रावण जलाना तो ठीक है, पर अपने सर भी गिन लेना || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

10 min
219 reads
रावण जलाना तो ठीक है, पर अपने सर भी गिन लेना || आचार्य प्रशांत

प्रश्नकर्ता: सर, जैसे कि अभी दशहरा आ रहा है और हर साल दशहरा मनाते भी हैं, लेकिन दशहरे का वास्तविक अर्थ क्या है?

आचार्य प्रशांत: जिसके दस सिर वही रावण। रावण वो नहीं जिसके दस सिर थे, जिसके ही दस सिर हैं वही रावण है। और हममें से कोई ऐसा नहीं है जिसके दस, सौ, पचास, छह हज़ार आठ सौ इकतालीस सिर न हों।

दस सिरों का अर्थ समझते हो? एक न हो पाना, चित्त का खंडित अवस्था में रहना, मन पर तमाम तरीके के प्रभावों का होना। और हर प्रभाव एक हस्ती बन जाता है, वो अपनी एक दुनिया बना लेता है। वो एक सिर एक चेहरा बन जाता है। इसीलिए हम एक नहीं होते हैं। रावण को देखो न! महाज्ञानी है, शिव के सामने जो वो है, क्या वही वो सीता के सामने है?

राम वो जिसके एक सिर, रावण वो जिसके अनेक सिर, दस की संख्या को सांकेतिक समझना। दस माने दस ही नहीं, नौ माने भी दस, आठ माने भी दस, छ: माने भी दस और छह हज़ार माने भी दस; एक से ज़्यादा हुआ नहीं कि दस, अनेक।

जो ही अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग हो जाता हो वही रावण है।

मज़ेदार बात ये है कि रावण के दस सिरों में एक भी सिर रावण का नहीं है, क्योंकि जिसके दस सिर होते हैं उसका अपना तो कोई सिर होता ही नहीं, उसके तो दसों सिर प्रकृति के होते हैं, समाज के होते हैं, परिस्थितियों के होते हैं। वो किसी का नहीं हो पाता।

जो अपना ही नहीं है, जिसके पास अपना ही सिर नहीं है वो किसी का क्या हो पाएगा। एक मौका आता है, वो एक केन्द्र से संचालित होता है, दूसरा मौका आता है, उसका केन्द्र ही बदल जाता है, वो किसी और केन्द्र से संचालित होने लग जाता है।

उसके पास अनगिनत केन्द्र हैं। हर केन्द्र के पीछे एक इतिहास है, हर केन्द्र के पीछे एक दुर्घटना है, एक प्रभाव है। कभी वो आकर्षण के केन्द्र से चल रहा है, कभी वो ज्ञान के केन्द्र से चल रहा है, कभी वो घृणा के केन्द्र से चल रहा है, कभी लोभ के केन्द्र से, कभी सन्देह के केन्द्र से। जितने भी हमारे केन्द्र होते हैं, वो सब हमारे रावण होने के द्योतक होते हैं।

राम वो जिसका कोई केन्द्र ही नहीं है, जो मुक्त आकाश का हो गया।

यहाँ एक वृत्त खींच दिया जाए, आपसे कहा जाए इसका केन्द्र निर्धारित कर दीजिए। आप उँगली रख देंगे यहाँ पर (हाथ से एक जगह को इशारा करते हुए)। आप इस मेज़ का भी केन्द्र बता सकते हैं। आकाश का केन्द्र आप नहीं बता पाएँगे, आकाश में तो तुम जहाँ पर हो वहीं पर केन्द्र है, अनन्त है। राम वो जो जहाँ का है वहीं का है। अनन्तता में प्रत्येक बिन्दु ‘केन्द्र’ होता है।

राम वो जो सदा स्व-केन्द्रित है, जो जहाँ पर है वहीं पर केन्द्र आ जाता है। रावण वो जिसके अनेक केन्द्र हैं और वो किसी भी केन्द्र के प्रति पूर्णतया समर्पित नहीं है। इस केन्द्र पर है तो वो खींच रहा है, उस केन्द्र पर है तो वो खींच रहा है। इसी कारण वो केन्द्र-केन्द्र भटकता है, घर-घर भटकता है, मन-मन भटकता है। जो मन-मन भटके, जो घर-घर भटके, जिसके भीतर विचारों का लगातार संघर्ष चलता रहे वो रावण हो गया।

काश कि दशहरे का तीर भीतर को चलता! असल में रावण की पहचान ही यही है कि उसके सारे तीर बाहर को चलते हैं। तो जब हम रावण को मारते हैं, तो हम रावण होकर ही मारते हैं। राम तो वो है जो पहले स्वयं मिट गया। जो कभी खुद न मिटा हो, वो रावण को नहीं मिटा पाएगा।

