रातों को नींद न आना, और अन्य बेचैन सवाल || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

27 min
55 reads
रातों को नींद न आना, और अन्य बेचैन सवाल || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आज हमारे साथ मौजूद है एक ऐसी सख्सियत जिन्हें हम गुरु, हमारे टीचर, एनवायरनमैंटल ऐक्टिविस्ट (पर्यावरण कार्यकर्ता), सोशल ऐक्टिविस्ट (सामाजिक कार्यकर्ता), स्पिरिचुअल टीचर (आध्यात्मिक गुरु); इन सभी के नाम से जान सकते हैं। मुलाकात करते हैं आचार्य प्रशांत जी से।

आचार्य प्रशांत जी आपका बहुत बहुत स्वागत है। सर, आपने आइआइटी से पढ़ाई करी, आपने आइआइएम से पढ़ाई करी, आप सिविल सर्वंट (जनसेवक) भी रहे हैं, तो अध्यात्म की तरफ़ आपका रुख कैसे हुआ?

आचार्य प्रशांत: देखिए वो सब तो जीवन की, दुनियादारी की बातें हैं, चलती रहती हैं। और जब आप अच्छी संस्थाओं से जुड़े होते हैं वहाँ पढ़ाई करी होती है तो दुनिया को आप और बेहतर तरीके से जान पाते हैं। अध्यात्म दुनिया से हटकर के कोई चीज़ है नहीं। दुनिया को ही समझकर दुनिया में सही जीवन जीने की बात है।

तो जितना अलग-अलग क्षेत्रों का अनुभव हुआ है, जितना सांसारिक ज्ञान हुआ, उतना ज़्यादा समझ में आता है फिर कि इस वक्त दुनिया में कौनसा काम है जो करने लायक है, कैसे जीना चाहिए। किसको हम मन कहते हैं, जिसको जीवन कहते हैं, पूरा ये ज़िन्दगी का, दुनियादारी का खेल; ये और ज़्यादा साफ़ समझ में आता है फिर।

इसी को अध्यात्म कहते हैं।

प्र: आपको किस नाम से बुलाया जाए? गुरु बोलें, आचार्य बोलें, स्पिरिचुअल टीचर बोलें, एनवायरनमैंटल ऐक्टिविस्ट बोलें, ऐनिमल ऐक्टिविस्ट बोलें? किस नाम से बुलाया जाए?

आचार्य: जो नाम आपको सुविधा और लाभ देता हो। आप पर निर्भर करता है। आप अगर सामाजिक कार्यकर्ता हैं तो मुझे भी अपने एक साथी सामाजिक कार्यकर्ता की तरह जानिए। आप अगर एक आध्यात्मिक साधक हैं तो आप मुझे मित्र के रूप में या पथ-प्रदर्शक के रूप में देख सकते हैं। आप जहाँ पर हैं, उसके अनुसार मेरी उपयोगिता है आपके लिए, उसी के अनुसार मेरा नाम तय कर लीजिए।

प्र: कहते हैं, ‘जो होता है वो अच्छे के लिए होता है।’ ज़िन्दगी में अगर हम किसी को खो देते हैं, हमारा कोई प्रिय है जिसे हम बहुत ज़्यादा चाहते हैं, उसे हम खो देते हैं तो वो अच्छा कैसे हो सकता है फिर?

आचार्य: वो आपको बताएगा कि आपको जो दुख हो रहा है वो आपके प्रिय के साथ आपका जो रिश्ता था, उसकी अपूर्णता का द्योतक है। वो बता रहा है कि जो लोग आपके निकट भी थे, जिनको आप अपना प्रिय भी बोल रहे हैं उनके साथ भी पूरी तरीके से खुलकर जी नहीं पाए।

वो जो सम्बन्ध था, वो अपने शिखर पर, चोटी पर, पहुँच नहीं पाया। जितना ज़्यादा चीज़ें रह जाती हैं अधूरी उतना ज़्यादा रिश्ते के खत्म होने का मलाल रहता है। ये बात सुनने में थोड़ी विचित्र लगेगी, हम आमतौर पर कहते हैं कि जो जितना निकट होता है उसको खोने का दुख उतना ज़्यादा होता है। ये बात सही है लेकिन पूरी नहीं है।

पूरी बात ये है कि जिसके साथ जितनी ज़्यादा सम्भावना थी और वो सम्भावना साकार नहीं हो पायी, मूर्त रूप नहीं ले पायी, अधूरी रह गयी, कुछ छूट गया। उस छूट जाने का, उसका ज़्यादा दुख रहता है, मलाल उसका होता है। तो कोई अगर आपसे बिछुड़ गया, कोई चला गया और वो आपका बहुत करीबी था और उससे आपको हार्दिक पीड़ा हो रही है तो वो पीड़ा भी आपकी ज़िन्दगी को बदलकर रख सकती है, बेहतरी के लिए; अगर आप ईमानदारी से बस ये देखें कि आपका एक रिश्ता कैसा था और इसीलिए आपके सारे रिश्ते कैसे हैं।

प्र: जी। आज का जो दौर है, हम जिस तरह से देख रहे हैं कि धर्म के नाम पर लोग एक-दूसरे को मारने को तैयार हैं लेकिन जो धर्म है उसी का पालन नहीं कर रहे। जो धर्म हमें सिखाता है हम उसी चीज़ का पालन नहीं कर रहे।

आचार्य: अहंकार बहुत बड़ी चीज़ होती है। वो धर्म को भी अपने मतलब के लिए इस्तेमाल कर सकता है। तो जब लोग कहते हैं कि वो धर्म के लिए एक-दूसरे को मार रहे हैं या आप भी इस तरह की रिपोर्टिंग वगैरह करते हैं तो वास्तव में धर्म के लिए नहीं मार रहें हैं एक-दूसरे को। मार वो अपने छोटे, सीमित सरोकारों के लिए रहे हैं। जो हमारे छुद्र स्वार्थ होते हैं, जिनका नाम अहंकार होता है हम उनकी वजह से ये सब दंगा-फ़साद करते हैं। लेकिन हम कैसे कह दें कि ये सबकुछ हम धर्म की खातिर नहीं कर रहे हैं?

तो अपने कर्मों को अपनी करतूतों को अपनी ही नज़रों में, दूसरों की नज़रों में स्वीकार्य बनाने के लिए हम कह देते हैं कि ये तो हम धर्म की खातिर कर रहे हैं। ये हम धर्म की खातिर नहीं कर रहे होते हैं और इसका प्रमाण है उन लोगों के दैनिक जीवन जो धर्म कि खातिर मरने-मारने को उतारू हैं।

अगर वो धर्म के इतने ही पाबन्द होते तो वो धार्मिकता उनकी ज़िन्दगी में भी तो दिखाई पड़ती न? दंगे से पहले और दंगे के बाद उनकी ज़िन्दगी में कितनी धार्मिकता है? तब तो नहीं है धार्मिकता न? या है भी तो बहुत कम है। तो अचानक जब मारपीट, मार-काट की नौबत आती है तभी वो धार्मिक कैसे हो जाते हैं?

तो वो धार्मिकता है भी नहीं वास्तव में। अधर्म का ही बोलबाला है दुनिया में। वो अधर्म अपनेआप को कभी अधर्म बोलेगा नहीं। अधर्म ने अपनेआप को अधर्म बोल दिया तो अधर्म बचेगा कहाँ? तो वो अधर्म अपने लिए बहुत तरह-तरह के रंगीन, सुसज्जित, खूबसूरत नाम लेकर आता है। उन नामों में से एक नाम धर्म भी है। अधर्म ने धर्म का नाम पहन रखा है।

प्र: हमेशा से कहा जाता है नेवर गिव अप (कभी भी हार मत मानो)। नहीं हो पा रही चीज़ तब भी कहते हैं कोशिश करो। कब तक कोशिश करें? इतनी कोशिशें कर लीं, समय बीता जा रहा है। कब तब नेवर गिव अप वाला हमें एक ये रूल हो वो फ़ॉलो करते रहना है?

आचार्य: वो निर्भर इस पर करता है कि आप सही चीज़ के पीछे हैं या नहीं।

प्र: जज (निर्णय) कैसे करें?

आचार्य: वो आप देखिए कि आप कौन हैं अतः आपके लिए सही चीज़ क्या है। ‘मैं कौन हूँ?’ सारी बात शुरू ही यहीं से होती है। मैं अगर अपनी परिभाषा कर रहा हूँ कि मैं एक शरीर भर हूँ तो मेरे लिए फिर सही चीज़ वही है जो शरीर को सुख चैन आराम और लम्बी आयु देती है। लेकिन अगर मैं थोड़ा और जा कर के देखता हूँ अपनी ज़िन्दगी को, मैं देखता हूँ कि मुझे किन चीजों से ज़्यादा पीड़ा होती है। मेरे लिए कौनसी चीज़ें ज़्यादा महत्व की हैं।

और मुझे पता चलता है कि चलो शरीर तो अपनी जगह है, ठीक है जैसा भी है। लेकिन ज़्यादा दर्द, मुझे कुछ आन्तरिक बात होती है, वो देती है। तो फिर मैं कहता हूँ, 'नहीं साहब! मैं शायद चेतना हूँ। और मैं एक बड़ी अधूरी अतृप्त सी चेतना हूँ।' ठीक है?

अगर मैं वो हूँ तो फिर मुझे काम वो चुनना पड़ेगा जो मेरी चेतना को पूर्णता देता हो। और ऐसा काम अगर मैंने चुना है तो फिर नेवर गिव अप। फ़िर तो बिलकुल ही उस काम को छोड़ो मत। हज़ार बार हारो, हज़ार बार गिरो, जीवन भर भले ही संघर्ष करते रह जाओ लेकिन वो काम कभी मत छोड़ो जो तुम अब बिलकुल समझ गये हो साफ़-साफ़ कि तुम्हारे लिए ठीक है।

दूसरी ओर व्यवहारिक तौर पर आमतौर पर होता क्या है?

