प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, एक्चुअली (दरअसल) एक बैड एक्सपीरियंस (बुरा अनुभव) है पास्ट रिलेशनशिप (अतीत का रिश्ता)। तो उसमें ऐसे था कि मुझे उसके साथ रहना नहीं था। लेकिन मुझे उसके पीछे के रीज़न्स (कारण) नहीं पता है, क्यों नहीं रहना है। बस मुझे इतना ही पता था कि नहीं रहना है तुम्हारे साथ। मतलब, मुझे पता था कि नहीं रहना है लेकिन मुझे अंडरस्टैंडिंग (समझ) नहीं था कि मतलब क्यों नहीं रहना, ये नहीं पता था। तो ये जो गैप (रिक्त स्थान) है नोइंग एंड अंडरस्टैंडिंग (जानने और समझने) के बीच वाला, तो ये कैसे भर सकते है?
आचार्य प्रशांत: नोइंग , अंडरस्टेनिंग एक ही चीज़ होते हैं, अलग नहीं होते। जब हम कहते है कि मुझे पता है, पर मैं जानती नहीं हूँ, मुझे पता तो है मुझे कुछ काम करना है या नहीं करना है, पर क्यों करना है मैं जानती नहीं, तो इसका मतलब उसमे नोइंग भी नहीं है। फिर वो वृत्ति होती है, भावना होती है, कोई आवेग होता है। उसमे नोइंग नहीं है।
बस एक लहर है भीतरी जो आपसे कुछ करवाना चाहती है। उस लहर की अपनी एक ताक़त है। वो आपको एक तरफ़ धकेल देना चाहती है। वो आपसे कोई निर्णय करा ले जाती है। वगैरह, वगैरह। उसमें आपको ऐसा लगता है कि आपको पता है, पता कुछ नहीं होता। वो बस एक भीतरी प्रक्रिया हुई होती है; जैविक, रासायनिक। और वो प्रक्रिया अपको एक तरफ़ को फेंक रही होती है ज़ोर के साथ, आपको मजबूर कर रही होती है।
और वो जो प्रक्रिया है वो थोड़ी आपको आकर के बताएगी कि मैं एक प्रक्रिया मात्र हूँ? वो तो यही कहेगी कि फ़लाना काम करो और क्यों करना है, ये तो मुझे पता है। पता है, बस मैं समझ नहीं पा रही हूँ। नहीं हमें पता भी नहीं है। वो बस एक इंस्टिंक्ट (मूल प्रवृत्ति) है।
अब इंस्टिंक्ट आपके हक़ में भी जा सकती है और आपको नुक़सान भी कर सकती है। क्योंकि जो हमारी इंस्टिंक्टस होती हैं न, वो जो हमारी विकास की प्रक्रिया रही है लाखों सालों की, वहाँ से आती हैं; इंस्टिंक्टस। वही सब जिसको आप कई बार बोल देते हैं कि महिलाओं में छठी इंद्रिय बहुत जागृत होती है, वगैरह। सुना है न ये सब? वो इंस्टिंक्टस हैं। वो जो विकास की प्रक्रिया में हमको लगातार करोड़ों, अरबों अनुभव हुए हैं, उनका कुल निचोड़ हैं।
जो शरीर आपका आज है, वो शरीर बड़ी लम्बी यात्रा से आ रहा है न। मिट्टी से ही तो उठा है और जिस मिट्टी से आपका शरीर निर्मित है वो कोई नयी मिट्टी तो है नहीं। वो मिट्टी कभी एक कछुआ थी, कभी एक खरगोश थी, कभी हाथी थी, कभी साँप थी, कभी बत्तख थी, कभी चील थी, कभी केंचुआ थी, कभी कोई वृक्ष थी।
तो बड़ी लम्बी यात्रा से गुज़र चुकी है वो मिट्टी; और वो अपनेआप में वो सारे अनुभव रखे हुए है; और वो ज़्यादातर अनुभव आपके पाशविक अतीत से आ रहे हैं, इसलिए मैंने जानवरों का उदाहरण लिया।
