
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। कुल जमा कर सारा निचोड़ यही है कि अपने आप को हठी कैसे बनाएँ? जिद्दी कैसे बनाएँ? क्योंकि हम वहीं हार जाते हैं, प्रतिदिन, हर पल जो आसान होता है, उसी का चयन कर लेते हैं।
आचार्य प्रशांत: तो उस ज़िद को प्रेम भी कहते हैं, है न।
प्रश्नकर्ता: आसानी से होता नहीं है।
आचार्य प्रशांत: याद नहीं आता कई बार, इसीलिए फिर सही संगति चाहिए होती है। जैसे आमतौर पर भी, बिल्कुल ये ज़मीनी तल का उदाहरण है। हम कह रहे हैं कि जब ज़मीनी तल पर भी ये होता है, तो सोचो थोड़ा ऊपर कितना होता होगा। आमतौर पर भी, जैसे यहाँ लोग खड़े हैं, बहुत सारे जवान लोग हैं। ये वैसे भले ही मान लीजिए, ये सिंगल हैं, इनके पास कोई जोड़ीदार नहीं है। तो ये वैसे भले ही मौज में घूमते रहें, पर किसी ऐसी जगह पहुँच जाएँ जहाँ सब कपल्स हों, जोड़े ही जोड़े हों। तब इनको उठेगा कि “मैं ऐसा क्यों हूँ?” नहीं उठना चाहिए, पर उठेगा, “मेरे साथ कौन है?”
तो वैसे ही प्रेम कठिन चीज़ होती है थोड़ी। हम अपने आप को बहाना दिए रहते हैं कि अगर मेरे जीवन में प्रेम नहीं है, तो इसलिए नहीं है क्योंकि कठिन है। प्रेम कठिन है।
संगति ऐसों की करिए जिनकी ज़िंदगी में प्रेम हो, वो आपसे आपके बहाने छीन लेंगे।
आप कैसे उनके सामने ये बहाना बना पाओगे कि प्रेम कठिन चीज़ था, इसलिए मैंने अस्वीकार कर दिया। आप देखो उनको, उनकी ज़िंदगी में प्रेम ही प्रेम है। प्रेम है, माने ये नहीं कि जोड़ीदार है कि बगल में किसी को लेकर घूम रहे हैं। अब मैं थोड़ा ऊपर की बात कर रहा हूँ, मैं ऊपर वाले प्रेम की बात कर रहा हूँ। नहीं तो आसान हो जाता है, आप अपने आसपास ऐसे ही लोगों का जमावड़ा बना लेंगे जो सब अप्रेमी हैं, लवलेस हैं। तो आपको भी और ज़्यादा निश्चित होता जाएगा कि लव इज़ इंपॉसिबल। क्यों? क्योंकि मेरे पास सौ प्रमाण हैं। ये देखो, सौ लोग खड़े हैं, यही मेरा सोशल सर्किल है। और इन सौ लोगों में कहीं भी मुझे वो ज़िद, वो प्रेम दिखाई नहीं देता।
इससे क्या सिद्ध होता है?
कि हो ही नहीं सकता। इससे ये सिद्ध होता है कि हो ही नहीं सकता। तो संगति इसीलिए बहुत बड़ी चीज़ होती है। सौ लोग मिलकर जो सिद्ध कर रहे हैं कि प्रेम असंभव है, इन सौ लोगों की बात को एक दूसरा उदाहरण, एक विपरीत उदाहरण काट सकता है, उसकी खोज करनी चाहिए। वो जो अकेला है, जो विपरीत है, जो अनूठा है, जो इन सौ से भिन्न है, वो इस लायक है कि इन सौ को लात मारकर भी उसको पाया जाए। क्योंकि वो अकेला काफ़ी है इन सौ को झूठा साबित करने के लिए। ये सौ कह रहे हैं, प्रेम असंभव है। अगर प्रेम असंभव होता तो सबके लिए होता, एक में भी कहाँ से आ गया? तो
सौ के झूठ को एक का सच काट सकता है। उस एक की तलाश करनी चाहिए, उसी की संगति करनी चाहिए।
और ये सौ उस एक से बहुत घबराएँगे, क्योंकि एक करोड़ लोगों के झूठ को एक आदमी का सच काट सकता है।
प्रश्नकर्ता: आई विल अपॉलजाइज़, इट्स माय क्वेश्चन। थोड़ा सा ज़्यादा लंबा होगा। आई कम फ्रॉम अ बैड होम, व्हिच यू वुड कॉल दैट बैड मैरिज, प्रोडक्ट ऑफ़ अ बैड मैरिज। माय फादर डाइड अराउंड थ्री-फोर इयर्स बैक। आई वाज़ लाइक अ किड। तो हम मतलब वही, मुझे उनसे ये ज़्यादा सीखने को मिला कि मुझे क्या नहीं करना है, रैदर दैन कि मुझे क्या करना चाहिए। लेकिन हम लोग हमेशा, जैसा आपके साथ भी मैंने सुना है, हम लोग मोस्टली अपने रिश्तों में एक स्क्रिप्ट फॉलो करते हैं। और वो स्क्रिप्ट के चलते ही एक इंसान को, अगर वो गलत काम करता है, तो आप उसको एक ऐसी नज़र से देखते हैं कि ये कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन ये वो नहीं हो सकते जिनकी मैं इज़्ज़त करूँ।
वो पूरी ज़िंदगी मेरी उसी में निकल गई, शायद उनको उस नज़र से ना देखने में जो एक नॉर्मल घर का बच्चा अपने पिता को देखता होगा। जब उनकी डेथ हुई, तो उसके बाद वो सब, मतलब एक पॉसिबिलिटी जानने के बाद, ये भी आई कि हाँ, मैं उनको एक अलग नज़र से देख सकता था। शायद, मतलब ये मेरा अहंकार हो सकता है, लेकिन कुछ भी, मैं उस टाइम में यही बोलता था कि मैं उनको माफ कर सकता था। लेकिन शायद मैं उन्हें उस नज़र से देख सकता था कि उन्हें भी उतना ज्ञान नहीं है कि ज़िंदगी कैसे जीनी है। और जैसे सारी शादियाँ ऐसी अज्ञानता में होती हैं, उनकी भी हुई और उसके बाद हम लोग आए।
अब एक लड़का बड़ा होता है। वो एक उम्र तक पहुँचता है। उसके सारे बचपन के झूठ ख़त्म होते हैं, जो बचपन में रिश्तेदार बताए गए थे कि ये अच्छे हैं। ये सब हैं। ये प्यार करते हैं। बड़े चल के वो सब किसी-न-किसी तरीके का जो भी स्वार्थ होता है, वो सब आता है। वो बाहर की तरफ़ देखता है। वो देखता है कि हाँ, मुझे कहीं पर प्यार मिल सकता है। क्योंकि हर तरीके की फिल्म, पॉडकास्ट, हर चीज़ ने उसे बता दिया होता है कि हाँ, यहाँ पर कोई मिलेगा। आपके लिए कोई है, एक हीरोइन जो वेट कर रही है, और आप मिलोगे कभी-न-कभी।
आपका सारा प्यार, जो भी होता है, वो ख़त्म एक और माया पर होता है जिसका नाम सेक्स है, और होने के बाद आपको समझ में आता है कि उससे कुछ नहीं मिलता, जितना कंज़म्प्शन आप कर सकते हो, जितना भी आप चाहे, अल्कोहल, ड्रग्स, पैसा, सेक्स, लोकधर्म, आप कुछ भी करते हो सब ख़त्म है।
आप अपने आप को तोड़ना शुरू करते हो। आपके किसी एक ऐसे इंसान से मिलते हो, जो आपके सारे बिलीफ़्स तोड़ देता है। वो सब ख़त्म होते हैं, धीरे-धीरे करके आप ट्राई करते हो, टेस्ट करते हो, वो सब ख़त्म होते हैं। अपने आप उनकी सच्चाई सामने आती है कि ऐसा जो प्यार आपकी आँखों में दिखता है, या जो भी आपको लगता है कि हाँ, ये इंसान मेरे साथ रहेगा एंड तक, मुझे कुछ ऐसा दे देगा जो शायद मैं चाह रहा हूँ, लेकिन वो नहीं मिलता। वहाँ से प्यार ख़त्म होता है। आप एक बेटर पोज़ीशन पर आते हो, पैसे की, और वो ख़त्म होता है। वहाँ पर आपको कुछ नहीं मिलता। आप कंज़म्प्शन करते हो, कुछ नहीं मिलता।
और उसके बाद एक ये लाइन है: “इफ़ एवरीथिंग गोज़, व्हाट रिमेंस।” तो आगे का रास्ता नहीं पता, जो बता रहे हैं वो वो वाली बात है कि यूरोप बहुत अच्छा है, लेकिन आप गए नहीं हो कभी, पता भी नहीं कि पहुँच पाओगे या नहीं पहुँच पाओगे। लेकिन ये स्टेट में रहा नहीं जा रहा है।
आचार्य प्रशांत: जिन रास्तों से आज तक इतनी जगहों पर पहुँचे हो, कि कह रहे हो कि रहा नहीं जा रहा। उन्हीं रास्तों पर चल के यूरोप भी पहुँच गए, तो ऐसे ही रहोगे। बहुत गए हैं यूरोप। यूरोप माने एक ऐसी जगह जो, ‘इथाका’ पड़ी है? पोएम है ‘इथाका’ पढ़ना। तो वो इथाका एक जगह मानी जाती है, जहाँ हर जवान लड़के को जाना चाहिए। ठीक है, एक मिथ है, ग्रीक मिथ है, कि जहाँ सबको जाना चाहिए और वहाँ जाओगे तो पता नहीं क्या अद्भुत मिल जाएगा। बहुत सुंदर पोएम है, मैंने पढ़ाई भी है, मैंने बोला भी है।
और फिर अंत में आते-आते, पोएट कहता है कि देखो, मुझे माफ करना अगर तुम इथाका पहुँचे और तुम्हें कुछ मिला नहीं तो। ठीक है? एक तरह से बात ऐसी है कि बस ये देख लो, बस ये देख लो कि ऐसा कुछ होता नहीं है। समझो बात को मेरी। लोग अच्छे-बुरे नहीं होते, किसी के लिए भीतर गुस्सा लेकर चलना या ग्लानी लेकर चलना, टेक्निकली गलत है। एथिकली बात नहीं कर रहा अभी, टेक्निकली गलत है। समझाता हूँ।
लोग हैं ही नहीं, तो उन पर गुस्सा कैसे करोगे? टेक्निकली गलत है। ऐसी सी बात है कि जैसे तुम पूछो कि कोई कॉम्प्लेक्स नंबर ग्रेटर दैन ज़ीरो है कि लेस दैन ज़ीरो है। सवाल टेक्निकली गलत है न। लोग नहीं होते, प्रोसेसेज़ होते हैं, उनकी कंडीशनिंग होती है। हमारी भी कंडीशनिंग होती है। जिनकी कंडीशनिंग हमारी कंडीशनिंग से किसी तरीके से मेल खा गई, उनको हम कह देते हैं अच्छे लोग हैं। जिनकी मेल नहीं खाई, उनको हम कह देते हैं बुरे लोग हैं। क्या अच्छा, क्या बुरा, कोई भी नहीं होता। हम तो मिट्टी के पुतले हैं, जिस पर तरह-तरह के संस्कार पड़े हुए हैं, और उसी के अनुसार हम अपना पूरा व्यवहार करते रहते हैं। है न?
तो हम क्यों कहें कि मेरे घर में मेरे पिता या कोई भी, मेरे दोस्त या रिश्तेदार या मॉडल्स या गुरु जो भी हैं, सब दुनिया के लोग, ये बुरे हैं। वो बुरे नहीं हैं, वो हैं ही नहीं। वो हैं ही नहीं, तो आप उनको देख के बस यही कह सकते हो: देयर इज़ नो पर्सन हियर, देयर इज़ जस्ट अ प्रोसेस। और जिस दिन पर्सन आ गया सचमुच, उस दिन अच्छाई शुरू होती है।
अब ये जो प्रोसेस चल रहा है, फिर कह रहा हूँ, इसमें हम कुछ को बुरा मान लेते हैं और कुछ को कम बुरा मान लेते हैं। हम डिफरेंशिएशन करके कोई डिफरेंशिएशन करने की ज़रूरत ही नहीं है। डिफरेंशिएशन बस एक हो सकता है: कौन अभी इंसान बन पाया और कौन नहीं बन पाया। जो नहीं बन पाया, उसमें ये बंटवारा करना कि इनमें भी कुछ अच्छी कठपुतलियाँ हैं और कुछ बुरी कठपुतलियाँ हैं, ये बेकार की बात है। अगर कोई कठपुतली है, तो कठपुतली ही है। उसको अच्छा या बुरा कहना बेकार की बात है। और ज़्यादातर लोग सिर्फ़ कठपुतलियाँ होते हैं, सिर्फ़ कठपुतलियाँ। ठीक है?
तो उन पर गुस्सा भी बहुत कैसे करें? आपको ये कहना होगा, ये बेचारा और कर ही क्या सकता है? क्योंकि जो एक काम करने लायक था ज़िंदगी में, वो तो इसने किया नहीं। वो क्या था? कि कठपुतली इंसान बन जाए। एक यही काम करने लायक होता है। अब कठपुतली नहीं इंसान बनने वाला, जो एकमात्र दायित्व होता है, रिस्पॉन्सिबिलिटी, वो तो उसने निभाया नहीं। अब जब वो कठपुतली ही है, तो उसको नचाने वाले उसे जैसे नचा रहे हैं, वो नाच रही है।
अब एक कठपुतली बनी हुई है राक्षस, और एक कठपुतली बनी हुई है राजकुमार। और राजकुमार और राक्षस की लड़ाई चल रही है। और हम कह रहे हैं, राक्षस कितना गंदा है। अरे, राक्षस है कि राजकुमार है, दोनों एक बराबर हैं, क्योंकि दोनों हैं ही नहीं। न राक्षस है, न राजकुमार है, दोनों सिर्फ़ कठपुतली हैं।
तो गुस्सा करके क्या होगा? या कि क्षोभ लेकर क्या होगा, कि मेरे साथ अतीत में कुछ गलत हुआ, या दुनिया को देख रहे हो और कठपुतलियाँ ही कठपुतलियाँ नजर आ रही हैं। तो बस ऐसा ही है। कठपुतली कठपुतलियाँ हैं। बस हो गया। देख लो, ऐसा ही है। हाँ, जब उनको देखो और पाओ कि कोई ऐसा है, जिसको अब दर्द उठ रहा है कि मुझे कठपुतली नहीं रहना। वो आँखों के सामने भी हो सकता है और आँखों के पीछे भी हो सकता है। वो वो व्यक्ति भी हो सकता है, वो व्यक्ति तुम भी हो सकते हो। कि कठपुतली है, जिसमें थोड़ी सी जान आ रही है।
कठपुतली कह रही है, मुझे ऐसे नहीं जीना, नहीं जीना। उसकी मदद कर दो, यही सेल्फ लव है और यही निष्काम कर्म है। उसकी मदद करोगे तो ये निष्काम कर्म कहलाएगा और अपनी करोगे तो सेल्फ लव कह सकते हो। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों में काम एक ही होता है। जो कठपुतली थोड़ी-थोड़ी आँख खोलने लगी है और बड़ा दर्द महसूस करने लगी है, उसके साथ हो लो। उसकी थोड़ी मदद कर लो, उसका मालिक मत बन जाना और, कि अच्छा, अब ये कठपुतली अब अवेलेबल है, ये कुछ बदलाव चाहती है। तो बदलाव इसको यही दे देता हूँ कि पहले तेरी डोर किसी और के हाथ में थी, अब मेरे हाथ में रहेगी, ये मत कर लेना। समझ रहे हो बात को?
तो उस अर्थ में तुम यूरोप भी चले जाओगे, जो भी तुम्हारा इथाका, यूरोप है, वहाँ चले भी जाओगे तो वहाँ तुम्हें बस अलग किस्म की कठपुतलियाँ दिखेंगी। वहाँ तुम्हें थोड़ी ज़्यादा रंग-बिरंगी, थोड़ी ज़्यादा गोरी या ज़्यादा और तरह की, या ज़्यादा अमीर कठपुतलियाँ दिख जाएँगी। पर हैं तो वो भी नहीं न, वो भी बस प्रोसेससेस हैं। मूवमेंट्स हैं। एक चीज़ चल रही है, एक एल्गोरिद्म के हिसाब से। उनको अच्छा बोलो कि बुरा बोलें कि क्या बोले?
कभी किसी सॉफ्टवेयर पर ये इल्ज़ाम लगा सकते हो क्या कि तू पापी है? तो अगर हम सब ऐसे ही हैं, कोड हैं बस, तो क्या बोलना कि ये पापी है कि अनएथिकल है। अरे, ये ऐसा है कि वैसा है, कुछ भी नहीं है। वो तो मिट्टी है। ऐसे अभी खड़ा हो गया, अभी गिर जाएगा, ख़त्म हो जाएगा, वो तो अभी पैदा ही नहीं हुआ है।
प्रश्नकर्ता: अच्छा, फिर रह गया क्या? जब सब कुछ आप बिलीफ़ तोड़ने लगते हो, सब आप जान रहे हो।
आचार्य प्रशांत: ये मत कहो, रह क्या गया? अभी तो बहुत कुछ है न तुम्हारे लिए, जो रह गया है, वही तो दुख दे रहा है इतना सारा। अभी कुछ बचाना क्यों चाहते हो? जो रह गया है, पहले उसको हटाने पर केंद्रित हो जाओ। क्योंकि जो रह गया है, वो वो है जिसको तुम समझ रहे हो कि कुछ है, वो है नहीं। जो रह गया है, वो वो है जिसको तुम मान रहे हो कि ये है, पर वो क्या है? कठपुतली है सिर्फ़।
तो ये मत कहो कि जब सब हटा दूँगा, तो क्या बचेगा? ये देखो कि अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ है, जिसको हटाना ज़रूरी है। और नहीं हटाओगे, तो परेशान रहोगे। समझ में आई है बात?
प्रश्नकर्ता: काफ़ी, हाँ सर।
आचार्य प्रशांत: हम ऐसे ही हैं, हम बायोकेमिस्ट्री हैं। हमारा ऐसे ही चलता रहता है, बस कि स्टिमुलस-रिस्पॉन्स, स्टिमुलस-रिस्पॉन्स, स्टिमुलस-रिस्पॉन्स ऐसे ही चल रहा है। रिएक्शन, रिएक्शन, रिएक्शन, रिएक्शन। ठीक है? अब इसमें क्या बुरा मानना, किस हद तक? बुरा भी मालूम है किस पर मान सकते हो अधिक से अधिक? कोई कठपुतली थी, जो जगने लगी थी और ख़ुद आकर बैठी और रोई, कि मैं जग रही हूँ, मेरी मदद कर दो। और फिर वो ख़ुद को ही बिट्रे करे, वो ख़ुद को ही धोखा दे, तब तो कह सकते हो कि तू न, तू अपने ही ख़िलाफ़ अपराधी है। तब तो कह सकते हो, उसके अलावा किसी पर गुस्सा करने का कोई लाभ नहीं।