जीवन जीने की कला || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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जीवन जीने की कला || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, किसी भी काम को करने में मन क्यों नहीं लगता है?

आचार्य प्रशांत: अभी कल ही एक लड़का आया था मुझसे मिलने, वो मध्यप्रदेश के सागर जिले में खाद्य विभाग में काम करता है। नया लड़का है, अभी-अभी उसने नौकरी का एंट्रेंस क्लियर किया है और डेढ़-दो साल से वो नौकरी कर रहा है, प्रतिभाशाली लड़का था। तो अपना बताने लगा कि ज़िन्दगी खाली-खाली सी लगती है, सूनी लगती है। ज़्यादातर बातें जो उसने मुझे बतायीं जिन बातों से वो नाखुश था, वो उसके काम से सम्बन्धित थीं। उसने कहा कि वर्कप्लेस इश्यूज़ (कार्यक्षेत्र की समस्याएँ) हैं, सरकारी नौकरी है, इस तरह का माहौल है, इस तरह का डिसिप्लिन (अनुशासन) रखना होता है और कई बार इस तरह की निगेटिविटी (नकारात्मकता) देखने को मिलती है।

तो कई बातें उसने बोलीं जो कि तक़रीबन सभी जगहों पर पायी जाती हैं, ऐसा नहीं कि उसी के दफ़्तर में माहौल कुछ ख़ास ख़राब था, दुनियाभर की जगहों पर यही हालत है, चाहे पब्लिक सेक्टर, प्राइवेट सेक्टर , सरकारी या कोई भी और जगह। यहाँ तक की फौज़ में भी यही हालत है। फौज़ियों से मिलता हूॅं, वो भी अपनी कहानी ऐसे ही बताते हैं।

तो मैंने उससे जो कहा वो बात सबके लिए उपयोगी है, मैंने उससे कहा कि तुम मुझसे बात कर रहे हो कि दस से छ: के बीच में तुम्हें क्या अनुभव होते हैं, तुम अभी उसकी बात छोड़ो। तुम्हारे लिए समाधान का पहला चरण ये है कि तुम मुझे बताओ कि तुम दस से पहले क्या करते हो और छ: के बाद क्या करते हो। अभी ये बात छोड़ो कि दफ़्तर में क्या माहौल है क्योंकि वहाँ बड़ी व्यवस्था है, एक बहुत बड़ा तंत्र है। तुम तुरन्त और अकेले उसको बदल नहीं पाओगे और उसको बदलने की बात करते रहोगे तो तुममें गुस्सा और क्षोभ भर जाएगा।

चौबीस घंटे में से तुम आठ ही घंटे तो दफ़्तर में गुज़ार रहे हो न? सात दिनों में से पाॅंच या छ: ही दिन तो तुम दफ़्तर में गुज़ार रहे हो न? तो चलो, बाक़ी समय की बात करते हैं। ले-देकर तुम्हारे जीवन का क़रीब पच्चीस प्रतिशत समय ही दफ़्तर में बीत रहा है, दिन का तैंतीस प्रतिशत और सारे दिन तुम दफ़्तर में बिताते नहीं। तो जीवन का क़रीब पच्चीस प्रतिशत, एक चौथाई। मैंने कहा, तुम इस एक चौथाई को हटाओ, मुझे बाक़ी तीन चौथाई का ब्यौरा दो। बाक़ी तीन चौथाई एकदम सूना, एकदम। तुममें से भी ज़्यादातर लोग ट्वेंटीज़ में, थर्टीज़ में हैं। मुझे नहीं लगता कि अभी मेरे सामने जितने लोग हैं, उसमें से ज़्यादा लोग चालीस पार के हैं, शायद कोई भी नहीं।

क्या करते हो दफ़्तर के बाद, ये बताओ न! और कारण है कि मैं क्यों पूछ रहा हूॅं कि दफ़्तर के बाद क्या करते हो। तुम एक मन ले करके दफ़्तर में आते हो न दस बजे। और दफ़्तर में आते ही तुम दूसरे आदमी नहीं बन जाओगे। आदमी तो तुम वही हो जैसे घर से चले थे। घर से जो आदमी चला है वो दफ़्तर में आकर के दूसरा नक़ाब पहनने की कोशिश तो कर सकता है, पर मूलभूत रूप से तो उसकी वृत्ति वही है, व्यक्तित्व तो वही है जैसा वो घर से लेकर चलता है।

