प्रश्नकर्ता: यह सारे शास्त्रीय प्रश्नों के बारे में जानना ज़रूरी है क्या? और अगर ज़रूरी है, तो जानना मुश्क़िल है क्या?
आचार्य प्रशांत: कोई कठिन मॉडल (नमूना) नहीं है। उनमें ऐसी कोई जटिलता नहीं है कि तुम्हारे पल्ले ना पड़े। ज़िन्दगी को जितना समझते जाओगे न, ये सारी बातें, कि ‘मैं कौन हूँ’, ‘ तत्व क्या हैं?’, ‘ये सारे कोश क्या होते हैं?’, ‘ये तुरीय क्या है?’, ‘ये तीन अवस्थाएँ क्या होती हैं?’; वही सारे जो सब शास्त्रीय प्रश्न हैं! ‘अगला जन्म क्या है?’, ‘पिछला जन्म क्या है?’, ‘मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, ये सब क्या होते हैं?’, ये सारी बातें अपने आप खुलती जाएँगी, इन में कोई जटिलता नहीं है।
लेकिन तुम इन पर सीधे मत जाओ, वो किताबी ज्ञान हो जाएगा। किताबी ज्ञान बहुतों के पास होता है। बहुत किताबों में लिखा हुआ है, लेकिन वो किताबी ज्ञान काम किसी के नहीं आता। ठीक है? वो बिलकुल काम का नहीं होता, मन का बोझ और बनता है।
तुम जीवन के क़रीब रहो, जिस प्रक्रिया से गुज़र रहे हो, उसके क़रीब रहो।
किसी दिन मन करे उन सब बातों में उतरने का, सिर्फ़ यूँ ही; ये नहीं कि उससे कुछ जान जाओगे, सीख जाओगे, उससे कुछ लाभ हो जाना है, ऐसे ही बस। किसी दिन मन करे, तो पढ़ लेना कोई किताब, या देख लेना कोई वीडियो, जिसमें आत्मा के विषय में कुछ बोला हो। पर उसको ऐसे मत देखना कि कोई बहुत हीरा-मोती है जो छूटा जाता है, और उसको तुम इक्कट्ठा करने आए हो। अगर यूँ ही सुनोगे तो तुम पाओगे कि जो मैं कुछ वहाँ बोल रहा हूँ वो कुछ ख़ास नहीं है, वो बहुत ज़ाहिर सी बात है, बहुत प्रकट सी बात है।
शास्त्र बिलकुल ये नहीं चाहते हैं कि वो तुमको परेशान करें। हाँ, इतना ज़रूर है कि उनका समय और था, उनकी भाषा और सन्दर्भ दूसरे थे। अब जब तुम उनको देखते हो तो, बातें थोड़ी जटिल लगती हैं।
और अगर तुम व्याख्याकारों, और ये जो टीकाकार होते हैं ना - कमेंट्रेटर्स - तुम इनकी जब पढ़ते हो, तो बातें जटिल लगती हैं। नहीं तो शास्त्र कुछ नहीं हैं, बच्चों जैसे सरल हैं वो। बिलकुल बच्चों जैसे सरल हैं।
प्र: तुरीय अवस्था कौन सी होती है?
आचार्य: जो तीन मंज़िलें हैं, जो तीन अवस्थाएँ हैं मन की, वो सब पहली मंज़िल हैं। ‘जागृत’, ‘स्वप्न’, ‘सुषुप्ति’ – ये जो तीन अवस्थाएँ होती हैं, ये पहली मंज़िल हैं। इन तीनों ही में, कम या ज़्यादा बेचैनी मौजूद रहती है। और वो अवस्था जहाँ शान्ति है, मौन है, वो ‘तुरीय’ है; उसको जान लो, वो दूसरी मंज़िल है जिसकी हमने बार-बार बात करी। तो इतनी सी बात है, अब बताओ इसमें क्या जटिल है?
प्र: ‘पुनर्जन्म’ क्या है?
आचार्य:
मन की हालत का बनना-बिगड़ना ही पुनर्जन्म है।
तुम अभी जो हो, अभी से थोड़ी देर पहले नहीं थे। इसी को मान लो कि तुम्हारा नया जन्म हो गया। घटना वही है, जो प्रतिपल घट रही है। उसका जो परिमाण है, वो ज़्यादा है। लगातार तुम थोड़ा-थोड़ा मर रहे हो, उस वक़्त थोड़ा ज़्यादा मर जाते हो। पर घटना, मूलतः है उसी गुणवत्ता की, जिस गुणवत्ता की वो प्रतिपल घट रही है। शरीर, मर लगातार ही रहा है। तुम्हारी कोशिकाएँ लगातार मर ही रही हैं। समझ रहे हो? तुम्हारा हाथ, जो अभी है, वो दो दिन पहले नहीं था। शरीर मर लगातार ही रहा है, लेकिन आँखों की पकड़ में नहीं आता वो बदलाव! जिसको हम मृत्यु कहते हैं, जो सत्तर-अस्सी की उम्र में घटती है; उस समय साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है, स्थूल है। तो पकड़ में आ जाता है, कि "अच्छा… अच्छा… अच्छा… अच्छा, मर ही गया! मर ही गया।"
देखो, शरीर किसी भी और ‘चीज़’ की तरह है। शब्द पकड़ना – ‘चीज़’। है न? एक रेडिओएक्टिव (रेडियो धर्मी) पदार्थ भी होता है, तो उसकी हाफ-लाइफ़ होती है कि नहीं होती है? शरीर की भी ऐसे ही होती है, फ़ुल-लाइफ़ * । तो वो तो अपनी पूरी * लाइफ़-साइकिल से हो कर के, वहीं को पहुँचेगा जहाँ उसे पहुँचना है, नष्ट हो जाना है।
जो अहंकार होता है, जो ‘आई सेंस' ('मैं' का भाव) होती है, वो शरीर से जुड़ी हुई हो भी सकती है, नहीं जुड़ी हुई भी हो सकती।
जो ‘आई * ’ सेंस होती है न, वो वो चीज़ होती है जो कहीं भी, किसी से भी जाकर जुड़ जाती है। और जिससे जुड़ जाती है, उससे अलग कुछ नहीं रहती।
वास्तव में जब तक वो जुड़ी हुई है, तभी तक उसकी हस्ती है, अलग हो कर तो वो रह ही नहीं पाती। जैसे ‘रसायनशास्त्र’ में ‘*फ्री-रेडिकल्स*’ (मुक्त कण) होते हैं, अलग हो कर नहीं रह सकते। उन्हें किसी-न-किसी से जुड़ना है। और जिससे जुड़ गए, वही हो गए। ‘*फ्री-रेडिकल*’ का तो फिर भी है, कि अगर जुड़ेगा, तो भी अपनी हस्ती बचा कर रखता है। समझ रहे हो? अपनी हस्ती फिर भी वो बचा कर ही रखेगा। अहंकार ऐसा है कि जिससे जुड़ गया, वही हो जाता है। उसके अलावा वो कुछ नहीं है। तुम शरीर से जुड़े हुए हो, उस वक़्त तुम शरीर हो। तुम शरीर ही हो। शरीर से हट कर, एक प्रतिशत भी कुछ नहीं हो।
तो अहंकार, ये जो शरीर है न, इससे जुड़ा होता है। ये जो अहम् वृत्ति है न, ये चुन-चुन कर उन चीज़ों से जुड़ती है, जो चीज़ें इसको प्रॉमिसिंग (भरोसेवाली) लगती हैं। जो चीज़ें इसको ये भरोसा देती हैं कि यहाँ से कुछ मिल जाना है। अब शरीर से, इसको बहुत कुछ मिलने की सम्भावना दिखती है। इसे लगता है, शरीर है, मष्तिष्क है, बुद्धि वगैरह है, ये ज़रूर परमात्मा को हासिल कर लेगा। तो वो आ कर के इससे चिपक जाता है।
अहंकार को चाहिए शांति, और शांति का माध्यम वो बनाता है, शरीर को।
शरीर को ही बनाए, ये कोई ज़रूरी नहीं है। किसी भी चीज़ को बना सकता है। कभी-कभी तुम पाते हो, शरीर को बिलकुल भूल गए हो, किसी और से जुड़ गए हो। ऐसा होता है कि नहीं होता है?
और इसलिए तुम पाते हो कि जो लोग प्रतिष्ठा के, इज़्ज़त के, बड़े भूखे होते हैं - कोई लड़ाई करने गया है, और उसको बता दिया जाए कि अगर शहीद हो गए तो बड़ा सम्मान मिलेगा - तो ऐसे लोग हैं, जो सम्मान के ख़ातिर, शरीर की क़ुर्बानी चढ़ा देंगे, मर जाएँगे। अहंकार शरीर से ही जुड़ा हो, ज़रूरी नहीं है। कई बार वो किसी ऐसी चीज़ से भी जुड़ा हो सकता है, जिसकी ख़ातिर वो शरीर को भी छोड़ दे।
तो किसी-न-किसी चीज़ से तो अहंकार को जुड़ना ही है। और अगर जुड़ा हुआ नहीं है, तो अहंकार नष्ट हो जाता है, ख़त्म हो जाता है। अगर जुड़ा हुआ नहीं है अहंकार, तो अकेले नहीं रह सकता। लोनली ईगो (अकेला अहंकार) कुछ नहीं होती। ईगो लगातार किसी-न-किसी के साथ सम्प्रत्त होगी ही। जब ये भी लगे कि लोनली (अकेली) है, तो जान लेना कि लोनलिनेस (अकेलेपन) को पकड़ लिया है। कुछ-न-कुछ तो पकड़ कर रखेगी। कुछ-न-कुछ तो पकड़ कर रखेगा।
तो बस यही है!
पुनर्जन्म का मतलब समझ लो, कि जिस चीज़ को अभी पकड़ रखा था, उसको छोड़ दिया।