मैंने ये नहीं कहा कि वो मिट्टी कभी गौतम बुद्ध थी। वो सारे जो हमारे संग्रहित अनुभव हैं शरीर में, माने मिट्टी में, माने डीएनए में, वो आ रहे हैं हमारे पाशविक अतीत से। चूँकि वो पाशविक अतीत से आ रहे हैं, इसीलिए उन सब अनुभवों की दिशा एक ही थी; शरीर का संरक्षण, न कि चेतना का आरोहण।
तो इंस्टिंक्टस हमें उठती है जल्दी-जल्दी, लेकिन वो इंस्टिंक्टस आम तौर पर इसलिए नहीं होती कि आपकी चेतना और सक्षम, सबल या ऊँची हो जाए; वो इंस्टिंक्टस इसलिए होती है ताकि आपको कोई शारीरिक नुक़सान न हो जाए।
उदाहरण के लिए, आपकी ओर अभी यहाँ से पत्थर फेंका जाए तो आप तुरंत एक ओर को तेज़ी से झुक करके पत्थर को डोज़ कर देंगी। ये क्या है? ये एक रिफ्लेक्स एक्शन है न। ये आपको किसने सिखाया? इसकी कोई ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) ली आपने? कोई सर्टिफिकेट (प्रमाण पत्र) है किसी के पास? ये कैसे पता कि ये करना है? कैसे पता? ये बात हमारे डीएनए में जमा है। ये बात हमें हमारी करोड़ों, अरबों सालों की विकास यात्रा ने सिखाई है।
बच्चा पैदा होता है और पैदा होते ही कुछ बातें उसको बिलकुल पता होती है। माँ के शरीर से भोजन कैसे ग्रहण करना है, बच्चे को पता है, सिखाना नहीं पड़ता। पशुओं को भी कुछ बातें जन्म से ही पता होती है, उन्हें सिखानी नहीं पड़ती। गर्मी हो जाए तो छाया की तरफ़ चले जाना है, ये आपको खरगोश के बच्चे को सिखाना नहीं पड़ेगा। फ़लानी तरीक़े की आवाज़ आए तो कहीं छुप जाओ, खरगोश के बच्चे को आपको ये सिखाना नहीं पड़ेगा। आपको हैरत होगी, आप कहेंगे, ये इस तरह की आवाज़ पर ऐसी प्रतिक्रिया करता है और दूसरी तरह की आवाज़ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करता।
खरगोश का बच्चा हो, उसके सामने आप साँप जैसी आवाज़ करिए, फिर, देखिए खरगोश क्या करेगा। तुरंत दोनों कान खड़े कर लेगा और अपने पंजे से वो ज़मीन को मारना शुरू कर देता है। वो दूसरे खरगोशों को भी संकेत दे रहा है, ख़तरा है। और है वो कितने दिन का? वो अभी होगा बीस दिन का, एक महीने का, उसे किसने सिखा दिया। पर उसको पता है। ये इंस्टिंक्टस हैं। ये सर्वाइवल इंस्टिंक्टस (अस्तित्व की वृत्ति) है। या ऐसे कह दीजिए, इंस्टिंक्टस सारी होती ही हैं बस सर्वाइवल (अस्तित्व) के लिए, शरीर के संरक्षण के लिए।
तो इंस्टिंक्टस पर भरोसा करें कि न करें? कर सकते हैं यदि हमें शरीर को बचाना है। जहाँ तक शरीर को बचाने की बात है, बिलकुल करिए। लेकिन कोई भी इंस्टिंक्ट आपको चेतना की ऊँचाई पर ले जाने के लिए निर्मित ही नहीं है, अभिकल्पित, माने डिज़ाइंड ही नहीं है। आपके रिफ्लेक्स एक्शन (स्वाभाविक क्रिया) से लेकर के आपके इंट्यूशन (अंतर्ज्ञान) तक, कुछ ऐसा नहीं है जो आपकी चेतना को बेहतर बनाएगा। हाँ, वो आपको दुनिया के आम ख़तरों से ज़रूर बचा सकता है। वो चीज़ दुनिया के आम ख़तरों से आपको बचा देगी। लेकिन चेतना को नहीं उठा देगी।
