पूर्ण मुक्ति कैसी?

Acharya Prashant

7 min
252 reads
पूर्ण मुक्ति कैसी?

निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि

यच्चित्तं न प्रवर्तते।

निर्निमित्तमिदं किंतु

निर्ध्यायेति विचेष्टते॥१८- ३१॥

~ अष्टावक्र गीता

अनुवाद: जीवन्मुक्त का चित्त ध्यान से विरक्त होने के लिए और व्यवहार करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता है। किन्तु निमित्त के शून्य होने पर भी वह ध्यान से विरत भी होता है और व्यवहार भी करता है।

आचार्य प्रशांत: अष्टावक्र किसी फन्दे में नहीं आएंगे, बोलेंगे उसको ख़ुद ही काट जायेंगे। "जीवनमुक्त का चित्त ध्यान से विरक्त होने के लिए और व्यवहार करने के लिए प्रवृत नहीं होता है।" तो कोई ज़ोर नहीं चलेगा उस पर कि विरक्त हो जाओ, व्यवहार इत्यादि, समझ रहे हो? संसार मे कृणा करो, संसार मे आचरण करो। इसके लिए आप उसे बल पूर्वक प्रवृत नहीं कर सकते। लेकिन साथ ही साथ निमित्त शून्य होने पर भी, कामना शून्य, लक्ष्य शून्य होने पर भी वह ध्यान से विरक्त भी होता है और व्यवहार भी कर रहा है।

आप पाएंगे कि आचरण में वो ध्यान से विरक्त भी हो रहा और व्यवहार भी कर रहा है, निमित्त नहीं है। भीतर से उसको कोई आशा नहीं है, लक्ष्य नहीं है, लालशा नहीं है और बाहर से कोई उसे प्रवृत्त कर नहीं सकता। अपनी उसकी चित्त की वृत्तियाँ जल चुकीं हैं। लेकिन फिर भी वो व्यवहार करता है। जो उससे कोई भी नहीं करवा सकता वो, वो भी करता है। ध्यान से विरक्त भी हो जाता है। आप पाएंगे वो सर्वदा ध्यान में प्रतीत नहीं होगा। क्या करोगे? कैसे पकड़ोगे उसे? कैसे इशारा करोगे उसकी ओर? क्या लक्षण बचे उसके? कोई लक्षण ही नहीं बचे। क्या वो ध्यान में होता है? जी होता है। क्या वो ध्यान से विरक्त होता है? जी वो भी होता है। व्यवहार करता है? अजी! व्यवहार करने के लिए कोई उसको विवश कर ही नहीं सकता। तो मतलब व्यवहार नहीं करता। नहीं साहब तब भी करता है। क्यों करता है? निमित्त कुछ नहीं है। चाहता कुछ नहीं है। फिर भी करता है।

चाहता कुछ नहीं है, लक्ष्य कुछ नहीं है, निमित्त कुछ नहीं है, तो फिर किस ख़ातिर? अब भगवान जाने। अंत मे जब आप सर पकड़ कर बोल दोगे न राम जाने, तभी जानिएगा की आपने जाना। जो कहते हैं हम जानें, वो कुछ नहीं जानते। जो कहते हैं राम जानें, तो जान लीजियेगा कि कुछ जाना। ध्यान टूटने से भी मत डरियेगा। इस बात को भी मत पकड़ लीजियेगा कि कहीं ध्यान न टूट जाये। वही निमित्त बन गया न, क्या? कि ध्यान नहीं टूटना है। लो, हो गया। माया ध्यान बन गयी। अब लगे हुए हैं ध्यान बचाने में। अब बन गए जोगी जो ध्यान को बचाये-बचाये घूमते हैं। कि ध्यान को भाई गुदड़ी में लपेट कर कमण्डल में छुपा लो। कहीं ध्यान पर ख़रोंच न आ जाये। दो-टके का ऐसा ध्यान जिसको बचना पड़ता हो। जिसको भी आप कीमत देंगे, वही आपका बंधन बन जायेगा। लोगों को देखते हो भगवान को बचाने के लिए कैसे भागे-भागे फिरते हैं। आप किसी मंदिर को कुछ करके दिखाएं, आप किसी मस्जिद को कुछ करके दिखाएं, लोग आ जाएंगें, अरे! धर्म ख़तरे में है। भगवान को बचाने की ज़िम्मेदारी इंसान ने उठा रखी है।