तो मैं कह रहा हूॅं कि पहले उस आदमी को देखो जो दफ़्तर में प्रवेश करता है, वह यदि बदलने लग गया तो दफ़्तर में तुम क्या करते हो, दफ़्तर में घटने वाली घटनाओं से तुम पर क्या असर पड़ता है, वो भी बदलेगा। तो मैंने कहा कि बताओ छ: बजे के बाद क्या करते हो। उसने कहा, ‘कुछ भी नहीं ज़्यादा। कभी बाज़ार गया, कुछ ख़रीद लाया।' बोला, ‘यूट्यूब पर दो ही चीज़ें देखता हूॅं, या तो आपकी वीडियोज़ देखता हूॅं या क्रिकेट देखता हूॅं।' मैंने कहा, ‘क्रिकेट देखते हो, खेलते भी हो क्रिकेट?’ बोला, ‘मेरी सेहत देखकर समझ रहे होंगे कि मैं खेलता हूॅं कि देखता हूॅं। मेरा क्रिकेट बस ऑंखों से खेला जाता है, हाथ कभी चले नहीं मेरे।’

मैंने कहा, ‘और? कुछ गाते हो, बजाते हो? जीवन में कुछ कला है, कुछ रस है? बोला, ‘जी, सागर में हूँ, वहाँ पर कहाँ कुछ!' मैंने कहा, ‘सागर कोई अफ्रीका का बहुत पिछड़ा हुआ गाॅंव तो नहीं है? इंटरनेट का ज़माना है, मूलभूत सुविधाएँ तो अब छोटे-छोटे शहरों और क़स्बों में भी उपलब्ध हैं।’ मैंने उससे कहा, ‘तुम क्यों नहीं की बोर्ड बजाना ही सीख लेते, गिटार बजाना ही सीख लेते?’ मैंने उससे कहा, ‘तुम क्यों नहीं व्यायाम करते, जिम जाते, खेलते?’

दो ही चीज़ें होती हैं जो जीवन को समृद्ध करती हैं — तन के लिए व्यायाम, मन के लिए अध्यात्म। और उस लड़के के जीवन से दोनों अनुपस्थित थे। शरीर का ख़याल रखो, दौड़ो, भागो, वर्ज़िश करो। और ये नहीं कि अपने ऊपर छोड़ दो, किसी इंस्टिट्यूशन (संस्थान) में एनरोल (नामांकन) करो। जिम भी एक इंस्टिट्यूशन है छोटा-मोटा। स्टेडियम भी एक इंस्टिट्यूशन है, जाओ और उसकी सदस्यता लो। जाओ और वहाँ पैसे जमा कराओ। जब पैसे जमा कराओगे तो भीतर से आवाज़ आएगी कि भाई, पैसे बर्बाद जाते हैं, चल, चल, चल! दे तो आया ही है।

जाओ और अब वहाँ अपने जीवन का कुछ निवेश करो, इन्वेस्टमेंट करो। कलाओं में उतरो, क्यों नहीं गाना सीखते? अभी नहीं सीख रहे हो तो कब सीखोगे, जब पचास पार कर जाओगे? क्यों नहीं तैरना सीख रहे? अभी नहीं सीखोगे तो कब, जब हाथ-पाॅंव कॅंपने लगेंगे? ये हुईं बातें तन की।

और मन के लिए मैंने पूछा कि बताओ पढ़ते क्या हो। बोले, 'पढ़ने से हमारा कोई सरोकार नहीं। अगर पढ़ना ही होता तो हम बहुत कुछ न कर गये होते, यूँही बैठे होते?' मैंने कहा, ‘देखो, अभी तक तुमने जो पढ़ा वो सिलेबस (पाठ्यक्रम) पूरा करने के लिए और परीक्षा पास करने के लिए पढ़ा है। अपने लिए कुछ नहीं पढ़ा।' बोले, ‘ये तो है ही, पढ़ाई अपने लिए करता कौन है? पढ़ाई तो करी ही इसीलिए जाती है कि डिग्री मिल जाए। और हमारा हुनर ये है कि डिग्री भी हमने बिना पढ़े निकाली थी।' (श्रोतागण हॅंसते हैं)

