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राम से राम तक की यात्रा है जीवन || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण एवं कबीर साहब पर (2019)

Acharya Prashant

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राम से राम तक की यात्रा है जीवन || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण एवं कबीर साहब पर (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रिय आचार्य जी, प्रणाम! गीता का पाठ संभव कर देने के लिए धन्यवाद। अध्याय ७, १३ और १५ में श्रीकृष्ण प्रकृति, दो प्रकार के पुरुष, और पुरुषोत्तम के बारे में बताते हैं और कबीर साहब ने चार रामों की बात कही है-

चार राम हैं जगत में, तीन राम व्यवहार। चौथ राम सो सार हैं, ताको करो विचार॥ एक राम दसरथ घर डोले, एक राम घट-घट में बोले। एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा॥

-संत कबीर

क्या कबीर साहब के चार राम और गीता के प्रकृति, दो पुरुष और पुरुषोत्तम एक ही हैं? और क्या ये जीवन पहले राम से आख़िरी राम तक की यात्रा है? कबीर साहब चौथे राम का विचार करने की बात कर रहे हैं परंतु खुद को लगातार देख पाने की कोशिश में ही सारी ऊर्जा निकल रही है। सप्रेम धन्यवाद!

आचार्य प्रशांत: दो प्रकार के जिन पुरुषों की बात कर रहे हैं श्रीकृष्ण १५वें अध्याय में उनमें से एक पुरुषोत्तम ही है और दूसरा वो जिसको आप जीवात्मा कहते हैं। तो आपने चार राम के समकक्ष चार इकाइयाँ रखने का प्रयत्न करा है। आपकी चार इकाइयाँ हैं- प्रकृति, दो पुरुष और पुरुषोत्तम पर ये चार इकाइयाँ चार तो पहले ही नहीं है क्योंकि ये जो दो पुरुष हैं उनमें से एक पुरुषोत्तम है ही। पुरुषोत्तम माने आत्मा, सत्य। तो ये रह गये तीन तो प्रकृति, जीवात्मा और आत्मा और ये हैं आपके चार राम। ये क्या हैं? इनको समझ लीजिए-

एक राम दसरथ घर डोले, एक राम घट-घट में बोले। एक राम का सकल पसारा, एक राम हैं सबसे न्यारा॥

'एक राम दशरथ घर डोले'। वो राम जो शरीर रूप में जन्म लेते हैं। एक राम दशरथ घर डोले। वो राम जो हाड़-माँस धारण किए हुए हैं और इन्हीं स्थूल हाड़-माँस की आंखों से दिखाई देते हैं। कबीर साहब इशारा कर रहे हैं 'सत्य' के स्थूल शरीर की ओर। स्थूल शरीर की ओर। वो स्थूल शरीर किसका है? सत्य का ही है न? वेदांत तीन शरीरों की बात करता है- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर और इन सब शरीरों के अतीत, इन सब शरीरों के मध्य में कहता है आत्मा है। ये सब शरीर किसके हैं? कौन है जो इन सब शरीरों का खेल खेलता है? आत्मा ही न। तो आत्मा ही तीनों तरह के शरीर बनकर खेलती है, प्रकट होती है। तो ये हुए चार- आत्मा मात्र, स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। इन चार की बात कर रहे हैं कबीर साहब।

एक राम दशरथ घर डोले।

किस शरीर की बात कर रहे हैं? स्थूल शरीर की जो दिखाई पड़ता है। राम चलते-फिरते दिखाई दे रहे हैं।

एक राम घट-घट में बोले।

वो जो चेतना सुनती है, जानती है, पाना चाहती है, कुछ कहती है, किधर को बढ़ती है, जो सब जीवो में वास करती है, वही कहलाती है- सूक्ष्म शरीर। तो कबीर साहब कह रहे हैं वो दूसरा राम है। वो आत्मा का दूसरा शरीर है।

एक राम का सकल पसारा

ये कारण शरीर है आत्मा का। आत्मा ही है, कारण शरीर धारण किए हुए। एक राम का सकल पसारा। ये जितना विस्तार है प्रकृति का, इसके मूल में जो है उसे कहते हैं- अहंवृत्ति। उसके कारण ही बाकी दोनों शरीर हैं। अहंवृत्ति से मन है, चेतना है सूक्ष्म रूप में और उसी अहंवृत्ति के कारण देह है और संसार है स्थूलरूप में। तो 'एक राम का सकल पसारा' यहाँ बात हो रही है कारण शरीर की, अहंवृत्ति की। और फिर कह रहे हैं