अष्टावक्र कह रहे हैं, न तुम ध्यान को बचाना, न तुम भगवान को बचाना। भगवान से लगे कि दूर भी हो रहे हो तो कोई बात नहीं। जिससे दूर हो सको वो सत्य नहीं, वो आत्मा नहीं। जो ध्यान टूट जाए वो वैसे भी वास्तविक ध्यान नहीं था। तो टूटने देना। असली ध्यान तो ऐसा होता है अटूट कि उसका कभी पता चलेगा ही नहीं। पता सिर्फ उसका चलता है जो टूट सके। यदि एक अबाध धारा हो, यदि एक अनंत श्रृंखला हो तो उसका कुछ पता लगने नहीं है। जो रुक-रुक के शुरु हो, उसी के शुरू होने का, उसी के होने का पता लगता है। जो अविछिन्न हो, तुम उसकी तलाश करके दिखा दो। छिन्न-भिन्न होना जरूरी है, जानने के लिए। उसको तुम जान नहीं सकते। जिसको जान नहीं सकते उसके बारे में कुछ कहोगे क्यों? न कुछ कहना, यही है निमित्त शून्य हो जाना।

बात आ रही है समझ में?

कुछ भी पकड़ मत लेना, मौन भी नही, भगवान भी नहीं, ध्यान भी नहीं। जो पकड़ लिया उसी को जानना की शैतान है। हम कह रहे थे न, पकड़ा नहीं कि पकड़े गए।

न ज्ञानी न ध्यानी।

शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं

निष्प्रपंचं निरामयं।

आत्मानं तं न जानन्ति

तत्राभ्यासपरा जनाः॥१८- ३५॥

आत्मा के सम्बन्ध में जो लोग अभ्यास में लग रहे हैं, वे अपने शुद्ध, बुद्ध, प्रिय, पूर्ण, निष्प्रपंच और निरामय ब्रह्म-स्वरूप को नहीं जानते।

अब पूरा संसार इस एक छोटे से वाक्यांश में आ गया। "आत्मा के सम्बंद में जो लोग अभ्यास में लग रहे हैं।" जो संसारी है वो सोंचता है संसार के माध्यम से आत्मा को पा लेगा। वो संसार की विधियों का अभ्यास कर रहा है आत्मा को पाने के लिए। आत्मा माने क्या ? जो ऊँचे से ऊँचा हो। आत्मा मानें परम् धन्यता, आत्मा माने अति-सन्तोष। संसारी और क्या करता है? वो कहता है संसार का अनुपालन करूँगा तो गहरी से गहरी शांति मिल जाएगी, परम् चैंन मिल जाएगा। तो वो भी आत्मा को ही पाना चाहता है। कैसे? संसार का उपयोग करके। पैसा मिल जाये, इज्ज़त मिल जाये, इत्यादि, इत्यादि।

और फिर आते हैं आध्यात्मिक लोग, वो भी आत्मा का ही अभ्यास कर रहे हैं। उन्हें भी आत्मा पानी है। उन्हें आत्मा पानी है आध्यात्मिक दाँव पेंच लगा के। वो कुछ धार्मिक फ़साद लगते हैं। वो ध्यान की विधियाँ लगाते हैं। वो कर्म काण्ड में उतरते है। वो ज्ञान संचित करते हैं।

अष्टावक्र कह रहे हैं, पाने की कोशिश में जो लगा है वही शुद्ध, बुद्ध, प्रिय, सुन्दर, निरामय, पूर्ण आत्मा को बिल्कुल नहीं जनता। जो पाने निकला है वही व्यर्थ ही अपने खोने में स्थापित हुआ जाता है। तुम संसार मे कुछ पाने जाओ, ये सोंच करके, पाने से तुम बढ़ जाओगे, तुम गए। तुम आध्यात्म में कुछ पाने जाओ ये सोंच करके कि ईश्वर की, ब्रह्म की, शांति की, निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है, तुमने फिर अपने लिए नर्क, बंधन तैयार कर लिया। अब इससे साफ़ अष्टावक्र और क्या बोलेंगे? कह रहें हैं आत्मा के अभ्यास में जो लगा वही ब्रम्ह को नहीं जानता। जो पाने निकला वही खो बैठा। जो पाए हुए हैं, अब वो पाने निकल सकता है।

आ रही है बात समझ में?

कुछ भी तुम्हें ये एहसास न दे जाए कि वो आत्मा का विकल्प है। आत्मा का विकल्प छोड़ो, परिपूरक भी नहीं है, कुछ भी।

न बाज़ार, न मंदिर, न व्यापार की किताब, न धर्मग्रंथ। दोनों ही जगह कुछ नहीं मिलना, क्यों कुछ नहीं मिलना? क्यों कुछ नहीं मिलना?

पाया कहे सो बावरा, खोया कहे सो पूर्ण।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories