प्रेम पाने की इच्छा हो तो

Acharya Prashant

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प्रेम पाने की इच्छा हो तो

प्रश्नकर्ता : आचार्य जी, क्या जीवन में इच्छाएँ होनी चाहिए या नहीं?

आचार्य प्रशांत: अपने स्वभाव में तुम स्थित हो जाओ, ये इच्छा बुरी नहीं है। 'इच्छा', 'इच्छा' में फर्क होता है। 'अपेक्षा', 'अपेक्षा' में फर्क होता है। तुम कहो कि तुम्हें बोझमुक्त जीना है, हल्का जीना है, आनदिंत जीना है, ये इच्छा बुरी नहीं है। वास्तव में अध्यात्म में प्रवेश करने के लिए भी, मुमुक्षा तो चाहिए-ही-चाहिए। और मुमुक्षा माने क्या? मोक्ष की इच्छा। बिना इच्छा के तो काम चलेगा ही नहीं। सवाल ये है कि तुम्हारी इच्छा क्या है?

कद्दू की इच्छा और 'सत्य' की इच्छा में फर्क होता है न, कि नहीं होता? क्या चाह रहे हो — जो चाहने लायक है, उसको चाहो। उसको चाहो न जो तुम्हारी बेचैनी मिटा दे। जिसको चाहने के बाद बार-बार चाहते ही रहने की ज़रूरत न पड़े।

प्र: आचार्य जी, परिवार सत्संग में जाने का विरोध करता है, क्या करूँ ?

आचार्य: कितने साल की हो?

(प्रश्नकर्ता हिचकिचाती हैं)

अब उम्र बताने में लाज आती है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

चलो मैं कम करे देता हूँ — तीस की।

तीस की हैं कि तीन की हैं? पति बताएँगे और दिव्या (एक श्रोता) बताएँगी कि तुम्हें कहाँ रहना है, कहाँ नहीं रहना है? तुमने पति शब्द को लगता है बहुत गंभीरता से ले लिया। पति का दूसरा अर्थ होता है मालिक। नौकरानी ही बन गईं क्या?

पति माने स्वामी, तो हम कौन हुए फिर — नौकरानी। संकू? (प्रश्नकर्ता का नाम) अभी तो त्रिशंकु जैसी ही हालत है, कि संकू को एक आदमी उधर खींच रहा है हाथ पकड़ कर, एक कोई इधर रोक रहा है। मैं नहीं जानता कौन सही है कौन गलत। मैं नहीं जानता कि तुम्हारे पति देव सही हैं या नहीं। मैं नहीं जानता कि तुम्हें जाना चाहिए कि रुकना चाहिए। पर एक बात मैं जानता हूँ, जो भी करो अपनी मर्जी से करो न। दबाव में क्यों आ रही हो? तुम्हारा बोध कब जागृत होगा?

प्र: अपनी मर्जी है पर परिवार का दबाव भी है जिस कारण अशांत हो जाती हूँ।

आचार्य: ये हिमांश (पास बैठे श्रोता की तरफ इशारा करते हुए) है इस पर दबाव लगा कर देखो ज़रा। लगाओ। लगाओ, लगाओ। उसे क्या फर्क पड़ रहा है? उसको बोलो कि "आज तू घर नहीं जाएगा।" या उसको बोलो कि "तू अभी उठ कर घर चला जा।" लगाओ जितना दबाव लगाना है। बात इसकी है कि ‘कोई तुमपर दबाव डाल रहा है’ या बात इसकी है कि ‘तुम दबाव में आ जा रहे हो’?

कोई डाल रहा होगा दबाव, तुम दबाव में आ क्यों जा रहे हो? मैं तो सीधे पूछता हूँ, "उसने बोला तो बोला, तुने सुना क्यों?" यहाँ जितने बैठे हैं ज़रा दबाव डालो सब पर, देखते हैं कौन दबाव में आ जाता है। तुम दबाव में आ क्यों जाती हो? ज़रूर कहीं-न-कहीं डरी हुई हो, ज़रूर आश्रि त हो, ज़रूर किसी बात के लिए निर्भर हो। नहीं तो कोई दबाव तुम पर कैसे डाल सकता है?

वो अपनी ओर से कोशिश कर सकता है। पर सफल नहीं होगा। संकू नहीं हो तुम। पूरा नाम याद रखा करो। सुन्दर नाम है — संयुक्ता का अर्थ होता है 'योगिनी', योगिनी समझती हो? आदि योगी ये हैं (शिव की मूर्ती को इगिंत करते हुए) और तुम हो योगिनी, और तुम दबाव में आ गई? संकू मत बनो, संयुक्ता रहो फिर दबाव में नहीं आओगी।

एक तो ये स्त्रियों को बेबी-बेबी बोल कर उनको बच्चा बनाए रखते हैं। वो बेबी ही रह जाती हैं फिर। तुम बेबी नहीं हो तो संकू हो। तुम्हें जाना हो चले जाना, रुकना हो रुक जाना। पर अपनी ताकत पर करो जो करना है। अपनी समझदारी से करो। न रुकना बुरा है, न जाना बुरा है; गुलामी बुरी है, दबाव बुरा है। ठीक है?

इन पर पत्नी का दबाव है, इन पर पति का दबाव है। तुम शादी करते हो, दबाव करते हो? ये पति-पत्नी हैं — दबाव ही देते रहते हैं। अभी खुश हो लो तुम (दूसरे हँसते हुए श्रोता को इगिंत करते हुए)

प्र: केंद्र में पत्नी का डर नहीं है, मूल डर है जो हर जगह है।

आचार्य: ये बात! समझे? अगर तुम पाँच-सात जगह डरते हो तो समझ लेना ये सारे डर एक हैं। भले ही वो डर दिखते कितने अलग-अलग हों। हो सकता है एक तुम साँप से डरते हो, और एक तुम बॉस से डरते हो। पर वो बात एक ही है। तलाशो कि तुम्हारे डर कहाँ-कहाँ हैं। जहाँ-जहाँ तुम्हारे डर हैं, वो सब एक डर है। सब एक डर है। और वो झूठा है, व्यर्थ।

प्र: वह एक डर किस चीज़ का डर है?

आचार्य: किसी 'चीज़' का नहीं है। चीजें अलग-अलग होती हैं। वो डर सिर्फ डर है। वो मूलग्रंथि कहलाती है। वो डर हमारी नसों में दौड़ता है। वो डर हम लेकर पैदा होते हैं। वो डर अपने लिए चीज़ें खोज लेता है। चूँकि तुम्हें डरना है तो तुम कोई भी चीज़ पकड़ लेते हो कि "चलो अब इससे डरते हैं, चलो अब इससे डरते हैं, चलो अब इससे डरते हैं।"

प्र: आचार्य जी, प्रेम के रस में कै से डूबा जाए?

आचार्य: ये सब रोमानी ख्यालात थोड़ी देर के लिए बेहोश कर सकते हैं। तुम्हें ऐसा लग सकता है कि जैसे तुम्हें तुम्हारे झंझटों से मुक्ति मिल गई। पर ये तुम्हें कोई स्थायी मुक्ति नहीं दे सकते। "प्रेम नशे की तरह चढ़ता है, जब छाता है तो ऐसा लगता है जैसे जन्नत मिल गई। और फिर नशा उतर भी जाता है!" और वास्तविक प्रेम ऐसी चीज़ नहीं होता होता जिसको तुम कहो कि "मेरे ऊपर चढ़ जाए"। वो बहुत सूक्ष्म बात होती है। वो सिर्फ तुम्हारी ज़िंदगी में पकड़ में आएगी। किसी की जिदंगी के बहुत करीब जाकर के देखो और वहाँ गहराई पाओ, इंटेंसिटी (तीव्रता) पाओ, करुणा पाओ, तो कह देना कि "इसने प्रेम का रस चखा है।" बात ज़िंदगी की है। बात ज़िंदगी में किसी व्यक्ति विशेष के होने इत्यादि की नहीं है।

प्र: डरना पसंद नहीं है, पता है कि फ़ालतू में डर रही हूँ। लेकिन फिर भी मन से डर नहीं जाता।

आचार्य: आपको डरना तो पसंद नहीं है, आपको पसंद है कि आप निडर रहें। पर निडरता आपकी पहली वरीयता नहीं है न? तुमने बहुत सारा सोना ले रखा हो। बहतु सारा सोना तुमने पहन रखा है और अपने बटुए में भर रखा है। और वो सारा सोना लेकर तुम किसी अँधेरे रास्ते पर चल पड़ी हो। अब डर तो तुम्हें लग रहा है। लेकिन देखो कि अभी स्थिति क्या है। तुम्हें निडरता से प्यार है — बेशक़, सबको पसंद होता है निडर जीना। लेकिन तुम्हें निडरता से भी ज़्यादा किससे प्यार है — सोने से। उस सोने को अगर तुम ज़रा छोड़ दो तो डरने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी न?

