पुराने से पुराना नशा ऐसे छूटता है || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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पुराने से पुराना नशा ऐसे छूटता है || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता मेरे को पता है कि मैं नशा करता हूँ और वो एक सर्टेन टाइम (निश्चित समय) पर आता है। शाम हो जाती है तब मन उधर को पूरा खिंचा चला आता है। वो जो मज़ा देता है मैं उसको छोड़ भी नहीं पाता और मैं कहीं भी कोई भी ग़लत चीज़ देखता हूँ जैसे अब माँस खाना मैंने बंद कर दिया कब से। अगर नशे में होता हूँ तो उदंडता करता हूँ, नशा जब उतर जाता है सुबह तब भी वैसे ही करता हूँ। मेरे को लगता है कि जो नशा करता हूँ उससे मेरी जो यात्रा है उसमें बाधा आ रही है।

ऐसी छोटी-मोटी नौकरी करता हूँ। और मेरे को उसमें काफ़ी समय मिल जाता है कि मैं आपको सुनता हूँ और मैं चाहता हूँ कि कुछ अलग करूँ जैसे बाक़ी लोग करते हैं वैसा न करूँ।

आचार्य प्रशांत दिक्क़त ये है कि छोटा नशा कर रहे हो, बड़ा वाला चाहिए। ये जो छोटी-मोटी नौकरी कर रहे हो न, इसी के कारण छोटा-मोटा नशा भी करना पड़ रहा है। बड़े के नौकर बन जाओ और बड़ी नौकरी करना शुरू कर दो, उसमें बहुत बड़ा नशा है।

प्र: सर, ऐसा लगता है कि अकेले पड़ जाऊँगा।

आचार्य तो मत पड़ो फिर, फिर क्यों पूछ रहे हो?

प्र: सर, अकेले करने की कोशिश भी कर रहा हूँ। लेकिन पहले तो मुझे सुधरना पड़ेगा न।

आचार्य ये सब जितनी बातें तुम कर रहे हो न ये इसलिए कर रहे हो क्योंकि फ़िज़ूल वक़्त लेकर बैठे हुए हो। तुम्हारे इस पूरे कथन में जो जगह, जो चीज़ महत्वपूर्ण है, वो यह है कि मैं छोटी-मोटी नौकरी करता हूँ।‌

समस्या यह नहीं है कि वो छोटी-मोटी नौकरी है, समस्या यह है कि उसमें तुम्हें बहुत सारा समय मिल जा रहा है, जो तुमने कहा। उस ख़ाली समय में ही तुम यह सब प्रपंच कर रहे हो। तो ख़ाली समय तुम्हें क्यों मिल जा रहा है?

प्र: सर, ख़ाली समय इसलिए मिल जा रहा है क्योंकि मैं पहले से ही इस मामले में यह मानता हूँ कि ज़्यादा करके क्या करना है। उतना ज़्यादा कुछ करने की इच्छा नहीं है, कि बहुत बड़ी चीज़ें कुछ कर लें।

आचार्य फिर तो नशा करो।

प्र: सर, मतलब मैं उस हिसाब से बोल रहा हूँ पैसे कमाने के हिसाब से।

आचार्य और कौन कह रहा है कि काम पैसे कमाने के लिए ही करना है। मैं जिस बड़ी नौकरी की बात कर रहा हूँ, मैंने कहा क्या उसमें बड़ी तनख्वाह मिलेगी?

प्र: नहीं मिलेगी।

आचार्य: अरे! मैं किस बड़ी नौकरी की बात कर रहा हूँ?

प्र: जी सर, मैं समझ रहा हूँ, उनकी नौकरी की बात कर रहे हैं।

आचार्य: किनकी?

प्र: परमात्मा की।

आचार्य कैसे करोगे?

प्र: सर, वही तो मैं कह रहा हूँ, मैंने एक वाट्सएप ग्रुप बनाया।

आचार्य बहुत सस्ते में निपटाना चाहते हो न। इतना हल्का काम है, व्हाट्सएप ग्रुप से हो जाएगा?

प्र: सर, लेकिन अब मैं अपने लेवल (स्तर) पर तो वही ट्राई (कोशिश) कर रहा हूँ। मैं भी चाहता हूँ कि उससे कुछ आगे का करूँ।

आचार्य जब तुम समझ ही रहे हो कि तुम्हारा लेवल इतना ही है तो इतना ही रहेगा फिर।

प्र: तो मैं उसी को तो बढ़ाना चाहता हूँ, सर।

आचार्य कैसे बढ़ेगा तुम व्हाट्सएप ग्रुप में बैठे रहोगे तो?

प्र: मैं उससे आगे बढ़ना चाहता हूँ

आचार्य बढ़ो न जो मदद चाहिए इकट्ठा करो, माँगो लोगों से। आज के समय में कोई बोले उसके पास ख़ाली समय है तो कितनी बेईमानी की बात है। ख़ाली समय कैसे है भाई!

सबसे पहली बात तो तुम्हें जहाँ से नशा मिलता है उसी जगह को बंद कराओ। तुम कह रहे हो करने के लिए काम नहीं है। यही काम करो सबसे पहले जहाँ कहीं से भी नशा कर रहे हो, वहाँ से और लोग भी तो नशा कर रहे होंगे। बंद कराओ वो जगह।

प्र: सर, मैं यहाँ तक भी आया, मैं ओडिशा से आया हूँ तो यहाँ तक आने के लिए भी मैं तो अपना सौभाग्य मानता हूँ कि आपके सामने बैठा हूँ, बड़ी बात है मेरे लिए। अब वो भी..

आचार्य देखो, हर आदमी एक छोटी ज़िंदगी जी रहा है। ठीक है? और हम अगर छोटे ही बने रहेंगे तो छोटी ही ज़िंदगी जिएँगे। उसमें फिर शिक़ायत करने से कोई फ़ायदा नहीं है। और बड़ी ज़िंदगी कोई आपको सजाकर के तोहफ़े में नहीं दे देने वाला। जो बात मैंने थोड़ी देर पहले बोली उस पर वापस आता हूँ।

आप ऊँचाइयों के लिए या मुक्ति के लिए या सौंदर्य के लिए या प्रकाश के लिए, चमकने के लिए पैदा हुए ही नहीं हो। आप समझ क्यों नहीं रहे इस बात को? आज भी अगर आपके पास कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो आपको जानवरों से अलग बना रही है न, तो ख़ौफ़नाक सच्चाई ये है कि वो चीज़ें आपके पास आपकी वज़ह से नहीं हैं। वो चीज़ें भी आपको दूसरों ने दे दी हैं।

समझ में आ रही है बात?

प्रकृति ने तो यही चाहा था कि आपको पैदा कर दिया है और आप अब घूमोगे ऐसे जानवर की तरह। जो आप मोबाइल फोन लेकर घूम रहे हो मान लो आपका मोबाइल फोन तीस हजार रुपए का है, ठीक है? आप एक काम करो आप मोबाइल फोन दे दो मुझे, मैं आपको तीस हज़ार दे देता हूँ। अब इस तीस हज़ार का इस्तेमाल करके बना लो मोबाइल फोन। आपकी ज़िंदगी में वास्तव में उस मोबाइल फोन की क़ीमत तीस हज़ार की नहीं है, और आपको बहुत धोखा हो गया है जो आपको तीस हज़ार में मोबाइल फोन मिल गया है।

बहुत होशियार लोगों ने वो मोबाइल फोन बना दिया और आपको बहुत आसानी से दे दिया तो आप ज़िंदगी जी रहे हो, आपको लगता है कि देखो हम कुछ हैं।

हमारे पास बताइए ऐसा क्या है जो हमारा अपना हो? हम कहते हैं हम अपनेआप ज्ञान हासिल कर लेंगे, बोध हासिल कर लेंगे। आपको कोई समझाने वाला न होता, बताने वाला न होता, देने वाला न होता; आप अपने लिए एक शर्ट भी बना लेते, पूरी जिंदगी लगा कर, सौ साल लगा कर?

आप एक आदमी को छोड़ दीजिए जंगल में और मुझे बता दीजिए वो सौ साल लगा कर अपने लिए शर्ट भी बना लेगा क्या? एक शर्ट भी आपको दूसरों की मेहरबानी से मिल रही है। ये मत सोचिएगा कि वो शर्ट आपने हज़ार में ख़रीद ली है। नहीं-नहीं-नहीं, उस शर्ट की कीमत हज़ार रुपए नहीं है। प्रमाण यह है कि शर्ट वापस करिए, हज़ार रूपए लीजिए और बना लीजिए शर्ट; बना लेंगे क्या? बताइए!

