आचार्य प्रशांत: संत रहीम का दोहा है:
कैसे निबहै निबल जन करि सबलन सों गैर। रहिमन, बसि सागर विष करत मगर सों बैर।।
निर्बल जनों की कैसे नैया पार लगेगी अगर उन्होंने सबल से बैर कर रखा है। ठीक वैसे, जैसे कोई सागर बीच बसकर के मगर से बैर कैसे कर सकता है। प्रतीक है, किधर को इशारा समझ लीजिए। सबल से दूरी रखने का, सबल को गैर कर देने का अर्थ क्या है।
निर्बल तो सब जन हैं, सब जीव हैं। बल मात्र सत्य का होता है, आत्मा का होता है उसके अतिरिक्त बल कहीं से नहीं आता। किस सागर की बात हो रही है, संसार सागर की बात हो रही है, भवसागर की बात हो रही है। और भवसागर में चारों तरफ़ सब मगर ही मगर हैं। सब तुम्हें खा जाने को अर्थात कष्ट दे देने को उतारु हैं।
ऐसे में एक ही है, जो तुमको बचा सकता है, वो जो सबल है, उसको गैर मत बना लेना, उसको गैर मत बना लेना। सच्चाई से दोस्ती रखो सच्चाई तुम्हें बचाएगी।
शास्त्र कह गये हैं:
जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
तुम अपने भीतर की सच्चाई को बचाकर रखो, तुम्हारी सच्चाई तुमको बचाए रखेगी। नहीं तो छोटे मगर, बड़े मगर, नीचे मगर, ऊपर मगर, मगर-ही-मगर हैं। और सब मगर, मगर जैसे दिखते नहीं। यहाँ तो भाँति-भाँति के रूप-रंग हैं। सुन्दर मगर, आकर्षक मगर, सलोना मगर, मासूम मगर, अगर-मगर, डगर-मगर, मगर-ही-मगर।
नदी, सागर का जो मगर होता हो वो तो बड़ा ईमानदार होता है। वो तो बताकर आता है कि मैं मगर हूँ। यहाँ तो रूपवान मगर हैं, प्रेमवान मगर है और तुम्हारी बड़ी-से-बड़ी निर्बलता ये नहीं है कि तुम्हारे पास सामर्थ्य नहीं मगरों का सामना करने का; तुम्हारी निर्बलता ये है कि तुम्हें मगर, मगर जैसा दिखाई ही नहीं पड़ता। तुम मगर को देखते हो, कहते हो, ‘ये तो मेरा राजकुमार है, सुकुमार है, मित्र है प्यारा, स्वजन है इसी के भरोसे तो ज़िन्दगी चलानी है, यही तो है।‘ यही मूल निर्बलता है, यही माया है। मगर को मगर न देख पाना ही माया है।
या मां सा माया।
जो है नहीं, पर लगे वो माया है। जो मित्र है नहीं, पर मित्र लगे, वो माया है। जो मूल्यवान है नहीं, पर मूल्यवान लगे वो माया है। जो प्रेमी है नहीं पर प्रेमी लगे वो माया है। “या मां सा माया।“
ये मगर-ही-मगर हैं। सत्य के साथ होने का फ़ायदा ये होता है कि तुम्हें मगर, मगर जैसा दिखने लगता है, इसी को दिव्य दृष्टि कहते हैं। वो दृष्टि जो सच को सच और झूठ को झूठ देख ले सो कहलाती है — दिव्य दृष्टि। वो अर्जुन को कृष्ण ने दी थी तुम्हें भी कृष्ण ही देंगे। ये तो कहावत है कि — ‘पानी में रहकर मगर से बैर।’ वो छोटा दुर्भाग्य होता है। बड़ा दुर्भाग्य जानते हो क्या होता है? पानी में हैं और मगर पर सैर।
यहाँ तो मगर के भरोसे सागर पार किया जा रहा है। कह रहे हैं, ‘मगर के ही ऊपर बैठकर के सागर पार कर लेंगे।‘ अरे! मगर से बैर कर लिया होता तो फिर भी क्या पता बच जाते। बैरी से आदमी ज़रा दूरी रखता है, बचने की कुछ सम्भावना बनती। यहाँ तो पानी में बैठे मगर पर सैर। मगर को ही वाहन बना रखा है, मगर को ही प्रियजन बना रखा है। कहीं से जब दुत्कारे जाते हैं तो सीधे मगर के पास जाते हैं।
वो देखो। (एक दौड़ते हुए बच्चे की ओर हाथ से इशारा करते हुए) मिट्टी, मिट्टी को दौड़ा भी लेती है।
कमला थिर न रहीम जग, ये जानत सब कोय। पुरुष पुरातन की बहू, क्यों न चंचला होय।।
मज़े लिए हैं रहीमदास ने, प्रकृति-पुरुष की बात हो रही है। विष्णु को इंगित किया है पुरुष से, और कमला, लक्ष्मी को इंगित किया है प्रकृति से। कह रहे हैं, ‘सब जानते हैं कि विष्णु की पत्नी, लक्ष्मी, बड़ी चंचल है और चंचल क्यो न हो? ये भी तो देखो बीवी किसकी है!