मैंने कहा, ‘बढ़िया! तुम हुनरमंद आदमी हो। खूब तुमने हुनर दिखाया है। लेकिन अब ज़रा कुछ दूसरा प्रयोग करके भी देख लो, अपने लिए कुछ पढ़कर देख लो।' बोले, ‘अच्छा, बताइए, आपमें श्रद्धा है, आप कहेंगे तो पढ़ लेंगे, वैसे मन नहीं है हमारा।' तो उनको मैंने तो दो-चार छोटी-छोटी किताबें लिखवायीं। राज़ी नहीं होते थे। मैंने कहा, ‘एक बार प्रयोग करके देखो।' मुझे तो पता ही है कि एक बार प्रयोग करने उतरेगा फिर आदमी पीछे हट नहीं सकता। वो चीज़ ऐसी है जिसका एक बार स्वाद लग गया तो जीवन ही बदलने लगता है। हुआ भी वही। अब पढ़ रहा है, मज़ा आ रहा है।

और मैंने उससे कहा है कि एक महीने बाद जब तुम मुझे मिलोगे तो तुम्हारा चेहरा दूसरा होगा। ऐसा नहीं कि बस कुछ आन्तरिक उन्नयन हो जाना है, तुम्हारा चेहरा ही दूसरा होगा और मुझे भरोसा है उसका चेहरा दूसरा होगा।

देखो, युवा होने का अर्थ होता है कि सुडौल शरीर हो, चौड़ी छाती, मज़बूत कंधे और विराट हृदय, दुनिया की समझ। दुनिया की सारी क्रांतियाँ जवान लोगों ने करी हैं, और क्रांति से मेरा मतलब पत्थरबाज़ी और हुल्लड़ नहीं है। क्रांति बहुत समझदार लोगों का काम होती है।

क्रांति का मतलब विनाश नहीं होता, क्रांति का मतलब एक नया सृजन होता है।

वो जवानी जो पढ़ती नहीं, लिखती नहीं, जो अपनेआप को बोध से भरती नहीं, वो जवानी व्यर्थ ही जा रही है। लेकिन हम अपनेआप को कभी ज़िम्मेदार ठहराना चाहते नहीं तो बहुत आसान होता है अपनी सारी समस्याओं के लिए अपने वर्कप्लेस को, अपने कार्यालय को ज़िम्मेदार ठहरा देना।

मैंने पूछा एक से, मैंने कहा, ‘एक बात बताओ, तुम्हारी यहाँ की नौकरी छुड़वा देते हैं और मैं रेफरेंस देता हूॅं, मैं तुम्हारी नौकरी एक दूसरी जगह लगवा दूँगा। दिल पर हाथ रखकर कहना, दूसरी जगह पहुॅंच जाओगे तो क्या तुम्हारा तनाव घट जाएगा। दूसरी जगह पहुॅंच जाओगे तो क्या तुम्हारे जीवन में फूल खिल जाऍंगे? तुम तो तुम ही रहोगे न! और तुम जहाँ जाओगे तनाव आकर्षित कर लोगे।

तो बात इसकी नहीं है कि मेरे दफ़्तर का माहौल या मेरे काम का प्रकार या मेरे सहकर्मी ऐसे हैं या मेरा बॉस ऐसा है।’ देखो, बात अक्सर ऐसी नहीं होती है, बात का सम्बन्ध हमसे होता है। हम ऐसे हैं कि हम जो कुछ भी करेंगे उसमें हम बोर ही हो जाएँगे। हम मनोरंजन करने भी निकलेंगे तो बोर हो जाएँगे। अच्छी-से-अच्छी पिक्चर लगी हो, सिनेमा हॉल में चले जाना वहाँ लोगों को ऊॅंघता पाओगे। एक दफ़े तो झगड़ा हो गया था, वो खर्राटा लिये जा रहा है ज़ोर-ज़ोर से।

(श्रोतागण हॅंसते हैं)

वहाँ भावुक दृश्य चल रहा है, लोग रोने को हो रहे हैं, इधर बीच में खर्राटे बज रहे हैं। तुम्हें क्या लगता है ये आदमी जो एक सुंदर-से-सुंदर कृति में, मूवी में खर्राटे मार रहा है, ये अपने दफ़्तर में खर्राटे नहीं बजाता होगा? पत्नी के बगल में लेटता होगा, वो प्रेम का आमंत्रण देती होगी, ये खर्राटे बजाता होगा। इसके खर्राटे तो हर जगह बजते होंगे। क्रिकेट खेलने पिच पर उतरता होगा बल्ला लेकर, उधर बॉलर दौड़ता हुआ आ रहा है, ये सो गये! कोई भरोसा नहीं।

पर ये अपनेआप को दोष नहीं देगा क्योंकि अपनेआप को दोष देना किसको बुरा लगता है? अहंकार को बुरा लगता है। इसी को कहते हैं ईगो , अहंता। अहंता हमेशा अपनेआप को पूरा मानती हैं, ‘मैं तो ठीक हूँ, बढ़िया हूँ, पूर्ण हूँ मैं।' वो माहौल में दोष खोजती है। अच्छा, मैं ये भी इनकार नहीं कर रहा कि माहौल में कभी कोई दोष होता नहीं। लेकिन मुझे बताओ, तुम्हें अपना जीवन जीना है या माहौल का जीवन जीना है, जल्दी बोलो! किसकी ज़िन्दगी जीनी है, अपनी जीनी है न? जब अपनी जीनी है तो अपनी सुधारो।

माहौल का क्या है, कल बदल जाएगा। दफ़्तर आते-जाते रहते हैं, सहकर्मी आते-जाते रहते हैं, तबादले होते रहते हैं, प्रोन्नतियाँ होती रहती हैं, सब बदलता रहता है। पर ज़िन्दगी तो अपनी जीनी है न? अपने साथ तो सदा रहोगे, इधर तो कुछ नहीं बदलना। जब तक मरे नहीं, तब तक अपने साथ तो हो। तो जो सुधार करना है सबसे पहले अपने में करो।

और ये मैं तुम्हें पक्का आश्वासन दे रहा हूॅं, छ: बजे के बाद और दस बजे से पहले अगर तुम एक भरपूर और हरा जीवन जी रहे हो तो तुम पाओगे कि कार्यालय में भी तुम अलग हो, खिले हुए हो, तुम ज़्यादा विश्वसनीय हो। तुम्हारे काम में निखार आ गया है, तुम्हारी उत्पादकता, प्रोडक्टिविटी, एफिशिएंसी (क्षमता) बेहतर हो गयी है। लोग तुम्हें मानने लगे हैं, सम्मान देने लगे हैं, चाहने लगे हैं। ये बातें सैद्धान्तिक नहीं हैं, ये बातें मैं रोज़ होते हुए देखता हूँ। तुम्हारे लिए आवश्यक है कि इन बातों से फ़ायदा उठाओ, जीवन में उतारो।

कुछ है तो मुझसे कहें (आचार्य जी मुस्कुराते हुए एक प्रतिभागी की ओर इशारा करते हुए बोलते हैं)। खुले रहिए। देखिए, हम पहले ही मन में निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि अगर मैंने ऐसा किया तो परिणाम ऐसा होगा। हम इतने ज़्यादा समझदार भी नहीं होते हैं कि हमें हर चीज़ का परिणाम पहले ही पता हो। आपको हर चीज़ का परिणाम पहले से ही पता होता तो जीवन कहीं और ज़्यादा बेहतर नहीं होता? लेकिन फिर भी हम सीख नहीं लेते हैं, हम मानकर चलते हैं कि अगर मैंने ऐसा कहा या ऐसा करा तो उत्तर ऐसा आएगा या नतीजा ऐसा निकलेगा।

मेरा निवेदन है कि ऐसा मत मानिए। प्रयोग करिए, मन को थोड़ा खुला रखिए, थोड़ा सा ख़तरा उठाने को, रिस्क उठाने को तैयार रहिए। क्या पता कोई क़ीमती चीज़ मिल जाए! बंद मत हो जाइए। बंद हो जाने पर बड़ी घुटन है जीवन में। बंद होने का आशय यही होता है — 'मैं सब जानता हूँ।' मैं सब जानता भी हूँ और मैं ज़्यादातर जगहों से, तरीक़ों से निराश भी हूँ। ऐसे कुछ मज़ा नहीं!

बनाने वाले ने ये तय करके हमको नहीं बनाया है कि हमें दुख देना है। तो निश्चित रूप से आशा का महत्व है, रोशनी का महत्व है, आनन्द सम्भव है, आज़ादी सम्भव है। इस बात को हमेशा ख़याल में रखें कि ये सारी ऊॅंची चीज़ें कभी भी, कहीं से भी आ सकती हैं, मैं दरवाज़े बंद न करूँ, दरवाज़े बंद कर दिये तो आती हुई चीज़ रुक जाएगी, भाई!

कहिए, बोलिए। आप कुछ कहना तो चाहते हैं पर विचार बहुत कर रहे हैं (एक श्रोता से कहते हैं)।

प्र: जी सर, एक्चुअली (वास्तव में) जो आपने इसके पहले अभी कहा कि जो दस से छ: के बीच में हम यहाँ रहते हैं। उससे पहले का जीवन, अगर आप उसमें अच्छे हैं तो आपका ऑफिस सही रहता है, बिलकुल सही बात है, बिलकुल प्रैक्टिकल है। मैं वही कर रहा हूँ। और मैं काम में भी अपना पर्फेक्ट हूँ। अगर मैं अपनेआप को अंधकार में रख लिया होता तो वाक़ई मेरे लिए चिन्ता का प्रश्न रहता।

आचार्य: मैं आपको आईआईटी के दिनों से एक उदाहरण देता हूँ। आईआईटी में स्पोर्ट्स का और को-करिकुलर एक्टिविटीज़ (सह पाठ्यक्रम गतिविधियों) का माहौल भी बड़ा समृद्ध है, रिच कल्चर है। वहाँ सीजीपीए सिस्टम चलता है, परसेंटेज नहीं, कि दस में से आपका क्या सीजीपीए है। औसत सीजीपीए सात, साढे़ सात क़रीब रहता है।

श्रोता: ग्रेड।

आचार्य: हाँ, ग्रेड चलता है, उसे सीजीपीए कहते हैं। मैंने ये देखा कि जिन लोगों के सीजीपीए पाॅंच और छ: हैं, जो पढ़ाई में ध्यान नहीं देते, जिनका मन ही नहीं लगता, जो अपनेआप को अप्लाई नहीं करते, श्रम नहीं करते, वो स्पोर्ट्स में भी कहीं नज़र नहीं आते। वो को-करिकुलर्स में भी कभी नज़र नहीं आते।

और आप जाकर के देखो वहाँ रंगमंच में अभिनय कौन कर रहा है और हाॅकी कौन खेल रहा है, बास्केटबॉल, क्रिकेट कौन खेल रहा है तो आपको पता चलेगा उसमें ज़्यादातर वो लोग हैं जिनका सीजीपीए आठ से ऊपर का है। जो बेहतर हैं वो हर आयाम में, हर दिशा में बेहतर हैं और जो आलसी है और काहिल है वो हर दिशा में काहिल है। अब सब आईआईटीयन ही हैं, सभी ने एक ही परीक्षा क्लियर करी है लेकिन कुछ हैं जो खिले हुए हैं और वो हर दिशा में खिले हुए हैं और उनके पास हर चीज़ के लिए समय निकल आता है।

वहाँ पर जब फेस्टिवल वगैरह आयोजित हो रहे हैं रौन्देवु, ट्रिस्ट इत्यादि, तो वो उसके प्रबन्धन में भी शामिल हैं, रात-रातभर जगकर के उनकी तैयारियाँ कर रहे हैं और सुबह वो क्लास के लिए भी सही समय पर पहुॅंच जा रहे हैं। और दूसरे लोग हैं जो रात भर सोये भी हैं उसके बाद भी क्लास में नहीं पहुॅंच सकते। और ये बात बहुत अजीब थी, लगना तो ये चाहिए न कि जो आदमी दस जगह से घिरा हुआ है उस बेचारे के पास समय की कमी होगी। उल्टा है, उल्टा है, दुनिया के नियम और अध्यात्म के नियम उल्टे चलते हैं कभी-कभी।

गीता का पन्द्रहवाँ अध्याय है, कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ये दुनिया एक उल्टा वृक्ष है जिसकी जड़ें आकाश में फैली हुई हैं और जिसकी चोटी पृथ्वी से लगी हुई है। ये दुनिया एक उल्टा वटवृक्ष है। आशय उनका यही है कि बेटा, यहाँ बहुत कुछ है जो उल्टा चलता है, संसार के नियमों को अध्यात्म पर मत आरोपित कर देना; फॅंसोगे, धोखा खाओगे। तो हमें ऐसा लगता है कि समय इतना है और इधर दे दिया, इधर दे दिया, इधर दे दिया, इधर दे दिया तो बस इतना सा बचा। ऐसा नहीं है।

आप अपनेआप को आकंठ सही कर्म में डुबो दो, आप पाओगे आपका समय गुणात्मक तौर पर बढ़ गया है, मल्टीप्लाई कर गया है। आप कहोगे ऐसा कैसे होगा, चौबीस ही तो घंटे होते हैं, बहत्तर घंटे हो जाएँगे क्या? हाँ, हो जाएँगे क्योंकि बाहर की घड़ी और भीतर की घड़ी अलग-अलग होती है। बाहर की घड़ी को अध्यात्म में कहते हैं ‘क्रोनोलॉजिकल क्लॉक' (कालक्रमबद्ध घड़ी) और भीतर की घड़ी को कहते हैं साइकोलॉजिकल क्लॉक (मनोवैज्ञानिक घड़ी)। ये दोनों अलग-अलग चलती हैं। तुम भलीभाॅंति जानते हो कि भीतर का समय बाहर की घड़ी के साथ-साथ नहीं चलता। देखा है न, दुख की घड़ियाँ कितनी लम्बी हो जाती हैं और सुख के पल कितनी जल्दी बीत जाते हैं! भीतर की घड़ी के नियम अलग हैं। तो अगर तुम सही कर्म में डूबे हुए हो, जीवन को सही जी रहे हो, तो तुम्हें और समय मिलेगा, और समय मिलेगा।

दाता उपहार भेजता है, कहता है तुमने समय का सही उपयोग किया, ये लो बोनस समय, एक के साथ एक मुफ़्त। एक घंटा जो सदुपयुक्त हुआ उसके साथ एक घंटा मुफ़्त, मुफ़्त, मुफ़्त। और एक घंटा जो व्यर्थ गया उसके कारण अब अगला जो घंटा मिलना था उसमें से भी आधे घंटे की कटौती; लो, कुछ नहीं पाओगे।

तो व्यावहारिक अड़चनें तो मुझे बताना मत। ये तो कहना ही मत कि आप जो बात कह रहे हैं वो अव्यावहारिक है, 'हम घर जाएँगे, देखिए, थक बहुत जाते हैं।' देखो, काम मैं भी करता हूॅं और जी-तोड़ काम करता हूँ और तुमसे कहीं ज़्यादा उम्र का हूँ। और जितना काम मैं करता हूँ, मैं थोड़ा सा कम विनम्रता का ख़तरा उठाते हुए कह सकता हूँ, तुममें से चार-पाॅंच लोग मिलाकर नहीं करते होगे। मैं ट्रेन में हूँ, मैं गाड़ी चला रहा हूँ, मैं जग रहा हूँ, मैं सो रहा हूँ, मैं काम करता ही रहता हूँ। और समय मुझे कम नहीं पड़ता, क्योंकि पूरा समय जब तय कर लिया है कि एक ही दिशा में देना है तो अब कम कैसे पड़ेगा! जितना है सब तो दे दिया। सब दे दिया!

तो ये तो कहना मत कि अभी जाएँगे, थकेंगे फिर दो-चार घंटे सोएँगे तो! और उसके बाद हमारे टीवी सीरियल आते हैं उनको देखना भी तो ज़रूरी है। और उसके बाद घंटे भर पड़ोसी की निन्दा नहीं करी पत्नी के साथ बैठकर तो क्या किया। वो करे बिना तो प्रेम ही नहीं बढ़ता पति-पत्नी का। तो ये सब बातें मत बताना। सही जगह पर समय को लगाओ, समय ही समय है।

फाउंडेशन (संस्था) में नियम बना रखा है हम लोगों ने, ठीक है? कुंदन (संस्था के एक स्वयंसेवक) बताएँगे कि फाउंडेशन के किसी आम सदस्य का दिन कैसा होता है। कुंदन, कितने बजे से शुरू होता है? (आचार्य जी पूछते हैं)

कुंदन जी: सुबह छ: बजे पहुॅंच जाते हैं स्टेडियम में।

आचार्य: सुबह छ: बजे स्टेडियम पहुॅंचना अनिवार्य है तो बताओ जगते कितने बजे होंगे?

प्र: सवा पाँच।

आचार्य: ये भी जाती हैं, इनको पकड़ रखा है। मैंने कहा, ‘मोटी हो रही हो, जाना अनिवार्य है।’ सुबह छ: बजे स्टेडियम पहुॅंचना अनिवार्य है। उसके बाद क्या होता है हिबा (संस्था की एक स्वयंसेविका) एक घंटा, बताओ।

हिबा जी: उसके बाद फिर दो स्पोर्ट्स हैं। पहला स्पोर्ट्स सात बजे तक, सात से प्रार्थना शुरू होती है, सात से सवा सात प्रार्थना होती है। पहले टेनिस खेलते हैं उसके बाद फिर प्रार्थना होती है फिर स्क्वैश खेलते हैं। और ये सबके लिए मैंडेटरी (अनिवार्य) किया हुआ है।

आचार्य: ये कंपलसरी (अनिवार्य) है, ये नहीं करोगे तो पिटाई पड़ेगी। जो ये नहीं करते उनको हम अपने कार्यालय में घुसने नहीं देते। कहेंगे, 'भाई कहाँ थे?' दो घंटे खेलकर नहीं आये, वो भी एक ही स्पोर्ट नहीं, दो। सबके लिए टेनिस ज़रूरी है, स्क्वैश ज़रूरी है और कुछ लोग रनिंग करते हैं। और उन दोनों के बीच में प्रार्थना। टेनिस कोर्ट में भी प्रार्थना होती है, आसपास के लोग भी देखते हैं ये क्या हो रहा है, दस जने खड़े हो गये कतार बाॅंधकर और प्रार्थना कर रहे हैं। रोज़ मुझे फोटो आनी अनिवार्य है, प्रार्थना करो, मुझे फोटो भेजो कि प्रार्थना करी, टेनिस कोर्ट पर खड़े होकर प्रार्थना करी। उसके बाद पहुॅंच जाते हैं, नहाते हैं, धोते हैं, नाश्ता करते हैं, दस बजे से काम शुरू हो जाता है।

उसके बाद इनमें से अधिकांश लोग अनुश्री जी (संस्था की एक स्वयंसेविका) के साथ स्टूडियो कबीर में सदस्यता लिये हुए हैं तो शाम को जाएँगे और दो घंटा बैठकर के कबीर भजेंगे। उसके बाद हफ़्ते में कोई दो, कोई दिन चार दिन ये जाते हैं, हमारा पुस्तक वितरण केंद्र होता है, हम एसआरसी बोलते हैं उनको, सोशल रिस्पांसिबिलिटी सेंटर्स , तो वहाँ खड़े होते हैं और वहाँ बीच बाज़ार में खड़े होना होता है अपनी किताबें लेकर के। वहाँ लोग आते हैं, उन्हें अपना साहित्य थमाना होता है, समझाना होता है।

कोई नहीं है जो ग्यारह-बारह बजे से पहले सो जाता हो और ये हफ़्ते के सातों दिन की बात है। और देखो इनको, यहाँ कौन थका हुआ लग रहा है? ये अभी सुबह भी सब लोग कार्यक्रम करके आ रहे हैं।

(एक स्वयंसेवक फ़ोन पर तस्वीरें दिखाते हैं।) यहाँ दिखाइए, ये आज सुबह की तस्वीर है, स्टेडियम में खड़े होकर प्रार्थना चल रही है और ये ऐसी रोज़ आती हैं।

मज़ा आ रहा है? आपमें से जो लोग हमसे जुड़ना चाहें, आमंत्रित हैं। बस ये है कि सुबह सवा पाॅंच बजे उठा दिया जाएगा और साढ़े ग्यारह से पहले सोने का सोचिएगा भी मत।

स्वयंसेवक: साढे़ ग्यारह बजे तो घर आते हैं, कभी-कभी बारह बजता है।

आचार्य: बारह बजता है। और उसमें भी फिर नियम है कि बारह के बाद अगर जगते पाये गए तो जाकर आचार्य जी को सफ़ाई देकर आओ कि बारह के बाद जग काहे को रहे थे भाई। लेकिन फिर उसमें मस्ती है।

संजय, हमारे साथ है लड़का, संजय रावत ‘पहाड़ी’। वो स्क्वैश में इतना अच्छा खेलने लग गया है कि आपको हैरत न हो कि अगर आप साल-दो साल के भीतर सुनें या पढ़ें कि वो किसी स्तर पर किसी टूर्नामेंट को जीत चुका है। ये होता है दिल लगाकर के खेलने का नतीजा। और दिल लगाकर खेलते हैं फिर दिल लगाकर के काम भी करते हैं।

बहुत ज़्यादा चैलेंजिंग (चुनौतीपूर्ण) काम है हमारा, समाज की ओर से इसमें कोई बहुत समर्थन नहीं मिलता, फाइनेंसेज़ का कोई ठिकाना नहीं होता। लेकिन फिर भी ये सब लड़के मेहनत कर-करके उसको सफल बनाये हुए हैं, सार्थक बनाये हुए हैं।

पूरा जीवन फिर उसमें लगाइए एक साथ। छ: बजे के बाद का जीवन आपका अगर बोरियत से भरा हुआ है तो आप दफ़्तर में भी बोर रहोगे। और टीवी देखना बिलकुल छोड़ो। जो लोग टीवी देखते हैं उनके चेहरे पर टीवी नज़र आने लग जाता है, सही बता रहा हूँ। यहाँ पर ऐसे देखकर बता सकता हूँ कि चैनल कौनसा चल रहा है। (श्रोतागण हॅंसते हैं)

टीवी देखना बिलकुल बन्द कर दीजिए। ज़िन्दगी में बहुत-बहुत-बहुत कुछ है टीवी से कहीं, कहीं बेहतर। और टीवी बिलकुल सबसे निम्नतम श्रेणी की घटिया चीज़ है, एकदम हट जाइए उससे। और पूरी तरह नहीं हट सकते टीवी से तो कम-से-कम चैनलों को लेकर चुनिन्दा हो जाइए कि कौनसा चैनल देखना है और कौनसा बिलकुल नहीं देखना है। बढ़िया ऐप्स को फ़ोन पर डाउनलोड कर लीजिए। ये बड़ी छोटी-छोटी बातें हैं पर यही जीवन निर्धारित कर देती हैं।

आप जानना चाहते हों कौनसी ऐप्स हैं जो आपके फ़ोन में होनी चाहिए, आप कुंदन जी से संपर्क करिएगा। आप जानना चाहते हों कि कौनसी वेबसाइट्स हैं जिनको आपको बुकमार्क करके रखना चाहिए, उनसे सम्पर्क करिएगा। और अगर मेरी दो-चार बातें आपको ठीक लग गयी हों तो ये भी बता देंगे कि हमारे चैनल को सब्सक्राइब कैसे करना है।

ज़्यादातर लोग मेरी बात सुनकर कहते हैं कि दोबारा कभी नहीं सुनेंगे, पर एकाध कोई होता है जो कहता है, ‘नहीं भाई, बात जॅंची है, और सुनना है।' तो वो लोग सब्सक्राइब कर सकते हैं।

चलिए, जितना मैं कर सकता था, मैंने किया। और भी करने के लिए तत्पर रहूॅंगा। आगे जैसी आपकी इच्छा और आज्ञा होगी, अब आपलोग अपनी प्रेरणा से जुड़िएगा, आगे बढ़िएगा। आप आगे बढ़ेंगे, मैं उपस्थित रहूॅंगा। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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