ये मास्क आपने लगा रखा है, दस रुपए दे करके आपको मिल गया है। साहब, दस रुपया आपको देते हैं, आप मास्क ज़रा ख़ुद बना कर दिखाइए, बिना किसी का सहारा लिए और बिना किसी दूसरे की टेक्नोलॉजी या देन का उपयोग किए। बना लेंगे क्या?

हमारे पास जो छोटी-से-छोटी चीज़ भी है वो वास्तव में हमें दूसरों की देन है, एक तरह से दूसरों की अनुकंपा है। जो छोटी-से-छोटी सांसारिक चीज़ भी। तभी तो अगर चीज़ बड़ी भी होती है तो उसका इस्तेमाल हम घटिया ही कर रहे होते हैं। हाथ में हो सकता है आईफोन हो और उसका इस्तेमाल किया जा रहा है बद्तमिज़ियों के लिए, क्योंकि आपने वो आईफोन अपनी प्रतिभा से ख़ुद बनाया नहीं है। अगर आप वो व्यक्ति होते जिसने ख़ुद बनाया होता वो आईफोन, तो आपके मन का स्तर वैसा ही होता न कि आईफोन निर्मित करने वाला। लेकिन वो आईफोन आपको मिल गया और बहुत सस्ते में मिल गया है। हो सकता है एक लाख में ही मिल गया है, एक लाख उसकी क़ीमत नहीं है। आपको दस करोड़ दे दिए जाए आप तो भी न बना पाओगे वो आईफोन और दस जन्म दे दिए जाए तो भी न बना पाओगे वो आईफोन।

तो हमें ये सब जो चीज़ें मिल यी हैं न, उनसे हमको बड़ा गुमान हो गया है कि हम कुछ हैं। साहब, मैं तो गाड़ी में बैठ करके चलता हूँ। अब गाड़ी है सॉफिस्टिकेटेड (उच्च गुणवत्ता) और अंदर जो बंदा बैठा हुआ है वो एकदम ज़ाहिल है, जंगली है। कभी देखा है, बड़ी-बड़ी एसयूवी में कैसे-कैसे लोग घूम रहे होते हैं?

हम समझते ही नहीं हैं कि हमारी वास्तविक स्थिति क्या है। हम समझते ही नहीं हैं कि इंसान का जो बच्चा पैदा होता है यह न सिर्फ़ कमज़ोर है बल्कि ऐसा जाल रच दिया है प्रकृति ने इसके चारों ओर कि इसे कमज़ोर ही रहना है ज़िंदगी भर, जब तक कि या तो इस पर कोई विशेष अनुकंपा न हो जाए या ये कोई विशेष प्रयत्न न कर ले।

अब अनुकंपा दूसरों की जो होनी है वो तो हो रही है। ख़ासतौर पर विज्ञान के क्षेत्र में विज्ञान से जो कुछ भी मिल सकता है वो मिल ही रहा है। दवाएँ मिल रही हैं, सब मिल रहा है। लेकिन जो कुछ हमें करना है वो हम करने को राज़ी नहीं हो रहे हैं, वो विशेष प्रयत्न हम करने को राज़ी नहीं हो रहे हैं।

आदमी ज़बरदस्त कोशिश तब करता है जब उसे अपनी ख़राब हालत का पता चलता है। आज के युग की विडंबना यह है कि हमें यह बताया ही नहीं जाता कि हम कितनी ख़राब हालत में हैं। हमें बिलकुल चढ़ा कर रख दिया गया है कि "यू नो, यू आर समबडी" ("तुम्हें पता है, तुम कुछ तो हो")। यू आर समबडी, सीरियसली? (वास्तव में तुम कुछ हो?) जस्ट बिकाज यू आर कैरिंग ए फ़ोन (सिर्फ़ इसलिए कि तुम्हारे पास एक फ़ोन है)। ये तो देखो उस फ़ोन में बातें क्या कर रहा है। कहीं पर वो देख रहा है कि मेरा कल का भविष्य कैसा होगा, कहीं वो पोर्न देख रहा है, कहीं वो कुछ कर रहा है— ये इस्तेमाल कर रहा है वो फ़ोन का। और वो अपनेआप को समबडी समझ रहा है।

बहुत मेहनत की ज़रूरत है, भाई। हम बहुत कमज़ोर और ख़तरे की हालत में हैं। वो मेहनत आप करोगे नहीं, मेहनत के नाम पर बोल रहे हो मैंने वॉट्सएप ग्रुप बना दिया है; कैसे काम चलेगा?

