ॐ तस्य निश्चिन्तनं ध्यानम्।
~ आत्मपूजा उपनिषद (प्रथम श्लोक)
हिंदी अनुवाद: उस आत्म तत्त्व का सतत चिन्तन ही उसका ध्यान है।
आचार्य प्रशांत: पहला क्या कह रहा है?
प्रश्नकर्ता १: आचरण वाला हीं, ॐ का निरंतर स्मरण..।
आचार्य: कैसे करोगे ये आचरण? ये आचरण कैसे हो सकता है?
किसका स्मरण?
किसका स्मरण?
प्र१: ॐ
आचार्य: ॐ क्या है?
मैं तुमसे कहूँ, किसी चित्र का स्मरण करो, तुम कर सकते हो। मैं तुमसे कहूँ, किसी व्यक्ति का स्मरण करो, तुम कर सकते हो। मैं कहूँ किसी गीत का स्मरण करो तो तुम कर सकते हो। अनहद का स्मरण कैसे करोगे?
ॐ अनहद है, ॐ कोई शब्द तो नहीं है न कि जिसका कोई अर्थ हो?
ॐ अनहद है, ॐ का मतलब है मौन। कोई आवाज़ थोड़ी ही है ॐ कि 'अ-अ उ-उ म-म' ये कोई आवाज़ नहीं है। तो ॐ का निरंतर स्मरण ही उसका ध्यान है। मौन में स्थापित रहना, शून्य में स्थापित रहना, यही ध्यान है।
ध्यान वो सब नहीं है कि कोई बैठकर के आसन जमा रहा है और फ़िर ये कर रहा है और ये प्रक्रिया और वैसी विधि इसको नहीं कहते हैं ध्यान, ये नहीं है ध्यान।
लगातार 'वहीं' स्थापित रहना ही ध्यान है। लगातार 'वहीं' स्थापित रहना ही ध्यान है।
उसके बाद चाहे तुम जो करो। आचरण तुम्हारा कुछ भी हो चलेगा, स्थापित वहीं रहो निरंतर। जो ये 'निरंतर' शब्द है न ये बड़ा कीमती है। लगातार वहाँ रहो उसके बाद जो करते हो करो। ये तुम चिंता ही छोड़ो कि मैं क्या कर रहा हूँ और क्या नहीं कर रहा हूँ। तुम तो बस ये देखो कि कहीं वियोग न हो।
प्र२: वियोग मतलब क्या?
आचार्य: अलगाव। वो न हो, उसके बाद तुम जो भी करो अच्छा है, कोई दिक्कत नहीं है। ॐ का निरंतर स्मरण मतलब कभी भी ऐसा न हो कि वियोग में रहूँ, कभी भी ऐसा न हो कि उससे अलग रहूँ। लगातार जुड़ा हुआ हूँ, लगातार समाधिस्थ हूँ।
दूसरा सूत्र क्या कह रहा है?
सर्वकर्म निराकरण आवाहनम्।
~ आत्मपूजा उपनिषद (द्वितीय श्लोक)
हिंदी अनुवाद: समस्त कर्मों का निराकरण ही आवाहन है।
आचार्य: सारे कर्मों के कारण की समाप्ति आह्वान है। 'कर्मों' के कारण होते हैं निश्चित रूप से होते हैं, 'अकर्म' का कोई कारण नहीं होता। जिसका कारण है वो किस में आ गया?
प्र३: मशीन..।
आचार्य: वहाँ कारण होते हैं। जैसे मशीन कुछ भी करे तो उसका एक कारण है। तो ये भी भूल जाओ कि सब कर्मों के कारण की समाप्ति। मैं कह रहा हूँ कारण मात्र की समाप्ति। कारण का अर्थ है समय। कारण का अर्थ है कि चेतना नहीं है, जड़ता के नियमों से काम चल रहा है। तो गेंद ऊपर उछली, तो नीचे आएगी। 'अ कारण' होना बहुत ज़रूरी है, बेवजह।
वो जो कुछ करता है, अस्तित्व में जो कुछ होता है बेवजह ही होता है। कोई वजह बता दो कि एक कीड़ा इतना बड़ा हो और एक इतना छोटा हो। कोई वजह बता दो कि ये पेड़ यूँ सीधा-सीधा लंबा खड़ा है और उसी का पड़ोसी पेड़ बिलकुल दूसरे आकार का है। प्रेम की कोई वजह बता दो। कोई क्यों मौज़ में है इसकी वजह बता दो।
और अगर वजह बता पा रहे हो, तो वो मौज, वजह के हटते ही हट जाएगी। प्रेम की भी यदि वजह बता पा रहे हो तो वजह के हटते ही प्रेम भी हट जाएगा। जो कुछ कीमती है वो अकारण है। दूसरा सूत्र अकारण का आह्वान है। दूसरा सूत्र है इसमें अकारण को पूजा गया है।
प्र४: ये भी कह सकते हैं कि सारे के सारे कारण हमारे मन की ही उपज हैं।
आचार्य: बिलकुल, मन कारणों पर ही चलता है। लेकिन याद रखना, जो प्रथम है वो स्वयं ही अकारण है। कारण मतलब उसके पीछे कुछ होना चाहिए जिससे वो निकल के आ रहा है। जो परम् है वो तो प्रथम है। उसका अपना कोई कारण नहीं है, तो जब तुम उससे मिल जाते हो तो तुम्हारा भी कोई कारण बचता नहीं। तुम बड़े अकारण हो जाते हो, बड़े बेवजह हो जाते हो। दुनिया की नज़रों में बड़े फ़िज़ूल हो जाते हो।
क्योंकि तुम सारे काम ही ऐसे करते हो जिनका कोई ठौर-ठिकाना ही नहीं पता चलता है, कोई कारण ही नहीं पता चलता है, कि तू ये कर क्यों रहा है?
और ऐसा नहीं कि शब्दों की कमी है, कोई कारण है ही नहीं तो बताएँ कैसे?
हम तो इतना ही कह सकते हैं कि ज़रूरी नहीं है कि कारण हो। हम ये नहीं कह रहे हैं कि हमारे पास कोई बहुत उत्तम कारण है, हम तो बस इतना कह रहे हैं कि कारण नहीं भी है तो क्या हो गया?
हम आपसे नहीं कह रहे कि हमारे पास कोई बेहतरीन वजह है कुछ करने की, हम कह रहे हैं वजह नहीं भी है तो क्या हो गया? बिना वजह कर रहे हैं।
क्या वजह है, क्यों ये कीड़े आवाज़ कर रहे हैं? क्या वजह है?
कैसे बोलूँ इसको, बहुत बहादुरी का आमंत्रण है ये "ज़रा बेवजह हो कर दिखाओ!" और बेवजह तुम हो नहीं पाओगे जबतक वो जो परम बेवजह है उसके साथ एक नहीं हो जाते। बेवजह होने का स्रोत वही है।
अब क्यों, क्यों ये झाँक रही है और क्यों इसको उत्सुकता है और क्यों ये बिल्ली यहाँ आ करके..?
क्या, वजह क्या दोगे?
पानी खौलाया पानी गर्म हो गया, वजह है, क्या वजह है?
खौलया तो गर्म हो गया।
इन बातों की वजहें होती हैं। पर जो असली, जो सत ही है, जो सार ही है उसकी कोई वजह नहीं पाओगे और जो आदमी वजहों पे चलता हो, बड़ा गरीब आदमी है वो।
मैं फ़िर कह रहा हूँ, "हिम्मत है तो बेवजह जियो न।" अच्छा! पकड़ के रखने की वजह तो हमेशा होती है, पकड़ के रखने की क्या वजह होती है?
कि कुछ मिला, हमें चाहिए था।
समर्पण की क्या वजह बताओगे? समर्पण की क्या वजह बताओगे?
बोलो?
गए थे और छोड़ आए। क्या वजह बताओगे?
करके दिखाओ!
पर जब बोलता हूँ तो थोड़ी-सी आशंका उठती है, मैं तो कह दूँ कि बेवजह करके दिखाओ और तुम बेवजह का पता नहीं क्या अर्थ निकालो। तुम ऐसे काम कर डालो जिनकी वजहें हैं पर तुम्हें पता नहीं हैं और तुम कहो कि बेवजह कर रहे हैं। कोई जा के पहाड़ी पर चढ़ गया, कोई नदी में कूद रहा है, कोई दो हैं वो गायब हैं दिनभर और कहें आप ही ने तो कहा था कि बेवजह। ये बेवजह नहीं है, वो तुम्हारी खुजली है, उसकी वजह तुम्हारी खुजली है। उसकी वजह है, तुम्हें पता नहीं है।
पूर्णतया बेवजह हो जाना बिलकुल दूसरी बात है, वो बिलकुल दूसरी चीज़ है। वो वही है जिसको कबीर कहते हैं कि "साधो सहज समाधि भली," वो सहज समाधि है और वही फ़िर निष्काम कर्म भी है। तुम कुछ करते भी हो तो उसकी वजह भी होती है और उसकी वजह से तुम कुछ पाना भी चाहते हो, ये भी समझना!
निष्काम का अर्थ ये जब मैं कह रहा हूँ कि "जो भी करो वो अकारण हो।" तो बात दोनों तरफ़ जाती है। एक तो अकारण ऐसे हो कि उसके पीछे कोई कारण न हो और दूसरा वो अकारण ऐसे हो कि उसके आगे कोई कारण न हो। पीछे का कारण उसकी उत्पत्ति का कारण होता है, आगे का कारण उसके फल का कारण होता है। पीछे का कारण उसकी उत्पत्ति का कारण है कि क्यों किया और आगे का कारण ये है कि क्या पाने के लिए किया।
बात समझ रहे हो न?
दोनों ही वजहें हैं। एक वजह ये है कि अतीत की ओर से देख रहे हो और दूसरा ये है कि क्या पाने के लिए किया। तो निष्कामता है इसमें कि कुछ पाने के लिए नहीं किया, भविष्य की ओर देख ही नहीं रहे थे।
'कारण' की आहुति दे दो।
प्र५: सर, जबसे आप ये कुछ लोग चढ़े ऊपर तो कुछ तो चढ़ गए, ऊपर भी गए वहाँ पे डर नहीं था कि कोई आ जाएगा जानवर क्योंकि पता था एक झटके में मारेगा, खाए किनारे कर देगा और अभी जैसे ही वो छोटा सा कीड़ा पैर में चिपका..।
आचार्य: बेटा अगर वास्तव में वहाँ खड़ा होता न जानवर, तुम नहीं दे पाती ये तर्क कि एक झटके में मार के ख़तम कर देगा।
प्र५: वही हम कह रहे हैं अभी वही छोटा-सा जानवर लग गया पैर में और..।
आचार्य: तो कितनी ज़ोर से चिल्लाए?
प्र: थोड़ा-सा जो खून निकला, पूरा 'डर' हिल गया।
आचार्य: हाँ, तो वहाँ कारण था। एक तरह कि उत्तेजना मिलती है, ये उद्दीपन है, टिटिलेशन है। टिटिलेशन यही नहीं होता कि कामवासना में, ये सब भी बड़ा टिटिलेशन है।
आचार्य: हाँ कारण है, उसको अकारण मत समझ लेना। कोई नहीं चढ़ रहा, उसके पास भी कारण है, उसे डर लगता है। कोई चढ़ रहा है, उसके पास भी कारण है, उसे रोमांच मिलता है। अकारण बिलकुल अलग चीज़ है। अकारण ऐसा होगा कि तुम्हें ही नहीं पता होगा कि अकारण है। 'अकारण' है।
प्र७: अकारण का कोई व्यवहारगत उदाहरण...कि वो क्या कर रहा होगा?
आचार्य: क्या उदाहरण दिया जाए?
प्र७: जिससे समझ में आए की वो क्या कर रहा होगा? न चढ़ रहा होगा, न क्या कर रहा है तो..।
आचार्य: तो बड़ा फ़िर अच्छा है न, कुछ भी करो और बोलो कि अकारण था। तो किस कारण किया?
अकारण।
(श्रोतागण हँसते हुए)
तो 'अकारण' कारण है, बहुत बढ़िया! कारण की एक नई कोटि खोजी गई है, अकारण।
प्र८: आचार्य जी, अभी आपने बताया कि कुछ ऐसे इंसेक्ट्स हैं जो ये आवाज़ें निकाल रहे हैं। पर इस बात को कैसे छोड़ दें कि आपने बताया है, और हमने पढ़ा भी है साइंस में कि वो ये आवाज़ें क्यों निकालते हैं।
आचार्य: चलो कर लो। आज एक कुत्ते और एक बिल्ली को खेलते देखा, कारण समझाओ। कुत्ता खा सकता है उसको और कुत्तों ने बिल्लियों को खूब मारा है।
कारण समझाओ।
और फ़िर तुम जब कारण खोजते हो, निश्चित रूप से तुम कारण खोज सकते हो। तुम कहोगे कि पहाड़ी इलाका है, पेड़ लंबा इसलिए होता है ताकि रोशनी अधिक से अधिक पा सके। जितनी ऊँचाई बढ़ेगी, रोशनी की संभावना उतनी बढ़ेगी।
ठीक है?
क्यों और रोशनी चाहिए?
क्यों और रोशनी चाहिए, उसका कारण खोजो। फ़िर उसका भी खोजो, फ़िर उसका भी खोजो। अंततः पहुँचोगे तो अकारण पर ही।
कारण कहाँ तक खींचोगे?
तो जब अंततः अकारण पर ही पहुँचना है तो एक झटके में ही पहुँच जाओ न, एक झटके में ही पहुँच जाओ। कारण की सबसे बड़ी सीमा ही यही है कि ये खिंच नहीं सकता। ५ कदम, ७ कदम, १५ कदम बाद वो हाथ खड़े कर देगा कि अब आगे कारण हमें नहीं पता।
तो जब अंत में अकारण ही बैठा है तो शुरू में ही अकारण हो जाओ।
प्र९: लेकिन आचार्य जी, अभी तो आपने बोला की चलो ठीक है, हमने तो मान लिया कि हम अकारण कुछ भी कर लेंगे, लेकिन जब आसानी से निकल के आ रहा है।
आचार्य: अरे भाई, ये चेतावनी है कि जब अकारण की बात करो तो सजग रहना कि कुछ गड़बड़ न हो जाए।
प्र१०: आचार्य जी, ऐसा भी तो हो सकता है कि कारण है पर आप नहीं जान सकते।
आचार्य: बिलकुल है, तभी कह रहा हूँ सजग रहना।
प्र१०: अकारण है तो भी यही है..।
आचार्य: नहीं अगर कारण है जिसे तुम नहीं जान सकते..।
प्र१०: तो हमारे लिए होता है..।
आचार्य: तो अकारण ही है।
प्र१०: वही, आप कह रहे हैं कि इसके लिए सजग रहना है। सजग कैसे रहें? हम तो कन्विंस रहेंगे इस के बारे में।
आचार्य: तुम नहीं जान सके मतलब 'तुम' नहीं, 'मन' ही नहीं जान सकता। वो जानने की सीमा से बाहर है, अज्ञेय है, जाना नहीं जा सकता है तो हो गया। ख़त्म बात। ऐसा नहीं है कि तुम्हें अभी उसका ज्ञान नहीं है और कोशिश करो तो जान जाओगे। वो अज्ञेय है।
तीसरा सूत्र क्या है?
निश्चलम् ज्ञानम् आसनम्।
~ आत्मपूजा उपनिषद (तृतीय श्लोक)
हिंदी अनुवाद: अविचल ज्ञान ही उसका आसन है।
आचार्य: उस ज्ञान के साथ संबंध बनाओ, उस ज्ञान के पास बैठो जो बाहरी नहीं है। चलायमान ज्ञान वो जो मिला। जो मिला है ज्ञान, वो किसी न किसी अवस्था में आकर के तुम ठुकराओगे भी। 'निश्चल ज्ञान' वो जो कहीं से आया नहीं कहीं को जाएगा नहीं। निश्चल ज्ञान ही आसन है, बस उसी को अपना मानो, उसमें बैठो।
प्र११: बैठने का अर्थ क्या है?
आचार्य: उसके साथ रहो, वहीं पर स्थित रहो। निश्चल ज्ञान।
प्र११: निश्चल ज्ञान अपनेआप आएगा..?
आचार्य: अपनेआप, अपनेआप। निश्चल ज्ञान का अर्थ होता है वो जो कोई तुम्हें बता नहीं सकता, जो तुमने जान ही लिया है बस। कैसे जान लिया है? तुम नहीं बता पाओगे। कैसे जान लिया? ये समझा नहीं पाओगे। वो निश्चल ज्ञान है। आया नहीं है कहीं से, किसी ने दिया नहीं है।
प्र११: आसन का मतलब?
आचार्य: कहने वाला कह रहा है कि तुम ये क्या दरी चटाई बिछाते हो आसान के लिए जब तुम पूजा करने बैठते हो आसान बिछाया जाता है न?
तो कह रहा है ये बेकार के काम हैं कि आसान बिछा रहे हो, फ़िर उस पर बैठोगे। अरे, ये आसन बेकार, असली आसन है 'निश्चल ज्ञान'। इस आसन पर तो बैठते हो और उठ जाते हो। वहाँ ऐसा बैठो कि उठो कि कभी उठो ही न।
समुन्मनीभावः पाद्यम्।
~ आत्मपूजा उपनिषद (चतुर्थ श्लोक)
हिंदी अनुवाद: उस आत्म तत्त्व के प्रति सदा उन्मुख रहना ही पाद्य है।
आचार्य: मन बहता तो है ही है, मन को किसी न किसी दिशा जाना है। या तो राम को भेज दो या काम को भेज दो। या तो सहस्रार को भेज दो, या मूलाधार को भेज दो।
बात समझ में आ रही है?
कहीं न कहीं तो वो जाएगा, कहीं न कहीं तो अड्डा बनाएगा। अब देख लो वो अड्डा किधर को बना रहा है।
कहाँ अड्डा बना रखा है मन ने? कहाँ बसते हो?
जब कोई पूछे कि पता क्या है? तो असली उत्तर तो यही है कि- परम् में कि गरम में?
(श्रोतागण हँसते हुए)
सदामनस्कमर्घ्यम्।
~ आत्मपूजा उपनिषद (पंचम श्लोक)
हिंदी अनुवाद: उस ओर सदैव मनोयोग ही अर्घ्य है।
आचार्य: तो ये नहीं है कि एक ख़ास दिशा में मुँह करके देवताओं को जो चढ़ाया जाए सो अर्घ्य है।
समझ में आ रही है बात?
मन किस दिशा में है? ये नहीं अंतर पड़ता कि तुम दक्षिणमुखी होकर कि पूरबमुखी होकर..।
ये सब सुना है न?
श्रोतागण: हाँ।
आचार्य: अंतर नहीं पड़ता कि तुम किस दिशा में हो और बड़ा ज़ोर रहता है कि सोते समाय ये दिशा होनी चाहिए, मुर्दे की ये दिशा होनी चाहिए। कहने को ये भी कहा जाता है कि गुरु को हमेशा दक्षिणमूर्ति होना चाहिए, हमेशा दक्षिण की ओर मुँह करके बात करे।
गुरु को जो है, 'स्पिरिचुअल नॉर्थ पोल' माना गया है। अब वो नॉर्थ पोल है तो उसका मुँह हमेशा दक्षिण को होगा। तो ये है कि गुरु जब भी बात करे तो दक्षिण की ओर मुँह करके बात करे।
प्र१२: मतलब मैग्नेटिक फ़ोर्स नहीं होता?
आचार्य: बेकार की बात है न, इसीलिए तो वो कह रहे हैं कि फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा मुँह किधर को है, फर्क इस बात से पड़ता है कि मन की दिशा क्या है, मन का मुँह किधर को है।
आ रही है बात समझ में?
ये मत देखो कि किस दिशा सर करके सोते हो। देखते ही होगे, घर में जब बिस्तर लगाया जाता है इधर को है कि उधर को है। अरे ये सब बेकार की बातें है कि किस दिशा मुँह करके आरती करनी है कि पूजा करनी है, ये दिशा।
बोलो "अरे! तुम्हारे मुँह की दिशा किधर को है इससे क्या फ़र्क पड़ता है? तुम्हारे मन की दिशा किधर को है ये देखो!"
मुँह की दिशा नहीं, मन की दिशा।
सदादीप्तिराचमनीयम्।
वराकृतप्रात्तिः स्नानम्।
~ आत्मपूजा उपनिषद (छठवां श्लोक)
हिंदी अनुवाद: आत्मा को निरन्तर दीप्ती ही आचमन है। श्रेष्ठता की प्राप्ति ही उसका स्नान है।
आचार्य: तो ये नहीं कि पाँच बार जा कर डुबकी लगा रहे हो और साबुन-वाबुन से बड़ी सफ़ाई कर ली, कि स्नान कर रहे हैं कि वजू कर रहे हैं। ये सब कुछ नहीं। मन को साफ़ करो, यही स्नान है और इसपर तो खूब संतों ने कहा ही है। असल में हिंदुस्तान में शरीर को स्वच्छ रखने की बड़ी परम्परा रही है, बड़ी सफ़ाई रखनी है। तो ऐसे हीं लोगों को फिर ये सब बातें कहनी पड़ती हैं।
स्नान ये सब नहीं है कि कोई पूजा करनी है तो नहा-धो रहे हैं और बिलकुल मल-मल के नहाना है। ये भी नहीं कहा जा रहा है कि नहाना नहीं है।
(श्रोतागण हँसते हुए)
यहाँ तो देखो लिखा है कि नहाया मत करो, तो पूरा उपनिषद हो गया उससे सीखा क्या?
नहाने में कुछ नहीं रखा।
अब यहाँ आए हो, नहाने को बड़े उत्सुक हो। नहाने जैसा आनंद... नहाओ... नहलाओ... कभी दूसरा वाला स्नान भी कर लिया जाए, मन को नहलाया जाए। ज़्यादा नहाने से ठंड लग जाती है।
ज़ोर से बोलो ये वाला स्टेटमेंट फ़िर से।
प्र१३: श्रेष्ठता की प्राप्ति ही उसका स्नान है।
आचार्य: आ रही है बात समझ में?
भीतर रहो, उसी केंद्र पर बैठो, घूम-घूम कर, बार-बार कर एक ही बात कही जा रही है, वही स्नान है।
बुल्लेशाह क्या कह रहे थे?
"गंगा गया गल मुक्दि नाहि, पवें सौ सौ गोते ख़ईया,"
तुम सौ नहीं पांच सौ गोते खा लो, गंगा ही गंदी करोगे। तुम नहीं साफ़ होओगे, गंगा ज़रूर गंदी हो जाएगी।
अगला?
सर्वात्मकत्वं दृश्यविलयो गन्धः।
~ आत्मपूजा उपनिषद (सातवां श्लोक)
हिंदी अनुवाद: सर्वात्मक दृश्य का विलय (शून्य-समाधि) ही गन्ध है।
आचार्य: सुगंध बड़ी बढ़िया चीज़ है। सबसे जो हावी इन्द्रिय होती है, वो होती है आँख। सुगंध ऐसी चीज़ है जिसको आँख देख नहीं सकती और कान सुन नहीं सकता लेकिन उसकी मौजूदगी का अहसास लगातार होता रहता है। इसीलिए कहीं धार्मिक परंपराओं में सुगंध पे बहुत ज़ोर है। कहा भी है, वो सुगंध जैसा है। इस अर्थ में सुगंध जैसा है कि आँख को दिखाई नहीं देता, कान को सुनाई नहीं देता लेकिन उसकी खुशबू बस है और ऐसे फैलती है कि पता भी नहीं चलता कि फैल गई। जो खुशबू का विज्ञान है, वो यही है। जो मंदिरों, मस्जिदों में खुशबू रहती है इसका अर्थ समझो, वो यही है कि वो तुम्हें याद दिलाए। वो इसलिए नहीं कि सुगंध बड़ी अच्छी थी वाह! वाह! वाह! वाह! वो याद दिलाने के लिए है।
फ़िर से पढ़ो इसको एक बार।
प्र१३: सब जगह उसी की अनुभूति ही एकमात्र गंध है।
आचार्य: और किसी गंध की ज़रूरत नहीं है। न धूप जलाओ, न बत्ती जलाओ सर्वत्र उसको अनुभूति हो रही है, यही काफ़ी है।
बड़ी दिक्कत हो रही है। पूजा-पाठ का पूरा जो उपकरण होता है वो तो बेकार कर दिया। न नहाना है, न अगरबत्ती जलानी है, न अर्घ्य चढ़ाना है।
प्र१४: न किसी आसन।
आचार्य: हाँ, न किसी आसन की ज़रूरत है। ज़रूरत ही नहीं कुछ करने की। सब मामला अंदर-अंदर का है। आगे?
दृगविशिष्टात्मानः अक्षताः।
~ आत्मपूजा उपनिषद (आठवां श्लोक)
हिंदी अनुवाद: विशिष्ट नेत्र (अंतरनेत्र) ही अक्षत है।
आचार्य: अक्षत क्या होता है?
श्रोतागण: पूजा के चावल।
आचार्य: तो अक्षत शब्द के आत्यंतिक अर्थ को लिया, अक्षत माने कि टूटा न हो। तुम टूटे न रहो, यही अक्षत है। चावल नहीं अक्षत है, चावल टूटा है कि नहीं टूटा है, ये बात महत्वहीन है। महत्वपूर्ण ये है कि तुम्हारा मन टूटा है कि नहीं है। टूटा हुआ मन माने बँटा हुआ मन।
मन अक्षत रहे, चावल कहाँ से अक्षत हो गया?
मन टूटा हुआ न हो।
फ़िर आगे?
चिदादीप्तिः पुष्पम्।
~ आत्मपूजा उपनिषद (नौवां श्लोक)
हिंदी अनुवाद: चित्त(चैतन्य) दीप्ति हीं पुष्प है।
आचार्य: तो कौन से फूल चढ़ाएँ?
अपने फूल चढ़ाओ, तुम ही फूल बन जाओ। इधर-उधर से फूल चुन के लाए और चढ़ा दिए, ये कोई बात नहीं हुई। अपना समर्पण करो। फूलों को क्या तोड़-तोड़..?
खुद को समर्पित करो!
आदमी ने ये चाल खूब चली है। खुद को समर्पित नहीं करना है तो फूल समर्पित कर दो और चीज़ें समर्पित कर दो। रुपया-पैसा समर्पित कर दो, मिठाई चढ़ा दो, कुर्बानी दे दो।
मिठाई क्या चढ़ाते हो दो रुपए की? कुर्बानी क्या देते हो किसी जीव-जंतु की?
हिम्मत है तो अपनेआप को अर्पित करो न। असली कुर्बानी अहंकार की कुर्बानी है, वो दे के दिखाओ। वो तुम करोगे नहीं क्योंकि मन में चतुराई खूब है। फूल तोड़ लो, पेड़ काट दो, जानवर मार दो, ये तुम खूब कर लोगे और अगर रुपया-पैसा है तो रुपया-पैसा चढ़ा दो कि फलाने भक्त आए थे, उन्होंने १ लाख रुपए दान किए। ये सब तुम खूब कर लोगो लेकिन जो असली काम है करने का वो कभी नहीं करोगे।
क्या चढ़ाना है, फूल?
फ़िर?
श्रोतागण: शीश।