हम जब कहते हैं नेवर गिव अप , हमारा जो लक्ष्य होता ही है वो निन्यानबे प्रतिशत गलत होता है। अब जब लक्ष्य ही गलत बनाया हुआ है तो उसमें तुम चाहे सफल हो जाओ, चाहे असफल हो जाओ, चाहे उस लक्ष्य का पीछा करने में तुम बड़ी संकल्पबद्धता दिखा दो। पाओगे क्या? पा भी लिया तो क्या पाओगे? असफल भी हो गये उसमें तो क्या गँवाओगे?

तो ये नेवर गिव अप की बात एक प्रमुख मुद्दे को दबा देती है, उस पर सवाल ही नहीं करती। वो ये कि नेवर गिव अप इन परस्यूट ऑफ़ व्हाट (किस उद्देश्य में नेवर गिव अप)? तुम जब कहते हो की देखो कभी हार मत मानना, तो ये पूछना तो भूल ही जाते हो कि किस मोर्चे पर कभी हार नहीं मानना। मोर्चे-मोर्चे में फ़र्क होता है न?

कुछ मोर्चे ऐसे होते हैं जहाँ पर जैसे ही थोड़ा सा झंझट आये आफ़त खड़ी हो, वहाँ से तुरन्त हट जाना चाहिए। क्योंकि उस मोर्चे की इतनी औकात नहीं, इतना मूल्य नहीं कि तुम वहाँ डटे रहो, अपना समय खराब करो अपनी ऊर्जा दो उस चीज़ पर।

यही विवेक कहलाता है। ये पता होना कि कौनसी चीज़ ऐसी है जिस पर जान लड़ा दो और कौनसी ऐसी चीज़ है कि उसकी उपेक्षा कर दो।

प्र: आज की तारीख में इंसान इतना परेशान क्यों है? हम पैसे कमाते हैं एक अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए। हम बहुत अच्छी तरह से अपनी लाइफ़स्टाइल गुज़ारें, हमारे बच्चे खुश रहें, हमारी फ़ैमिली खुश रहे। एट द एंड ऑफ़ द डे (दिन के अन्त में) हम उन्हीं फ़ैमिली वालों को टाइम नहीं दे पाते, हम परेशान रहते हैं वही पैसे कमाने के चक्कर में।

आचार्य: देखिए इंसान परेशान अचानक से नहीं हो गया। हम परेशान पैदा होते हैं। हर बच्चा जो पैदा होता है उसको आप क्या पातीं हैं? आनन्दित है बहुत जयादा? बिलकुल समाधि लगाये पैदा होता है क्या बच्चा? बच्चा परेशान ही तो पैदा होता है। पैदा होता है, इधर-उधर हाथ-पाँव फेंक रहा है। देखते हैं न, उसमें कितनी ज़्यादा बेचैनी रहती है। पैदा होते ही सबसे पहले तो रोता है। तो हम परेशान ही पैदा होते हैं।

जीवन इसीलिए है कि हम उस परेशानी के मर्म में जाएँ, उसके मूल में जाएँ, समझें चीज़ क्या है और फिर उस परेशानी का निवारण करें। यही जीवन का उद्देश्य होता है। लेकिन आप परेशान पैदा हुए हो, आप अपनी परेशानी को समझो नहीं, उसकी जगह आप उल्टे-पुल्टे इलाज करो अपनी बेचैनी के, तो वो जो बेचैनी है वो जो बीमारी है जिसको हम परेशानी बोल रहे हैं, वो ठीक तो होने से रही। वो और ज़्यादा भयानक रूप अख्तियार कर लेगी।

यही हर आम आदमी के साथ हो रहा है। हर आदमी अपनी नज़र में चाहता तो शान्ति ही है, हर आदमी अपनी नज़र में चाहता तो अपनी बहतरी और तरक्की ही है लेकिन वो गौर नहीं कर रहा है कि उसकी बहतरी और तरक्की निहित किन चीज़ों में है। तो हम सब अनजाने में जो हम चाहते हैं उसके खिलाफ़ स्वयं ही काम कर रहे हैं।

उदाहरण के लिए, हमें शान्ति चाहिए लेकिन हम अपने लिए पैदा स्वयं ही अशान्ति कर रहे हैं। तर्क हमारा क्या है? हमें शान्ति अशान्ति के माध्यम से मिलेगी। हम कहते हैं, 'ये जब सब जो अशान्ति का झंझट है, इसको बढ़ाओ, बढ़ाओ, इस ही में से कहीं से शान्ति निकल रही है।' ये हमें जैसे गलत शिक्षा मिल गयी है। जैसे हमें गलत रूप से संस्कारित कर दिया गया है।

आपने कहा, 'आज के समय में आदमी इतना परेशान क्यों है?' उसकी एक वजह ये है कि आज जितना भोगवाद है उतना पहले कभी नहीं था।