और कोई नहीं आने वाला आपको बताने के लिए कि आप बहुत ही नाज़ुक हालत में हो, द पेशेंट इज सीरियस (रोगी की हालत बहुत गंभीर है), ये कोई नहीं बता रहा आपको। हर जगह आपको यही बताया जा रहा है कि "वाह साहब! क्या बात है, सुभानअल्ला! क्या तारीफ़ करूँ आपकी, बताइए।" क्या तारीफ़ करूँ! क्या तारीफ़ करूँ?

यहाँ इतने लोग बैठे हैं चश्मा लगा करके, हटा देते हैं तुम्हारा चश्मा, ख़ुद बना कर के दिखाना। हमको लगता है, 'नहीं, ठीक है, पाँच सौ, हज़ार, दो हज़ार में चश्मा बन गया, इतनी ही तो उसकी क़ीमत है।' नहीं, इतनी ही नहीं उसकी क़ीमत है।

कहीं चोट लगती है, आप जाते हो एक टिटनेस का इंजेक्शन लगवाते हो, पूरी प्रक्रिया में आपके सौ, दो सौ, पाँच सौ रुपए लगते हैं। आप ख़ुद बना लो वो वैक्सीन, बना कर दिखाओ। पर वो आसानी से मिल गयी, सौ रुपए में लग गया, जान बच गयी। नहीं तो टिटनेस का कोई उपचार नहीं होता, जबड़े ऐसे टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं, जब मरते हैं टिटनेस से। आदमी बहुत घटिया मौत मरता है टिटनेस से। और उस मौत को तुमने टाल दिया कुल कितना ख़र्च करके? सौ, दो सौ, पाँच सौ। तो हमें लगता है वी आर समबडी (हम कुछ हैं)। जो कुछ भी है हमारे पास वो इतिहास के कुछ ख़ास लोगों की देन है, चाहे वो दवाएँ हों, चाहे वो टेक्नोलॉजी हो, चाहे वो धर्म हो।

नहीं तो हम हैं क्या?

लेकिन हमारा अहंकार यह मानने को राज़ी नहीं होता, हम उनसे अपनी तुलना करना शुरू कर देते हैं। हम कहते हैं, "उसने कर लिया तो हम भी कर लेंगे।" शक्ल देखो, मुँह धोकर आओ। और ये मैं अपमान करने के लिए नहीं कह रहा, ये मैं आपको जागृत करने के लिए कह रहा हूँ। जिसको अपनी हक़ीक़त नहीं पता वो ज़िंदगी में तरक़्क़ी कैसे करेगा? बताओ, कर सकता है?

कुछ लोगों ने इलेक्ट्रॉनिक्स में कुछ इनवेंशन्स कर दिए, किसी ने आपको फ़ोन दे दिया, किसी ने आपको स्पेसक्राफ्ट दे दिया, किसी ने एंटीबायोटिक दे दिए। भाषा तक आपको किसी और ने दे दी, साहब। नहीं तो बोल न पाते, जानवर की तरह आऊं-आऊं-आऊं ऐसे कर रहे होते। और वी आर समबडी (हम कुछ हैं)।

लेकिन गुमान यही कि मैं कुछ हूँ। क्यों? वही, गाने चल रहे हैं गुच्ची-अरमानी। तो आई एम समबडी (मैं कुछ हूँ), तो मैं ख़रीद लेता हूँ न। ये तो इकोनॉमि ऑफ स्केल (पैमाने की अर्थव्यवस्था) है जिसकी वजह से तुम्हें इतने कम क़ीमत पर मिल गयी। इकॉनौमिक ऑफ स्केल क्यों है? क्योंकि कीड़े-मकोड़ों की तरह हमारी तादाद बढ़ गयी है। तो इतने लोग हैं कि चीज़ें सस्ती हो जाती हैं।

तो आसमान से नीचे आइए और शपथ लीजिए कि मैं अपनी स्थिति से वाक़िफ़ हूँ और मैं ज़रा भी लापरवाह नहीं होना चाहता। मैं बहुत-बहुत मेहनत करूँगा और भीतर बड़ा अनुग्रह होना चाहिए, ग्रेटफुलनेस।

जिन्होंने आपको धर्म दिया, जिन्होंने आपको क़िताबें दीं, जिन्होंने आपको साहित्य दिया, जिन्होंने आपको दवाएँ दीं, जिन्होंने आपको ये घर दिया, सड़कें दीं, सभ्यता दी, संस्कृति दी; दुनिया में आज तक कुल जितने लोग हुए हैं, उसका शून्य दशमलव शून्य शून्य एक प्रतिशत ही असली मानवता है। जिनको हम कह सकते हैं कि ये थे बंदे जो पैदा हुए और कुछ काम के ररहें। ऐसे लोग मुट्ठियों भर हैं और उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। और उन्हीं का दिया हुआ हम सब खा रहे हैं।

हम सब उन्हीं की विरासत पर ज़िंदा हैं, नहीं तो हम क्या हैं? कुछ हैं हम? आप देखिए, आप ऊपर से लेकर नीचे तक जो कुछ हैं और खोपड़े के अंदर भी जो कुछ है उसमें आपका अपना कुछ भी नहीं होगा। सब कुछ किन्हीं और ऊपर वाले लोगों की, महापुरुषों की कृपा से आ रहा है।

तो ख़ुद रहिए ज़रा ज़मीन पर, विनम्रता रहे और उनके प्रति अनुग्रह रहे। जब आपको पता होगा कि आप ज़मीन पर हैं और ये भी दिखाई देगा कि कुछ लोग हुए जो इतने ऊँचे हो गए। तो भीतर फिर एक भाव भी रहेगा कि मुझे भी तो उठना चाहिए न, क्योंकि दो बातें पता चल गई हैं— मैं नीचे हूँ, पहली बात; और कुछ लोग हैं जो बहुत-बहुत ऊपर हो पाए, यह दूसरी बात। तो ये जो अंतर होगा यह आपको ऊपर उठने के लिए प्रेरित करेगा। नहीं तो आप ऊपर नहीं उठ पाएँगे।

और यही वजह है कि जो आज का इंसान है, उसके ऊपर उठने के रास्ते बंद होते जा रहे हैं। उसके मन में यह भावना भरती ही जा रही है, बाज़ार भर रहा है, शिक्षा भर रही है उसमें यह भावना कि यू आर समबडी। तो जान लगानी पड़ती है, ख़ून बहाना पड़ता है।

प्र२ आचार्य जी, एक बाईस वर्षीय युवा विद्यार्थी हैं। उन्होंने पूछा है कि ऐसा क्यों है कि आज हमने वैज्ञानिक यानी कि साइंटिफिक, टेक्नोलॉजिकल प्रगति तो कर ली है पर फिर भी हम सब अंदर से जंगली और सेैवेज हैं?

आचार्य उसका उत्तर अभी-अभी दिया है, जो उनका सवाल था उसी में वह निहित है। देखो, वजह वही है कि एक आदमी ने चेतना की जो ऊँचाई हासिल करी उसका जो सुफल होता है उसका जो सुपरिणाम होता है वो पूरी मानवता को मिल जाता है।

एक आदमी ने किसी दवा को ईजाद करने के लिए जन्म भर अथक परिश्रम करा। ठीक? उसको क्या मिला? हो सकता है तुमने उसको सम्मान दे दिया हो, हो सकता है मरणोपरांत तुमने उसको नोबेल दे दिया हो। लेकिन उसने जो मेहनत करी उसका फल पीढ़ी-दर-पीढ़ी करोड़ों लोग भोग रहे हैं, कि नहीं? अब ये जो करोड़ों लोग फल भोग रहे हैं, इन्होंने कभी उस चेतना की ऊँचाई का अनुभव नहीं करा है जिससे वो फल निकला था। तो उन्हें मुफ़्त में मिल गया है।