जब तुम उस सम्पूर्ण पुरुष की, महापुरुष की बीवी होती हो तो फिर खुद ही तुम्हें हक मिल जाता है चंचलता का। ये संतों की अठखेलियाँ हैं जो समझाना चाह रहे हों कि प्रकृति इतनी चंचला क्यों है। जब पुरुष सामने हो, जब पुरुष जैसा स्वामी हो तो प्रकृति का चंचल हो जाना लाज़मी है न। वो है ही ऐसा जो किसी के हिलाए न हिले, तो आश्वस्ति है कि ये तो हिलेगा नहीं तो नाचो, गाओ, लुभाओ, मज़े करो। पक्का भरोसा है कि इस पर कोई विक्षेप आएगा नहीं। जब विष्णु जैसा पुरुष हो तो लक्ष्मी का चंचल हो जाना प्राकृतिक ही है।
एक बच्चा होता है जो कमज़ोर होता है, बीमार होता है। उसको अक्सर जहाँ बैठा दो, बैठा रहेगा। और एक बच्चा है जो मस्त है, ताकतवर है, स्वस्थ है, वो क्या करेगा? वो कूद-फाँद करेगा, उछलेगा, कूदेगा, पेड़ पर चढ़ जाएगा, तोड़ेगा-फोड़ेगा। ऐसा ही हाल है। प्रकृति के भीतर पुरुष का स्वास्थ्य बसता है इसीलिए उसमें इतनी चंचलता है।
दूसरा उदाहरण लेलो। ये घड़ी पहन रखी है आपने (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए)। ये पता हो कि पुरानी घड़ी है और बहुत दम नहीं है इसमें तो उसको बहुत सम्भाल के पहनेंगे और किसी को ऐसी घड़ी मिल जाए जो न पानी में खराब होती है, न गिरने से टूटती है। हर तरीके से वो बड़ी मज़बूत है, सुदृढ़ है। उसको फेंक दो, टूटेगी नहीं। उछाल दो, गिरेगी! कोई हर्ज़ नहीं होगा उसका। तो उसके साथ तुम क्या करोगे फिर? उसके साथ तुम खेलोगे, कोई भरोसा नहीं उसको गेंद बना लो।
तो वैसे ही जो चीज़ पूरे भरोसे की हो जाती है उसके साथ उद्दंडता अपनेआप शुरू हो जाती है। उसके सामने चंचलता अपनेआप शुरू हो जाती है।
अपसराएँ जा-जाकर ऋषियों के सामने नाचती रहती थीं। कई बार तो नाचते-नाचते नग्न ही हो जाएँ। ठीक है, एक वजह तो ये थी कि उन्हें इन्द्र आदि देवता ये निर्देश देकर भेजते थे कि ऋषि की तपस्या डाँवाडोल करनी है। और दूसरा वो इतना बिन्दास होकर के इसीलिए भी नाच लेती थी क्योंकि उन्हें पता था कि ये ऋषि महाराज हैं, ये हिलेंगे नहीं, तो इनके सामने नग्न भी हो जाओ तो कोई खतरा नहीं है।
कोई हो ज़लील, कामी, लुच्चा उसके सामने से स्त्रियाँ, लड़कियाँ कैसे गुज़रती हैं। मुँह भी ढक लेंगी और अगर, बस पड़े तो वहाँ से गुज़रे ही न, कि पता है कि गँवार है यहाँ पर घूम रहा है, फूहड़ के सामने से कौन गुज़रेगा। और कोई हो शिष्ट, सम्भ्रान्त, अडिग, गम्भीर, प्रेमीजन, उसके सामने फिर स्त्री खुद ही अठखेलियाँ करती है, घूमती है, मज़े लेती है, दुपट्टा फहरा देती है क्योंकि भरोसा है, यहाँ कुछ भी करलो कोई समस्या आने नहीं वाली।
अब ये बड़ी विडम्बना की बात हो गयी जो पुरुष प्रकृति में रस नहीं लेगा प्रकृति उसके सामने अपना पूरा नृत्य प्रदर्शित कर देगी और जो पुरुष प्रकृति का दीवाना होकर घूमेगा प्रकृति खुद उससे बच-बचकर घूमेगी।
रसिकों के मोहल्ले से स्त्रियाँ दूर-दूर ही रहती हैं। भैया, उस गली में मत जाना, वहाँ चार बैठे होंगे, वो सब रस के ही ग्राहक हैं। प्रकृति माने संसार हुआ यहाँ पर। संसार का ऐसा ही रिवाज़ है। तुम उससे कुछ नहीं माँगोगे वो सबकुछ तुम्हें देने को तैयार हो जाएगा। और तुम उसके बड़े दीवाने हो जाओगे तो कुछ पाओगे नहीं। जो पुरुष कुछ नहीं माँगता वो सबकुछ पा जाता है और जो कुत्ते की भाँति पीछे लार बहाता, ज़बान लटकाए घूमता है वो कुछ नहीं पाता। तो मज़ेदार बात हो गयी। कि जो बैरागी है उसपर प्रकृति खुद न्यौछावर हो जाएगी क्योंकि उसे राग ही नहीं, और जो राग का मारा हुआ है उसे कुछ नहीं मिलेगा।
समझ में आ रही है बात?
विष्णु जैसे रहो। अपनी गुरुता, अपनी गरिमा, अपनी गम्भीरता बनाकर रखो, लक्ष्मी तुम पर न्यौछावर होती रहेंगी और प्रकृति के पीछे, लक्ष्मी के पीछे, संसार के पीछे, अगर रोडसाइड रोमियो बन लिए तो प्रकृति देवी तो नहीं मिलेंगी, डंडे और पड़ेंगे। ऐसा ही होता है न? जिसे नहीं चाहिए उसे सब उपलब्ध है। जिसे चाहिए उसे बस चाहत मिलती है। चाहते रहो तुम तो तुम्हें मिल तो गया मसाला, तुम उसी मसाले के साथ मग्न रहो। खयाली पुलाओ पकाओ बैठे-बैठे, चाहत।
दूसरा प्रश्न करा है कि आचार्य जी, अवलोकन के विषय में आपने बहुत बार बताया है लेकिन अवलोकन करते समय मैं स्थिर, अटल नहीं रह पाता हूँ।
अवलोकन, गंगेश (प्रश्नकर्ता) वास्तव में करने की ज़रूरत नहीं होती है। तुम यहाँ बैठे हो सुनने के लिए तुम्हें क्या करना पड़ रहा है, तो अवलोकन वैसा ही है। इसीलिए शास्त्रों में अवलोकन की अपेक्षा जिस शब्द का प्रयोग किया गया है ज़्यादा, वो है — श्रवण, सुनो। नहीं कहते शास्त्र कि देख-देखकर समाधि मिल जाएगी। वे कहते हैं — श्रवण, मनन, निदिध्यासन, समाधि। क्योंकि सुनने में निर्विकल्पता होती है अवलोकन में तो फिर भी तुम तय करते हो न, क्या देखना है, क्या नहीं देखना है, इधर को देखना है, उधर को देखना है, पलक झपकानी है, कि नहीं झपकानी हैं, ऊपर देखे कि नीचे देखें। श्रवण में सुनो, चुपचाप! अवलोकन वास्तव में ऐसा होता है अगर तुमने करा तो अवलोकन झूठा हो गया। अवलोकन श्रवण जैसा होना चाहिए, निर्विकल्प। तुम्हारे सामने किसी तरह के चुनाव की सहूलियत नहीं होनी चाहिए, नहीं तो तुम गड़बड़ चुनाव कर लोगे, सुविधा का दुरुपयोग कर लोगे।
बात समझ रहे हो?
करा नहीं जाता है वो होता रहता है। चुपचाप बैठे हो, हो रहा है, देख तो रहे हो, हो रहा है। पता ही है कि हो रहा है, अनुभव होते हैं न। अनुभवों के प्रति सच्चे रहो, यही अवलोकन है। कष्ट का अनुभव हो रहा है अब अवलोकन क्या करोगे उसका? अवलोकन करने के लिए तो एक नई इकाई खड़ी करनी पड़ेगी। बस तुम्हें पता रहे कि ऐसा हो रहा है, कष्ट है मुझे।
आत्मा अवलोकन नहीं करती, आत्मा आलोकन करती है। और आलोकन और अवलोकन में अंतर होता है। प्रकाश है यदि, आलोकित हैं यदि ये सबकुछ, तो अपने आप दिख जाएगा न तुमको। अपने आप होगा, तुम जान ही रहे हो क्या हो रहा है। उसके बारे में न सोचना है, न समझना है, न उसके बारे में कुछ शर्तें पूरी करनी है कि पहले स्थिर हो जाओ तो अवलोकन होगा। अस्थिर हो तो जान रहे हो न कि अस्थिर हो। अनुभव हो रहा है, न अस्थिरता का, यही अवलोकन है। मैं अस्थिर हूँ।
अवलोकन ये नहीं है कि कुछ और कर दिया। अवलोकन ये है कि जो कुछ हो रहा है उसी को जान लिया कि हो रहा है। जैसे कि रोशनी में तुम्हारे सामने जो कुछ भी हो रहा होता है उसे तुम तत्काल जानते चलते हो कि हो रहा है। जान भर लो और थोड़े ही कुछ करना है, जान भर लो बस। जो भी है, जैसा भी है, तुम्हारी जानकारी में रहे यही अवलोकन है।
शर्तें मत लगाना कि जो अच्छा लगेगा उसको ही जानूँगा, जो बुरा लगेगा उसको अस्वीकार कर दूँगा। न। बुरा लगा तो ये भी जान लिया कि हमें...।
श्रोतागण: बुरा लगा।
आचार्य प्रशांत: बुरा लगा है। अच्छा लगा तो जान लिया कि हमें...।
श्रोतागण: अच्छा लगा।
आचार्य प्रशांत: अच्छा लगा। जानने का मन ही नहीं कर रहा, मन जानने के विरुद्ध खड़ा हो गया। ये बात भी जान ली, ये अवलोकन है।