कारण? औद्योगिकरण। आज इंडस्ट्रियलाइज़ेशन (औद्योगिकरण) ने आपको भोगने के लिए जितने उत्पाद दे दिये हैं और जितनी तरह की सर्विसेज़ (सेवाएँ) उपलब्ध हैं, आदमी को सुख-सुविधा के जितने साधन उपलब्ध हैं उतने इतिहास में कभी नहीं रहे हैं। और आदमी के पास आज जितना संचित ज्ञान हो गया है, टेक्नोलॉजी के जितने फल हमें मिले हुए हैं कि लो भई, इसका सेवन करो, उपयोग करो, फ़ायदा उठाओ। ये हमें पहले कभी नहीं थे। ठीक है?

तो उसकी वजह से आदमी को अपने भीतर देखने की, अपने मन को समझने की मोहलत ही नहीं है, फ़ुर्सत ही नहीं है। और इसके अलावा आदमी भीतर देखे तो तब न जब उसको एक ज़बरदस्त एहसास हो अपने दुख का। अभी समय ये है कि मनोरंजन वगैरह के और खुद को फुसलाने-बहलाने के इतने साधन मौजूद हैं कि आप जब भी ज़रा सा परेशान होते हैं कुछ-न-कुछ आपको मिल जाता है मनोरंजन के लिए या अपनेआप को किसी तरीके से

प्र: माइंड डाइवर्ट करने के लिए।

आचार्य: मन बदलने के लिए, कुछ-न-कुछ मिल जाता है। तो वो जो गहरा दुख है, जो जीवन का आमूलचूल परिवर्तन कर सकता है उस गहरे दुख का हमें अनुभव ही नहीं होने दिया जाता। हम सब जैसे नशे में हैं कि कोई आदमी बहुत तकलीफ़ में हो तो उसको शराब पिला दो। अब वो नशे में होगा तो उसको पीड़ा ज़रा कम अनुभव होगी। तो जैसे पूरी मानवता ही इस वक्त समग्र नशे में है। तो दुख अनुभव नहीं हो रहा। जब दुख अनुभव नहीं हो रहा अपनी वस्तुस्थिति पर, अपने जीवन की हकीकत पर, यथार्थ पर नज़र नहीं जा रही, तो कोई क्यों बदलेगा?

बदल नहीं रहे भले ही लेकिन जो भीतर की बेचैनी है जो परेशानी है जिसके साथ पैदा होते हैं वो बढ़ती ही जा रही है, बढ़ती ही जा रही है और वो प्रकट किन रूपों में हो रही है? मनोविकार, मेंटल डिज़ीज़।

आज आदमी मानसिक तल पर जितना बीमार है इतना इतिहास में कभी नहीं रहा है। अगर आप जाएँगे और मनोवैज्ञानिकों, मनोविशेषज्ञों से बात करेंगे वो आपको बताएँगे कि एक साधारण आदमी में भी तनाव के और मनोरोग के आज जो स्तर हैं उतने तो पूरे इतिहास में कभी नहीं रहे। उतने तो उन सैनिकों में भी नहीं पाये जाते थे जो युद्ध के मोर्चे पर दुश्मन से लड़ने जा रहे होते थे। जिनकी जान पर खतरा होता था। वो भी उतने तनाव में नहीं होते थे जितना आज एक सड़क पर चलता आम आदमी है।

इसका कारण क्या है? कारण गलत शिक्षा, हमारा इस्तेमाल करने के लिए, हमें उपभोग के लिए विवश करने के लिए तैयार लोग और लालच को प्रोत्साहन और एक बहुत ही विकृत तरह की संस्कृति जिसमें धर्म मज़ाक बन कर रह गया है। बात-बात पर धर्म का मखौल उड़ाया जाता है। धर्म को ऐसे बता दिया जाता है कि ये तो साहब कोई बहुत ही पुरानी और पाखंडी और एकदम तिथिबाह्य चीज़ है, आउटडेटेड चीज़ है जिसका आज के आधुनिक, मॉडर्न युग में कोई स्थान ही नहीं है। तो इन सब चीज़ों ने मिलकर के आदमी को आन्तरिक रूप से बिलकुल रोगी, विक्षिप्त कर दिया है।

प्र: मन अशांत है। अकेलापन जो होता है जैसे बच्चे घर से बाहर निकल कर कहीं पढ़ने आये हैं। अकेलापन काटने को दौड़ रहा है। करवटें बदल रहे हैं। रात में नींद नहीं आ रही है। कैसे इस अपने मन को शांत करें?

