प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसा कि हम बात करते हैं दूध की तो भारत में डेयरी कंजम्पशन (दुग्ध आधारित उत्पादों का उपभोग) बहुत ज़्यादा है और लोग लगभग पूरी तरह से निर्भर है दूध पर। हर घर में दूध का बहुत ज़्यादा कंजम्पशन है। तो दूध एक ऐसी चीज़ हो जाती है जो ना कि खाने में बल्कि पूजा-पाठ में भी लोग इस्तेमाल करते हैं। तो इस माइंडसेट (मानसिकता) को हम कैसे बदल सकते हैं कि आप नोर्मल दूध यानी गाय या भैंस के द्वारा दिए जा रहे दूध को छोड़कर आप प्लांट बेस्ड मिल्क (पौधों पर आधारित दूध) की ओर जाएं? आपने सुना ही होगा कि अभी हाल में ही एक बड़ी डेयरी कम्पनी का एक विवाद हुआ है एक एन.जी.ओ. के साथ में, तो आपको क्या लगता है कि भारतीय लोग क्यों इतने ख़िलाफ हैं इस चीज़ के? क्यों डेयरी नहीं छोड़ना चाहते?
आचार्य प्रशांत: देखिए, जिस वजह से भारत में दुनिया में सबसे ज़्यादा शाकाहारी लोग पाएं जाते हैं — दुनिया में जितने भी शाकाहारी हैं उनका सबसे बड़ा वर्ग भारत में है। मैं समझता हूँ शायद आप आंकड़े देखें तो दुनिया भर के शाकाहारियों का सत्तर-अस्सी प्रतिशत तो भारत में ही है। तो जिस वजह से भारत में अधिकांश लोग शाकाहारी हैं उसी वजह से भारत में दूध को एक ऊँचा स्थान भी मिला हुआ है। अब आप या तो उस वजह से लड़ लीजिए या उस वजह का सदुपयोग कर लीजिए।
ये जो वीगन आंदोलन है वो आंदोलन भी कुछ भी नहीं है, अलग-अलग छोटे-छोटे उसके द्वीप है या कह दीजिए छोटी-छोटी टोलियाँ है जैसे होली में टोलियाँ निकलती है ना? वो कुछ ऐसा नहीं है कि एक संगठित, सुगठित आंदोलन चल रहा हो, ऐसा तो है भी नहीं उसमें। ये कभी इस बात पर विचार ही नहीं करते कि भारत इतनी गहराई से शाकाहारी कैसे रहा आया।
ये तो अभी पिछले दस-बीस साल में हुआ है कि ये जो नई पीढ़ी है ये बहुत तेजी से चिकन वगैरह की ओर जा रही है। वो भी हम विचार नहीं करते कि क्यों जा रही है, कि पहले के लोग अपेक्षतया ज़्यादा शाकाहारी क्यों थे। भारत शाकाहारी इसलिए नहीं रहा है कि पहले कोई वेजेटेरियन मूवमेंट (शाकाहारी आंदोलन) चल रहा था। उसकी वजह दूसरी थी।
भारत में कभी कोई ऐसा शाकाहारी आंदोलन वगैरह नहीं चला है। भारत का शाकाहारी होना कोई वेजेटेरियन एक्टीविज्म (शाकाहारी सक्रियता) वजह से नहीं था। तो भारत का वीगनिज्म के लिए एक नाम चलता है हम तो बोलना पसंद करते हैं शुद्ध शाकाहार, पर लोग निवद्याहार बोलते हैं। तो भारत का वीगन होना भी किसी वीगनिज्म आंदोलन पर या वीगन एक्टीविज्म पर निर्भर नहीं करने वाला।
भारत शाकाहारी रहा है अध्यात्म की वजह से। वही अध्यात्म अगर और गहराई पाएगा तो भारत दूध भी छोड़ देगा। भारत जैसा सहिष्णु और उदार देश दुनिया में दूसरा हुआ नहीं है और आज भी नहीं है वास्तव में। हम भारत पर बहुत सारे इल्ज़ाम लगा सकते हैं लेकिन ये नहीं कह सकते कि क्रूर है, आतातायी है। कुछ सूक्ष्म रूप से हिंसा हुई है यहाँ पर भी उस पर मैं विवाद नहीं करना चाहता लेकिन फिर भी उदारता रही है, दया रही है यहाँ पर, कुछ ज़्यादा ही रही है। ममता की भावना बहुत रही है।
एक जानवर को लिया आपने और बच्चे की तरह पाल लिया, इस तरह की कहानियाँ आपको भारत में ही ज़्यादा मिलेंगी। वही अध्यात्म जिसने भारतियों को शाकाहारी बना कर रखा, सिर्फ वही अध्यात्म भारतियों को एक कदम आगे जाकर के जानवरों के प्रति और ज़्यादा करूणा दिखाने के लिए भी प्रेरित कर सकता है। और उसको आप आगे बढ़ाए तो लोग वीगन भी हो जाएंगे। लेकिन अगर आप एक विदेशी मुहावरे में बात करेंगे, एक अनजानी भाषा में लोगों से बात करेंगे तो लोग वीगन होने से रहे और इसीलिए ये वीगनिज्म भारत में जड़े नहीं पकड़ पा रहा है क्योंकि उसकी छवि ही ऐसी बन गई है कि ये तो अंग्रेजों और अमीरों की चीज़ है।
वीगनिज्म क्या है? ये अंग्रेजो और अमीरों का चोंचला है — ये उसकी छवि बन गई है, और मैं बहुत ज़्यादा असहमत भी नहीं हूँ उसी छवि से। बिल्कुल वैसी ही बात है। वीगनिज्म को एक देसी चीज बनना पड़ेगा। भारत की मिट्टी में दया है, भारत की मिट्टी में शाकाहार है। तो वीगनिज्म को भी इसी देसी मिट्टी से उठना पड़ेगा।
लोग जब यहाँ पर जानवरों पर दया करना जानते हैं, उनको भी जीव मानते हैं, घर का हिस्सा भी मानते हैं, रोटी भी खिलाते हैं, उनको अगर आप समझा दें कि उसी अहिंसा को और ज़्यादा आगे बढ़ा दो और देखो कि ये जो तुम इतना ज़्यादा दूध का इस्तेमाल करते हो वो शोषण है जानवरों का, तो लोग स्वेच्छा से छोड़ देंगे। अभी तो लोगों के पास सूचना ही नहीं है, जानकारी ही नहीं है कि दूध आपके घर तक पहुँचाने की पूरी प्रक्रिया में कितनी हिंसा हो जाती है। लोगों को नहीं पता ये बात।
वो बात आप लोगों के सामने लाए और देसी भाषा में सामने लाएं, देसी मुहावरे में सामने लाए। कबीर साहब के इतने दोहे हैं, उदाहरण के लिए, जो पशुओं पर क्रूरता के खिलाफ हैं, माँसाहार के खिलाफ हैं, उनका इस्तेमाल करके सामने लाए। हमारे शास्त्रों में ना जाने कितने श्लोक हैं जो जितने भी जीव है सबका कल्याण हो ऐसी कामना करते हैं। और कहते हैं कि अगर तुम एक जीव के ऊपर हिंसा कर रहे हो तो समझ लो कि तुम अपने ही ऊपर हिंसा कर रहे हो। उनका इस्तेमाल करके सामने लाएं।
तो जैसे भारत इतने व्यापक रूप से शाकाहारी रहा है वैसे ही भारत वीगन भी हो जायेगा लेकिन अगर वीगनवादियों को अध्यात्म से एलर्जी है तो ये वीगन आंदोलन सफल होने से रहा, मैं पहले से बता देता हूँ। और ये (एलर्जी ) है क्योंकि भारत में जो वीगनिज्म है वो आमतौर पर जो युवा वर्ग है उसी में ज़्यादा प्रचलित है और ये युवा वर्ग वीगनिज्म को प्योरली एथिकल ग्राउण्ड्स (शुद्ध नैतिक आधार) पर आगे बढ़ा रहा है नॉट ऑन स्पिरिचुअल ग्राउण्ड्स (अध्यात्म के आधार पर नहीं), इसीलिए वीगनिज्म भारत में असफल हो रहा है। क्योंकि भारत में जो एथिक्स हैं वो सीधे-सीधे अध्यात्म से आते हैं।