एक राम है सबसे न्यारा।

ये कौन से राम हुए? आत्मा ही। तो कबीर साहब इन चारों की बात कर रहे हैं। अब इसमें आप जब कहती हैं प्रकृति और अहं और आत्मा तो आत्मा निश्चितरूप से चौथे राम से मेल रखती है और बाकी सब जो है वो तो प्राकृतिक ही है।

फिर पूछा है, क्या यह जीवन पहले राम से आख़िरी राम की यात्रा है? कबीर साहब चौथे राम का विचार करने की बात कर रहे हैं लेकिन यहाँ तो सारी ऊर्जा खुद को ही देख पाने मैं निकली जा रही है। हाँ, निश्चितरूप से क्योंकि जिसका जन्म होता है वो तो स्थूलमात्र ही होता है। हाड़-मास का एक छोटा-सा पिण्ड होता है जो जन्म लेता है। वो बहुत स्थूल है। सूक्ष्मता उसमें बहुत जरा-सी है और आत्मा से तो वो बहुत दूर हुआ बैठा है।

आत्मा, वो जो किसी से लिप्तता नहीं रखती, मोह नहीं रखती, जो बंध नहीं सकती और ये जो बच्चा जन्म लेता है ये तो घोर लिप्त होता है। बड़ा बंधा हुआ होता है और बड़ा आश्रित होता है।

तो ऐसे होता है इंसान का जन्म- सच से बड़ी दूरी पर। सच से जो जगह अधिकतम दूरी पर हो सकती है समझिए कि हम सब का जन्म स्थान वहीं है। वहाँ जन्म लिया, तो फिर जीवन भर करना क्या है? यात्रा करनी है। बड़ी लंबी यात्रा। बहुत दूर जन्म लिया है, वहाँ से फिर चलकर आना है वहाँ को जहाँ सच्चाई है। झूठ की दुनिया में जन्म ले लिया है। झूठ से आशय क्या है? झूठ वो जो टिकता नहीं न, झूठ वो जो धोखा दे जाता है और इसलिए झूठ वो जो दुःख देता है। दुनिया में यही पाते हैं न हम कि कुछ टिक नहीं रहा? किसी भी चीज़ पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। हर चीज़ मिट रही है और दुख बहुत है इसलिए जानने वालों ने कहा कि ये दुनिया झूठी है। झूठी है लेकिन सच की संभावना अपने में लिए हुए है।

सच का दरवाज़ा इसी झूठ के महल में कहीं पर है तो जीवन फिर इसी लिए है ताकि झूठ के बीच से चलते हुए सच की संभावना को साकार करो। झूठ के महल में ही कुछ इस तरह से चलो, विचरण करो, खोजो कि सच की ओर खुलने वाला दरवाजा मिल जाए। यही जीवन का उद्देश्य है और नहीं कुछ। बाकी सब जो बीच-बीच में हम उद्देश्य बना लेते हैं ये करना है और वो करना है, वो सब यूँ ही है काम चलाऊ।

असल में उन झूठे उद्देश्यों के साथ हमारा तादात्म्य इतना गहरा बैठ जाता है कि उसके बाद जब इस तरह की चर्चा होती है जिसमें कहा जाए कि झूठ को क्रमशः तोड़ते चलना और त्यागते चलना ही जीवन का उद्देश्य है तो हमें बड़ा विचित्र लगता है। हम कहते हैं ये क्या उद्देश्य है? और उद्देश्य होते हैं- सेहत बनाना, पैसा कमाना, घर बनाना, इज़्ज़त कमाना, प्रगति करना, प्रतिष्ठा पाना, चुनाव जीतना, विदेश जाना, मनचाही चीज़ों का भोग करना, ये सब तो उद्देश्य हो सकते हैं और ये सब उद्देश्य हमें बहुत जल्दी समझ में भी आ जाते हैं लेकिन जब कहा जाता है कि जीवन का भाई एक ही उद्देश्य है कि यहाँ झूठ-ही-झूठ है, झूठ-ही-झूठ है, जिधर देखो उधर झूठ है, तुम्हें अपने जीवन में झूठ को पहचानते चलना है और उसे हटाते चलना है तो ये बात हमको बड़ी अजीब लगती है।

हम कह देते हैं ये तो कुछ दार्शनिक किस्म की बात है, सुनने में अच्छी लगती है। सैद्धांतिक बात है, सांकेतिक बात है, थोड़ी देर को सुन लिया तो ठीक है। कविता-किस्से जैसी है। ये कविता कहानी की बात नहीं है। सिर्फ यही असली और व्यवहारिक बात है और ये बात सब पर लागू होती है क्योंकि सब स्थूल शरीर के साथ ही पैदा होते हैं। तो माने सब सच से बहुत दूर ही पैदा होते हैं। सब! बिना किसी अपवाद के।

फिर जब यात्रा करोगे, तो शुरुआत में क्या हो तुम? स्थूल शरीरभर हो, माने पशु जैसे। जैसे पशु पैदा होता है कि उसे बस अपने शरीर की चेतना होती है वैसे ही एक छोटा बच्चा होता है-पशु जैसा। उसे बस अपने शरीर की चेतना होती है। अपने शरीर से ऊपर वो कोई हस्ती जानता नहीं है। अपने शरीर के अतिरिक्त वो जिन हस्तियों को जानता है वो भी सब उसके लिए शरीर भर ही हैं। तो माने जानवर समान वो जो शिशु पैदा होता है फिर वहाँ से यात्रा आगे को बढ़ती है। मनुष्य थोड़ा ऊँचा होता है- जानवर पैदा हुआ था, जानवर से ऊँचा उठा तो अब वो यात्रा की किस चरण में प्रवेश कर गया? सूक्ष्मता के चरण में। अब वो शरीर की बात कम करेगा, अब वो बात किसकी करेगा? हमारे पास स्थूल तो होता है शरीर फिर हमारे पास सूक्ष्म क्या होते हैं? विचार। तो अब वो विचारक बनेगा।

जीवन की यात्रा में जो विचारक बन गया उसने समझ लो कि चार पड़ावों में से तीसरे पर कदम रख दिया। अब वह विचारक हो गया है, अब वो बात करता है। वो सिद्धांतों की बात करेगा। वो व्यक्तियों की बात नहीं करना चाहेगा। वो व्यक्तियों की बात कम करना चाहेगा वो किन की बात करेगा? वो विचारों की, धारणाओं की बात करेगा। अब उसका क्षेत्र हो गया आइडिया, आईडियोलॉजी, विचारधाराएँ। वो इंसान को अच्छा या बुरा नहीं कहेगा वो इंसान की विचारधारा को अच्छा या बुरा कहेगा। अब ये सूक्ष्म जगत में प्रवेश कर चुका है। बात समझ में आ रही है? ये पढ़ा-लिखा हो गया है एक तरीके से। ये जो जानवर है, अब समझ लो कि इसकी तरक्की हो गई है, ये विश्वविद्यालय का प्रोफेसर बन गया है। ठीक है न? इसमें एक कदम आगे बढ़ा दिया है तो अब ये, ये नहीं बात करता कि ये अच्छा, ये बुरा, इसको मार दूँ, इसका शरीर खा लूँ। अब ये प्रमेयों की बात करता है, ये दर्शनों की बात करता है।

फिर अगर उसकी यात्रा जारी रही और उसको समझ में आया कि मात्र मानसिक कसरत से मुझे क्या मिल जाना है? तो फिर वो एक कदम और आगे बढ़ाता है। अब वो कारण के जगत में प्रवेश करता है, वो कहता है यहाँ पर पहुँचूंगा, यहाँ खोजूंगा। जो कारण के जगत में प्रवेश कर गया, जो अब सीधे-सीधे 'अहं' को संबोधित करने लग गया। अहंवृत्ति ही है न कारण? जो अब सीधे-सीधे अहम को संबोधित करने लग गया वो साधक हो गया। विचारक अब साधक हो गया ये यात्रा का तीसरा पड़ाव है। पहला जिस में पैदा हुए, दूसरा जिसमें विचारक बने, तीसरा जिसमें साधक बन गये।