आचार्य: देखिए अब वो रात में नींद नहीं आ रही है उस वक्त अगर मैं बता दूँ कैसे शान्त करें तो सो जाएँगे अपनेआप को शान्त-वान्त करके। अगले दिन फिर सुबह उठेंगे और वही हरकतें करेंगे जिनके कारण पिछली रात को नींद नहीं आ रही थी। तो जब रात को नींद न आ रही हो तो रात को तो सज़ा समझकर जगकर ही काट लीजिए। उस वक्त अपनेआप को किसी तरह का कोई बहाना-झुनझुना देने की, अपनेआप को फुसला लेने की ज़रूरत नहीं है।

ये ईमानदारी की बात होती है न? गलत काम किया है तो सज़ा भुगतनी भी चाहिए। जब पूरा दिन ही बर्बादी में बिताया है, जब पूरा जीवन ही गलत तरीके से बीत रहा है तो फिर हमें अधिकार क्या है कि रात को हमें सुकून की नींद आये? लेकिन अगर रात को सुकून की नींद नहीं आ रही, ईमानदारी से सज़ा भुगत रहे हैं तो फिर हमारा धर्म बनता है, हमारा कर्तव्य ये है कि अगले दिन जब उठें तो पूछें अपनेआप से, 'आज का दिन भी क्या वैसे ही बिताना है जैसे कल का बिताया था?' आज का दिन अलग बिताओ, आज की रात अलग बीतेगी।

दिन में अगर सीने में धार्मिकता रही है, मन अगर सच पर केन्द्रित रहा है तो रात को बेचैनी ज़रा कम हो जाएगी। यही तरीका है, बाकी सब तरीके आत्मप्रवंचना हैं, अपनेआप को बहलाने-फुसलाने की चाल हैं। वैसी चाल का कोई लाभ नहीं।

प्र: कहते हैं जो वर्किंग वूमन होती है, अगर महिलाएँ बाहर जाकर के काम कर रही हैं तो उनके जो बच्चे होते हैं उनकी परवरिश उस मुकाबले की नहीं हो पाती है जो कि एक हाउस वाइफ़ अपने बच्चे को परवरिश दे पाती है। तो इस पर आपका क्या कहना है?

आचार्य: नहीं इसमें कोई तय नियम नहीं बताया जा सकता। बहुत सारी हाउस वाइव्ज़ हैं, ग्रहणियाँ हैं जो घर पर रहतीं हैं और इस बात से उनके बच्चों को कोई लाभ नहीं हो रहा, नुकसान ही ज़्यादा हो रहा है। और बहुत सारी कामकाजी माहिलाएँ ऐसी हो सकती हैं जो बाहर जाती हैं और अपने बच्चों के लिए, खासतौर पर अपनी बेटियों के लिए बहुत अच्छा उदाहरण बन जाती हैं।

स्वावलम्बी रहना है दुनिया को जानना है जागरुक रहना है ये सब बातें उनके घरवालों को, बच्चों को पता चलतीं हैं। तो इसमें कोई तयशुदा बात नहीं कही जा सकती। हाँ, ये बिलकुल बात ठीक है कि अगर कोई माँ कामकाज कर रही है और कामकाज में वो इतनी महत्वाकांक्षी हो गयी, महत्वाकांक्षा, लालच का ही दूसरा नाम है; वो इतनी महत्वाकांक्षी हो गयी कि उसको घर की बिलकुल सुध ही नहीं, तो ज़ाहिर सी बात है बच्चों पर इसका असर पड़ेगा ही। पर फिर ये बात तो बाप पर भी लागू होती है। ठीक है न?

तो इसके लिए महिलाओं को कामकाज से वंचित कर देना कहीं से ठीक नहीं है। हमने ये गलती भी खूब करी है कि महिला का जो कार्यक्षेत्र है वो तो घर ही है, उसे घर से बाहर मत निकलने दो। जानते हैं इसमें सबसे बड़ा नुकसान किसका है? उनका नुकसान है जो उस महिला के ईद-गिर्द हैं।

क्योंकि जिस महिला को आप दुनिया ही नहीं देखने दोगे, उसको कुछ पता ही नहीं जमाने का, वो जानती ही नहीं कि संसार चलता कैसा है, वो अगर घर में भी रहेगी तो वो सबके लिए समस्या ही बनेगी, उपद्रव खड़ा करेगी। तो बहुत आवश्यक है कि स्त्री को आज़ादी मिले, उसको ज्ञान रहे, उसके कौशल में वृद्धि हो, वो दुनिया को समझे। उसका ज़रा सशक्तिकरण हो।

उसके हाथ में कुछ अपना भी तो पैसा हो न। वरना पति सब राम, कृष्ण या बुद्ध तो होते नहीं। ये कहने की बात है कि स्त्री घर की देवी है, घर की लक्ष्मी है। जब उसे पैसे के लिए हाथ फैलाना पड़ता है पुरुष के सामने तो फिर व्यावहारिक तौर पर उसका दर्ज़ा निचला ही हो जाता है।

ये बात आदर्श नहीं है। आदर्श पति हो और आदर्श पत्नी हो तो फिर तो बिलकुल वो एक समान और जोड़ी बनकर जिएँगे, अर्धनारीश्वर ही हो जाएँ। पर आदर्श तो पुरुष होता नहीं। वो भी दुनियादारी जानता है खूब। तो जब पत्नी उसके सामने झुकती है कि पैसा दे दो तो फिर वहाँ से शोषण की शुरुआत भी हो जाती है।

तो बात इसमें इसकी नहीं है कि आप गृहिणी हो या कामकाजी महिला हो, बात इसकी है कि आप कितनी जागरुक इंसान हो। चेतना जगी हुई है कि नहीं जगी हुई है।

अगर आप होशमन्द हो, अगर आपको आध्यात्मिक शिक्षा मिली है, अगर जीवन के मूल मुद्दों पर आपको स्पष्टता है तो आपको बिलकुल साफ़ पता होगा कब काम करना है, कब काम का त्याग कर देना है। चाहे आप स्त्री हो चाहे आप पुरुष हो। बात इसमें लिंग की ज़रा कम ही है। ठीक है?

कई बार आवश्यक होता है कि काम ज़रूर-ज़रूर किया जाए। सिर्फ़ पैसे कमाने के लिए नहीं, आत्म उत्थान के लिए भी काम करना होता है। कई बार बहुत ज़रूरी होता है कि करो काम और कई बार ये स्थिति भी आ सकती है कि नहीं, अभी काम से ज़्यादा आवश्यक कुछ और है, अभी नहीं करेंगे।

प्र: काम में प्रायऑरिटी डिफ़ाइन (वरीयता परिभाषित) कैसे करें?

आचार्य: हाँ, और ये वरीयताएँ कैसे पता चलें, ये मूल्यांकन कैसे हो? उसके लिए आपको पहले पता होना चाहिए कि जीवन में कौनसी चीज़ है जो मूल्य की है? जब आप जीवन का मूल्य जानते हैं तो फिर जीवन में कौनसा निर्णय कैसा लेना है इसका मूल्यांकन भी आप बखूबी कर पाते हैं। अन्यथा नहीं।

प्र: कई बार हम ऐसी कश्मकश में रहते हैं कि दिमाग कहता है जो ये काम है वो गलत है लेकिन दिल फिर भी करना चाहता है। जानते हुए अगर हम वो काम कर रहे हैं, कि गलत है लेकिन फिर भी कर रहे हैं, तो क्या करना चाहिए?

आचार्य: नहीं, ये दिल और दिमाग की कश्मकश नहीं होती है। दिल कुछ बोलता नहीं है। जिसको हम दिल कहते हैं न, अध्यात्म में हृदय, ‘आत्मा’ का दूसरा नाम है। वो ज़्यादा बातचीत नहीं करती है। उसको कोई रस ही नहीं है भाषा में और इधर-उधर की बात करने में। हम जब कहते हैं दिल-दिमाग में कश्मकश चल रही है तो वास्तव में दिमाग के ही वो दो हिस्से होते हैं।

दिमाग के दो हिस्से हैं, एक को नाम हमने दिमाग का दे दिया दूसरे को नाम हमने दिल का दे दिया। एक हिस्सा विचार प्रधान है दूसरा हिस्सा भावना प्रधान है। और हमें लग जाता है कि नहीं ये दोनों अलग-अलग जगहें हैं। ये दो अलग-अलग जगहें नहीं हैं, ये एक ही जगह है।

जब इन दो जगहों में आपस में किसी तरह का द्वन्द्व दिखाई दे रहा हो तो ठहरकर देख लेना चाहिए कि दोनों जगहें आ कहाँ से रही हैं। विचार आ कहाँ से रहा है, विचार, ले वो कहाँ जाना चाहता है। भावना भी आ कहाँ से रही है और भावना कहाँ को ले जाना चाहती है।

और ये जानना बहुत तकलीफ़ का काम नहीं है। थोड़ा सा अपने साथ बैठेंगे, थोड़ा सा अपने ऊपर श्रम करेंगे और ईमानदारी से पूछेंगे कि ये जो मेरी अभी भावना उठ रही है, इसको मैं कह रहा हूँ, ‘दिल की आवाज़’ ये मुझसे कुछ करवाना चाहती है। ये बिलकुल ठीक-ठीक मुझसे क्या करवाना चाहती है, साफ़ बताओ भई! जो ये मुझसे करवाना चाहती है उससे क्या नतीजा पाना चाहती है। ये ही सवाल वो जो विचार वाला पक्ष है उस पर रखना चाहिए कि जो विचार उठ रहा है अभी, ‘ये करो, ये न करो’ ये कहाँ से आ रहा है? कहीं मेरे डर से तो नहीं आ रहा? कहीं मेरे संचय करने की वृत्ति से तो नहीं आ रहा? कहीं मेरे लालच से तो नहीं आ रहा? और ये मुझे किधर को ले जाना चाहता है? इतना विश्लेषण अगर आपने कर लिया जो कि बहुत मुश्किल नहीं है तो आपको बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा कि क्या चीज़ करने लायक है क्या चीज़ नहीं करने लायक है।

प्र: कभी इंटरव्यू देने जाते हैं जॉब में हम पूरा वेल प्रिपेर्ड (भली-भाँति तैयार) हैं। लेकिन जब पहुँचे वहाँ पर, सामने देखा दो-चार लोग और बैठे हैं, उनको देखकर के हम नर्वस हो जाते हैं। ये क्यों आता है कि सामने वाला हमसे ज़्यादा बेहतर है?

आचार्य: क्योंकि ऐसा होता है बहुत बार।

प्र: हम भी तो बेहतर हो सकते हैं?

आचार्य: हाँ, हो सकते हैं। लेकिन हमारी जो सारी शिक्षा है, हमारे जो सारे संस्कार हैं वो हैं हीं तुलना करने के। देखिए, आप एक काम करने जा रहे हो उस काम से वास्तव में अगर आपको प्रेम है तो फिर आप डरोगे किसलिए? क्योंकि आपको पता है कि आप निर्विकल्प हो, वो काम तो आपको करना-ही-करना है।

आप जहाँ जा रहे हो इंटरव्यू देने, वहाँ नहीं मिला तो कहीं और करोगे। आप जिनती तनख्वाह चाहा रहे हो, उतनी तनख्वाह नहीं मिली तो उससे आधी तनख्वाह में करोगे। पर आप करोगे ज़रूर क्योंकि वो काम आप प्रेम के नाते करने जा रहे हो। ठीक है न?

जब प्रेम होता है तो डर होता नहीं। ठीक है?

लेकिन हम जब जाते हैं इंटरव्यू देने, कोई काम करने, तो इसीलिए थोड़े ही कर रहे होते हैं कि हमें उस काम से प्यार है। हम तो इंटरव्यू देने इसीलिए जा रहे होते हैं क्योंकि समाज में ये बात ज़रा हैसियत रखती है कि नौकरी होनी चाहिए। और दूसरों से हम अपनी तुलना करते हैं कि उसको ये मिला हुआ है, मुझको ये मिला हुआ है। तो इन सब वजहों से हमारे ऊपर तनाव पैदा हो जाता है। एक दबाव बना लेते हैं हम अपने ऊपर। अन्यथा जिस आदमी को स्पष्टता है कि उसे चाहिए क्या। उसको पता है कि जो उसको चाहिए उससे कम में वो कभी समझौता करने ही नहीं वाला। वो क्यों डरेगा?

ये डरना वगैरह बस यही बताता है कि आप जो चीज़ पाने गये हो उसको पाने में आपका कोई प्रेम है ही नहीं; अन्यथा डर नहीं लगेगा।

प्र: कहा जाता है हमेशा अच्छा करो। सामने वाला तुम्हारे साथ अच्छा है तो अच्छा करो, बुरा है तो अच्छा करो। तो क्या अच्छे के साथ अच्छा करना तो समझ में आता है, बुरे के साथ अच्छा करना फिर?

आचार्य: ये बहुत आगे का सवाल हो गया। हमें पता कहाँ है कि अच्छा होता क्या है। जिसको कहा जाता है अच्छा। अच्छा माने शुभ। और शुभ-अशुभ का निर्णय बिना आध्यात्मिक हुए आदमी कर कैसे लेगा?

इतने लोग हैं दुनिया में जो अच्छाई करना चाहते हैं। सबसे पहले तो हर आदमी अपने साथ ही अच्छा करना चाहता है। अपना तो कोई दुश्मन होता नहीं। लेकिन देखिए लोग अपने साथ क्या कर लेते हैं? जब दुनिया के निन्यानबे प्रतिशत लोग अपने ही साथ अच्छा नहीं कर सकते, ये दूसरे के साथ क्या अच्छा करेंगे?

परिवारों को देख लीजिए। वहाँ तो सब एक-दूसरे के प्रियजन ही हैं न? हम कहते हैं न, 'मैं तुम्हारा हितैषी हूँ, हित करना चाहता हूँ।' आपको दिखाई देता है ऐसा कि लोग एक-दूसरे का हित कर पा रहे हों वास्तव में?

तो दूसरे का अच्छा करें बुरा करें, ये सवाल बहुत आगे का है। पहली बात ये है कि हमारे जीवन को देखकर के क्या इस बात का प्रमाण मिल रहा है कि हमें ज़रा भी पता है कि अच्छाई बोलते किसको हैं?

पहले ये पता कर ले आदमी कि अच्छे शब्द का अर्थ क्या होता है, अच्छा माने क्या? एक बार आप जान गये, अच्छा माने क्या तो आप अच्छे हो जाओगे। समझिए, आप जान गये कि अच्छा माने क्या, शुभ माने क्या, धार्मिकता माने क्या, तो आप अच्छे हो जाओगे। और जो अच्छा हो गया वो चाहकर भी अब बुरा नहीं कर सकता। जो अच्छा हो गया वो कुछ भी करे, उससे शुभ ही फैलेगा। अच्छा होना ज़रूरी है, अच्छा करना ज़रूरी नहीं है।

हम अच्छा करने पर बहुत ध्यान देते हैं, अच्छे हैं नहीं। खुद भीतर से अभी अज्ञानी हैं, अन्धेरे में हैं। और हम चाह रहे हैं अच्छा करना। कैसे कर लेंगे? कर कैसे लेंगे, बताइए?