एथिक्स से मेरा मतलब है नैतिकता। आप अगर एक अलग एथिकल कोड देंगे, तो यहाँ कोई स्वीकार नहीं करने का क्योंकि पहले से ही यहाँ पर एक सशक्त एथिकल कोड मौजूद हैं। तो हमें क्या करना है? हमें लोगों को बताना है कि हम जिस एथिकल कोड का पालन कर रहे हैं, वीगनिज्म उसी से कंपैटिबिल (अनुकूल) है, उसी की पैदाइश है। वो उसके बिल्कुल संगत में है, मेल में है तब लोग सुनेंगे मानेंगे, फिर बहुत आसान हो जायेगा। लेकिन अगर हम कहेंगे, "नहीं, नहीं, नहीं, आई एम वीगन बट नॉट स्पिरिचुअल (मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ लेकिन आध्यात्मिक नहीं हूँ)" तो फिर आप वीगन भी बहुत दिन तक रह नहीं पाओगे।
अभी भारत में एक वीगन एक्टीविज्म में एक बड़ा नाम है और वो बहुत कोशिश करता है। युवक है, जवान लड़का है। तो उससे बात चलाई होगी किसी ने कि जैसे आप मुझसे बातचीत कर रही हैं वैसे ही आकर बातचीत करे। वो घबरा गया बिल्कुल, बोला, "नहीं, नहीं, मैं आचार्य जी कि बहुत इज़्जत करता हूँ, फॉलो करता हूँ, मुझे पता है कि आचार्य जी जानवरों के हक में और वीगनिज्म के समर्थन में कितना काम कर रहे हैं। सब बहुत अच्छी बातें हैं लेकिन मैं उनसे बात कैसे कर सकता हूँ? वो तो आध्यात्मिक हैं।" ये लिखकर भेजा उसने। अब यहीं जो मूर्खता है यहीं भारी पड़ रही है वीगनिज्म पर।
आपको लग रहा है कि स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) और वीगनिज्म दो अलग-अलग चीजें हैं, मैं आपसे बोल रहा हूँ कि वीगनिज्म सफल हो नहीं सकता बिना स्पिरिचुअलिटी के। ये बात हमको समझ में नहीं आ नहीं रही। यहाँ पर गड़बड़ हो रही है।
जिस धार्मिक अनुष्ठान के लिए दूध चढ़ाया जाता है प्रतिमा पर या लिंग पर, अगर लोगों को ये समझा दिया जाए कि जिस ईश्वर को प्रसन्न करना चाहते हो तुम, उसी ईश्वर के वो जीव है जिनका दूध दुह रहे हो और प्रतिमा पर चढ़ा रहे हो। ईश्वर को नहीं अच्छा लगता, तो लोग नहीं दूध चढ़ाएंगे। भाई! ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए ही तो दूध चढ़ा रहे हैं, अगर लोग समझ जाएं कि ईश्वर नहीं प्रसन्न होते इससे बल्कि ईश्वर को कष्ट होता है, ईश्वर और श्राप और देते हैं उन लोगों जो ईश्वर के ही बनाए निरीह, बेजुबान जानवरों का शोषण करते हैं, तो लोग नहीं चढ़ाएंगे।
फिर लोग ये पूछेंगे कि ये सब जो दूध चढ़ाने की परम्परा है, ये सब तो बहुत पुरानी है तो क्या हमारे पूर्वजों ने गलती करी थी? तो उनको फिर अध्यात्म की ही भाषा में समझाना पड़ेगा कि देखो एक चीज़ होती है 'काल-धर्म'। सत्य अटल-अचल होता है वो बदलता नहीं लेकिन धर्म काल के अनुसार बदलता रहता है। धर्म हमेशा काल सापेक्ष होगा। सच नहीं बदलता लेकिन सच की ओर जाने वाली जो राह होती है, सच तक पहुँचने के लिए जो आचरण करना होता है वो प्रत्येक क्षण बदलता रहता है, वो कालाश्रित होता है।