साधक को विचारों से बहुत मतलब नहीं होता। वो विचारों के स्रोत पर जाना चाहता है।

वो बार-बार पूछता है विचार आ कहाँ से रहा है? लेकिन जो विचारक होता है, जो बुद्धिजीवी होता है, वो इस प्रश्न पर कभी ग़ौर ही नहीं करता कि ये विचार आते कहाँ से हैं? बस ये कहता है, "मेरा विचार ऐसा है।" या कि "आपका विचार बहुत बढ़िया है।" उस विचार का जन्म कहाँ से हो रहा है? भीतर कौन बैठा है जो विचारों को अनुप्रेरित कर रहा है? इस पर विचारक नहीं गौर करता। वो बस ये कह देगा- "माय थॉट्स" ये आया कहाँ से? आप कौन हैं जो इन विचारों के मालिक होने का दावा कर रहे हैं इसकी वो चर्चा नहीं करना चाहेगा। समझ रहे हैं बात को?

साधक अब बार-बार जानना चाहेगा, ये कर्ता कौन है? ये विचार किस उद्गम स्थल से उठते हैं? वो 'मैं' की तलाश कर रहा है, वो अहंवृत्ति की तलाश कर रहा है, वो अब तीसरे चरण पर पहुँच गया है और जो तीसरे चरण पर सत्यता के साथ, ईमानदारी के साथ साधना कर लेता है उसको उपहार स्वरूप, अनुकंपा में, भेंट में चौथे चरण का आशीर्वाद मिल जाता है, यात्रा पूरी हो जाती है।

चौथा चरण मैं कह रहा हूँ कि खुद नहीं पाया जाता। क्यों? क्योंकि जो पाता था पहले से दूसरे और दूसरे से तीसरे तक वो चौथे तक पहुँचने में मिट जाता है। जब मिट जाता है तो कूदेगा कैसे वो? तीसरे से चौथे में कैसे छलांग लगाएगा? तो फिर सीधी-सी बात है कि तीसरे से चौथे में आप खुद नहीं पहुँच सकते क्योंकि चौथे तक पहुँचते-पहुँचते तो आप हटने, मिटने लग जाते हैं तो खुद कैसे पहुँचेंगे? तो चौथे तक की यात्रा पूरी होती है फिर कृपा से। वो ऐसा होता है कि जैसे कोई आ करके भेंट दे गया हो। ये जीवन यात्रा है- आगे बढ़ते जाना है, एक के बाद दूसरा चरण लांघना है और जैसा मैं हमेशा कहता हूँ "समय बहुत थोड़ा है। इस थोड़े से समय में इतना कुछ तय करना है तो जल्दी करें।"

प्रश्नकर्ता: १५वें अध्याय के १७वें श्लोक को उद्धृत करते हुए पूछ रहे हैं-

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः৷৷

(श्रीमद्भागवत गीता अध्याय १५,श्लोक १७)

हिंदी अनुवाद: इन दोनों के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ पुरुष है जिसे परमात्मा कहा जाता है, वो अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणियों का भरण पोषण करता है। उपरोक्त श्लोक का तात्पर्य स्पष्ट करने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: इतना ही कहा जा रहा है, जैसा पिछला प्रश्न था उसी से जोड़ करके समझ लो कि जितने शरीर हैं वो सब हैं आत्मा के ही। आत्मा ही सबको कोशो में और सब शरीरों में आविर्भूत होती है। आप बात करते हैं न तीन शरीरों की, पाँच कोशों की। वो किसके हैं शरीर? शरीर किसी का होता है न? आत्मा के ही शरीर है। आत्मा उनके भीतर है वो बाहर कोश की तरह हैं। तो आत्मा के ही शरीर है उसी बात को यहाँ कहा जा रहा है कि वो अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणियों का भरण-पोषण करता है।

इस पूरे संसार की आत्मा एक वही सत्य है। तो शरीर को चलाने वाला भी केंद्र में कौन बैठा है? आत्मा। मन को चलाने के लिए भी केंद्र में कौन बैठा है? आत्मा। और अहंवृत्ति को भी संचालित कौन कर रहा है? आत्मा। उसी बात को श्रीकृष्ण ने इन शब्दों में कहा है कि वो अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणियों का भरण-पोषण करता है। यहाँ जो कुछ भी है उसके मध्य में तो वही बैठा है न जिसके सब शरीर हैं। वही चला भी रहा है।

प्रश्नकर्ता: क्या जीवात्मा अविनाशी होते हुए भी सीमित है और शरीर के द्वारा लिप्त है? जैसा कि इस अध्याय के अन्य श्लोकों से समझ आता है। फिर जीवात्मा अविनाशी किस अर्थ में है?

आचार्य प्रशांत जीवात्मा अविनाशी सिर्फ इसी अर्थ में है कि प्रकृति आपको अविनाशी लगती हो तो अन्यथा अविनाशी तो मात्र आत्मा है। श्रीकृष्ण जिसको जीवात्मा कह रहे हैं वो वास्तव में वो है जिसे जीव आत्मा समझ बैठता है। जीव अपनी सीमित और धुंधली दृष्टि से जिसको आत्मा कह देता है उसका नाम है जीवात्मा। तो वास्तव में जीवात्मा माने अहंकार ही होता है और कुछ नहीं। दो आत्माएँ नहीं होती कि आप कहें कि एक होती है जीवात्मा और एक होते हैं परमात्मा और जीवात्मा और परमात्मा का मिलन होना होता है।

आत्मा तो एक, अद्वैत, अखंड, अटूट सत्य है उसके दो हिस्से कहाँ से हो गये? ये दो आत्माएँ कहाँ से आ गई भाई? दो में से एक ही सत्य होगी दूसरी को तो कोई भ्रम ही होना होगा न। तो जिसको आप जीवात्मा कहते हैं वो भ्रम मात्र है। वो अहम है और कुछ नहीं। परन्तु अहं को भी श्रीकृष्ण कहते हैं कि वो प्रकृति के आठ तत्वों में से एक होता है। पाँच भूत और फिर मन, बुद्धि और अहंकार तो कुल मिलाकर आठ। तो अहं प्रकृति का ही हिस्सा है और जब तक समय है तब तक प्रकृति है और समय का ही दूसरा नाम प्रकृति है। तो जब तक आप समय को कह रहे हैं कि अविनाशी है तब तक प्रकृति भी अविनाशी है, जब तक प्रकृति अविनाशी हैं तब तक अहं भी अविनाशी है अन्यथा अहं अविनाशी नहीं है।

अहं का तो नाश होता ही होता है। जिसको आप कहते हैं जीवात्मा और परमात्मा का संयोग वो वास्तव में संयोग थोड़े ही है। संयोग तो बराबर वालों का होता है। जीवात्मा और परमात्मा के संयोग का मतलब होता है कि परमात्मा बचा और जीवात्मा गया। गया माने नाश हो गया उसका। जब नाश हो गया उसका तो अविनाशी कहाँ से है? जब अहंकार और आत्मा मिलते हैं तो ऐसा थोड़े ही है कि उनमें कोई गठबंधन हो जाता है। एक बचता है और दूसरा खो जाता है जैसे बूंद और सागर।

बूंद और सागर में तो फिर भी तुम कह सकते हो कि बस परिमाण का अंतर है कि बूंद को ही अगर कई ख़रब गुना कर दिया जाए तो सागर हो जाएगा। अहंकार और आत्मा में तो बूंद और सागर का भी रिश्ता नहीं है। एक सच्चा है और दूसरा झूठा है। एक के सामने दूसरा आकर के विलुप्त हो जाता है इसको हम 'योग' कह देते हैं। ये वास्तव में योग भी नहीं है, योग में तो ऐसा लगता है जैसे दो और दो मिल के चार हो गये। जैसे तीन और दो मिलकर पाँच हो गये।

योग में तो जो दो इकाइयाँ मिलती हैं, दोनों बदल जाती हैं तीन और दो का योग हुआ तो तीन क्या बन गया? पाँच। और दो क्या बन गया? तो दोनों इकाइयाँ बदल गई न। लेकिन जब अहंकार और आत्मा का योग होता है तो एक ही इकाई बदलती है दूसरी में कुछ नहीं बदलता तो वो योग भी नहीं है। वो योग से भी आगे की बात है। बात समझ रहे हैं?

