पुरानी आदतें कैसे सुधारें? || (2016)

Acharya Prashant

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पुरानी आदतें कैसे सुधारें? || (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये जो आदत हैं हमारी, बार-बार पीछे की ओर ले जाती हैं। थोड़ी देर के लिए गए, अच्छा लगा, और फिर वापस। वो कैसे छूटे?

आचार्य प्रशांत: न छूटे! पड़ी रहे।

आप अपने स्वजन के साथ हैं, आप अपने प्रेमी के साथ हैं, एक कमरे में हैं, और उस कमरे में पड़ी हुई है, कहीं कोने कतरे कुछ गंदगी। कितना ज़रूरी है अब आप के लिए, कि वो गंदगी साफ़ हो तभी आप प्रेम में, आनंद में रह पाएँगे? कितना ज़रूरी है?

प्र: ज़रूरी है।

आचार्य: फिर पूछ रहा हूँ। आप प्रेमी के साथ हैं! क्या अब आवश्यक है आपके लिए? उसके साथ होना, या कमरे में इधर-उधर पड़ी गंदगी?

श्रोतागण: उसके साथ होना!

आचार्य: समझ रहे हैं बात को? ये बड़ी आदिम गंदगियाँ हैं। बड़ी प्राचीन। पुरानी आदतें, ढर्रे, संस्कार, मन के तमाम तौर-तरीके। ये देह में बैठे हुए हैं, ये हो सकता है ना जाएँ जल्दी। कुछ चले भी जाते हैं, कुछ जाने में पूरा जीवन लगा देते हैं, कुछ जीवन पर्यन्त नहीं जाते हैं। आप इंतज़ार थोड़े ही करते बैठे रहोगे कि, "पहले मन का पूरा रेचन हो जाए, उसके बाद हम शांत होंगे!" मन जैसा है, चलता रहे अपनी चाल। तमाम आदतें भरी हैं उसमें, भरी रहें, गंदगियाँ भरी हैं, भरी रहें, राग-द्वेष, कपट-मोह भरे हैं, भरे रहें। माया का उस पर कब्ज़ा है, रहा आए; हम मस्त रहेंगे।

कि प्रेमी को रोक कर रखोगे? "आप जिस व्यक्ति को प्रेम कर रहे हैं, वो अभी किसी दूसरे कार्य में व्यस्त हैं, कृपया इंतज़ार करें।" होल्ड पर रखोगे? कि पहले सफ़ाई-वफ़ाई कर लें, फिर जीएँगे, फिर प्रेम करेंगे! इस सफ़ाई का कोई अंत नहीं आने वाला।

माया बड़ी गहरी है। जितना उसकी तुम सफ़ाई करोगे, उतना उसी को ऊर्जा दोगे। उसका तो एक ही तरीका है, उससे कहो, "तू पड़ी रह! तुझे जो करना है कर। तुझे जितने बंधन मुझ पर लगाने हैं, लगा! मैं समस्त बंधनों के बीच भी, ‘मैं' रहूँगा। तुझे जितनी मलिनताएँ मुझ पर थोपनी हैं, थोप। समस्त मलिनताओं के बीच भी मैं निर्मल रहूँगा।" ध्यान दीजियेगा, "मैं मलिनताओं को साफ़ करने में उद्यत नहीं होने वाला। मैं उन्हें पीछे छोड़ना चाहता हूँ। तू कर तुझे जो करना है, मैं तेरे समस्त किए हुए हो पीछे छोड़ कर आगे बढ़ जाऊँगा। रही आएँ आदतें! मैं आदतों के मध्य आदतों से मुक्त रहूँगा।" अब हुई मज़ेदार बात। करो तुम्हें जो करना है, हम वो करेंगे जो हमें करना है। तुम्हें हक़ है पूरा, अपनी पूरी सामर्थ्य दिखाने का। हक़ हमें भी है, अपने अनुसार जिए जाने का। तुम चलो, अपनी चाल चलो! और हम अपनी चाल चलेंगे।

समझिएगा बात को!

सत्य के अतिरिक्त जो भी कुछ है, वो है नहीं। ‘आदतें’ सत्य नहीं। इसका अर्थ है कि सारी आदतें हैं ही नहीं। आदतों को बल मिलता है आपके प्रतिरोध से। और आदतों को बल मिलता है आपके समर्थन से। आप आदत के साथ जो भी कुछ करते हैं, वो आदत को आगे बढ़ाता है। आदत है, आपने कहा, "रही आनी चाहिए, क्योंकि ये अच्छी आदत है।" आदत बढ़ती रहेगी। आदत है, आपने कहा, "छूट जानी चाहिए, ये बुरी आदत है", आदत बढ़ती रहेगी। आदत हटती उस दिन है, जिस दिन आप जान जाएँ, कि आदत तो होती ही नहीं! क्योंकि सत्य के अतिरिक्त तो कुछ, होता ही नहीं! और सत्य कोई आदत नहीं। जहाँ आपने ये जाना कि ये तो है ही नहीं, अब आप ना उसका समर्थन करेंगे, ना विरोध करेंगे। आप उसके प्रति उदासीन हो जाएँगे! ये उदासीनता भाती नहीं है आदत को। अब आपने आदत के प्राण सोख लिए! आप आदत के प्रति, पूर्णतया निरपेक्ष हो गए। अब कुछ लेना ही देना नहीं आपको आदत से!

समझ रहे हैं बात को?

रही आए आदत, हमने मुँह फेर लिया है उससे। हमारे सामने नाच रही है, हमें कोई लेना ही देना नहीं उससे। हमें दिखाई ही नहीं देती। आदमी ने ये बड़ी भूल की है। कभी वो कहता है कि, "मुझे मन की वृत्तियों को ख़त्म करना है", कभी वो कहता है कि, "मुझे आदतों से छुटकारा पाना है।" ये काम नहीं आएगा। ये बातें सुनने भर में अच्छी हैं, इनकी कोई उपयोगिता नहीं।

काम तो आपके वही आएगा जो किसी के भी काम आ सकता है, वो है सत्य।

काम तो राम ही आएगा।

आपकी सारी बातचीत के बाद, आपके सारे प्रत्यनों और प्रार्थनाओं के बाद, अंततः काम तो राम ही आना है।

आदतों पर चर्चा काम नहीं आएगी।

समस्त साधना निष्फल ही जाएगी।

कुछ नहीं है जो शान्ति देगा आपको, यदि वह राम के अतिरिक्त किसी और को केंद्र में रख कर चल रहा है।

जिस क्षण आपका ध्यान केंद्रित हो गया, संसार पर, ढर्रों पर, व्याधियों पर, आदतों पर, संस्कारों पर, उस क्षण केंद्र में यही सब जा कर के बैठ गए। अब आप उचट गए राम से।

ना!

राम को केंद्र में रखें। सत्य को केंद्र में रखें। और ये सब उपद्रव चलने दें। प्रपंच है, खेल है, चलता रहे। आप मुक्त हो जाएँ। चलता रहेगा, आप मुक्त हो जाएँगे।

बस इतना, कि जो भी चल रहा है, उसके मध्य, मन मेरा राम में ही है। संसार नाच रहा है चारों और, पूरी तरह नाच रहा है। देख रहा हूँ। भागीदार भी हूँ उसमें, शिरक़त भी कर रहा हूँ, पर मन लगा राम में ही है। हैं कहीं भी, पर मन राम में ही है। इतना ही करना है। फिर चले तो चले, चलने दीजिए। संसार चले तो संसार चले, आदत चले, तो आदत चले, चलने दीजिए। राम देखेंगे, कि आदत का क्या करना है। राम की इच्छा होगी, आदत बनी रहेगी, राम की इच्छा होगी, तो आदत विगलित हो जाएगी। आपका काम है राम से लगे रहना, आप वहाँ लगे रहिए। बाकी छोड़िए।

प्र: आचार्य जी, ये जो सत्य है, ये अनुभव के परे है, लेकिन मेरा तो पूरा जीवन ही अनुभव पर टिका हुआ है। मुझे लगता है कि मैं ख़ुश हूँ तो केंद्र के नज़दीक हूँ, और जब वो ख़ुशी चली जाती है, तो मुझको लगता है कि मैं केंद्र से दूर चला गया।

तो इसमें मेरी क्या भ्रान्ति है?

आचार्य: भ्रान्ति यह है, कि तुमने आनंद को, ‘प्रसन्नता’ समझ रखा है। भ्रान्ति यह है कि तुमने आध्यात्म को ‘ख़ुशी’ पाने का ज़रिया समझ रखा है। तुम सोचते हो कि आध्यात्म का फल होता है किसी प्रकार का ‘सुख’।

सुख तो उनके लिए है जिन्हें आध्यात्म से कोई लेना ही देना नहीं है। वो बहुत सुखी रहते हैं। वो सुख में खूब सुखी हो जाते हैं। और वो दुःख में खूब दुखी भी हो जाते हैं।

आध्यात्म तो उनके लिए है, जिन्हें कुछ ऐसा मिल गया है, जिसके उपरांत उन्हें सुखी होने की आवश्यकता नहीं महसूस होती और दुखी होने से डर नहीं लगता।

ये बड़ी पुरानी भूल है। बात सिर्फ़ तुम्हारी नहीं है। ये सभी करते हैं, आध्यात्मिकता को हम सुख का साधन समझ लेते हैं। हम कहते हैं कि, "हमें कुछ विशेष प्रकार के अनुभव हों जिसमें मन सुख पाए। इतना तो मिले न, आध्यात्मिक होने से। इतनी पूजा-अर्चना की, भजन-कीर्तन किया, साधना की, अब इतना तो मिले, कि मन ज़रा प्रफुल्लित रहे!" ना! अब ये बात तुम्हारे मन को भाए कि ना भाए, पर इतना समझ लो कि आध्यात्मिकता किसी प्रकार का सुख नहीं देने वाली तुमको। हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि तुम्हें तोड़ दे, और दुखी कर दे।

दुःख के लिए तैयार रहो। सुख की अपेक्षा मत कर लेना। सत्य ने कोई दायित्व नहीं ले रखा है तुम्हें सुख देने का, और सुख और आनंद में कोई रिश्ता नहीं।

सत्य में आनंद ज़रूर है। सुख नहीं।

आनंद तो दुःख में भी है। इस बात को समझ रहे हो?

दुनिया भर के साधक यहाँ पर आ कर फँस जाते हैं। वो कहते हैं, "कोई तो ऐसा अनुभव हो, जिससे ये प्रदर्शित हो, कि हम सही राह चल रहे हैं, कि आध्यात्मिक हो कर के हमने कोई ग़लती नहीं कर दी।" वो कहते हैं कि, "देखो उन संसारियों को, खूब सुख भोग रहे हैं। और हम संसार छोड़ कर के आध्यात्म में आए हैं, तो हम क्या हार ही गए लड़ाई?"

"तुम संसार में हो और सुख अर्जित कर रहे हो, हमने संसार छोड़ा है। हमें और बड़े सुख की चाहत थी", अब वो मिलता प्रतीत होता नहीं। वो मिलेगा भी नहीं! आध्यात्मिकता का सुख से कोई लेना देना नहीं!

आध्यात्मिकता का, किसी भी रुचिकर अनुभव से कुछ लेना देना नहीं!

जिन्हें अभी अनुभवों की तलाश हो, वो आध्यात्मिकता से दूर रहें!

वो पूरी तरह संसारी ही बने रहें! वहाँ खूब मिलेंगे अनुभव। सारे अनुभव संसार के ही होते हैं बेटा, सत्य का कोई अनुभव होता नहीं। हर अनुभव, एक तरह का आंतरिक विस्थापन है, आतंरिक कंपन है। आतंरिक मलिनता है। केंद्र पर नहीं हो तुम, हट गए, विस्थापित हो गए। ये है अनुभव। अनुभव की मांग, अशांति की मांग है।

अब तुम्हारे सामने दिक़्क़त ये आती है कि बाज़ार में बहुत दुकानें ऐसी हैं जो सत्य के अनुभव बेच रही हैं। वो तुमसे कहते हैं कि, "आइए, हम आपको कुछ ऐसी प्रतीति कराते हैं, कि आपको लगेगा कि बिलकुल पारलौकिक बात हो गई, सत्य के दर्शन हो गए।" तो तुम में भी ये भ्रम बैठ गया है कि उस पार का कोई अनुभव हो सकता है! नहीं होगा! ये अपेक्षा हटा दो, ये तुम्हें दुःख देगी बस।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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