उदहारण के लिए, छोटे बच्चे भी कुछ ख़ास तरीक़े के चेहरों को देखते हैं, तो डर जाते हैं। वो क्यों डर जाते हैं? क्योंकि प्रकृति में ये बात तय है कि जब आप एक ग़लत ज़िंदगी जीते हो न, तो आपका चेहरा भी डरावना-सा हो जाता है। तो बच्चे को जन्म से पहले से ही पता है कि जो डरावने चेहरे हैं, उनकी परिभाषा क्या है। भई, डरावना तो एक कॉन्सेप्ट (अवधारणा) है न, एक सिध्दांत है डरावना। बच्चे को किसने सिखाया कि इस तरह के चेहरे को डरावना बोलना और रोने लग जाना जैसे ही ऐसा चेहरा सामने आए? बच्चे को किसने सिखाया? किसी ने नहीं सिखाया, उसको पता है।
माँ का मृदुल चेहरा सामने आता है, बच्चा रोते से चुप हो जाता है और दूसरा कोई आ जाए थोड़े रूबीले, मर्दाने चेहरे वाला, बच्चे की आप देखिए घिग्घी बन जाती है, वो रोता ही जाएगा, रोता ही जाएगा। उसका रोना व्यर्थ नहीं है। स्त्रैण चेहरों की ओर छोटे बच्चें बहुत जल्दी आकर्षित होते हैं। ये प्रकृति उन्हें सिखा कर भेजती है कि महिलाओं की ओर जाना। वहाँ तुमको ममता मिलेगी और सुरक्षा मिलेगी; और जो जानवरनुमा मर्दाने चेहरे हैं इनसे बच के रहना, ये कुछ भी कर सकते हैं, इनमे दया-माया नहीं होती।
अब ये ज़रूर हो सकता है कि उस तरह के चेहरे वाला व्यक्ति कोई बड़ा ज्ञानी हो, हो सकता है; लेकिन बच्चा उससे फिर भी डरेगा; और बच्चे के पास समुचित कारण है डरने का। वो कारण उसे प्रकृति ने सिखा रखा है। उन कारणों की अपनी एक महत्ता है। आप बहुत पढ़े-लिखे हो सकते हैं, महाज्ञानी हो सकते हैं , पीएचडी हो आप, कुछ और हो। आप सड़क पर जा रहे हैं, अचानक मुड़ते हैं, देखते हैं, बस बड़ी तेज़ी से आपकी ओर आ रही है। उस समय आपका जो भी संचित ज्ञान है वो आपको नहीं बचाता। उस समय आपको आपकी कौन-सी चीज़ बचाती है? इंस्टिंक्ट ही बचाती है। वो आपको बचा देगी। बिना सोचे आप तेज़ी से एक कदम पीछे को ले लेंगे।
कोई चीज़ आ रही होती है आपके शरीर की तरफ़, तुरंत हाथ उठता है और सबसे पहले किसको बचाता है? चेहरे को। चेहरे में भी किसको? आँखों को बचाता है। ये बहुत बड़ी बात है और बहुत अच्छी बात है। अगर आपको सोचना पड़ जाएँ कि मैं अभी क्या बचाऊँ; तो सोचने-सोचने में ही काम तमाम हो जाएगा। पर भीतर कोई बैठा है, डीएनए में कोई बैठा है जो जनता है कि इस समय पर हाथ को उठाओ और मुँह को, चेहरे को बचाओ। और चेहरे में भी ख़ासकर आँखों को बचाओं।
कोई चीज़ आ रही होती है, आप तुरंत ऐसे करते हैं (हाथों से चेहरे को बचाने का अभिनय करते हुए)। देखा है आपने? आँख को बचाते हैं। कहते हैं बाक़ी सब तो ठीक हो जाएगा, ये नहीं ठीक होंगी। इनको बचाओ। हाथ भले ही उसमें कट-फट जाए, कोई बात नहीं। आँखें बचनी चाहिए। बहुत अच्छी चीज़ है।
पर इनपर ज़्यादा भरोसा मत करिएगा, क्योंकि ये अतीत की ग़ुलाम होती हैं। ये प्रोबेबिलिटी (प्रायिकता) पर चलती हैं; सम्भावना। प्रोबेबिलिटी (प्रायिकता) का क्या खेल है? कि अगर इस तरह का आदमी है तो नब्बे प्रतिशत सम्भावना है कि गड़बड़ ही आदमी होगा। ये होता है प्रोबेबिलिटी (प्रायिकता) का खेल। उसमें सच्चाई नहीं होती, उसमें बस सम्भावना होती है। उसमें सच्चाई नहीं होती, समीकरण होते हैं; और सच्चाई तो सम्भावना से अक़्सर हटकर ही होती है।
रत्नाकर डाकू का चेहरा देखकर कौन कह सकता था कि रामायण आने वाली है। किसकी बात कर रहे हैं हम? और छोटा बच्चा अगर उस डाकू का चेहरा देखेगा तो क्या करेगा? रोने लगेगा। कोई साधारण पुरुष—और विशेषकर कोई साधारण स्त्री जंगल में चली जा रही हो और वो आदमी सामने आ जाए तो चींखें मार के भागेंगी कि नहीं भागेंगी? रामायण तो वही से आई है।
इंस्टिंक्टस ये नहीं देख पाएँगी। यहाँ पर इंस्टिंक्टस हार जाती हैं। क्योंकि बायोलॉजी (जीव विज्ञान) ने, एवोलुसन (विकास) ने इंस्टिंक्टस को सत्य जानने के लिए ट्रेन (प्रशिक्षित) करा ही नहीं है।
तो रत्नाकर का चेहरा कैसा है, इस चीज़ को इंस्टिंक्टस पकड़ भी लेंगी और प्रतिक्रिया भी कर देंगी। लेकिन रत्नाकर के भीतर सम्भावना और सच्चाई क्या है, ये बात इंस्टिंक्टस (मूल प्रवृत्ति) को नहीं पता चलने वाली कभी भी। यहाँ पर फिर आपको बड़ा भारी नुक़सान हो जाएगा। आप भाग जाएँगे और आप रत्नाकर से नहीं, वाल्मीकि से नहीं, आप राम से भाग गएँ। समझ में आ रही है बात कुछ?
तो अब ये आपको देखना है कि किस सीमा तक आपको भरोसा करना है। मैं ये कहे देता हूँ—जहाँ कहीं लग रहा हो कि पता है, पर क्या पता है, क्यों पता है, किस माध्यम से पता है, ये सब न दिखाई दे रहा हो तो जान लीजिएगा कि हमें पता नहीं है।
बोध इतनी हल्की चीज़ नहीं है कि यूँ ही हो जाए। और आप कहें पता तो है, पर पता नहीं है; ऐसे नहीं चलता। अज्ञान कभी ये थोड़ी बोल के आता है कि मैं अज्ञान हूँ? अज्ञान हमेशा क्या बोलके आता हैं? मैं ज्ञान हूँ। तो न पता होना भी सदा क्या बोलकर आएगा? पता है, पता है।
आप उससे पूछिए—पता है तो फिर पते का पूरा परिचय दे दो, उद्गम बता दो, कारण बता दो, माध्यम बता दो, सब बता दो न। और बताने को कहा तो कुछ नहीं पता।
जैसे कि गणित का कोई सवाल हो ये लम्बा-चौड़ा, आपने यहाँ पर एक समीकरण लिख दिया, इक्वेशन। और आप पूछें, हाँ, भई बताओ, हल करो इसको; और सब बैठे हुए हैं ऐसे ही छात्र लोग और एक है जो कुछ नहीं करता पर अनुभवी खिलाड़ी है—जैसे इंस्टिंक्टस अनुभव से आती हैं वैसे ही—वो अनुभवी खिलाड़ी है। कैसे अनुभवी खिलाड़ी है? उसी क्लास में तीन बार फेल हो चुका है। ज़बरदस्त अनुभवी खिलाड़ी हैं।
उससे आपने कहा, हाँ भई, बताना ज़रा, तो वो खट से बोलता है इसका उत्तर है जीरो और जीरो उसका उत्तर हो भी सकता हैं। क्योंकि आम तौर पर जो बहुत लम्बे-चौड़े समीकरण होते हैं वो शून्य में ही जाकर समाप्त हो जाते हैं। आपको तुरंत उसको श्रेय नहीं दे देना है। वो ज्ञान से नहीं बोल रहा, वो अनुभव से बोल रहा है।
ये नहीं कर देना है, उठो बच्चा लोग, बजाओ ताली। ये देखो आज दादाजी ने सही ज़वाब दे दिया। आज पार्टी देंगे चचा। ऐसे नहीं करना है। उसे कुछ नहीं पता, वो अनुभव से बोल रहा है। उत्तर सही है, उसके पीछे न कोई तर्क है, न कारण है। आप उससे कहिए अच्छा कैसे हल करा? आओ ज़रा यहाँ पर हल करके दिखाओ। कुछ नहीं बता पाएगा।
इंस्टिंक्टस ऐसी ही हैं। वो कई बार अनुभव के आधार पर आपको सही मशवरा दे भी देती हैं। लेकिन चकमा मत खा जाइएगा। उन्हें पता कुछ नहीं है। वो बस एक एकुमुलेटेड एक्सपीरियंस (संचित अनुभव) है, बहुत-बहुत लम्बे समय का। वहाँ से आपको बता देती हैं। वो सही भी हो सकती है बात और ग़लत भी हो सकती है। प्रक्रिया पर ध्यान दीजिए। सही प्रक्रिया पर चलकर उत्तर ग़लत भी आ रहा है तो अच्छी बात है। प्रक्रिया तो सही है; और बिना किसी प्रक्रिया के अगर आपको सही उत्तर मिल गया, तो भी ख़तरनाक बात है। क्योंकि आपको लत लग जाएगी प्रक्रिया से बचने की। आप कहेंगे ऐसे ही आ जाता है उत्तर, ऐसे सवाल को देखा, इसका ढाई है उत्तर। हो भी सकता है, बहुत बार होता है।
समझ में आ रही है बात?
तो इस तरह के जब ज़वाब होते हैं न आपसे कोई बोले कि नहीं वहाँ नहीं जाना है। आप बोलें, अच्छा क्यों नहीं जाना है? बोले पता नहीं, बस नहीं जाना। तो ये कोई अच्छी बात नहीं है। ये कोई शुभ लक्षण नहीं है। इसका मतलब है ये व्यक्ति बोध से ज़्यादा महत्व दे रहा हैं वृत्ति को, इंस्टिंक्ट को। भई, अगर कहीं नहीं जाना है, तो कारण बताओ न। इंसान हो तो तुम्हें कारण पता होना चाहिए।
इंस्टिंक्ट पर चलने का काम बिना जाने तो जानवर करते हैं। जानवर खड़ा है, खड़ा है, देखा है अचानक किसी ओर को चल देता है। आप उससे पूछे काहे को चल दिया? वो कुछ बता थोड़ी पाएगा क्योंकि उसे पता ही नहीं हैं। वो तो एक इंटरनल कंडीशनिंग (आंतरिक अनुकूलन) है जो उसको चला रही है। वो चल देता है, उसको कारण कुछ नहीं पता।
आप भी किसी दिशा में चल देते हो। आपको कारण नहीं पता, तो आपके साथ बहुत कुछ ख़तरनाक हो रहा है, पाशविक-सा हो रहा है।
'प्रेम हो गया हमें।' 'किससे हो गया?' 'फ़लाने से हो गया।' 'अच्छा, उसमें अच्छा क्या लगता है?' 'ये सब तो हमको नहीं पता, बस प्रेम हो गया है।'
ये ख़तरनाक है बात। इसमें कुछ रोमांटिक (रूमानी) नहीं है। शायरी में मत फँस जाइएगा। ये बहुत ख़तरनाक बात है। किसी की ओर आप खिंच रहे हो बिना ये जाने कि क्यों खिंच रहे हो, इसमें कुछ मिस्टिकल (रहस्यमय) नहीं है। इसमें जो है वो पाशविक है, एनिमलिस्टिक है। मिस्टिक नहीं, एनिमलिस्टिक (पाशविक)। लेकिन हमें जब पता ही नहीं होता, भीतर क्या चल रहा है, तो हम हर चीज़ को मिस्टिक बना देते हैं। कोई मिस्टिकल ताक़त है जो मुझे उसकी ओर खींच रही है। कोई मिस्टिकल ताक़त नहीं है। बहुत पुरानी प्रोग्रामिंग (नियोजन) है। मेल इंस्टिंक्ट (नर मूल प्रवृत्ति) है फीमेल (नारी) की ओर जाने की फॉर दा पर्पस ऑफ़ रिप्रोडक्शन (प्रजनन के उद्देश्य से), और कुछ भी नहीं है। क्या तुम उसको ज़बरदस्ती मिस्टिकल वगैरह बना रहे हो?
समझ में आ रही है बात?
इसी तरीक़े से किसी से ब्रेक अप (सम्बन्ध विच्छेद) का मन कर रहा है और पूछा जाए—क्यों? नहीं, कारण नहीं पता, बस करना है। ये बात भी बराबर की ख़तरनाक है। भई, किसी को छोड़ रहे हो। कोई वजह होगी कि उसके साथ आए थे। पहले तो वो वजह बताओ। और क्या वो वजह अब वैध नहीं है, वो वजह अब समाप्त हो गई? अगर हो गयी है तो छोड़ दो। हम वजह कैसे बताए कि समाप्त हुई कि नहीं, हमें तो ये भी नहीं पता कि वजह शुरू कैसे हुई थी। दूर जाने की वजह क्या बताएँ, हमें तो पास आने की वजह नहीं पता थी। यूँ ही लुढ़कते-पुढ़कते किसी के पास आ गए और लुढ़कते-पुढ़कते ही उससे दूर जा रहे हैं। न पास आने का ठिकाना था, न दूर जाने का है। ऐसी तो ज़िंदगी है हमारी।
रिजाइन (इस्तीफ़ा) क्यों करना है? पता नहीं यार बस मन नहीं लगता। बिलकुल यही जवाब इसने तब दिया था जब इसने ज्वाइन किया था। ज्वाइन क्यों करना है? पता नहीं यार, बस मन लग रहा है। और हम इन जवाबों के साथ बच भी निकलते हैं। न जाने तो कैसे हैं सवाल पूछने वाले जो ऐसे जवाब स्वीकार भी कर लेते हैं। ऐसे पड़ना चाहिए (चांटा दिखाते हुए)। ये क्या जवाब है?
शिक्षा व्यवस्था है हमारी पूरी है और उसमें पूछा जाए, कुछ पूछा जाए। भई अंग्रेज़ो ने और फ्रेंच ने भारत पर आक्रमण क्यों किया और आप जवाब दे पता नहीं यार बस उनका मन था। मिल जाएगी डिग्री? मिल जाएगी क्या? जब वहाँ नहीं चलेगा तो आपकी ज़िंदगी में कैसे चल जाता है इस तरह का जवाब? पर ज़िंदगी में तो हम चला लेते हैं। और अपनों के ऊपर तो और खूब चला लेते हैं।
ज़िंदगी के बहुत महत्वपूर्ण फ़ैसले भी हम ऐसे ही कर लेते हैं। पता नहीं यार बस मन है। एक बच्चा हमें और करना चाहिए डार्लिंग। जवाब? पता नहीं यार बस मन है। ये "पता नहीं यार" कभी स्वीकार नहीं होना चाहिए, कभी भी नहीं।
अगर पता नहीं है तो जाओ और पता करके आओ। उसके बाद मुँह दिखाओ। अज्ञान कोई तर्क नहीं होता। हम नहीं जानते, ये बात कोई तर्क कैसे हो सकता है? या अज्ञान अपनेआप में तर्क है? हमें नहीं पता, यही तर्क है? नहीं, अच्छा लगता है। क्या अच्छा लगता है? किसको अच्छा लगता है? क्या बात है?