तो तुम्हारे पास हो सकता है कोई बहुत एडवांस (उन्नत) चीज़ हो, लेकिन अंदर से तो तुम जंगली ही रह गए न, क्योंकि तुम ख़ुद उस प्रक्रिया से कभी गुज़रे नहीं जो उस उन्नत चीज़ का निर्माण करती है। समझ में आ रही है बात? जितनी भी साइंटिफिक इनवेंशंस हैं वो एक ख़ास चेतना से आयी हैं। लेकिन उनका प्रयोग करने वाले उस चेतना के आसपास भी नहीं हैं। उसी का नतीज़ा फिर यह भी होता है कि जो चीज़ें हमारे हाथ में आती हैं उनका दुरुपयोग ख़ूब होता है। समझ रहे हो? और कौनसी ऐसी चीज़ें हैं जो हमारे हाथ में दुरुपयुक्त नहीं हो रहीं, बताओ?

टेक्नोलॉजी आगे बढ़ती रहेगी, इंसान वही रहेगा— जंगल का जानवर। अब जंगल के जानवर के हाथ में तुम चीज़ें देते जाओगे, उन चीज़ों से उसमें कोई आंतरिक प्रगति थोड़ी हो जाएगी! निष्कर्ष साफ़ है। जितनी ज़्यादा चीज़ें तुम उस जानवर के हाथ में देते जा रहे हो जिसका नाम इंसान है, उतना ही ज़रूरी होता जा रहा है कि उस जानवर की आंतरिक प्रगति करते चलो, भाई।

पहले तो तुमने उस जानवर के हाथ में सिर्फ़ तलवार दी थी। तो तलवारों से क्या कर सकता था? तलवारों से उसने छोटे पेड़ काट दिए, टहनियाँ काट दीं। अब तुमने उस जानवर के हाथ में फिर तोप दी, तो उसने क्या करा? उस तोप से उसने बाक़ी जानवरों को मारना शुरू कर दिया, ये कर दिया वो, वो कर दिया।

अब तुमने उसके हाथ में न्यूक्लियर वेपन्स (नाभिकीय हथियार) दे दिए हैं, लौंग रेंज मिसाइल दे दी है। वो क्या करेगा जानवर? वो सब कुछ साफ़ कर देगा और वो सब कुछ साफ़ कर रहा है, क्योंकि उसके हाथ में जो चीज़ है वो ज़बरदस्त है, सोफिस्टिकेटेड है। और उस चीज़ को जो चलाने वाला है वो भुच्च है, लप्पड़ है, गँवार है। उसको वो चीज़ कभी मिलनी ही नहीं चाहिए थी, पर मिल गयी है। इतिहास का संयोग है कि ऐसे-ऐसे लोग जिनको आई बोलना नहीं आता उनके हाथ में आईफोन है। यह बहुत ख़तरनाक स्थिति होती है।

अब हम ये नहीं कर सकते कि बाहर जो प्रगति हो रही है उसको रोक दें। ठीक है? आज एक तरह का फ़ोन है, साल भर बाद उससे बेहतर ही आना है। तो जानवर के हाथ में अगर आज एक हथियार है तो पाँच साल बाद उससे ज़्यादा घातक हथियार आना ही है उसके हाथ में, क्योंकि बाहर की प्रगति तो होगी। विज्ञान की प्रगति न रोकी जा सकती है, न रोकी जानी चाहिए।

तो फिर करना क्या है?

तो फिर करना यह है कि आंतरिक प्रगति को उतनी ही तेज़ी से बढ़ाओ जितनी तेज़ी से बाहर प्रगति हो रही है। नहीं तो ये जानवर तुम जो भी उसके हाथ में दे रहे हो उसका इस्तेमाल ख़ुद को ख़त्म करने के लिए और सब कुछ ख़त्म करने के लिए करेगा। और कर रहा है न, देखा है हमने, रोज़ देख रहे हैं।

अध्यात्म जितना ज़रूरी आज है उतना ज़रूरी कभी भी नहीं था। क्योंकि आदमी के हाथ में विध्वंस की जितनी क्षमता आज है उतनी कभी भी नहीं थी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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