रावण के ही तल पर रावण से बैर करना असम्भव है। राम यदि रावण से जीतते आये हैं, तो उसकी वजह बस यही है कि वो रावण के सामने से नहीं, रावण के ऊपर से युद्ध करते हैं। रावण के सामने जो है, वो तो रावण से हारेगा। जो रावण तुल्य ही है, वो रावण से कैसे जीतेगा। जिसे दस सिर वाले को हराना हो, उसे पहले अपना सिर काटना होगा। जिसका अपना कोई सिर नहीं, अब वो हज़ार सिरों वाले से जीत लेगा।

हम वो हैं जिनके अपने ही रावणनुमा हज़ार सिर हैं, इसीलिए हमें रावण को मारने में बड़ा मज़ा आता है, हर साल मारते हैं, मार-मारकर के हर्षित हो जाते हैं कि मर तो ये सकता नहीं। असल में ये बड़े गर्व की बात होती है, कि जान बहुत है पट्ठे में! हर साल मारा जाता है और लौटकर आ जाता है। फिर तो आत्मा हुआ रावण, अमर है। हमें अमरता का और तो कुछ पता नहीं।

सच तो ये है कि हमारा अहंकार रावण को ही कभी भी पूरा न मरता देखकर के मन ही मन मुस्कुरा लेता है। कहता है, ‘जैसे ये कभी नहीं मर रहा न, वैसे ही मरोगे तुम भी नहीं। आत्मा अमर है तो माया भी तो अमर है, कौन मार पाया आज तक माया को।’ अब अमरता के लिए आत्मा होना ज़रा टेढ़ी खीर है, वहाँ कई तरीके के झंझट — ये छोड़ो, ये न करो, वो करो, रूप नहीं चलेगा, रंग नहीं चलेगा, व्यसन नहीं चलेगा, विकार नहीं चलेगा। अरे! अमर ही होना है न, एक पिछला दरवाज़ा है माया का। माया को भी कौन मार सका आज तक? जब तक संसार है तब तक माया रहेगी। तो हम उस रूप में फिर अमर हो जाना चाहते हैं।

कभी विचार किया आपने? हर साल मारते हो, कभी मार ही दो, कि अब गया। अब इसका श्राद्ध हो सकता है, पर दोबारा मारने की ज़रूरत नहीं पड़ सकती। हमने श्राद्ध करते तो किसी को देखा नहीं। मरा होता तो, अरे! चौथा, छठा, तेरहवाँ, कुछ तो मनाते; कुछ नहीं होता। वो फिर खड़ा हो जाता है उतना ही बड़ा, और हम ही खड़ा करते हैं।

आन्तरिक विभाजन का ही नाम रावण है। और सत्य के अतिरिक्त, आत्मा के अतिरिक्त जो कुछ है वो विभाजित है। जहाँ विभाजन है वहाँ आप चैन नहीं पा सकते। उपनिषद् कहते हैं, “नाल्पे सुखम्,” अल्प में सुख नहीं मिलेगा। सिर्फ़ जो बड़ा है, अनन्त है, सुख वहीं है, “यो वै भूमा तत् सुखम्”। जहाँ दस हैं वहाँ दस में से हर खंड छोटा तो होगा ही न। अनन्त होता तो दस कैसे होते, दस अनन्तताएँ तो होती नहीं।

छोटे होकर जीना, खंडित होकर जीना, दीवारों के बीच जीना, प्रभावों में जीना; इसी का नाम है, रावण। शान्त होकर जीना, विराट होकर के, आकाश होकर के जीना; इसका नाम है, राम। जहाँ छुद्रता है, हीनता है, दायरे हैं, वहीं समझ लीजिए राक्षस वास करता है, वहीं पर आपकी सारी व्याधियाँ हैं।

जिसने अपनेआप को छोटा जाना वही रावण हो गया, जिसने अपने भीतर किसी कमी को तवज्जोह दी वही रावण हो गया। जो इस भावना में जीने लग गया कि भूखा हूँ और प्यास हूँ, और अभी सल्तनत और बढ़ानी है और अभी रनिवास में एक सीता और जोड़नी है और अभी एक दुश्मन और फतह करना है, वही रावण हो गया। जो ही आन्तरिक रूप से छोटा होकर के यूँ डर गया कि सद् वचन से मुँह फेर ले और जो राम का नाम ले उसे देश निकाला दे दे, उसे अपने से दूर कर दे, वही रावण हो गया। बात आ रही है समझ में?

