन की पूरी घटना का क्या अर्थ है, तो ये सब…।

लेकिन अगर आप ये कहेंगी कि सनातन धारा में अवतारों को बिलकुल पूर्ण और सब विकारों से परे दिखाया गया है, तो ये बात तो तथ्यात्मक नहीं है, एकदम नहीं है।

आपके अवतार तो क्रोधित भी होते हैं, रोते भी हैं, मोहग्रस्त भी होते हैं। जितनी चीज़ें एक आम आदमी को प्रभावित करती हैं, वो सारी बातें एक अवतार को भी प्रभावित करती हैं। राम जानते नहीं थे क्या कि स्वर्ण मृग नहीं होता! तो कैसे चल दिये।

अगर राम त्रिकालदर्शी ही दिखाए जाते तो फिर ये भी नहीं दिखाया जाता न, कि सीता ने कहा कि ले आओ, और चल दिये। कोई यदि किसी को आप यदि त्रिकालदर्शी दिखाना चाहेंगे, तो क्या आप ये दिखाएँगे कि स्वर्ण मृग लाने के लिए चल दिया? ये त्रिकालदर्शी का काम तो नहीं है। ये तो एक साधारण मानवीय कृत्य है कि पत्नी ने कुछ आग्रह करा और पति उसको लाने के लिए निकल पड़ा।

सीता का भी फिर वैसा ही है। पहले तो वो पति को वहाँ भेज रही हैं, फिर लक्ष्मण ने रेखा भी खींच दी है, तो वो जान नहीं पा रही हैं कि वो सामने जो खड़ा है, वो भिक्षु नहीं है रावण है। तो वो रेखा का उल्लंघन कर गयी हैं। तो सबका चरित्र ऐसा ही दिखाया जाता है।

लक्ष्मण को शक्ति लग गयी है, राम क्या कर रहे हैं? राम को अगर आप यही बोलोगे सीधे कि विष्णु ही तो हैं राम, तो फिर ये भी दिखाया जा सकता था कि राम ने क्या करा? ऐसे ही (चमत्कार से) लक्ष्मण को ठीक कर दिया। ठीक कर दिया क्या? ठीक नहीं कर रहे हैं, वो तो रो रहे हैं। वो कह रहे हैं कि अब मैं वापस जाकर माताओं को क्या मुख दिखाऊँगा? ये भावना कि मैं वापिस जाकर माँओं को क्या मुँह दिखाऊँगा कि लक्ष्मण कहाँ हैं, लक्ष्मण को कहाँ छोड़ आये, ये तो एक साधारण मानवीय भावना है न? हर बड़े भाई में होती है।

आप घर के किसी छोटे को साथ लेकर चलो और उसको चोट लग जाए, कुछ हो जाए, तो ये भाव आता है न कि अब घर पर क्या जवाब दूँगा? राम में भी वही भाव आ रहा है। तो सनातन धारा ने अपने अवतारों को अपने बड़े पास का रखा है। वही प्रेम की बात। दूर का रखा नहीं बहुत ज़्यादा। सीता राम से क्या माँगती हैं, और राम भी क्या देते हैं उनको? वचन, क्या? सीता एक तुम ही रहोगी, दूसरी नहीं। ये तो एक साधारण पति-पत्नी में भी होता है न? पत्नी हमेशा क्या चाहती है? एक ही रहे। तो सीता भी यही कह रही हैं।

और आप कितने ही उदाहरण खोज लोगे। आप खोजने निकलो न, तो आपको दिख जाएगा कि यहाँ वो आदर्श कथा वाला मामला है ही नहीं; कि एक सुपरहीरो (फ़रिश्ता) पैदा हुआ और वो ज़िंदगीभर बस सुपरहीरो वाले ही काम करता रहा। ऐसा कुछ भी नहीं है।

बल्कि, इसीलिए इतने विवाद होते हैं अवतारों के चरित्र पर। इतने विवाद इसीलिए होते हैं। अगर उनको आदर्श ही दिखाया गया होता तो फिर कोई विवाद हो ही नहीं सकता था। पर, चूँकि उनमें जानबूझकर इतनी त्रुटियाँ दिखाई गयी हैं, इसीलिए ऊँगली उठाने वालों को मौक़ा मिल जाता है। ऊँगली उठाने वाले कहते हैं, देखो, राम के चरित्र में ये त्रुटि है। भाई, वो त्रुटि अकस्मात् नहीं है, उस त्रुटि का होना आवश्यक है। तभी तो राम आपके निकट आ पाएँगे न, तभी तो आप कह पाओगे कि अच्छा, मेरे ही जैसे हैं, फिर भी महान हैं, तो मैं भी महान बन सकता हूँ।

तो आप कहते हो, अरे! धोबी की बात पर सीता को घर से निकाल दिया। बेशक, हम इस बात पर चर्चा कर सकते हैं, बहस कर सकते हैं कि ऐसा करना ठीक नहीं था, सीता गर्भवती थीं। धोबी ने कहा। अरे! धोबी को बुलाकर बातचीत कर लेते। धोबी ही तो है, कुछ समझा दो उस बेचारे को। बात मान जाता, वो बेचारा भी तो — वो भी रुष्ट था क्योंकि उसकी अपनी पत्नी कहीं पर आ गयी थी।

श्रीकृष्ण की मुत्यु कैसे दिखाई है? एक साधारण कोई आखेटक है, वो मारता है तीर, उनके पाँव में लगता है, मर जाते हैं। मृत्यु भी अतिसाधारण दिखाई है। जैसे एक आदमी की मौत होती है, वैसे ही दिखा दिया इनकी भी हो गयी। अब इस बात से आपको ऊर्जा मिलनी चाहिए। समझ रहे हो बात को?

हनुमान जा रहे हैं, संजीवनी लाने। वो खोज ले रहे हैं तुरन्त, कहाँ है, कहाँ है? उन्हें कुछ समझ में ही नहीं आ रहा। तो क्या कर रहे हैं, फिर कह रहे हैं कि चलो सबकुछ ले चलते हैं। जो कुछ होगा, वो वहाँ पर वैद्य जी खुद ही देख लेंगे।

हर चरित्र ग़लतियों पर ग़लतियाँ कर रहा है और वो जब जा रहे हैं, तो नीचे से भरत देखते हैं, कहते हैं, ये देखो, ये कोई चमकता हुआ कुछ बड़ा भारी पत्थर लेकर जा रहा है, ज़रूर ये राक्षस है। और उधर लंका की तरफ़ जा रहा है, तो ये ज़रूर राम-लखन को मारने के लिए जा रहा है। वो कहते हैं कि मैं इसका काम ही तमाम कर देता हूँ। वो नीचे से उसको मार देते हैं, बाण।

हर चरित्र ग़लतियाँ कर रहा है, सब ग़लतियाँ कर रहे हैं। कैकेयी ग़लती कर रही है, दशरथ ग़लती कर रहे हैं; सब ग़लतियाँ कर रहे हैं। भारत को ये इन्सिक्युरिटी , असुरक्षा कभी रही ही नहीं कि अपने महानायकों को परफेक्ट (पूर्ण) दिखाओ। परफेक्ट दिखाने की ज़रूरत तभी पड़ती है, जब तुम भीतर से डरे हुए हो। यहाँ उनको पूरा मानवीय दिखाया गया है, सब मानवीय हैं। हनुमान जी भी मानवीय हैं, लक्ष्मण जी भी मानवीय हैं, उनको गुस्सा बहुत आ जाता है। राम मानवीय हैं, सीता मानवीय हैं। सब मानवीय हैं। कौन नहीं मानवीय है, कृष्ण मानवीय हैं। और बताओ, कौनसे अवतार की बात करनी है?

यहाँ तो, यहाँ तक हुआ है कि अवतारों को श्राप भी झेलना पड़ा है। अवतार हैं, जाकर के कोई ऋषि बैठे हुए थे, उनको परेशान कर दिया। ऋषि बोल रहे, ‘मुझे क्यों परेशान कर रहा है? जा, तू दो सौ साल तक भटकेगा।‘ अब अवतार हैं, भटक रहे हैं।

देवताओं को तो पुराणों में हर चौथे पन्ने पर श्राप मिल रहा होता है (श्रोता हँसते हुए)। अब हैं देवता, लेकिन कहीं कोशिश नहीं की गयी है उनको दूध का धुला दिखाने की। ऋषि बैठे हुए हैं, देवता लोग घुस गये हैं, उनकी पत्नियों के साथ मज़े कर रहे हैं। ये दिखाने के लिए बहुत मज़बूत छाती चाहिये। बहुत सिक्युरिटी (सुरक्षा) चाहिए भीतर।

नहीं तो आप कहोगे, ये बात तो आसानी से छुपाई जा सकती थी न, छुपा देते। अगर ऐसा कुछ है भी, तो छुपा देते। क्यों नहीं छुपाया? क्योंकि छुपाने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्या छुपायें, छुपाना क्या है! मानव ऐसा ही है, छुपायें क्या। छुपाकर तो बेईमानी हो जाएगी, इसीलिए नहीं छुपाया।

देवी पार्वती जाती हैं देवी लक्ष्मी का महल देखती हैं, उनको ईर्ष्या हो जाती है। उनको ईर्ष्या हो जाती है, वो कहती हैं, ‘अरे! इसका इतना बड़ा महल है और तुम मुझे वहाँ पत्थर पर, पहाड़ पर बिठाए रहते हो, महादेव। ये तुम्हारा ठीक नहीं है बिलकुल।' (सभी हँसते हुए)

'वो देखो, वो मिसेज़ विष्णु, उनका सब कुछ कितना सुन्दर है, और कितना भव्य है, कितना अलंकृत है। वहाँ सबकुछ बढ़िया-बढ़िया है और तुम मुझे ब्याहकर लाये हो इन पत्थरों पर बिठाने के लिए!‘ तो फिर क्या करते हैं शिव? शिव बड़ा भारी सोने का महल बनाते हैं, कि लो और पार्वती एकदम प्रसन्न हो जाती हैं। कहती हैं, ‘देखा, लक्ष्मी।‘

ये साधारण मानवीय, साधारण स्त्रैण भाव नहीं है? सब स्त्रियों में होता है, पुरुषों में भी होता है। छुपाया नहीं गया, दिखा दिया गया। फिर कहानी ये जोड़ दी गयी कि वही जो महल बनाया गया था, वो सोने की लंका हो गयी और फिर, वो रावण को मिल गयी एक दिन।

एक ब्राह्मण आया, जब ये सब हो गया। तो वो माँगने आया कि इतना बढ़िया आपने बनाया है, कुछ हम माँगेंगे तो देंगे, शिव से बोला। शिव बोले, 'हाँ, बताओ, आज तो बड़ा अच्छा दिन है, पार्वती भी बहुत प्रसन्न हैं, बहुत दिनों के बाद। बताओ, क्या माँग रहे हो?’ तो बोला, ‘एक काम करिए, ये जो आपने पूरा इतना विशाल महल बनाया है सोने का, यही हमको दे दीजिए।' तो पार्वती फिर नाराज़। बोलीं, ये देखो, ये दानवीर। बड़ी मुश्किल से तो ये बनाया और वो भी अब दान कर दिया। वो लेकर चला गया, वो रावण का पिता था। वो फिर रावण को मिल गयी, वो लंका।

तो इस तरीके से कहानियाँ आपस में एक पूरे नेटवर्क की तरह, एक जाल की तरह, गुत्थम-गुत्था हैं। वो बुनी ही इस तरीके से गयी हैं कि एक चीज़ को याद करो तो दूसरी चीज़ आ जाती है। दूसरी को याद करो तो चौथी आ जाती है। इरादा क्या है? इरादा ये है कि तुम भूलने नहीं पाओ। एक चीज़ से दूसरी चीज़ याद आये, दूसरी से तीसरी चीज़ याद आ जाए।

अब हनुमान मिलते हैं, रामायण में। यहाँ अभी हम गीता पढ़ रहे हैं तो वो वहाँ पर बोल रहे हैं, कपिध्वज। अर्जुन के रथ पर भी ऊपर हनुमान बैठे हुए हैं। कपिध्वज है। हर चीज़ को दूसरी से जोड़ दिया गया है। बड़ी मेहनत की गयी है। मेहनत ये की गयी है कि इंसान कभी भूलने न पाये।

चप्पे-चप्पे पर भगवान को बैठा दो, प्रकृति के हर तत्व में भगवत्ता को स्थापित कर दो, ताकि तुम भूलने न पाओ। कुछ नहीं भूल सकते तुम। पीपल के पेड़ का दैवीय महत्व है, बरगद का दूसरा है, नीम का तीसरा है, आम का चौथा है, जामुन का पाँचवा है, इमली का भी है। केले का तो है ही है, नारियल का तो पक्का है।

भूलने न पाये, आदमी भूलने न पाये। कोई पेड़ हो, कोई पौधा हो, कोई जानवर हो, कोई जगह हो, तुम जहाँ जाओ वहाँ तुम्हें भगवान याद आ जाए। ये है, जो पूरी तरक़ीब विकसित की गयी, ये पूरी प्रणाली बनाई गयी है, व्यवस्था है ये, ताकि आम आदमी अध्यात्म में स्थापित रह सके।

समझ में आ रही है बात?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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