पुनर्जन्म तो होता है, पर आपका नहीं होगा || आचार्य प्रशांत कार्यशाला (2023)

Acharya Prashant

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पुनर्जन्म तो होता है, पर आपका नहीं होगा || आचार्य प्रशांत कार्यशाला (2023)

प्रश्नकर्ता: सर, जो पुनर्जन्म की बात की जाती है, क्या हम उसको समझ सकते हैं?

आचार्या प्रशांत: देखो, पुनर्जन्म तो ठीक है, लेकिन ज़रूरी है यह पूछना – पुनर्जन्म किसका? आवश्यक है कि आप समझें कि पुनर्जन्म है, लेकिन कोई पर्सनल सेल्फ (व्यक्तिगत स्व) नहीं होता है जिसका पुनर्जन्म हो सके।

पुनर्जन्म तो है, पर किसका है पुनर्जन्म? जो व्यक्तिगत सेल्फ है, जो पर्सनल सेल्फ है, उसका नहीं कोई पुनर्जन्म होगा। उसकी कोई अपनी यात्रा नहीं होती है। वो तो एक ही देह से सम्बन्धित होता है और जब वो देह गयी, तो वो भी गया। वो है ही नहीं। वो कहाँ से आएगा?

देखिए, पुनर्जन्म क्या है? आपके हर रेशे में एक लेटेंट कॉन्शियसनेस (अव्यक्त चेतना) बैठी हुई है। नहीं तो ऐसा नहीं हो पाता कि मिट्टी में जान आ जाती। कोई बाहर से जान फूँकने तो नहीं आया था न। गर्भ में शिशु होता है। हम यह कैसे पाते हैं कि तीसरे-चौथे महीने में उसमें चेतना आने लगी है। कहाँ से आने लग गयी? कहीं से नहीं आने लग गयी। वो जो उसका पिंड है, जो उसका कुछ ग्राम का छोटा सा माँस है, उसी से आने लग गयी। पहले से थी, कहीं बाहर से नहीं आने लग गयी।

तो माने मिट्टी में ही चेतना होती है। मिट्टी के एक-एक अणु में चेतना प्रसुप्त रूप में मौजूद होती है। और यह बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। श्री कृष्ण गीता में इसको एकदम स्पष्ट करके बोल देते हैं। वो कहते हैं, 'तुम बेकार ही इन दोनों को अलग समझते हो – जड़ और चेतन को'। जिसको तुम जड़ कह रहे हो चेतना उसी में छुपी रहती है। जड़ और चेतन एक हैं, दोनों प्राकृतिक हैं। बस एक को तुम कह सकते हो अपरा और एक परा है, लेकिन प्राकृतिक दोनों हैं। तो एक अपरा प्रकृति, एक परा प्रकृति, लेकिन दोनों प्राकृतिक हैं।

तो यह अणु है मेरी देह का, चेतना इसी में छुपी थी। गर्भ में अनुकूल स्थितियाँ बनती हैं बस, तो वो जो चेतना है वो प्रकट हो जाती है। पर वो चेतना अपनेआप में शरीर से भिन्न नहीं होती है। वो शरीर से ही तो उठी है। वो उन्हीं अणुओं की देन है। तो शरीर में कैसे प्रकट होती है? अणुओं में प्रकट क्यों नहीं रहती?

वो बात बस एक ऑर्गेनाइज़ेशन , आयोजन, व्यवस्था की है। ठीक वैसे जैसे 'ज्यों तिल माही तेल है ज्यों चकमक में आग।' होती तो है, पर क्या हमेशा प्रकट होती है? 'ज्यों बीज में वृक्ष है'। होता तो है, पर क्या हमेशा प्रकट होता है? उसे प्रकट होने के लिए क्या चाहिए? अनुकूल…?

श्रोता: पस्थितियाँ।

आचार्य: तो माँ के गर्भ में इन सब अणुओं को अनुकूल स्थिति मिलती है, जिसमें उनकी सोयी हुई चेतना जाग्रत हो जाती है। और जब वो बच्चा पैदा हो जाता है, जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे उसे ये प्राकृतिक स्थितियाँ भी अनुकूल ही लगती हैं। यह अनुकूल न हों तो भी नहीं हो सकता। तापमान अस्सी डिग्री रहे, कौनसा बच्चा बड़ा होने वाला है? गुरुत्वाकर्षण जितना है इसका छ: गुना रहे, कौनसा बच्चा बड़ा होने वाला है? ठीक है न?

तो जैसे गर्भ बड़ा करता है बच्चे को, वैसे ही आप यह जो पूरा प्राकृतिक जीवन है इसको भी एक गर्भ ही मानिए, जिसमें वो बच्चा और बड़ा होता जाता है। वो जो उसकी चेतना थी, लेकिन वो थी किसकी? जो उसमें चेतना है, वो किसकी है? वो वहीं सब अणुओं की है।

तो मृत्यु में क्या हो रहा है? मृत्यु में बस यह हो रहा है कि जो ऑर्गेनाइज़ेशन था वो बिखर गया। और एक-एक अणु को उसकी चेतना वापस लौट गयी—कहीं चली नहीं गयी। कहीं चली नहीं गयी!

मोमबत्ती जल रही है, दीया जल रहा है, लौ दिख रही है? दिख रही है? फूँक मारी, लौ कहाँ गयी? लौ कहाँ गयी? उड़ गयी? अब वो किसी और दिये में जाकर बैठेगी? वो लौ कहाँ गयी? वो बाती में वापस लौट गयी है, भाई। दोबारा अनुकूल स्थिति दोगे, वो दोबारा प्रकट हो जाएगी। और बाती में और तेल में लौ की सम्भावना हमेशा रहती है। स्थितियाँ अनुकूल नहीं मिलती तो वो प्रकट नहीं होती। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई लौ किसी बाती की व्यक्तिगत सम्पत्ति है। वो जो एक लौ थी, उसको आप एक व्यक्ति मानकर यह नहीं कह सकते कि इस व्यक्ति का पुनर्जन्म होगा।

तो पुनर्जन्म होता है, पर व्यक्तिगत पुनर्जन्म नहीं होता। यह अंतर समझना बहुत ज़रूरी है। रीइंकार्नेशन विदाउट द पर्सनल सेल्फ़ (व्यक्तिगत स्व के बिना पुनर्जन्म)। रीइंकार्नेशन होता है, पर किसका होता है? अहम् वृत्ति का होता है। उसको मैं ऐसे भी कह देता हूँ कि प्रकृति को तुम अगर एक समुद्र मानो तो समुद्र लहरें लेता रहता है, लहरों का पुनर्जन्म हो रहा है, पर जो एक विशिष्ट लहर है, वो एक बार उठकर गिरी तो दोबारा लौट कर नहीं आती।

लेकिन लहर बनने की संभावना और—चाहत भी कह लो—चाहत, समुद्र की एक-एक बूँद में है। समुद्र की एक-एक बूँद कभी-न-कभी लहर बनती है, फिर गिरती है, फिर लहर बनती है—यह पुनर्जन्म है। लेकिन आप यह नहीं कह पाओगे, फ़लानी लहर है, उसका नाम था मोती, और वही लहर गिरी, और फिर वो छ: साल बाद कहीं और पैदा हो गयी है धोती नाम से। ऐसे नहीं होता।

चूँकि हम आत्मज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, तो इसीलिए पुनर्जन्म की भी जो बात है वो हमने विकृत कर डाली। हम ऐसे ही करते हैं पुनर्जन्म की बात की अटलांटिक ओशन (अटलांटिक महासागर) में एक था मोती और मोती की हो गयी मौत—लहर उठी गिर गयी—और उसके चालीस साल बाद प्रशांत महासागर में उठा धोती। ऐसे ही तो होता है पुनर्जन्म न? कि फलना मरा था और इतने साल बाद कहीं और पैदा हो गया। ऐसे नहीं होता। ऐसे नहीं होता।

पुनर्जन्म तो है ही है, क्योंकि प्रकृति का अर्थ ही है पुनर्चक्रण। पुनर्चक्रण ही पुनर्जन्म है। वहाँ तो साइकल (चक्र) ही तो चल रहा है, वही तो पुनर्जन्म है। तो पुनर्जन्म तो निश्चित रूप से है। आपका नहीं है। आपका होता तो संत बार-बार नहीं बोलते कि यह जो जन्म मिला है, इसकी कीमत कर लो, समय मत खराब करो! संत तो फिर बोलते न समय की कोई कमी ही नहीं हैं। फिर काहे को कहते, 'काल करे सो आज कर।' अगर पुनर्जन्म है, तो काल करे आज कर क्या? कुछ नहीं, अगले जन्म कर।

तो हमनें जो पुनर्जन्म के सिद्धांत में विकृति करी है, उसकी वजह है हमारा अज्ञान और मौत का डर। और कुछ हद तक उसमें यह भी है कि पुनर्जन्म की बात कर लो, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क का डर दिखा दो, तो आम आदमी ज़रा तमीज़ में रहता है। कि बहुत लालच कर रहा है, चींटी बनेगा। ‘दूसरे का चुराकर खा रहा है, कौआ बनेगा। बकवास बहुत करता है, कुत्ता बनकर भौंकेगा। तो आदमी डरा हुआ रहता है।

और समाज मे ज़्यादातर लोग अज्ञानी ही होते हैं, तो उनको नैतिक राह पर चलने के लिए लोगों को लगा डराना ज़रूरी है। तो लोगों को डराने के लिए पुनर्जन्म की व्यवस्था बिलकुल ठीक थी। कुछ उल्टा-पुल्टा कर रहा हो उसको बोल दो, पुनर्जन्म।

इसी तरीक़े से जिनको धोखे में रखना हो, उनके लिए भी पुनर्जन्म की व्यवस्था ठीक थी। अब वेदान्त तो आपको बोलता है, 'अपने कष्ट का कारण सिर्फ़ आप हो और कोई नहीं हो सकता आपके कष्ट का कारण।' लेकिन इस बात को स्वीकार करने का कलेजा सब में नहीं होता। कि आदमी माने कि अगर मैं दुखी हूँ, तो मेरा दुख मैं स्वयं हूँ। तो बहुत दुखी घूम रहें हैं, दुखी घूम रहें हैं, उनको फिर बोल दिया जाता था, 'तुम दुखी इसलिए हो क्योंकि पिछले जन्म में तुमने ऋषि को पत्थर मार दिया था।' तो कहता है, 'चलो ठीक है, मेरी ग़लती नहीं है, पिछले जन्म में कुछ हुआ था। ठीक है।'

या तुम्हें किसी को सता के रखना है, परेशान करके रखना है, वो पूछ रहा है ‘मेरे साथ अन्याय क्यों हो रहा है?’ तो तुमने उसे बोल दिया, 'नहीं तेरे साथ अन्याय नहीं हो रहा है। तूने पिछले जन्म में मुझसे पैसे लिए थे, तू उसका भुगतान कर रहा है। मैं तुझे लूट नहीं रहा, मैं बस हिसाब बराबर कर रहा हूँ। मैं अभी तुझसे जो पैसे ले रहा हूँ, वो वास्तव में वो पैसे हैं जो तूने मुझसे लिए थे पिछले किसी जन्म मे। और उसको ब्याज समेत अब मैं वापिस ले रहा हूँ, तो मैं अन्याय थोड़े न कर रहा हूँ।' तो इस तरह की चक्करघिन्नी चलाने के लिए हमने पुनर्जन्म की पूरी बात को ही विकृत कर डाला।

समझ में आ रही है बात?

पुनर्जन्म क्या है? आप जो अंदरूनी तौर पर लगातार कुछ और, कुछ और होकर भटक रहे हो, वही पुनर्जन्म है। अहम् की जो बदनीयती है, वो कभी उसे एक मुखौटा पहनती है, कभी दूसरा। इसको वो बोल देता है, 'मैं पुनर्जन्म ले रहा हूँ।' वो पुनर्जन्म नहीं है वास्तव में उसका। पुनर्जन्म शब्द मे भी अगर आप गहरायी से जाएँगें, तो काहे का जन्म? तुमने जो पिछली अपनी पारी में ग़लतियाँ करी थीं, वहीं ग़लतियाँ तुम इस पारी में भी कर रहे हो, तो पुनर्जन्म हुआ कहाँ? नया जन्म तो तब माने न जब एक ताज़ी शुरुआत हो। ताज़ी शुरुआत तो कभी करते नहीं, तो पुनर्जन्म थोड़े ही है, पुनर्चक्रण मात्र है। रिसाइक्लिंग है। रिबर्थ तो नहीं दिख रही।

रिबर्थ का मौक़ा सिर्फ़ तब है, वास्तविक पुनर्जन्म तब है, जब यह ’आइ’ (‘मैं’) का साइकल ही ख़त्म हो जाये। तब उसको आप कहेंगें यह पुनर्जन्म हुआ। उसके लिए ज़्यादा सटीक शब्द है कि अब जन्म हुआ। उसको आप दोनों तरह से कह सकते हो। आप यह भी कह सकते हो, जन्म-मृत्यु के पार निकल ग‌ये, या ऐसे भी कह सकते हो कि अब पहली बार जन्म लिया है।

अभी तक तो क्या था? 'साधो रे मुर्दों का गाँव'। जब मुर्दों का गाँव हैं तो पुनर्जन्म कहाँ हो रहा है बाबा? जब गाँव ही मुर्दों का है तो जन्म कहाँ? सब मुर्दे ही हैं, तो जन्म कहाँ है? तो जब बोध होता है, तब पहली बार जन्म होता है।

देखिए, परम्परायें हमारी कहीं-न-कहीं ठीक-ठाक ही रहीं हैं। हमने उनको एकदम तोड़ दिया। अभी हम बात कर रहे थे कि पुनर्जन्म के सिद्धांत को हमने कैसे बर्बाद करा। वैसे ही हम जब अभी पहली बार जन्म लेने की बात कर रहें हैं, तो मुझे यज्ञोपवीत संस्कार याद आ रहा है, उपनयन। आपको मालूम है उसमें क्या होता है?

वो अपने तरीक़े से बड़ी बाढ़िया चीज़ है, पर अब उसका कोई अर्थ बचा नहीं है। लेकिन मूल में वो बात ठीक ही है। वो तीन धागे आपको बायें कंधे के ऊपर पहनाये जाते हैं, और वो आपको यह बताने के लिए होते हैं कि तीन तरह की चीज़ों से तुम्हें मुक्ति चाहिए। वो एक रिमाइंडिंग मैकेनिज़्म (याद दिलाने वाला यंत्र) की तरह होता है। द्विज बनने के लिए कहते हैं ज़रूरी है कि पहले यज्ञोपवीत धारण करो। द्विज माने जन्म लेने के लिए। उसको कहते हैं जिसका दूसरा जन्म हुआ उसको द्विज कहतें हैं, दूसरा नहीं, वो पहला ही जन्म होता है। उससे पहले तो मुर्दा हो।

तो ये तीन तरह के बन्धन है। सत, रज, तम कह देतें हैं कि तीन बन्धन हैं या कह देतें हैं कि सबसे पहले देह का ऋण होता है– पितृ ऋण। और उसके बाद फिर गुरु का ऋण होता है– ऋषि ऋण। और उसके बाद प्रकृति का ऋण होता है, उसको देव ऋण बोलते हैं। तो ये तीन आपके कंधे पर लदे हुए हैं। उसको ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी बोल देते हैं।

तो कहते हैं, 'यह धारण करो, ताकि तुम्हें याद रहे तुम्हें जन्म लेना है बाबा।' तुम पैदा नहीं हुए हो, मुर्दों का गाँव है यह। ये मुर्दों का गाँव है। और तुम्हें हर समय याद रखना चाहिए तुम्हें पैदा होना है। तो जो पैदा नहीं हुए उनका पुनर्जन्म होता रहता है। (मुस्कुराकर) जिनका कभी जन्म ही नहीं हुआ, उन सब-के-सब का पुनर्जन्म होता रहता है। और जन्म तभी है जब पुनर्जन्म के चक्र से बाहर आ जाओ।

यह बात बहुत घुमावदार हो गयी क्या? फँस गयी? स्पष्ट हो रही है? एक मरी हुई चीज़, एक डेड ऑब्जेक्ट (मृत वस्तु) पुनर्चक्रण को आप रिसायकल (प्रयोग की गयी वस्तु का पुनः प्रयोग करना/पुनर्चक्रण) कर रहे हो बार-बार, इसको हम बोलें क्या पुनर्जन्म? तो पुनर्जन्म वास्तव में तब है जब आप द्विज हो जाओ।

समझ में आ रही है बात?

हम एकदम मैकेनिकल (यांत्रिक) लोग होतें हैं। एक भीतरी व्यवस्था है जिसको आप त्रिगुणात्मक बोल लीजिए, वो हर तरीक़े से हमको नचाती है। वो व्यवस्था-ही-व्यवस्था है, हम नहीं हैं कहीं। मात्र वो व्यवस्था है, हम नहीं हैं कहीं। इतनी हमारी ख़राब हालत है। नींद लगी तो?

श्रोता: सो गये।

आचार्य: भूख लगी तो?

श्रोता: खा लिया।

आचार्य: भीतर से और कोई रासायनिक क्रिया हुई तो उसके हिसाब से काम कर लिया। किसी ने आकर दस बातें सुना दी जब छोटे थे, जीवनभर उन्हीं बातों पर यक़ीन किया – ऐसा हमारा कार्यक्रम है, और इसीलिए यह मुर्दा कार्यक्रम है। कोई पूछे पुनर्जन्म होता है क्या? काहे, पहला जन्म हुआ तेरा? कह रहा है, 'अगला जन्म कब होगा?' तू अभी तो पैदा हो ले, मुर्दे! अभी पैदा हुआ नहीं और पूछ रहा है अगला जन्म कब होगा। अगला कैसे होगा जब यही वाला नहीं हुआ।

नहीं समझ में आ रही बात?

महाराज, अगला जन्म? 'बेटा, यह वाला? इसकी बात कौन करेगा? अभी तो तू पैदा हुआ नहीं, आगे कैसे पैदा हो जाएगा। अभी तू मुर्दा घूम रहा है और तुझे अगला जन्म चाहिए।' यह हमारा हाल है। तो ज्ञानी लोग इन सब चक्करों में नहीं पड़ते – स्वर्ग-नर्क। मोक्ष या मुक्ति का मतलब स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होता। उसका अर्थ होता है इन सब बचकानी बातों से ऊपर उठ जाना। वो यह नहीं पूछते मरने के बाद क्या होगा। वो कहते हैं, 'यह जो अभी इतनी हालत ख़राब है, यह ठीक कर लूँ पहले।'

आपसे जब कभी कोई बात करेगा पुनर्जन्म की, आपको अपने भीतर से कुछ विश्वास उठा है कि आप बात समझ गये हैं? नहीं, तो यही होगा कि यहाँ बैठकर के सिर हिला दिया और बाहर जाकर फिर फँसेंगे। जो मूल अहम् वृत्ति है, आइ ज़ीरो (स्क्रीन पर बने डायग्राम पर), वो अलग-अलग रूप ले रही है। तो अगर आप आइ टेन पर पहुँचे हो तो वो आइ टेन कहाँ से आया है? वो आइ ज़ीरो से आया है। कहाँ से नहीं आया है? आइ नाइन से नहीं आ रहा है। आइ टेन में आइ नाइन जैसा…?

वो तो अहम् वृत्ति है, लहराने की उसकी अदा है। उसी को तो टेंडेंसी बोलते हैं न। टेंडेंसी , वृत्ति। तो वो ये बनती है, कभी वो बनती, ये बनती है, वो बनती है।

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी। एक दिन तो है सोवना, लंबे पाँव पसारी।। ~ कबीर साहब

वो बार-बार तुम से कह रहे हैं कि बेटा जग, अभी काहे को सोता है। सोने के ख़िलाफ़ इतना बोला है संतों ने, इतना बोला है। तुम्हारे पास अगर अनंत समय होता, तो वो सोने के ख़िलाफ़ बोलते? वो तो कहते और सो ले तू। वो तो बार-बार बोलते रहते हैं, 'कबीर सोया क्या करे जागे न जपे मुरारी।' उठ और कृष्ण को जप। उठो-उठो, सोने का समय नहीं है। दोनों तरह की नींद। (आँखों की ओर इशारा करते हुए) यह वाली नींद भी और (सिर की ओर इशारा करते हुए) यह वाली नींद भी। दोनों ही नींदों के लिए तुम्हारे पास समय नहीं है ।

नींद दो तरह की होती हैं, समझ रहे हो न? (हाथों से आँखों को ढकते हुए) एक तो यह कि आठ घंटे की नींद, यह वाली नींद। और एक यह है कि आँख खुली भी हुई है…। तो संतों ने दोनो तरह की नींदों के विरूद्ध आगाह करा है। कह रहे हैं, 'नहीं है समय।'

आया था किस काम को, सोया चादर तान। सूरत सम्भाल रे ग़ाफ़िल, अपना आप पहचान।

~ कबीर साहब

तुम क्या करने आये थे? आया था माने? समझो की पैदा काहे को हुए थे। पैदा हुए थे ताकि पूर्ण जागृति मिल सके। और कर क्या रहे हो? (चादर ओढ़ने का अभिनय करते हुए) 'सोया चादर तान'।

(आँखें हाथों से ढकते हुए) और यह वाली नींद बहुत ख़तरनाक नहीं होती, क्योंकि कोई कोशिश भी कर ले तो दस घंटे से ज़्यादा कैसे सोएगा। ज़्यादा ख़तरनाक कौनसी नींद होती है? (सिर की ओर इशारा करते हुए) यह चौबीस घंटे सुला देती है। यह चौबीस घंटे, तीन सौ पैंसठ दिन, अस्सी साल तक सुला सकती है। सोचो, एक बच्चा पैदा हुआ, वो सोता-सोता पैदा हुआ, वो अस्सी साल जिया, सोते-सोते अस्सी साल जिया, मर गया। कैसी लगी अपनी आत्मकथा? कैसा लगा?

हाँ, सपने उसने भरपूर लिए। अपने सपनों में वो जगा हुआ है। सपने में उसने सब कुछ करा। सपने में वो बड़ा हो गया, सपने में उसने नौकरी कर ली, व्यापार कर लिया, शादी कर ली, बच्चे कर लिये, प्रतिष्ठा कर ली, सपने में उसने बहुत कुछ कर लिया, पर वो कभी जगा ही नहीं। गर्भ से पैदा हुआ सो रहा था, मस्त खर्राटे मार रहा था। पैदा होकर रोते हैं, वो रोया भी नहीं, उसने खर्राटा मारा। डॉक्टर ने कहा ज़िन्दा है, खर्राटा मार रहा है।

अस्सी साल सोया। और सपने में? सपने में वो बहुत कुछ हो गया। सौ करोड़ का उसका बैंक बैलेंस खड़ा हो गया, कुछ उसने दुश्मन बना लिए, कुछ दोस्त बना लिए, जितने दुनियाभर के धंधे हो सकते थे, सब उसने कर लिये, कहाँ? सपने में। यह है हमारी आत्मकथा। अब क्या करना है?

आचार्य जी का अनुमोदन पाकर स्वयंसेवक कबीर साहब के दोहे भजते हैं।

कबीर सुता क्या करे, जागे ना जाप मुरारी। एक दिन तो है सोवना, लंबे पाँव पसारी।। आया था किसी काम को, सोया चादर तान। सूरत संभाल गाफ़िला, अपना आप पहचान।। नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग। और रसायन छाड़ कर, राम रसायन लाग।। काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होएगी, बहुरी करेगा कब।।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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