प्रश्नकर्ता: ऐसा भी कहा गया है कि जीवात्मा शरीर में स्थापित होकर विषयों का भोग करता है। क्या ये भोग जीवात्मा की प्रकृति मात्र है या स्वतंत्र क्रिया?

आचार्य प्रशांत: इसको ऐसे ही पढ़ लीजिए कि अहं शरीर के माध्यम से संसार को भोगता रहता है। क्यों भोगता रहता है? क्योंकि वो सोच रहा है कि दुनिया को भोग-भोग के पूर्णता को पा लेगा। पूर्णता माने आत्मा। तो इसलिए वो दुनिया को भोगता रहता है। इसमें प्राकृतिक कुछ नहीं है, ये तो अहं का अपना गुण है। बात समझ में आ रही है? अहं एक तरह से प्रकृति का भी उपभोग करता है स्वयं को एक काल्पनिक पूर्णता देने के लिए और किसका उपभोग करेगा? प्रकृति से ही जुड़ा हुआ है, प्रकृति प्रदत्त आँखों से ही देखता है, प्रकृति प्रदत्त मस्तिष्क से ही सोचता है तो बाहर उसे सब प्रकृतिजन्य संसार ही दिखाई देता है। वो वहीं पर निकल पड़ता है चैन तलाशने कि इसी का भक्षण कर लूँ, खा लूँ, पी लूँ तो क्या पता शांति मिल जाए, पूर्णता मिल जाए? ये जीवात्मा की कहानी है, अहंकार की कहानी है, माने हर आदमी की कहानी है।

प्रश्नकर्ता: जीवात्मा की धारणा का कारण वस्तुतः क्या है?

आचार्य प्रशांत: अरे! 'जीवात्मा' कोई धारणा नहीं है भाई। जीवात्मा हमारे-तुम्हारे जीवन की जीती-जागती सच्चाई है। धारणा कैसे हो गयी? अहंकार अपने आपको बड़ा सच्चा, बड़ा अनूठा समझता है इसीलिए अहंकार को नाम दिया गया है जीवात्मा। जीव, जो अपने आप को सच मान बैठा तो वो हो गया जीवात्मा। ऐसे ही तो हम जी रहे हैं, इसको धारणा तुम क्यों कह रहे हो? पूछ रहे हो- इसका कारण वस्तुतः क्या है? इसका कारण है मनुष्य की देह। जन्म क्यों लिया मनुष्य बन के?

जो मनुष्य बन के जन्म लेगा उसको इस फसाद से गुज़रना ही होगा। वो यही सोचेगा कि वो बड़ा होशियार है। वो जब ये भी कहेगा कि मैं बेवकूफ़ हूँ तो बड़े आत्मविश्वास के साथ कहेगा कि मैं तो बेवकूफ़ हूँ। अगर तुम वास्तव में बेवकूफ़ हो तो तुम्हें पता कैसे कि तुम बेवकूफ़ हो? पर जब लोग ये भी कहते हैं कि "मैं तो घटिया आदमी हूँ।" तो बड़ी ऊँचाई के साथ कहते हैं, बड़े अच्छे बनकर कहते हैं बल्कि जो कह दे मैं घटिया आदमी हूँ, देखो! वो अपने आपको कितना अच्छा मान रहा है? जो कह दे मैं छोटा आदमी हूँ, उसके बड़प्पन की बात ही निराली। वो मन-ही-मन फूल के गुब्बारा हो गया।

अहं अपने आपको किसी से छोटा समझता नहीं भले ही वह चलता रहता है हमेशा हीनता के भाव में।

अजीब विरोधाभास से भरी दुर्गति है बेचारे की। जीवन भर उसे अनुभव होता रहता है हीनता का ही, उसी में वो जला-मरा रहता है। कुछ कमी है! कुछ कमी है! कुछ पा लें! कुछ इकट्ठा कर लें! कुछ भोग लें! लेकिन इस सारी हीनता के मध्य भी उसकी अकड़ पूरी कायम रहती है। अकड़ पूरी कायम रहती है जैसे कोई अकड़ू भिखारी। धारणा क्यों कह रहे हो? आ रही है बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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