पुरुष पशु है, और महिला भी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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पुरुष पशु है, और महिला भी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। अभी आपने कहा कि महिला और पुरुष दोनों समान जानवर होते हैं, पर अकसर यह देखा गया है कि जो अधिकतर लड़ाईयाँ हैं वो पुरुष वर्ग शुरू करते हैं। हम इतिहास में देखें, समाज में भी देखें, तो बहुत सारी लड़ाईयाँ अधिकतर पुरुषों के द्वारा शुरु की जाती हैं और उनमें महिलाएँ पिसती हैं। तो हम इससे क्या निष्कर्ष निकालें?

आचार्य प्रशांत: देखिए पुरुष की हिंसा, पुरुष की बेहोशी, पुरुष की पशुता, बड़ी प्रकट रहती है, अभिव्यक्त, ऑब्वियस (ज़ाहिर)। तो दिख जाता है कि पुरुष डंडा लेकर, गदा लेकर या बंदूक लेकर, या मिसाइल लेकर लड़ने निकल पड़ा – वहाँ बात छुपती नहीं है, वो बड़ा ज़बरदस्त जानवर है। वो जब लड़ाई करता है तो खुलासा हो जाता है बिलकुल, कि ये देखो हाथी नशे में है और रौंदता हुआ बढ़ रहा है।

महिला प्राकृतिक रूप से ज़रा अलग है। हिंसा वो भी बराबर की करती है, दोनों जानवर हैं। मुझे क्षमा करिएगा अगर आप मुझसे ये सुनना चाह रही हों कि नहीं, आदमी ज़्यादा बड़ा जानवर है, वो छोटी जानवर है। नहीं, दोनों बराबर के जानवर हैं और ये प्राकृतिक नियम है। बस ये है कि महिला जो हिंसा करती है वो ज़रा सूक्ष्म होती है, वो पता नहीं चलती। और दोनों अपने–अपने स्वार्थ अनुसार हिंसा करते हैं।

पुरुष के पास ये है (बाज़ू दिखाते हुए), तो वो इससे हिंसा करता है। महिला के पास ये है नहीं, तो वो क्यों निकलेगी गदा लेकर? वो उस माध्यम से हिंसा करती है जो माध्यम उसको मिला हुआ है। पुरुष को बाहुबल, देह-बल मिला हुआ है तो वो वहाँ से हिंसा करता है; स्त्री को स्त्री-सुलभ भावनाएँ मिली हुईं हैं, युक्तियाँ मिली हुईं हैं, तरकीबें मिली हुईं हैं, तो वो उन तरकीबों के माध्यम से हिंसा करती है। इसका मतलब साफ़ है – स्त्री भी बराबर की ही हिंसक है।

देखना हो तो कभी जाकर देखिए सास-बहुओं की जो लड़ाईयाँ होती हैं – पुरुष घबरा जाएँ उस हिंसा को देख करके। और जब दहेज-वगैरह के लिए लड़कियाँ जलाई जाती हैं, उसमें क्या सासें बराबर की ज़िम्मेदार नहीं होती हैं? कई बार केरोसीन सास ने ही छिड़का होता है। कौन कह रहा है स्त्रियाँ बिलकुल एक जैसी हिंसक नहीं होतीं? मोह-ममता महिलाओं में ज़्यादा होती है और मोह-ममता से बड़ी हिंसा और क्या होती है? बस ये है कि वो युद्ध के मैदान पर नहीं जातीं। वो जा सकतीं भी नहीं हैं – पिट जाएँगी – तो नहीं जातीं। वो युद्ध के मैदान के पीछे से हिंसा करतीं हैं। भीम की हिंसा तो दिख रही है कि दुःशसन को पहले पीट–पीट कर भूमि पर गिरा दिया, फिर उसकी छाती फाड़ दी, फिर उसका खून पीया, फिर अपने बालों में लगाया, फिर अँजुली में भर लिया। और द्रौपदी की हिंसा नहीं दिख रही? भीम से ये सब करवा कौन रहा था? भीम को शपथ किसने दिलाई थी कि ‘जब तक दुःशासन की छाती का खून लेकर नहीं आओगे और उस खून से मैं अपने बाल नहीं धोऊँगी, तब तक मैं अपने बाल नहीं बाँधूँगी’? भीम को यह किसने शपथ दिलाई थी? बोलो!

तो वो जो युद्ध के मैदान पर हिंसा दिख रही है कि पीटा जा रहा है दुःशासन, वो कहानी पूरी नहीं है न? हमें दिख ही नहीं रहा कि पीछे की हिंसा संचालित कहाँ से हो रही है। अभी मैं आपसे पूछूँ कि ज़्यादा हिंसक कौन लगता है, भीम कि द्रौपदी? तो तत्काल आप क्या बोलेंगे? भीम! ये पुरुष वर्ग के साथ नाइंसाफ़ी हो गई न? ये नाइंसाफ़ी हो गई न कि हिंसा का सारा इल्ज़ाम किस पर डाल दिया? भीम पर। और हिंसा करवाई किसने है? द्रौपदी ने। अब गदा तो द्रौपदी से उठेगी नहीं, लेकिन द्रौपदी के पास और ताक़तें हैं। उन ताक़तों का इस्तेमाल करके उसने भीम को बाँध लिया है और भीम को अब नचा दिया है कि ‘जाओ, उसकी छाती फाड़ो और उसका खून लेकर आओ।’

यही होता है न? फिर हम कह देते हैं, ‘देखो, लड़ाईयाँ तो पुरुष करते हैं’। मोहल्ले में लड़ाई हो रही है दो आदमियों की, अकसर उन दो आदमियों के पीछे कौन होता है? भाई-भाई घर में बहुत मज़े से रह रहे होते हैं; जवान होते हैं, उन भाइयों में लड़ाई हो गई, सर फोड़ दिया एक-दूसरे का और फिर अदालत में मुक़दमा भी हो गया – वो अकसर क्यों होता है? दोनों की शादियाँ हो गईं हैं। ये देवरानी–जेठानी की कला थी जिसने दोनों भाइयों में परस्पर मुक़दमा करवा दिया। हमें दिखेगा ये कि दोनों भाई लठ लेकर एक-दूसरे पर टूट पड़े हैं, हमें ये नहीं दिखेगा कि इन दोनों भाइयों से ये लठ चलवा कौन रहा है। कौन कह रहा है महिलाएँ कम हिंसक होतीं हैं?

ये तो बिलकुल ही छोड़ दीजिए कि स्त्री त्याग, दया, सहिष्णुता, क्षमा और ममता की प्रतिमूर्ति होती है – कविताओं से बाहर आओ, यथार्थ के धरातल पर ज़रा कदम रखो – यहाँ तक होता है कि पुरुष जब किसी को परेशान करना चाहता है तो उसको पीट देगा, मान लीजिए, और स्त्री जब किसी को परेशान करना चाहेगी तो वो अपने-आप को दुःख देना शुरू कर देगी। आपको बहुत कम पुरुष ऐसे मिलेंगे जो कहेंगे कि ‘मैं अब खाना नहीं खाऊँगा’; गाँधी जी हुआ करते थे, उसके बाद से बहुत कम हैं। महिलाओं का ये पसंदीदा हथियार होता है – मैं नहीं खा रही।

देखो, पुरुष दूसरों को दुःख देकर उन्हें दुःख देता है; महिला अपने-आप को दुःख देकर दूसरों को दुःख देती है। मैं नहीं खा रही – अब मियाँ जी की घिग्घी बँधी हुई है बिलकुल, कि खाना नहीं खा रही है, कमरे में अपने आपको बंद कर लिया है। तो कमरे में बंद करके बैठ जाएगी अपने-आप को, पुरुष नहीं करते। कमरे में नहीं बंद करते, वो भाग जाते हैं। वो जाएँगे, बार में बैठ जाएँगे, परेशान थे तो शराब–वराब पी लेंगे, कुछ और करेंगे, सड़क पर उपद्रव कर देंगे – उनके तरीके दूसरे हैं। महिलाओं के बस तरीके भिन्न हैं, वृत्ति समान है। समझ में आ रही है बात?

तरीके दूसरे हैं। वो अपने-आप को परेशान कर लेंगी, पर वो अपने-आप को भी जब परेशान करतीं हैं, कष्ट देतीं हैं, कुछ करतीं हैं तो वो बराबर की हिंसक बात है। आप कुछ ना करना चाहते हों क्योंकि आपका विवेक उसकी अनुमति नहीं दे रहा है और मैं कहूँ, ‘तुम मेरी मर्ज़ी से अगर नहीं चलोगे, जो मैं कह रहा हूँ तुम नहीं करोगे, तो मैं पानी नहीं पियूँगा।’ ये हिंसा है या नहीं है? हिंसा है या नहीं है? तो फिर? लेकिन यह हिंसा हम हिंसा गिनते ही नहीं। हिंसा हमें लगती ही तब है जब किसी ने सिर फोड़ दिया किसी का।

भावनात्मक रूप से भी तो हिंसा करी जाती है, और ज़बरदस्त करी जाती है। ये भी फ़ेमिनिज्म (नारीवाद) में खूब चलता है कि 'इट विल बी अ बेटर वर्ल्ड, वेन विमन रूल इट ' (यह एक बेहतर दुनिया होगी जब महिलाएँ इस पर शासन करेंगी)। नहीं, बाबा! बात मेन (पुरुषों) या वीमेन (स्त्रियों) की नहीं है, बात एक जागृत इंसान की है। स्त्री जागृत होगी तो निश्चित रूप से संसार बेहतर हो जाएगा। पुरुष जागृत होगा तो भी निश्चित रूप से संसार बेहतर हो जाएगा। और अंधेरे में कोई भी हो, चाहे पुरुष, चाहे स्त्री, संसार का नाश ही होगा।

प्र२: प्रणाम आचार्य जी। आपको सुन कर लगा कि ऐसी हिंसा कुछ प्रतिशत हम भी करते हैं। तो फिर इस हिंसा को कैसे टैकल (जूझना) किया जाए – ख़ुद में और सामने वाले में?

आचार्य: औरों के साथ भी ऐसा होता है कि कोई इस तरीके की सूक्ष्म हिंसा करता हो? क्योंकि अब वो समय तो है नहीं कि कोई गोली चला देगा आप पर या सर फोड़ देगा, अब सूक्ष्म हिंसा का ज़माना है। होता है?

तो समझिए, वो हिंसा आप पर तभी सफल हो पाती है जब आप उसे सफल होने की अनुमति दें। ऐसे समझिए – आपने एक सम्बन्ध बनाया, आपने वो सम्बन्ध इसलिए तो नहीं बनाया था कि उसमें आपके ऊपर हिंसा कर दी जाए, या इसलिए बनाया था? आपने वो सम्बन्ध तो इस आधार पर बनाया था न कि उसमें मैत्री रहेगी, परस्पर शुभकामना रहेगी, प्रेम रहेगा। यही बनाया था सोचकर? उसकी जगह आप पाएँ कि आप पर हिंसा करी जा रही है तो आप फिर उस सम्बन्ध को बना ही क्यों रहने दे रहे हो? जो हिंसा कर रहा है वो भी इसी गणित के हिसाब से कर रहा है कि ‘मैं हिंसा करता भी चलूँगा तो भी सम्बन्ध यथावत रहेगा, जैसा है वैसा ही रहेगा।‘ अगर वो जान जाए कि सम्बन्ध तभी तक है जब तक मैं सचेतन व्यवहार कर रहा हूँ और जैसे ही मैं अपना पशु रूप दिखाना शुरू करूँगा, सम्बन्ध ही नहीं रहेगा, तो कोई आप पर हिंसा करने की ज़ुर्रत ही नहीं करेगा। उसे पता चल जाएगा कि ऐसा करूँगा तो रिश्ता ही नहीं बचेगा। जब रिश्ता नहीं बचेगा तो हिंसा कैसे कर लोगे?

हिंसा करने के लिए ज़रूरी है न कि हममें कुछ पहले रिश्ता-नाता हो? रिश्ता ही नहीं बचेगा; अब कर लो हिंसा। और रिश्ता बचा कहाँ? मैं फिर पूछ रहा हूँ – वो रिश्ता क्या था? वो रिश्ता प्रेम पर आधारित रिश्ता था, ठीक? अगर प्रेम है ही नहीं, प्रेम की जगह हिंसा है, तो रिश्ता है कहाँ? आप बस कल्पना में हैं कि रिश्ता अभी भी है, जबकि रिश्ता नहीं है। रिश्ता अगर वास्तव में होता तो हिंसा कहाँ से आ जाती?

हम समृतियों में जीते हैं। हम सोचते हैं कि जैसा हमने सोचा था या जैसी कल्पना थी, जैसे सपने थे, रिश्ता वैसा ही तो है। हम यथार्थ में नहीं जीते। वो सामने खड़ा हो कर गाली-गलौज कर रहा है – कौनसा प्रेम? वो हर तरीके से धोखाधड़ी कर रहा है, शोषण कर रहा है – कौनसा प्रेम? लेकिन हम माने यही चले हैं कि रिश्ता अभी भी है। कहाँ है? रिश्ता कब का मर गया या शायद कभी पैदा ही नहीं हुआ था। लेकिन झेले जा रहे हैं। एक काल्पनिक रिश्ते के लिए हम वास्तविक दुःख झेले जा रहे हैं।

ये जो सपने हैं न, ये आपको वो सब भी झेलने को मजबूर कर देते हैं जो आप कभी ना झेलें। कोई थोड़ा दूर का आदमी आ करके आपके साथ दुर्व्यवहार करे, आप बिलकुल बर्दाश्त नहीं करेंगे। ग़ौर करिएगा, आपके साथ बड़े-से-बड़ा दुर्व्यवहार आपके निकट के लोग करते हैं। दूर के लोगों की हिम्मत नहीं है कि वो आपके साथ हिंसा कर ले जाएँ। सबसे बड़ी हिंसा तो वो करते हैं जो बिलकुल हमारे पास के होते हैं, हमारे घर के होते हैं, हमारे कमरे के होते हैं। और वो हिंसा हम क्यों झेल ले जाते हैं? हमको लगता है, 'एक प्रेम भरा सम्बन्ध', है न? है नहीं, उसका सपना भर है, उसकी कल्पना भर है, वो है नहीं। वो है नहीं। जैसे कि आपके पास कोई गाड़ी हो ही ना और आप हर महीने पेट्रोल के १५००० चुकाते हों – कह रहे हैं, ‘देना तो पड़ेगा न, गाड़ी है।’ गाड़ी नहीं है, गाड़ी का सपना था। लेकिन जो पेट्रोल भर रहे हो, वो हकीक़त है। एक काल्पनिक गाड़ी के लिए पेट्रोल के वास्तविक मूल्य चुका रहे हो। गाड़ी है ही नहीं, लुटे जा रहे हो, पेट्रोल भरे जा रहे हो। और पूछूँ कि क्यों झेलते हो इतना? तो कहते हैं फिर, ‘रिश्ता भी तो बचाना है न।’ मतलब क्या बचाना है? कह रहे हैं, ‘रिश्ता’। मैंने कहा, ‘है कहाँ?’ क्या बचाना चाहते हो? लाश बचानी है? है कहाँ जो बचाना चाहते हो?

परखा करिए। अभी सम्बन्ध की वास्तविक स्थिति क्या है, परखा करिए। मैं नहीं कह रहा हूँ हड़बड़ी में सब तोड़-मोड़ डालिए, पर अगर सालों से कुछ उपद्रव ही चल रहा हो, तो? चलिए छः महीने और दे दीजिए, साल भर और दीजिए, सुधारने की पूरी कोशिश कर लीजिए। और पूरी कोशिश के बाद भी सुधार ना होता हो, तो? गाली-गलौज, मारपीट, तमाम तरह की यंत्रणाएँ झेले ही जाओगे क्या? और कई बार मामला ऊपर-ऊपर से इतना भद्दा भी नहीं होता कि उसमें गाली-गलौज वगैरह हो रही हो। ऊपर-ऊपर से बहुत सभ्य, शालीन व्यवहार हो रहा होता है और नीचे-नीचे राक्षसी करतूतें।

हम किसी इंसान के लिए पैदा नहीं होते हैं। हम मुक्ति पाने के लिए पैदा होते हैं। आपकी ज़िंदगी किसी इंसान पर न्यौछावर कर देने के लिए नहीं है। आपके जीवन का केंद्र कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। आपका जीवन है अपने-आप को आकाश जैसी ऊँचाई देने के लिए। किसी हाड़-माँस के साधारण से इंसान की खटपट में ही खट जाने के लिए आप पैदा नहीं हुए हैं। आप इन्हीं सब में उलझे रहेंगे तो जीवन के उद्देश्य को साकार कब करेंगे? २० साल से, आधे से ज़्यादा समय अगर पारिवारिक उपद्रवों में ही जाता हो, तो बताइए अब जिंदगी में बचा क्या?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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