बात बस इतनी-सी है कि जब आप इतना सवाल-जवाब जैसे ही शुरू करेंगे, वैसे ही खेल ही ख़राब हो जाना है। तो हम सवाल करते ही नहीं। हम मान लेते हैं, हम घुटने टेक देते हैं। मत टेका करिए, न दूसरों के सामने, न अपने सामने।
मुझे नहीं मालूम कि इन सारी बातों से आपकी स्तिथि में कुछ प्रकाश पड़ेगा कि नहीं, कुछ अंतर आएगा कि नहीं। उम्मीद कर रहा हूँ कि फायदेमंद होगी बाते।
"बस यूँ ही" कोई तर्क नहीं होता। "ऐसे ही" कोई तर्क नहीं होता। कही जाने का कार्यक्रम बनाया है, उधर से संदेश आता है "कैंसिल (रद्द) करते हैं"। आप पूछें, "क्या हो गया"? और जवाब आए "ऐसे ही"। ये कोई तर्क नहीं होता। या तो आपसे बात छुपाई जा रही है और अगर छुपाई नहीं जा रही, तो कैंसिल करने वाले को पता होना चाहिए कि क्यों नहीं जाना है। पहली बात तो क्यों जाना है ये पता होना चाहिए। और क्यों नहीं जाना ये भी पता होना चाहिए।
"यूँ ही" , "ऐसे ही" , "नहीं, बता नहीं सकते"। पता तो है पर शब्दों में बयाँ नहीं कर सकते। ये सब लफ़ाज़ी है, इसमें कुछ नहीं रखा है। ये भी सब सुना है; ऐसा नहीं कि हम जानते नहीं। पर कुछ बाते ऐसे होती है जो शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकती। ये सिर्फ़ फरेब है। तुम इतने ऊँचे पहुँच गए, वहाँ पहुँच गए, शब्दातीत? कि तुम्हारे पास कुछ ऐसा आ गया है जिसके लिए व्याकरण में, शब्दकोष में शब्द नहीं है। क्या झूठ बोल रहे हो? वहाँ तक जो पहुँचते हैं उनको ऋषि कहते हैं।
और ऐसा बस एक होता है जिसके लिए कोई शब्द नहीं होता, उसे सत्य कहते हैं। उसके आलावा बाक़ी सब चीज़ें तो शब्दों में व्यक्त करी जा सकती है और करी जानी चाहिए। शब्द और किसलिए होते हैं? अभिव्यक्ति का साधन है शब्द।
कोई बोले, हम अपनी बात शब्दों में नहीं बता सकते। तो कैसे बताओगे? कूद के बताओगे? लटक के बताओगे? क्या करोगे? शब्द में नहीं बता रहे तो कैसे बताओगे? जानवरों की तरह बताओगे? रंभाओगे? भौंकोगे? ढेंचू करोगे? क्या है? इंसान तो वही है जो अपनी बात को शब्दों में रख सके। तो ऐसो से बचना है।
ख़ुद भी ऐसे नहीं बनना है जो कहने लग जाए "नहीं कुछ है तो पर हम समझा नहीं सकते।" काहे भाई? शिक्षा पूरी नहीं हुई है? कितना पढ़े हो? कि कह रहे हो कुछ है तो पर समझा नहीं सकते। चलो अच्छा कोशिश करो समझाने की।
देख रहे हैं कि तुम बड़े मजबूर किस्म के आदमी हो, कह रहे हो, समझा नहीं सकते, पर प्रयास करो समझने का। ज़्यादातर यही पाओगे जो कह रहे हैं समझा नहीं सकते उन्हें ख़ुद ही कुछ समझ में आया नहीं है। तो समझिए, समझिए! भीतरी जो भी आवेग है, इंस्टिंक्टस (मूल प्रवृत्ति) है, उनको समझिए। ये मामला क्या है असल में?