प्रश्नकर्ता: आचार्य जी को कोटि-कोटि प्रणाम। पिछले दो सालों से आपको सुन रहा हूँ। मेरा सवाल कुछ इस प्रकार से था कि अभी हम लोग देख रहे हैं कि तकनीकी बहुत बढ़ गई है। हम बहुत चरम पर हैं अभी मनुष्यता, और आध्यात्मिक रूप से भी हमारे इर्द-गिर्द बहुत प्रपंच हैं। ख़ास करके हमारे उत्तराखंड में भी; देवभूमि हम इसे कहते हैं, पर मैं देखता हूँ घर में, समाज में और हर जगह बहुत पाखंड है। ख़ुद मैं भी इस चीज़ का शिकार हुआ हूँ। हमारा जो मनुष्य जीवन है एक अभिशप्त जीवन है। हमारा जीवन ही ग़लती है। वो इस ओर भी इशारा करता है कि क्या पृथ्वी से मनुष्यता को विदा हो जाना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: आपने तीन-चार बातें कहीं, उनको एक-एक करके लेंगे। पहली बात का उत्तर दे लूँ तो दूसरी-तीसरी याद दिलाइएगा। आपने देवभूमि उत्तराखंड की बात करी, आपने इंसान के पैदा होने की ग़लती की बात करी। और एक-दो बातें और।
तो ये वास्तव में तीन या चार प्रश्न हैं, इनको याद दिलाइएगा। पहले मैं यहीं से शुरू कर देता हूँ कि अगर इंसान का पैदा होना ही ग़लती है तो क्या पृथ्वी से मनुष्य जाति को विलुप्त हो जाना चाहिए। समझिएगा। जो पैदा नहीं हुए हैं उनको अनाप-शनाप पैदा मत करो, यह ग़लती होगी। जो अभी अस्तित्व में है ही नहीं उसे व्यर्थ ही अस्तित्व में मत लाओ, यह बहुत बड़ी ग़लती होगी। इस बात को एक आवश्यक नियम की तरह नहीं कह रहा। इस बात को मैं शर्तों के साथ कह रहा हूँ।
किसी जीव को दुनिया में लाने से पहले यह विचार किया जाना चाहिए कि क्या आप उसे वाक़ई एक ऊँचा जीवन देने की स्थिति में हैं।
जीव को जन्म देना वैसा ही होना चाहिए जैसे कोई ऊँचा लेखक एक नयी किताब लिखे, जैसे कोई चित्रकार या शिल्पकार अपने एक नए उपक्रम, एक बड़े प्रोजेक्ट पर काम शुरू करे। बहुत सोच-समझकर, बड़ी बारीकी से, बड़े बोध और विवेक के साथ; अन्यथा वह ग़लती होगा। तो मैं नहीं कह रहा हूँ कि बच्चे का जन्म लेना ही ग़लती है। ग़लती है अनाप-शनाप और अनियोजित, अविवेकी जन्म देना।
आप अभिभावक हो और आपको पता हो कि आपका अपने ही चित्त पर कोई नियंत्रण नहीं है। आपको अपने ही मन का कोई बोध नहीं है तो आपको ईमानदारी से कह देना चाहिए कि आपको अभी जन्म देने का अधिकार नहीं है। भविष्य में मिल सकता है, हो सकता है पाँच साल बाद ठीक हो जाए मामला। लेकिन अभी आपको मान लेना चाहिए कि आप उस स्थिति में नहीं हैं कि अभिभावक बनें। वह बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। ठीक है।
तो ग़लती कहाँ पर होती है? ग़लती बच्चे की नहीं है कि उसने जन्म ले लिया और उस ग़लती को ठीक करने के लिए बच्चे को मार ही डालो कि इसने जन्म ही क्यों ले लिया। नहीं, ग़लती अभिभावक की है। हम लौटकर आते हैं इसी बात पर कि मनुष्य पशु नहीं होता। पशु अनाप-शनाप जन्म दे, कोई फ़र्क नहीं पड़ जाएगा; लेकिन मनुष्य भी अगर पशुओं की तरह प्रजनन करने लगे तो फिर वह मनुष्य नहीं है।
एक बार बच्चा पैदा हो गया, अब वह पूरे प्रेम का, स्नेह का, सम्मान का अधिकारी है। उसको ग़लती मत बोल दीजिएगा, यह बहुत बड़ी भूल हो जाएगी।
हो सकता है वह बच्चा बिलकुल ही संयोगवश पैदा हुआ हो; उसका पैदा होना ही बिलकुल एक दुखद दुर्घटना जैसा हो, हो सकता है। लेकिन फिर भी उस बच्चे को भूल या ग़लती मत बोल दीजिएगा। अब वह जन्म ले चुका है। जीवन पर उसका पूरा अधिकार है। हो सकता है कि वह किसी दंपत्ति का आठवाँ बच्चा हो, तो भी उसे जीने का पूरा अधिकार है और ससम्मान जीने का अधिकार है। अब वह ग़लती नहीं है।
ग़लती तो अभिभावकों की थी उसके जन्म लेने से पहले। तुमने जन्म क्यों दिया? लेकिन जो जन्म ले चुका है उसने कोई भूल नहीं करी है। उसको सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। किसी भी अन्य बच्चे की तरह वो भी अच्छे पालन-पोषण और अच्छी शिक्षा का अधिकारी है। ये अंतर समझ में आ रहा है?
क्योंकि अब वह संभावना है। जो भूल होने की थी वो तो हो चुकी। अब संभावना है, किस चीज़ की? मुक्ति की। अब संभावना यह है कि यह जो जन्म ले चुका है, बिलकुल सूरज बनकर चमके, ये अपने शिखर को पाए। अब ये मत कह दीजिएगा कि मनुष्य का तो जीवन ही भूल है, तो ये जितने मनुष्य हैं इनको क्या सम्मान देना, उनकी क्या रक्षा करना।
अगर मनुष्यों की रक्षा की कोई ज़रूरत नहीं है, अगर लोगों की बेहतरी का कोई अर्थ नहीं है तो फिर मैं कोई भी काम क्यों कर रहा हूँ? फिर मैं आपसे बात क्यों कर रहा हूँ? फिर संस्था क्यों मिशन में लगी हुई है? फिर तो हम कह सकते हैं न कि मैं भी भूल हूँ, आप भी भूल हैं, जल्दी से जल्दी यह भूल ख़त्म हो जाए वही ठीक है। चलो गंगा की ओर, गंगा किनारे शिविर क्या लगाना! नहीं।
तो मैं कहता हूँ, जो हैं उनको बिलकुल हथेली पर पालो-पोसो। हर जीव गहरे से गहरे प्यार का और अच्छी से अच्छी शिक्षा का हक़दार है। और तुम उसका यह अधिकार उसको दे सको इसीलिए यह ज़रूरी है कि तुम जानवरों की तरह मत पैदा करो। नहीं तो जो बच्चा पैदा हो रहा है उसका अधिकार उसे नहीं दे पाओगे। समझ में आ रही है बात? हिंसा है या नहीं कि पैदा कर दिया और बर्बाद कर दिया बच्चे को?
तो मैं जो बात मैं बोल रहा हूँ वह बच्चों के विरोध में नहीं बोल रहा हूँ, बच्चों के प्रेम में बोल रहा हूँ। इसी तरीक़े से जब हम कहते हैं मनुष्य सबसे ख़तरनाक और हिंसक प्रजाति है इस पृथ्वी पर और मनुष्य प्रजाति ने ही कितनी प्रजातियों को बर्बाद कर डाला, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मछलियाँ सब नष्ट कर दी इंसान ने। तो इसका समाधान यह नहीं है कि इंसान को ही ख़त्म कर दो और बाक़ी सारी प्रजातियाँ बच जाएँगी।
जब हम सब प्रजातियों को बचाने की बात कर रहे हैं तो सब प्रजातियों में तो मनुष्य प्रजाति भी आती है, या नहीं आती? या हम ये कह रहे हैं कि बाक़ी सब बचे रहें और इंसान को मार दो? ऐसा तो नहीं है कि बकरी का बच्चा बचाना है और इंसान का बच्चा मार डालना है। ऐसा क्या बुरा है इंसान के बच्चे में? ऐसा तो नहीं है कि पेड़ों को कटने से बचाना है और इंसान सारे काट डालने हैं। ऐसा क्या बुरा है इंसानों में?