ये ऐसी सी बात है जैसे मैं कीचड़ सने हुए हाथों से कहीं सफ़ाई करने चला जाऊँ। अब इच्छा तो मेरी बहुत है की मैं रगड़-रगड़कर, मुझे कोई धब्बा दिखाई दिया कहीं दीवार पर, तो रगड़-रगड़कर साफ़ कर रहा हूँ। और हाथ मेरे कैसे हैं? कीचड़ से सने हुए। मैं कौनसी सफ़ाई कर लूँगा? पहले मैं अच्छा तो हो जाऊँ, फिर अच्छाई स्वयं फैलेगी।

प्र: क्या खुद को किसी और के हिसाब से बदलना अपने लिए न्याय है? ये हम अपने साथ सही कर रहे हैं कि सामने वाला हमसे चाहता है कि हम उस तरह के हो जाएँ और हम बन जाएँ वैसा, तो क्या ये न्याय है अपने साथ?

आचार्य: अब ऐसा थोड़े ही है कि हम यूँही मुफ़्त में अपनेआप को बदलने को राज़ी हो जाते हैं। आधी बात ही बतायी आपने, आधी छुपा गयीं।

जब हम दूसरे की खातिर बदल रहे होते हैं तो उसके बदले में हम भी तो उससे कुछ कीमत वसूल रहे होते हैं। ऐसा थोड़े ही है कि कोई भी आएगा आपसे चलता-फिरता कहेगा, ‘मेरे लिए बदल जाओ,’ आप बदल जाओगे क्या? ऐसे नहीं बदलोगे न?

आप भी उससे पहले कहोगे, 'हाँ साहब, हम बदलेंगे, लेकिन ज़रा बताना कितना मिलेगा बदले में?' ज़रूरी नहीं है रुपया-पैसा मिले पर किसी न किसी रूप में तो हम दाम वसूल ही रहे होंगे न? तो ये व्यापार हुआ। ये तो बहुत ही निकृष्ट कोटि का व्यापार हुआ। ठीक है? ऐसा व्यपार नहीं करना चाहिए क्योंकि इसमें लेन-देन ही बहुत नीचे की चीजों का होता है।

बेशक बदलिए, ज़रूर बदलिए, लेकिन ऐसे बदलिए कि आपके दोष हटें। आपके भीतर जितनी कालिमा, जितना अन्धेरा, जितने विकार हैं, वो हटें। बदलना बहुत ज़रूरी है लेकिन हम आमतौर पर जिसको कहते हैं न, बदलना; हम कहते हैं, ‘देखो तुम्हारी खातिर मैं बदल गया।’ वो बदलना होता ही नहीं, वो लेन-देन है, वो व्यपार है।

वो ऐसी सी बात है आप किसी दुकान में आ कर कुछ खरीदें और चूँकि आप खरीदकर के उस दुकान से कुछ माल बाहर ले आईं तो दुकानदार कहे, ‘देखो मेरी दुकान बदल गयी।’ दुकान थोड़े ही बदल गयी, कुछ माल बाहर चला गया है, दुकान की प्रकृति तो बिलकुल वही है न। क्या? कि वहाँ पर लेन-देन ही चलेगा। हो सकता है कि कोई ग्राहक ऐसा आये जो दुकान का पूरा ही माल ही बाहर ले जाए। तो भी क्या दुकान वास्तव में बदल गयी? दुकान तो वही है क्योंकि दुकान की प्रकृति, प्रवृत्ति वही है। वो जगह बनी ही अभी भी व्यपार के लिए, लेन-देन के लिए और बिकने के लिए है। तो उसको बदलना नहीं कहते।

बदलना वास्तव में तब हुआ जब हमारे भीतर जो घनीभूत अहंता बैठी है, जो घोर अन्धेरा व्याप्त है, जब उससे हम ऊब जाएँ, जब हम कहें, 'मैं जिस केन्द्र से चलता हूँ, मैं अपने जिस आन्तरिक गणित से चलता हूँ, मुझे समझ में आ गया वो गणित ही फ़र्ज़ी है। मैं जिस तरीके से आजतक जीता रहा हूँ अब मुझे स्वीकार ही नहीं है वैसे जीते रहना।' तब बदलाव हुआ।

वो बदलाव किसी के कहने पर हो, अच्छी बात है। किसी से प्रेरणा मिलकर हो, अच्छी बात है। कोई किताब पढ़ कर हो, अच्छी बात है। ज़िन्दगी की किसी घटना किसी चोट से हो, अच्छी बात है। वो जैसे भी हो अच्छी बात है। लेकिन उस बदलाव का विकल्प ये जो छोटे-मोटे लेन-देन हैं, ये नहीं हो सकते।

प्र: आचार्य प्रशांत जी, हिन्दी खबर से बातचीत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories