प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। ऋषिकेश शिविर में आपने 'प्रायश्चित' शब्द बोला था। आपने बोला था कि प्रायश्चित करना चाहिए। तो आत्मप्रायश्चित कैसे करें, ये प्रक्रिया नहीं समझ आ रही। जैसे कि हम इस स्टेज़ (अवस्था) में हैं कि कोई डाँटने वाला तो है नहीं, आपने जो ग़लती कर दी तो कर दी; ज़िन्दगी आपको सिखाएगी। और सेल्फ़ डिसिप्लिन (आत्मानुशासन) जैसा कुछ करना चाहता हूँ और नहीं कर पा रहा, तो आत्मप्रायश्चित को कैसे मैं अपने ऊपर अप्लाई (लागू) करूँ? क्योंकि स्थिति ये है कि खुद से कोई डिसीजन (निर्णंय) हम बना भी रहे हैं, तो वो उतना पालन नहीं कर पाते हैं?
आचार्य प्रशांत: प्रायश्चित करने से पहले ये तो पता होना चाहिए न कि ग़लती क्या है। ग़लती पता हो, साफ़-साफ़ ग़लती की पूरी प्रक्रिया शुरू से अन्त तक दिखायी दे रही हो, तो ही उसको सुधारा जा सकता है। और अगर ये पता ही नहीं है कि हम ग़लत कहाँ पर हो गये, तो जिसको आप प्रायश्चित बोलोगे वो ग़लती को सुधारेगा नहीं, वो और एक ग़लती बन जाएगा न।
जब हमें चोट लगती है या जब हमारे किसी काम का अंजाम हमारी उम्मीद के अनुसार नहीं आता, तो हम बहुत जल्दी में होते हैं कुछ बदलने के लिए। क्योंकि चोट लगी है, हार हुई है, असफलता मिली है। जो हो रहा है उसका अनुभव अच्छा नहीं लग रहा, तो हम बदलना चाहते हैं जल्दी से, कुछ तो बदलो, कुछ तो बदलो। और बदलने की इस हड़बड़ाहट में, हम अक्सर जो सबसे सतही बदलाव होता है, वही कर देते हैं। उससे गहरे हम जाते नहीं, हड़बड़ी बहुत रहती है न।
अब देख रहे हो कि प्रायश्चित या बदलाव या सुधार भी कौन कर रहा है? वही जिसने ग़लती करी थी सबसे पहले। वो बदला ही नहीं। उसने ग़लती करी, ग़लती करी तो चोट लगी। वास्तव में उसे ज़्यादा मतलब ग़लती से है भी नहीं, उसे ज़्यादा मतलब चोट से है। वही ग़लती वो करता जिसमें उसको अंजाम बुरा नहीं मिलता, चोट या दुख नहीं मिलता, तो वो कभी कहता ही नहीं कि ग़लती हुई है।
तो हमें ग़लती से मतलब कम है, हमें जो चोट का अनुभव हुआ है या हार का अनुभव हुआ है, उसको हटाने से मतलब ज़्यादा है। क्योंकि हम कौन हैं? हम वही तो हैं जिसने ग़लती करी है। तो काम करने में भी ग़लती, और अंजाम पलटने की जब कोशिश करें तो उसमें भी ग़लती। आदमी तो हम वही हैं न।
तो अब कुछ करा, उसका नतीज़ा ग़लत आ गया, अब हड़बड़ी में उसको पलटने की कोशिश करने लगे, उसी को हम कई बार प्रायश्चित बोल देते हैं; बिना समझे कि जो हुआ, वो क्या था। मतलब ही नहीं है हमें इससे कि जो हुआ वो क्या था, मतलब हमें इससे है कि अंजाम बुरा क्यों आ गया। प्रक्रिया नहीं जानना चाहते हम, हमें बुरा सिर्फ़ परिणाम लगा है। और परिणाम को किसी भी तरह पलट देना है। और हम कई बार उसमें सफल भी हो जाते हैं। परिणाम या तो पलट दो, या अगर दुख का परिणाम आया है तो किसी तरीके से दुख के ऊपर सुख थोप दो और कह दो, 'नहीं, मैंने अपनी भूल का सुधार कर लिया।'
मूल ग़लती जानते हो क्या होती है? मूल ग़लती होती है ग़लती को न समझना। यही ग़लती है सिर्फ़। तो प्रायश्चित क्या है ये भी समझ गये होंगे आप।
जिसने ग़लती को ठीक से, गहराईं से समझ लिया, उसका प्रायश्चित हो गया। क्योंकि अब वो इंसान ही वो नहीं रह गया जिसने ग़लती करी थी। अब वो जो भी अगला काम करेगा, बिलकुल दूसरा इंसान दूसरा बन्दा बनकर करेगा। यही प्रायश्चित कहलाता है।
आप वही आदमी हो जो ग़लतियाँ कर रहा था, भूलें कर रहा था, और साथ में आप भूल सुधार भी करे जा रहे हो तो भूल भी भूल और भूल सुधार भी भूल। एक ही प्रायश्चित होता है, वो इंसान ही मत रह जाओ जो ग़लतियाँ करता चला आ रहा था। माने असली प्रायश्चित का सम्बन्ध ग़लती से कम और ग़लत इंसान से ज़्यादा होता है।
समझ में आ रही है बात?
एक ग़लती है जो पकड़ी गयी, क्योंकि उसका अंजाम बुरा आ गया, चोट लग गयी, दुख हो गया। लेकिन अगर आप बन्दे ही ग़लत हो, तो आप साथ ही दस और गलतियाँ भी कर रहे हो। अभी उनका खुला परिणाम सामने आया नहीं है, तो पता नहीं लग रहा कि गलतियाँ वहाँ भी हो रही हैं।
आपने दस काम करे और आप कर ही ग़लत जगह से रहे हैं, क्योंकि आप समझते ही नहीं हो कि आप कौन हो, क्या कर रहे हो, किसलिए कर रहे हो, कौनसी चीज़ आपके दिमाग पर चढ़कर आपसे काम करवा रही है। तो अपनी इस बेहोशी की हालत में आपने दस काम करे और उसमें से एक का अंजाम जल्दी सामने आ गया और अंजाम ठीक नहीं था, आपको कड़वा अनुभव हो गया। तो आप भूल सुधार करोगे भी तो अधिक-से-अधिक उस एक काम का करोगे। बाकी नौ की ओर आपका कोई ध्यान नहीं जाएगा क्योंकि उनका अंजाम अभी सामने आया नहीं है।
झूठे प्रायश्चित के साथ ये एक और ख़तरा है कि उसमें अगर तुम कुछ ठीक करते भी हो, तो वो चीज़ वही होती है जो टूट गयी होती है या जिसका टूटना साफ़ दिख गया होता है। दस में से नौ चीज़ें टूटी हुई होती हैं, पर पता नहीं चल रहा होता अभी कि वो टूटी हुई हैं। हम उनको मानते चलेंगें सफलता। हम कहेंगे, 'यहाँ कोई भूल नहीं हुईं, यहाँ कोई ग़लती नहीं है, यहाँ कोई सुधार नहीं चाहिए'। जबकि सुधार दस-की-दस चीज़ों में चाहिए।
हमको लगेगा बस एक चीज़ में चाहिए। उस एक चीज़ को ठीक करके हम सन्तुष्ट हो जाएँगे और फिर कुछ दिनों बाद पाएँगे कि वो जो बाकी नौ थी, उसमें से कोई एक चीज़ दुख देने के लिए सामने खड़ी हो गयी है। यही नहीं, वो जो पहली चीज़ थी, जो हमें लगा था कि हमने सुधार दी, वो भी सुधरी तो है नहीं, वो भी कुछ समय के बाद फिर से टूट-फूट कर सामने आ जाएगी।
समझ में आ रही है बात?
इसी को थोड़ा शास्त्रीय भाषा में कहते हैं कि कर्ता ही गड़बड़ है, तो कर्म ठीक कैसे हो जाएगा। और अगर एक भी कर्म ठीक करना है, तो कर्ता ठीक करना पड़ेगा। एक पेड़ कमज़ोर है, पेड़ जड़ से ही कमज़ोर है और उसमें पत्तियाँ सैंकड़ों हैं, पर क्या एक भी स्वस्थ पत्ती हो सकती है? बोलो? पेड़ अगर जड़ से ही कमज़ोर है, तो उसकी सारी ही पत्तियाँ बीमार होंगी न?
तो वो जो पेड़ की जड़ है, उसको बोलते हैं- कर्ता। और इन सब पत्तियों को बोलते हैं- कर्म। हम सारा ध्यान पत्तियों पर दे देते हैं, हम सारा ध्यान कुछ ख़ास कामों पर दे देते हैं और हम चाहते हैं वो काम बहुत बढ़िया हो जाएँ। होंगे तो सब काम बढ़िया होंगे, नहीं तो कोई काम बढ़िया नहीं होगा। कभी किसी हरे-लहलाते पेड़ को देखना, उसकी सारी ही पत्तियाँ एकदम स्वस्थ चमकदार होती हैं। सारी ही पत्तियाँ, एक दो नहीं। ऐसा बहुत मुश्किल होगा खोजना कि सब पत्तियाँ बेकार हैं, बीमार हैं, पीली हैं, गिर रहीं हैं और दो पत्तियाँ हैं जो अलग ही चमक रही हैं। ऐसा बड़ा मुश्किल है खोज पाना।
समझ रहे हो?
अपनी मूल भूल तक जाओ। वो तुमसे एक नहीं, सौ ग़लतियाँ कराती है। यही प्रायश्चित है। मूल भूल जानते हो क्या है? मूल भूल ये है कि हम अपने दिमाग को समझते नहीं हैं। मूल भूल ये है कि हमें पता ही नहीं होता कि हम जो कुछ कर रहे हैं, वो हम नहीं कर रहे, हमसे हवाएँ करवा रही हैं। कुछ हमारी शारीरिक वृत्तियाँ हैं, टेंडेंसीज़ और बाकी सामाजिक प्रभाव हैं, वो सब मिलकर के हमसे काम करवा रहे हैं। उन कामों में हम कहीं मौजू़द नहीं हैं, हम शामिल ही नहीं हैं। हम शामिल हैं बस एक चीज़ के लिए, दुख भोगने के लिए। उन कामों से हमें कुछ नहीं मिलना, बस उन कामों का जो बुरा अंजाम आना है, वो हमें भोगना है।
जैसे कि आप गुलाम हो किसी के और आपका मालिक आपको कहे कि जाना वहाँ चौराहे पर वो पहलवान खड़ा है, उसको पीटकर आ जाना। आप उस पहलवान को जानते ही नहीं, आपका उससे कोई सम्बन्ध ही नहीं, लेकिन आप तो गुलाम हो तो आप चल देते हो उस पहलवान को पीटने। मान लो आपने पीट लिया, आपको क्या मिला? कुछ नहीं। क्योंकि उस पहलवान से आपकी तो कोई दुश्मनी थी ही नहीं। लेकिन अगर पहलवान ने आपको पीट दिया तो जो दुख मिलेगा, वो आपको ही मिलेगा। ऐसी हमारी हालत है।
ज़िन्दगी भर हम जो करते रहते हैं, हमें पता ही नहीं होता कि वो हम नहीं कर रहे। यही ग़लती है, इसी का प्रायश्चित करना है। हम शरीर और स्थितियों के गुलाम हैं, यही मूल भूल है। हम खुद को जानने की कोशिश नहीं करते, हम अपनेआप को समझने में कोई समय नहीं लगाते, हम इस बात को कीमती ही नहीं समझते कि पता तो हो कि मेरे भीतर कौनसी ताकत है, कहाँ से आ रही है।
ताकत माने आपकी ताकत नहीं, वो ताकत जो आप पर राज कर रही है, वो ताकत जिसने आपको गुलाम बना रखा है। तो हम मज़े में गुलामी करते रहते हैं बिना जाँच पड़ताल के, यही मूल भूल है। जिसने इस बात को समझ लिया, उसका प्रायश्चित हो गया। ठीक है?
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