प्र: सर, अगर एक आदमी है जो बदल नहीं रहा हर परिस्थिति में, वो एक बना हुआ है। तो वह अगर अपनी तरफ़ से खुश है, किसी से कुछ ले नहीं रहा, दे नहीं रहा, तो दुनिया कहती है, ‘देखो, अकड़ कितना रहा है।’

आचार्य: रावण वो जिसे दुनिया के बोलने से फ़र्क पड़ता हो। और मैं निवेदन कर रहा हूँ कि मैं उतना ही बोल रहा हूँ जितना मैं बोल रहा हूँ। मेरी बात में अपनी बात जोड़कर के मेरे सामने न रखा करें। मैंने कब कहा कि आदमी कभी बदले न, मैंने कहा, ‘आप किस केन्द्र से संचालित हो रहे हैं’, ये ज़रूरी है।

रावण वो जो कभी भय के केन्द्र से संचालित हो रहा है, कभी सन्देह के केन्द्र से, कभी राग, कभी द्वेष, कभी क्रोध, कभी गर्व। राम वो जिनके केन्द्र में सिर्फ़ एक मौन है, खालीपन, स्थिरता, जहाँ कुछ भी पहुँचता नहीं, जिसे कुछ भी गन्दा नहीं कर सकता। रावण वो जिसने एक ऐसी जगह को अपना केन्द्र बना लिया है जिसे गन्दा करना आसान है, कि कोई आया और ज़रा व्यंग्य कर गया, तो चोट लग गयी।

आपने केन्द्र एक ऐसी जगह को बना दिया था जो इतनी सतही है कि उस तक समाज की, दूसरों की चोट पहुँच जाती है। आपका केन्द्र इतना गहरा होना चाहिए कि जैसे पृथ्वी का गर्भ, जहाँ पर आपकी खुरपी और कुदाल और मशीनें पहुँच ही नहीं सकतीं। या आपका केन्द्र इतना ऊँचा होना चाहिए कि जैसे आकाश की गहराई, कि जिसको आपका विचार भी न नाप सकता हो, कि जिस पर कोई पत्थर उछाले तो पत्थर वापस ही आकर गिरेगा, आप तक नहीं पहुँचेगा।

आप इतने गहरे बैठे हो कि वहाँ तक कोई चोट, कोई पत्थर, कोई उलाहना, कोई उपहास पहुँचती ही नहीं। तुम्हें जो करना है कर लो, तुम मुझे जितना परेशान करना चाहते हो कर लो, तुम मुझे खरोचें तो मार सकते हो, तुम मुझे लहूलुहान तो कर सकते हो, पर तुम मेरे केन्द्र तक नहीं पहुँच सकते, वो तुम्हारी पहुँच से बहुत दूर है।

दुनिया क्या कहेगी, क्या सुनेगी, क्या सोचेगी — ये बातें सतही तौर पर तो हम संज्ञान में ले लेते हैं, पर गहराई से हमें इससे कोई लेना-देना है नहीं। जो मन में आये कहते रहो, जैसे तुम ऊपर-ऊपर से कह देते हो वैसे ही हम ऊपर-ऊपर से ले लेंगें, पर तुम्हारी कही बात को हम अपनी आत्मा नहीं बनने देंगे, अपना केन्द्र नहीं बनने देंगे। हम अपने हृदय को नहीं मलिन होने देंगे तुम्हारे आक्षेपों से। जो ऐसा हो गया सो राम, और जो ऐसा न हुआ उसके पास राम और रावण के बीच का कोई विकल्प नहीं है। जो राम नहीं सो रावण।

तो ये न सोचिएगा कि राम से बचकर के आप मध्यवर्ती कुछ हो सकते हैं, कि राम तो नहीं हैं पर रावण भी नहीं हैं। तो क्या हैं आप? जी हम रावण हैं। नहीं, ये चलेगा नहीं। ये आध्यात्मिक खिचड़ी होती नहीं। या तो राम, नहीं तो रावण। सत्य नहीं तो माया, जागृति नहीं तो अन्धकार, समर्पण नहीं तो अहंकार।

और बड़ा मेहनत का काम है रावण होना। तकिया तक पता नहीं किस तकनीक से बनता होगा। करवट लेने की दुश्वारियाँ समझिये। और यदि आप स्त्री हैं तो रावण की पत्नी होने की तकलीफ़ सोचिये! दस सिर हैं। उससे कहीं सहज है राम हो जाना। आपको मेहनत करने में कुछ विशेष आनन्द है क्या? दाढ़ी बनाते-बनाते आधा दिन बीत जाएगा। और खर्चे सोचिये। (श्रोता हँसते हैं)

हमारे भी तो खर्चे इसीलिए होते हैं। एक सिर की एक माँग होती है वो पूरी करो, दूसरे सिर की दूसरी माँग आ जाती है, तीसरे सिर की तीसरी माँग आ जाती है। अब मुश्किलें, अब मेहनतें, अब खर्चे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories