प्रश्नकर्ता: गर्लफ्रेंड के साथ सम्बन्धों में क्या आगे की योजना बनानी चाहिए? या अनप्लान्ड, स्पोन्टेनियस (अनियोजित, बिना किसी पूर्वाग्रह के) रहना चाहिए और अगर आपका साथी भविष्य की प्लानिंग की बात करे तो आपको क्या करना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: बेटा, जैसा साथी होगा वैसी तो वो बात करेगा ही न, तो मूल प्रश्न तो ये है कि किसको साथी बनाया है। निश्चित साथी तो एक ही होता है सत्य, आत्मा। बाकी तो सब पल-दो-पल के साथी हैं। किसको साथी बना लिया? अभी हम सारी बात ही संगति की कर रहे थे जिसको तुमने अपना प्रेमी घोषित कर दिया, उसके साथ तो तुम्हारी संगति लम्बी हो गयी न। सशरीर भी एक-दूसरे के साथ रहोगे।
जब सशरीर साथ नहीं हो तो एक-दूसरे का विचार करोगे, संगति तो कर ही रहे हो न। किसकी संगति कर रहे हो, मूल प्रश्न ये है। जिसकी संगति करोगे वो अपनी प्रकृति के अनुसार तुमसे बातें करेगा, तुमसे माँगे करेगा, तुमसे योजना बनाने का आग्रह करेगा; कहेगा, ‘हमारा भविष्य क्या है? हमारा रिश्ता ऐसे चलेगा या इस रिश्ते को हमें कुछ सुरक्षा देनी है?’ इत्यादि।
मन डरा हुआ है तो आगे के लिए सुरक्षा माँगेगा ही। अब अगर तुमने कोई डरा हुआ साथी चुन लिया है, तो ये प्रश्न सार्थक ही नहीं है कि जब मेरा साथी भविष्य की योजनाओं में उतरे तो मैं क्या करूँ। क्योंकि अगर वो डरा हुआ है तो उसे भविष्य की योजना बनानी पड़ेगी। डर और भविष्य साथ-साथ चलते हैं, डरा हुआ मन अनायोजित नहीं जी सकता, डरा हुआ मन खुला नहीं जी सकता, उसे बड़ी असुरक्षा होती है। जिसके साथ हूँ कहीं वो हट न जाए, भाग न जाए उससे पहले ही कुछ ऐसा प्रबन्ध कर लो कि रिश्ता बिलकुल पक्का हो जाए।
मैं चाय पीऊँ और फिर कहूँ चाय यदि गर्म लगे तो क्या करें, तो ये प्रश्न बहुत महत्त्व नहीं रखता क्योंकि चाय तो गर्म होगी ही, उसकी प्रकृति है। तुम मच्छरों के साथ रहो फिर कहो कि मच्छर यदि काटे तो क्या करें। ये प्रश्न बहुत मायने नहीं रखता क्योंकि मच्छर तो काटेगा ही, उसकी प्रकृति है न। और कहानी यहाँ से भी नहीं शुरू होती कि मच्छर ने काटा इसलिए क्योंकि मच्छर की प्रकृति है, कहानी और पीछे से शुरू होती है। तुम्हारी प्रकृति थी मच्छर को आमंत्रित करना तो तुमने मच्छर को आमंत्रित कर लिया, क्योंकि तुम प्रकृतिवश चल रहे थे। अब मच्छर की प्रकृति है काटना तो मच्छर तुम्हें काट रहा है, क्योंकि मच्छर भी अपनी प्रकृतिवश चलेगा।
जब प्रकृति का खेल चल रहा हो तो उसमें किसी के पास कोई विकल्प बचता नहीं है। प्रकृति में तो सब निर्विकल्प होता है न, पत्थर उछालोगे तो पत्थर नीचे आएगा ही। तुम कहो, ‘पत्थर उछालें और पत्थर नीचे आए तो क्या करें?’ तो इस प्रश्न में क्या सार्थकता है? उछला है तो नीचे आएगा ही, खेल प्रकृति का है।
तुमने अगर चुन लिया है ऐसा साथी, ऐसा प्रेमी जिसके मन में डर और असुरक्षा बैठे हैं, तो अब वो तुम्हें परेशान करेगा ही। शुरू-शुरू में सब ठीक चलेगा फिर वो तुमको पकड़कर के कोंचना शुरू कर देगा, अब आगे क्या? तुम कहो कि चल घूमकर आते हैं, वो कहेगा, ‘घूमना-फिरना बहुत हुआ, बताओ फेरे कब लगने हैं?’ अब वहीं घूमेंगे गोल-गोल। फिर तुम कहोगे, ‘अगर साथी इस तरह की बातें करना शुरू कर दे तो क्या करें?’ मैं कहूँगा, ‘जैसा साथी तुमने चुना है, वो तो ये सब बातें करेगा ही। एक साधारण स्त्री है एक साधारण पुरुष ऐसी ही तो बातें करते हैं, अब क्यों रो रहे हो?’
करता था तो क्यों रहा अब काहे पछताए बोए पेड़ बबूल का अमुआ कहाँ से पाए
~ कबीर साहब
जिसको तुमने चुना वो अपनी संगत दिखाएगा या नहीं दिखाएगा? अपना असर दिखाएगा कि नहीं दिखाएगा तुम्हारे ऊपर? तुम तो ये देखो कि तुमने किस केन्द्र से चुना, तुम तो ये देखो तुमने किस भावना से चुना।
समझो कि आमतौर पर होता क्या है — लड़का चुनता है लड़की को क्योंकि लड़की की देह आकर्षक है, बात खत्म। और बातें भी हो सकती हैं पर देह मूल बात होती है। ठीक है उसमें ज्ञान है, उसमें आदाएँ हैं और पाँच-दस बातें हो सकती हैं, पर पाँच-दस बातें ऐसी ही हैं कि जैसे माँस पर मसाला छिड़क दिया गया हो, उससे बस माँस का स्वाद बढ़ जाता है। तो मसाला थोड़े ही खाने के लिए कहते हो कि जाओ, बटर चिकन लेकर आओ। बटर चिकन मँगाया जाता है चिकन की खातिर, बटर और मसाले तो ऊपर की बात है, उनसे मामला ज़रा और लजीज़ हो जाता है बस।
तो बाकी सारे गुण जो आमतौर पर पुरुष स्त्रियों में देखते हैं, वो तो सेकेंडरी हैं। असली चीज़ क्या होती है? माँस, देह। अब पुरुष स्त्री की देह क्यों देख रहा है? क्योंकि पुरुष देख ही नहीं रहा, पुरुष की देह देख रही है। अब पुरुष की देह जब स्त्री की ओर देखेगी तो उसे वापस देह ही नज़र आएगी।
तुम एक उम्र के हो जाते हो, उसके बाद तुम्हारी देह में ही तो रसायन सक्रिय हो जाते हैं न। जब तुम दस साल के थे तब तुम जाते थे क्या प्रेमिका बनाने? या जब तुम तीन साल के थे तब स्त्रियों को उसी नज़र से देखते थे जैसे आज देखते हो? तुम्हारी देह ही तो सक्रिय हो गयी। तुम्हारे भीतर जितने काम सम्बन्धी रस थे, तुम्हारे अंडकोश, यही सब तो सक्रिय हो गये। और जब ये सक्रिय हो गये तो तुमने स्त्री को स्त्री की तरह देखना शुरू कर दिया।
देह को देह चाहिए तो तुम जाकर के स्त्री के नाम की एक देह पकड़ लाये। बुनियाद ही इस रिश्ते की क्या है? देह, तो जिस देह को लेकर आये हो अब उसकी भी मंशा हमेशा यही रहती है कि और देहें कैसे आए। अब उसको घोंसला बनाना है, उसे अंडे देने हैं, उसे बच्चे करने हैं। अब तुम परेशान हो जाते हो, कहते हो, ‘मैं तो इसे बस इसलिए लाया था कि ज़रा मनोरंजन होता रहे, बीच-बीच में शारीरिक सुख मिलता रहे, ये तो दूर की बात करने लगी, ये तो अब कहती है कि फेरे लो और बच्चे चाहिए — ये तो हमें चाहिए ही नहीं था।’
तुम्हें नहीं चाहिए होगा, तुम जिसको लेकर आये हो उसको तो चाहिए न। तुम्हारी देह को जो चाहिए था वो तुमने कर लिया, अब उसकी देह को जो चाहिए वो भी तो करेगी न। हाँ, तुमने रिश्ते का आधार ही दूसरा रखा होता तो बात ज़रा अलग होती। आत्मा-से-आत्मा का रिश्ता होता, बोध-से-बोध का रिश्ता होता तो तुम स्त्री ही फिर दूसरी चुनते, फिर वो व्यर्थ की बातें नहीं करती।
और लोग खूब आते हैं मेरे पास भी शिकायतें लेकर के, कहते हैं, ‘पहले ये दूसरी थी अब दूसरी हो गयी।’ अजीब बात! गाय लाये हैं, गोबर नहीं साफ़ करना; और कह रहे हैं, ‘ये तो बिलकुल सफ़ेद गाय थी, ये काला-काला गोबर कहाँ से आ गया?’ पगले! उसी में था वो तो पहले तुम्हें दिखाई नहीं देता था, था उसी के भीतर अब प्रकट होने लग गया।
लेकिन अपनी तरफ़ से इनकी जो शिकायत है, बड़ी वाजिब रहती है, कहते हैं, ‘गाय सफ़ेद-सफ़ेद और सुन्दर-सुन्दर, हम तो गाय लेकर आये थे और गोबर काला-काला दुर्गन्धयुक्त; ये कहाँ से आया?’ वो लेकर आयी है पागल, पहले काहे न दिखा तुमको? तुमने क्या सोचा था बस सफ़ेद गाय और सफ़ेद दूध? यहाँ मामला दूर तक जाता है।
कर्मों में बहुत ध्यान से उतरो क्योंकि कर्मफल भोगना ही पड़ता है। गाड़ी खरीद लो फिर कहो कि सर्विसिंग नहीं कराएँगे, ऐसा नहीं हो पाएगा। और अक्सर गाड़ी जितनी सुन्दर होती है आकर्षक, उतना ज़्यादा मेंटेनेंस माँगती है, रख-रखाव्। तुम कहो, ‘अरे! बाप रे, इसके तो हर महीने का बीस हज़ार लग रहा है, किसी-किसी महीने लाख लग जाता है।’ तो तुम्हें शिकायत करने का कोई हक नहीं है, क्योंकि पहले तुम ही थे जो रूप-रंग देखकर आकर्षित हुए थे।
रिश्ते का आधार बदल दो, साथी का व्यवहार बदल जाएगा। जब तक रिश्ते का आधार देह है साथी भी देह-प्रेरित बातें ही करेगा। रिश्ते का आधार आत्मा कर दो, तुम पाओगे — साथी की बातें, साथी का व्यवहार, साथी का मन, उसकी प्रेरणा सब बदल गये; वो तुम्हें दूसरी तरह से देखने लगेगा। और जब तक तुम स्त्री को देह की तरह देख रहे हो, तब तक वो भी तो तुम्हें एक जिस्म की तरह ही देखेगी। तुम उसे जिस्म की तरह देखना बन्द करो वो, भी तुम्हें जिस्म की तरह देखना बन्द करेगी।
व्हाट टेक्स्ट यू टू योर ब्यूटीफुल हार्ट इज़ ब्यूटीफुल (जो तुम्हें तुम्हारे सुन्दर हृदय की ओर ले जाए, वही सुन्दर है) — “सत्यं शिवम् सुन्दरम्।” सुन्दरता की परिभाषा ही यही है — या तो सत्य सुन्दर है या जो सत्य की ओर ले जाए, वो सुन्दर है। अभी दो ही चार रोज़ पहले अमीर खुसरो साथ थे हमारे, क्या बोल रहे थे?
अपनी छवि बना के जो मैं पी के पास गयी, जब छवि देखी पीउ की मैं अपनी भूल गयी।
सत्य बहुत सुन्दर है, सत्य मात्र सुन्दर है। ठीक है?
प्र: आचार्य जी, इसके लिए काफ़ी करेज (हिम्मत) चाहिए होता है कि मुझे सही पता है लेकिन मैं टेंडेंसीज (वृत्ति) की वज़ह से गलत में…….
आचार्य प्रशांत: हिम्मत भी चाहिए, अपने प्रति प्रेम चाहिए, अपना नुकसान नहीं होने दूँगा ऐसी दृढ़ भावना चाहिए। क्योंकि जानते तो हो ही कि जो करने जा रहे हो, वो भारी पड़ेगा फिर भी कर जाते हो। अपने प्रति बहुत प्यार होना चाहिए कि मैं ऐसा क्यों होने दूँ जिसके कारण आगे पछताना पड़े, रोना पड़े। अभी के क्षणिक सुख के लिए, प्रमाद के लिए, आलस के लिए मैं क्यों आगे अपने अपमान का, अपने दुख का साधन तैयार करूँ?
प्र: आचार्य जी, हर मोमेंट-टू-मोमेंट (पल-प्रतिपल) तो लगातार करना है।
आचार्य प्रशांत: जब दुख कभी भी आ सकता है तो दुख के प्रति सतर्कता भी प्रतिपल होनी चाहिए न। दुख थोड़े ही कहेगा कि दिन के दो ही घंटों में आता हूँ मैं, वो तो कभी भी चढ़ जाता है, तो उसके खिलाफ़ तैयारी भी लगातार होनी चाहिए।
प्र२: अपने प्रति जो छल करते हैं हम आत्म-प्रवंचना, सेल्फ डिसेप्शन कैसे पकड़ा जाए और ग्रन्थों और सन्तों के गलत अर्थ निकालने से कैसे बचें?
आचार्य प्रशांत: तुम तो वही निकालोगे अर्थ जो तुम निकाल सकते हो। किसी ऐसे की संगत कर लो जो तुम्हारे छल को उद्घाटित कर देता हो। और आमतौर पर ऐसे के ही पास हम जाने से सबसे ज़्यादा कतराते हैं। तुमने कोई अर्थ निकाला किसी सूत्र का, किसी श्लोक का, दोहे का तुम अपना अर्थ लेकर के गुरु के सामने जाओगे ही नहीं क्योंकि तुम्हें पता है कि सम्भावना यही है कि उस अर्थ के चिथड़े हो जाने हैं। जो खयाल, जो निष्कर्ष तुमने किया है, वो झूठा और व्यर्थ साबित हो जाना है। तो तुम कहोगे, ‘नहीं, अगर मुझे अपनी बात बचाकर रखनी है तो मैं अपनी बात ज़ाहिर ही नहीं करूँगा।’
तो आत्म-प्रवंचना से बचने का यही तरीका है कि अपनेआप को ज़ाहिर करते चलो, अपनेआप को उद्घाटित करते चलो उसके सामने जिसको झूठ पसन्द नहीं। तुम अपनेआप को खोलोगे वो झूठ को देखेगा, वो तुरन्त झूठ को हटा देगा, बचा क्या? सत्य मात्र। यही तरीका है।
प्र२: आचार्य जी, जब हम छुपाते रहते हैं सही चीज़ को भी, तब भी हमें पता होता है कि मैं….?
आचार्य प्रशांत: ज्ञान और उचित कर्म साथ चलते हैं, ये हो नहीं सकता कि तुम समझते हो पर करते नहीं। जो कहते हैं कि हम समझते हैं पर करते नहीं, उनसे मैं कहता हूँ, ‘तुम समझते ही नहीं हो, तुम्हारी समझ, तुम्हारा ज्ञान बहुत सतही है, ऊपर-ऊपर का है, जीवन में अभी नहीं उतरा है।
प्र२: इसका मतलब पैटर्न तो वही-के-वही चल रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: हाँ, इसका मतलब तुम्हारा ढर्रा है, तुम्हारा पैटर्न है और ज्ञान उस पैटर्न के ऊपर जाकर के बैठ गया है। एक ट्रेन चली जा रही है, उसके ऊपर कबूतर जाकर बैठ गया, ट्रेन रुक जाएगी क्या? बोलो? तो ऐसा होता है तुम्हारा ज्ञान कि तुम्हारे ढर्रे की विशाल रेलगाड़ी और उसमें इंजन लगा हुआ है हज़ार-लाख हॉर्स पॉवर का, वो चली जा रही है और उस पर बैठा दिया तुमने एक ज्ञान रूपी कबूतर, और तुम कह रहे हो, ‘ये गाड़ी रुक क्यों नहीं रही?’ नहीं रुकेगी।
चलो इसको और थोड़ा समझा देता हूँ। ज्ञान को मान लो कि लाल झंडा है, वो लाल झंडा तुमने ट्रेन के ऊपर रख दिया, ट्रेन रुकेगी? नहीं, पर तुम तो खुद ट्रेन में ही हो, तुम जो कुछ करोगे ट्रेन के भीतर-ही-भीतर करोगे, क्योंकि तुम स्वयं क्या हो? ढर्रा बद्ध, पैटर्न बद्ध; वही तो तुम हो न। ट्रेन के भीतर लाल झंडा कहीं भी हो ट्रेन रुक नहीं जाएगी, या रुक जाएगी? ट्रेन के ऊपर हो, ट्रेन के अन्दर हो, अगले डिब्बे में हो, पिछले डिब्बे में हो, इंजन में भी लाकर रख दो लाल झंडा, ट्रेन रुक जाएगी क्या?
तुम्हें कोई ऐसा चाहिए जो तुमसे बाहर का हो, वो दूर कहीं से लाल झंडा दिखाए; तुमसे सुदूर होना चाहिए। और वहाँ से जब लाल झंडा दिखाया जाएगा तो ट्रेन रुक जाएगी। दिखा वही झंडा रहा है वो जो झंडा पहले तुम्हारे पास था, पर तुम्हारे पास है वो ज्ञान तो तुम्हारे काम का नहीं है, उसके पास है वो ज्ञान तो तुम्हारे काम का है। वो दूर से कुछ करेगा कि तुम रुक जाओगे।
आयी बात समझ में?
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