हमें सबको बचाना है और सबको बचाने के लिए ही यह ज़रूरी है कि इंसान की बुद्धि थोड़ी शुद्ध की जाए – वही काम हम कर रहे हैं। तो ह्यूमन हेटर (मनुष्य विरोधी) होने से कोई लाभ नहीं है। यह बात रोमांचक फिक्शन (उपन्यास) में शोभा देती है। किसी ने देखा कि पूरी दुनिया का नाश हुआ जा रहा था मनुष्यों के द्वारा, तो उसने सब मनुष्य ही ख़त्म कर दिए ताकि दुनिया बच सके। ये कोई बात नहीं है।
होमोसेपियंस एक बड़ी शानदार स्पीशीज़ (प्रजाति) है। उसके पास कुछ अद्भुत शक्तियाँ हैं जो अन्य प्रजातियों के पास नहीं हैं। उसको नष्ट नहीं होने देना है, उसको सही रास्ते पर लाना है। स्पष्ट हो रही है बात? जो ठीक नहीं है उसे मिटाना है ताकि जो ठीक है वह चमक कर उभर सके। काम निहिलिस्टिक (शून्यवादी) नहीं होना चाहिए, डिस्ट्रक्टिव (विनाशकारी) भर नहीं होना चाहिए।
अगर डिस्ट्रॉय (नष्ट) करना है, ख़त्म करना है तो उन सब चीजों को जो सबके कल्याण के और हमारी मुक्ति के रास्ते में बाधा बनती हैं। आप ऐसा तो नहीं करते न कि कोई आपके घर में है जो बहुत बिगड़ा हुआ है, उसको मार ही दें, ऐसा तो नहीं करते न। उसका क्या करना चाहते हैं आप? सिखाना, सुधारना चाहते हैं; वही करना है।
प्र: आज के परिवेश के हिसाब से मैं कह रहा था, वैश्विक स्तर पर हम बहुत उन्नति कर चुके हैं। और अध्यात्म का सबसे बुरा हाल हुआ है आज के समय में। तो ऐसी स्थिति में, मनुष्य के लिए ख़ासकर क्योंकि मनुष्य के हाथों ही हुआ है, समग्र जीवन की क्या परिभाषा होनी चाहिए समाधान के तौर पर? किस तरह से वह अपना जीवन व्यतीत करे जिससे कि सबका का कल्याण हो?
आचार्य: वो तो आपकी समझ ही समाधान है। एक समग्र जीवन का खाँचा, नमूना, मॉडल सबको नहीं दिया जा सकता। प्रतिपल आपको अपने लिए निर्णय करने पड़ते हैं और सब का जीवन अलग-अलग है; सबको अपने लिए अलग-अलग निर्णय करने पड़ते हैं। उसमें एक ही चीज़ आपके काम आ सकती है – आपकी सतत समझदारी। समझदारी पर पर्दा डाल देती हैं हमारी प्राकृतिक वृत्तियाँ और सामाजिक धारणाएँ। कुल बात इतनी है।
सामाजिक धारणाओं को जानना है कि वो अपनी नहीं हैं, बाहर से आयीं आयातित हैं। और प्राकृतिक वृत्तियों को जानना है कि ये मेरे भीतर ही माया बैठी है जो मेरे भीतर भावनाओं का तूफान लाती रहती है। उनके चंगुल में नहीं आना है। आप जब किसी स्थिति को जान लेते हैं, उस पर ध्यान दे लेते हैं, तो अपनेआप सही रास्ता वहाँ से निकलता है। कोई और विधि नहीं है।
कोई आपको इसमें स्पष्ट निर्देश नहीं दिए जा सकते। कोई इसका फॉर्मूला (सूत्र) नहीं हो सकता। बिलकुल नहीं कहा जा सकता कि फ़लाने काम हमेशा ठीक हैं और फ़लाने काम हमेशा ग़लत हैं। ना कोई बड़ी भारी किताब रची जा सकती है जिसमें जीवन की हर स्थिति के बारे में लिखा हो कि ऐसा हो जाए तो ऐसा करो, ऐसा हो जाए तो ऐसा करो, ऐसा हो जाए तो ऐसा करो।
जीवन अनंत है, इसमें आने वाली स्थितियाँ भी अनंत हैं। इस तरह का प्रयत्न अगर कोई किताब करेगी तो असफल हो जाएगी। पहली बात तो वो किताब कभी पूरी नहीं हो सकती। पूरी कोई कर भी ले अपनी समझ से, तो भी वह असफल होनी तय है। अनंत किताब में कुछ खोजोगे कैसे? और फिर ये भी क्या वो किताब बताएगी कि कब किताब से पूछना है? तो ले-देकर के फ़ैसला तो ख़ुद को ही करना है।
हमारे चित्त पर कोहरा छाया रहता है। अभ्यास कर-कर के उसको हटाने के अलावा कोई तरीक़ा नहीं है।