तो निडरता तो तुम्हें प्यारी है लेकिन सोना तुम्हें निडरता से ज़्यादा प्यारा है। तो उसको तुम पकड़े हुए हो। निडरता तुम्हारी प्रथम वरीयता नहीं बन पा रही है। शांति प्यारी है न? लेकिन ये विचार शांति से ज्यादा प्यारे हैं। तो बस इनको छोड़ते नहीं।

शांति प्यारी होती तो तुमने इन विचारों को ऊर्जा क्यों दी होती?

प्र: सब अज्ञानता में हुआ है।

आचार्य: अब क्यों देते हो?

प्र: समय लग रहा है, एक ढर्रा बन गया है।

आचार्य: हाँ, अब कुछ बात बनी। अगर ये भी कह रहे हो कि समय लग रहा है, तो ठीक है, धैर्य रखो, जितना समय लग रहा है उसको दो, और डटे रहो। हटेगा धीरे-धीरे। ठीक है?

प्र: ओशो की कई विधियाँ हैं, क्या उनको करना ठीक है?

आचार्य: मैं किसी विधि के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। मैं विधि से चिपक जाने के ख़ि लाफ़ हूँ। और मैं एक विधि को अपना लेने के कारण सैकड़ों अन्य विधियों का प्रयोग न करने के ख़िलाफ़ हूँ। जीवन में प्रति पल विधियाँ चाहिए होती हैं, एक नहीं अनेक, मैं चाहता हूँ तुम्हारे पास अनन्त विधियाँ रहें। जब तुम एक विधि पकड़ लेते हो तो उसी पर बैठ जाते हो।

मैं अभी तुमसे बात कर रहा हूँ, ये एक विधि है। यहाँ पर प्रकाश है, वो भी एक विधि है। बाहर घाँस है, और घाँस पर पानी की बूंदे हैं, और एक सुन्दर प्राकृतिक माहौल है, वो भी एक विधि है। और जीवन में तुम्हें लगातार नई-नई विधियाँ चाहिए होती हैं क्योंकि प्रति पल स्थितियाँ बदल रही हैं। एक विधि एक स्थिति पर ही लागू होती है, उसके बाद नई स्थिति । तो तुम्हें नई विधि चाहिए। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे पास वो सजगता रहे कि तुम प्रति पल नई विधि का आविष्कार कर सको।

मैं किसी विधि के खिलाफ नहीं हूँ। असल में बात थोड़ी विचित्र है। तुम लोग सोचते हो कि ध्यान की विधियाँ करेंगे तो ध्यान मिल जाएगा। मैं कहता हूँ "तुम्हारा ध्यान ऐसा होना चाहिए कि तुम्हें नई-नई ध्यान की विधियाँ मिलती रहें।"

तो अब सवाल करोगे कि "पहले क्या आता है — ध्यान की विधि या ध्यान"? मैं उत्तर दूँगा "पहले ध्यान आता है।" अगर ध्यान न हो तो कौन सी ध्यान की विधि उचित होगी तुम्हारे लिए? तो सर्वप्रथम आवश्यक है कि तुम ध्यान को चुनो। फिर अपने आप जान जाओगे कि कौन सी विधि लगानी है। और विधि तुम लगाते रह गए और ध्यान को तुमने चुना नहीं तो विधि तो बेअसर जाएगी ही न? ध्यान से प्यार होना चाहिए। इसी को मैं कह रहा हूँ — "ध्यान को चुनो" जब ध्यान से प्यार है तो तुम लगातार नए-नए तरीके ढूँढ लोगे कि "इस मौके पर भी मैं ध्यानस्थ कैसे रह जाऊँ? अभी ये हालत है, इस हालत में भी मैं शांत कैसे रह जाऊँ?"

ये नए तरीके कौन ढूँढ लेता है? वो जो ध्यान से प्यार करता है। ध्यान को चुनो। फिर विधियाँ अपने आप खुलती जाएँगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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