प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा सवाल इस संदर्भ में है कि बचपन से मैं बच्चों के प्रति जो हिंसा होती थी उसे पढ़ती थी न्यूजपेपर्स-मैगजींस (समाचार पत्र एवं पत्रिका) में। और मेरे भी ग्रोइंग ईयर्स (बढ़ती उम्र) में कुछ ऐसे अनुभव रहें। उसके बाद जब और ग्रोथ (प्रौढ़ता) हुई तो एक अविश्वास-सा डेवेलप (विकसित) हुआ। अभी तक मैं थर्टी सेवन (सैंतीस) की हो गई हूँ, पर अभी तक एक डर है मेरे अंदर कि कोई भी आदमी मेरे से बात करता है—अच्छे से या कैसे भी—या कोई बुज़ुर्ग भी सिर पर हाथ रखे, तो ऐसा लगता है कि कोई सेक्सुअल मोटिव (यौन मकसद) तो नहीं है पीछे। या इसका एक दूसरा—ख़ुद को लगता है कि क्या मेरे अंदर वासना है जो इस चीज़ को समझ नहीं पा रही है, ये डर है कि वासना है? तो उस पर थोड़ा प्रकाश डालिए।
आचार्य प्रशांत: आप सिर्फ़ सेक्सुअल मोटिव से हो क्यों घबरा रही हैं, और भी चीज़ें हैं घबराने के लिए न? मैं कहीं जा रहा हूँ, अपने लिए कोई क़ीमती चीज़ लाने या कोई महत्वपूर्ण काम करने, मान लीजिए। ठीक है? कोई मुझे मिलता है रास्ते में जो बोलता है कि ‘आओ शतरंज खेलें’; कोई मुझे मिलता है रास्ते में जो बोलता है कि ‘आओ राजनीति पर चर्चा करें’; और कोई मुझे मिलता है रास्ते में जो बोलता है कि ‘आओ सेक्स करें’; मैं इन तीनों को क्या अलग-अलग जवाब दूँगा? ये तीनों तो मेरे लिए एक बराबर हैं न?
ये तीनों ही मेरे लिए सही काम के अलावा कुछ और हैं, मुझे तीनों को ही नहीं देखना। मैं सेक्स वाले बंधु को ही विशेषकर दोषी क्यों बताऊँ? जो मुझे शतरंज खेलने को बुला रहा है, वो भी मेरे समय की बरबादी करेगा, मुझे सही काम से भटकाएगा। लेकिन ये मैं सिर्फ़ तब कह पाऊँगा जब मेरे पास पहले कोई सही काम हो। जब सही काम होगा तो मैं व्यर्थ की कामवासना से तो बचूँगा ही, सौ अन्य झंझटों से भी बच जाऊँगा।
फिर मैं वासना भर को विशेषतया दोषी नहीं ठहराऊँगा। क्योंकि ऐसा तो नहीं है न कि ज़िंदगी में एक ही समस्या है कि वासना है। न ऐसा है कि दुनियाभर में जितने लोग हैं, उनमें कुल मिलाकर एक ही ख़राबी है कि कामुक हैं। जो हममें मूल ख़राबी है वो सौ तरीक़े से अभिव्यक्त होती है। वासना की विक्षिप्तता भी उन सौ तरीक़ो में से एक है। जो हमारी मूल ख़राबी है हमारे भीतर, वो बहुत तरीक़ो से प्रकट होती है। कामांधता उनमें से सिर्फ़ एक तरीक़ा है। और भी तो इतने तरीक़े हैं: आलस, चोरी—गिन सकती हैं आप, न जाने कितने तरीक़े हैं—नशा।
जो आदमी ज़िंदगी में सही काम पकड़ लेता है, वो इन सब तरीक़ो से एक साथ बचने लगता है। वो इतना ही प्रण नहीं करता कि मुझे व्यर्थ की वासना से बचना है; व्यर्थ की वासना से उतना ही बचना है जितना व्यर्थ के किसी और काम से बचना है।
अब हमारे पास होते हैं कुछ तथाकथित ब्रह्मचारी, उन्होंने प्रण ले रखा होता है कि वासना से बचना है। अब वासना से बचना है, लेकिन बाकी जितने झंझट हैं उनमें लिप्त रहना है। आप उनके साथ बैठ करके चार घंटे बकवास कर लीजिए, उन्हें कोई समस्या नहीं है। राजनीति के मुद्दे पर शुरू हो जाइए, वो किसी एक पक्ष को गरियाना आरंभ कर देंगे, कोई दिक्क़त ही नहीं है। व्यर्थ के खर्चे करवा लीजिए, कोई दिक्क़त नहीं। और ज़िंदगी में जितने तरीक़े के दुर्गुण हो सकते हैं, उन सबको लेकर के भी उनमें कोई रोष नहीं। उन्हें कुल एक चीज़ क्या है? "सेक्स बहुत ग़लत चीज़ है, सेक्स नहीं करना।"
इससे क्या मिलेगा?
इसी तरीक़े के और लोग होते हैं, कोई कहता है कि मुझे गुरुमंत्र मिला है—'देखो बेटा तुम झूठ मत बोलना’ तो वो अपनी समझ से जिस चीज़ को सच मानता है, वो बोलता रहता है। गुरुजी ने बोल दिया ‘झूठ मत बोलना, बाकी सारे काम करना,’ उसे कुछ बोलो, ‘झूठा’ वो बोलेगा, ‘ऐ देखो, लफंगा बोल लो, झूठा मत बोलना, लफंगे तो हम शान से हैं, झूठे नहीं हैं’, और लफंगा होने में हमें कोई ऐतराज़ भी नहीं है, क्योंकि गुरुजी ने कहा था—'झूठ मत बोलना’ तो झूठ नहीं बोलते, लफंगे हम पूरे हैं’।
किसी एक दोष पर ऊँगली रख के, किसी एक दोष को विशेषतया बढ़ा-चढ़ाकर रखने से क्या होगा? ये सिंगलिंग आउट (समूह में से एक चीज़ को चुन लेना) कहलाता है, किसी एक चीज़ को सिंगल आउट करने से क्या मिलेगा, जो मूल बात है उस पर जाए न? और जब आप मूल बात पर चली जाएँगीं, तो आप पाएँगीं कि आप उस मूल चीज़ से इतनी व्यस्त हो गई हैं कि आपके लिए ये सब दोष एक बराबर हो गए हैं। कोई व्यक्ति आ रहा है आपकी ओर—जैसा आपने कहा, “कोई आता है, आपके सिर पर हाथ रखता है और आपको लगता है कहीं इसका हाथ वासना से मैला तो नहीं है।“ ये बाद की समस्या है कि उसके स्पर्श में वासना है या नहीं; बड़ी बात ये है कि वो आपके पास आया है और आपके जीवन में एक फिजूल जगह लेकर मानेगा, वासना हो चाहे न हो।
मान लीजिए वो आपको स्पर्श करता है और वासना नहीं है, लेकिन आदमी वो बिलकुल भद्दा है; तो चलेगा? नहीं चलेगा न? तब भी नहीं चलेगा न? तो वासना को मूल समस्या मत मानिए। मूल बात ये है कि जो व्यक्ति आपके पास आ रहा है, वो आपके ज़िंदगी में सार्थकता लेकर आ रहा है या नहीं आ रहा है? जो व्यक्ति आपके पास आ रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं कि वो आपका समय और जीवन ख़राब करने के लिए आ रहा है, भले ही उसमें वासना न हो?
इतने लोग दूसरे लोगों का समय ख़राब करते हैं, जीवन बर्बाद करते हैं। जीवन बर्बाद करने का कुल एक ही तरीक़ा थोड़े ही है—वासना? जीवन बर्बाद करने के, हम कह रहे है, हज़ारों तरीक़े हैं। हमें उन सब तरीक़ो के विरुद्ध सतर्क रहना है। सही व्यक्ति आपके पास आ रहा है अगर तो उसका स्वीकार है। और अगर ग़लत व्यक्ति आपके पास आ रहा है, भले ही उसमें एक प्रतिशत भी वासना न हो, तब भी वो अस्वीकार है।
और इसमें मैं एक बात और भी जोड़ूंगा, अगर कोई आपके जीवन में कोई आ रहा है सही उद्देश्य के साथ, तो उस व्यक्ति के साथ अगर आपकी शारीरिक सहभागिता भी हो गई तो कोई गुनाह नहीं कर दिया आपने। क्योंकि बात शारीरिक संपर्क की बाद में है, क्योंकि आप शरीर बाद में हैं। आप क्या हैं? आप एक चेतना हैं, स्त्री का शरीर आप बहुत बाद में हैं। कोई आता है आपके जीवन में जिसके होने से, जिसके स्पर्श से आपकी चेतना का उत्थान होता है, और उस व्यक्ति ने आपको शारीरिक रूप से भी आपको स्पर्श कर दिया, शारीरिक संबंध भी बन गए; तो इसमें बुराई क्या है फिर?
और कोई ग़लत व्यक्ति जीवन में आ गया और वो शारीरिक संबंध नहीं भी बना रहा है तो भी बहुत बुराई है। तो भी सबकुछ खो दिया आपने। नहीं वो आपके साथ संभोग करता, लेकिन मन में सौ तरह के प्रदूषण डालता है, आपका सारा समय ख़राब करता रहता है; इससे बड़ी क्या बुराई हो सकती है? समझ में आ रही है बात?
जो हमारी मूल समस्या है, उसकी ओर जाइए। इंसान की मूल समस्या ये नहीं है कि इंसान सेक्स करता है; इंसान की मूल समस्या है उसकी अह्म वृत्ति। सही बीमारी पर ऊँगली रखिए, आगे के सब निर्णय ठीक हो जाएँगे।
प्र: अचार्य जी, माया से भिड़ना होता है या माया को सरेंडर करना होता है?
आचार्य: मुक्ति चाहिए उससे। कभी भिड़ना भी पड़ता है, कभी उससे दो मीठी बातें भी कर लेनी होती है, कभी उसको रिझाना भी पड़ता है। आख़िरी बात ये नहीं है कि भिड़ गए या उसके सामने लोट गए; आख़िरी बात ये है कि कहीं उसके गुलाम तो नहीं हो गए। उससे आज़ादी पायी या नहीं पायी, ये आख़िरी बात है। आज़ादी आख़िरी चीज़ है, और उस आज़ादी के लिए जो भी करना पड़े, जायज़ है। उस आज़ादी के लिए माया की सुननी पड़े, सुन लो। उस आज़ादी के लिए भिड़ जाना पड़े, भिड़ जाओ। उस आज़ादी के लिए कड़वा बोलना पड़े, कड़वा बोल लो; मीठा बोलना पड़े, मीठा बोल लो। आख़िरी बात न ये है कि कड़वा बोला, न ये है कि मीठा बोला; आखिरी बात ये है कि मुक्ति पायी कि नहीं पायी।