तो काल-धर्म उस समय ये रहा होगा कि घर में गाय है चलो उसका दूध निकालकर चढ़ा दिया, ठीक है? आज घर में नहीं गाय होती, कितने लोग अपनी घर की गाय का दूध पीते हैं? तब ये होता रहा होगा कि घर की जो गाय है उसको आप अपनी माँ समान मान रहे हो और वो बुढ़ी भी हो गई तो आप उसको अपने घर में रखें हो, आज आपको पता भी है बूढ़ी गायों का क्या होता है? तो काल बदल गया है, उस काल में शायद ये बात ठीक थी कि प्रतिमा पर दूध चढ़ा दिया। उस काल में आठ सौ करोड़ लोग भी नहीं थे ना दुनिया में और उस काल में पर्यावरण का इतना पतन भी नहीं हुआ था ना।
आज काल बदल चुका है, आज सब कुछ बदल चुका है, तो आज स्वयं ईश्वर भी नहीं चाहेंगे कि उनके ऊपर दूध चढ़ाया जाए। जब लोगों को इस भाषा में समझाया जायेगा ना तब लोग दूध वगैरह का सेवन भी छोड़ेंगे और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए उसका इस्तेमाल भी छोड़ेंगे। लेकिन अगर आप उनसे जाकर के कहोगे कि देखो भाई मेरा तो एक मॉडर्न एथिकल कोड है जिसको मैं अभी सीधे-सीधे, ताजा-ताजा यूरोप से लेकर आया हूँ और मैं चाहता हूँ कि तुम भी इसका पालन करो, लेट्स गो वीगन। लेट्स गो वीगन और अब तो वीगन पिज्जा भी मिल रहा है साढ़े पाँच सौ रुपए का एक स्लाइस , तो लोग बिल्कुल भगा देंगे कि हटो यहाँ से, निकलो, ये तुम क्या लूट मचा रहे हो वीगनिज्म के नाम पर।
मुझे बड़ा ताज्जुब होता है कि ये जो पिज्जा रखा हुआ है, उसमें से आपने चीज (पनीर) निकाल दिया तो उसकी कीमत तीन गुना कैसे हो गई? जिस पिज्जा में चीज मिला हुआ था तो वो इतने (कम दाम) का था और उसमें से आप चीज निकाल करके आप उसको दोगुने-तिगुने दाम पर बेच रहे हो, ये क्या कर रहे हो? पर जाओ आप वीगन पिज्जा खाने जाओ, मजाल है कि वो आपको साधारण पिज्जा के दाम पर मिल जाए। अब लोग चिड़ेगे नहीं वीगनिज्म से तो क्या करेंगे?
प्र: तो मतलब आपको क्या लगता है कि अभी जो भारत में आंदोलन है वो उत्पादों पर ज़्यादा केंद्रित है? और कम्पनियाँ भी आ रही हैं। असल में बहुत सारी कम्पनियाँ आ रहीं हैं।
आचार्य: उथला है, गहराई नहीं है।
प्र: गहराई नहीं है।
आचार्य: उथला आंदोलन है। और ये बात मैं कोई उपहास उड़ाने के लिए नहीं कह रहा हूँ, बड़े दर्द के साथ कह रहा हूँ क्योंकि मैं इस आंदोलन का शुभचिंतक हूँ। मैं चाहता हूँ कि ये सफल हों पर मैं ये भी बता देता हूँ कि जैसे इनके लक्षण है ये सफल नहीं होने के, है ना वो कि — बेटा, तुमसे ना हो पाएगा। तो वैसे ही ये सब जो घूम रहे हैं स्ट्रीट एक्टिविज्म करते हुए, कोई गाय बनकर घूम रही है कि मैं गाय हूँ मेरा क्यों शोषण कर रहे हो, कैंडल वगैरह जला रहे हैं, मैं इनकी भावना का सम्मान करता हूँ लेकिन ये सफल नहीं हो पाएंगे, ऐसे नहीं होगा।
प्र: तो भारत को ख़ुद का अपना एक वीगनिज्म मिलना चाहिए?
आचार्य: बिल्कुल, होम ग्रोन, ग्रास रूट वीगनिज्म , तब वो सफल होगा।
हिंदी में बात करो यार, देसी मुहावरे में बात करो। हमारे पास इतनी गहरी संस्कृति है उससे जोड़कर बात करो ना। हमारी इतनी पुरानी कहानियाँ हैं, पौराणिक कथाएं हैं, आध्यात्मिक सूत्र हैं, उनसे जोड़कर बात करो ना। वो भाषा हमारी मिट्टी में है, वो भाषा इस देश का आम किसान भी समझता है। उस भाषा में बात करोगे, लोगों के दिलों से जुड़ पाओगे तो लोग समझेंगे। इधर-उधर की बातें कोई नहीं समझेगा।
प्र: अच्छा, एक जैसे डेयरी के बारे में बात हुई तो आपको लगता है कि कई बार ऐसा होता है कि मीट (माँस) का हमको समझ में आता है कि मीट जानवर को मार करके आता है लेकिन डेयरी का और खासतौर पर जो डेयरी कम्पनियाँ हैं भारत में उनको लगता है, वो ऐसा लोगों को बोलते हैं कि हम भी गायों का बहुत सम्मान करते हैं तो लोगों को लगता है कि ये सच ऐसा हो रहा है और वो सोचते हैं कि जो वीगन्स बोल रहे हैं या जो इस आंदोलन से जुड़े हुए लोग हैं वो बोल रहे कि डेयरी भी उतना ही खराब है जितना कि मीट कंजम्पशन है तो आपको लगता है कि ये उन्हें दिखता नहीं है सामने।
आचार्य: दिखता नहीं है। ये बात इसकी है कि एक हमने अभी तक कोई सूचना ही नहीं दीं हैं जो इन्फॉर्मेशन डिसेमीनेशन (सूचना पहुँचाना) है वो ठीक से नहीं हुआ है। लोगों को पता ही नहीं है। और देखिए ये बात इन्ट्यूटिव (सहज) नहीं है कि आप दूध पी रहें हों तो आप पशु पर अत्याचार कर रहे हो। ये बात अगर किसी को आँकड़ों के साथ, तथ्यों और फिगर्स के साथ बताई न गई हो, उसे ये नॉलेज (ज्ञान) ही नहीं दिया गया है तो उसको नहीं समझ में आने की है। तो पहले तो यही करना होगा कि डेयरी का और मीट इंडस्ट्री का आपस में कितना गहरा ताल्लुक है ये सूचना जन-जन तक पहुँचानी होगी। और ये सूचना अगर आपने पहुँचा दी तो बहुत लोग तो अपने-आप ही डेयरी छोड़ देंगे।
देखिए अगर ये सूचना मेरे पास भी नहीं होती ना तो दूध दूध होता और अभी हम दूध वाली चाय पी रहे होते यहाँ पर क्योंकि दूध को देखकर के ये लगता ही नहीं कि ये तो ख़ून है। जब तक कि आपको वो पूरा प्रॉसेस , वो पूरी प्रक्रिया बताई न गई हो साफ-साफ कि देखो ऐसे निकलता है, ऐसे होता है, ऐसे होता है, फिर पूरे आँकड़े न बताएं गए हो कि कोई संयोग नहीं है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा बीफ (गाय का माँस) निर्यातक है। वो जो भैंसे कट रही हैं, वो कहाँ से आ रही हैं? तब आदमी के खोपड़े में बत्ती जलती है, "अच्छा! तो वो जो बीफ एक्सपोर्ट हो रहा है और ये जो दनादन खीर, दूध, लस्सी चल रहे हैं इनमें आपस में कोई रिश्ता है।"
तब ये बात समझ में आती है ना, नहीं तो नहीं समझ में आती, कौन इतना ध्यान दें। तो आम आदमी तक सबसे पहले वो सूचना पहुँचानी होगी, एक इन्फॉर्मेशन कैम्पेन चलाना होगा वो कैम्पेन अभी तक ठीक से चला नहीं है, उसकी जरूरत है।