प्रेम में अशांति

Acharya Prashant

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प्रेम में अशांति

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं जिसके प्रेम में हूँ उसका मन बहुत अशांत रहता है, उसकी वजह से मैं अशांत हो जाती हूँ तो इससे कैसे निजात पाया जाए?

आचार्य प्रशांत: अपने प्रेम में से स्वार्थ कम करते जाओ। तुम प्रेम में हो, यही सबसे बड़ा इलाज है। और किसी ईलाज की, उत्तर की, समाधान की तुमको ज़रूरत ही नहीं है। प्रेम खुद वो आग होती है जो सारी अशुध्दियों को जला देती है। है न? लेकिन आग जिन लकड़ियों से उठ रही हों, उनका सूखा होना ज़रूरी है, नहीं तो फिर आग में ही जान नहीं रहेगी। वो बस धुधुवाती सी रहेगी। तो बड़े-से-बड़ा इलाज तुम्हें खुद ही मिला हुआ है बस उस दवा को साफ़ रखो। दवा तुमने बिलकुल ठीक चुनी है, पर मिलावटी दवाएँ जानलेवा हो जाती हैं।

प्रेम को निस्वार्थ रखो। प्रेम में जैसे ही अपने स्वार्थ की कामना आई वो प्रेम, प्रेम नहीं है अब। वो फिर मोल-भाव हो गया, खरीदारी हो गई। छीना-झपटी हो गई। फिर नोंच-खसोट शुरू हो जाती है। "मुझे क्या मिला? तुझे क्या मिला?" प्रेम अगर शुध्द है तो फिर तुम्हें और कुछ चाहिए नहीं। प्रेम ही ध्यान, प्रेम ही भक्ति, सब काम उसी से हो जाता है। पर शुध्द होना चाहिए, नोंच-खसोट वाला नहीं। अगली बार जब भी कुछ उलझन हो, वाद-विवाद हो तो यही पूछना अपने आप से, "ये सब कुछ मैं कहीं अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए तो नहीं कर रही?"

प्रेम का अर्थ होता है, खुद पीछे हटते जाना और अपने से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण किसी और को जगह देते जाना। प्रेम का मतलब होता है, खुद छोटे होते जाना और कुछ ऐसा पा लेना जो बहुत-बहुत जगह देने के काबिल हो।

प्र: आचार्य जी, बहुत कुछ करने के बाद भी ऐसा होता है कि सामने वाले को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता।

आचार्य: तो फिर वो इस काबिल ही नहीं है कि उसको ये जगह दी जाए।

प्र: हम तो अपनी तरफ से अपना पूरा सौ प्रतिशत दे रहे हैं मगर सामने वाला ऐसा क्यों है?

आचार्य: प्रेम में, मैंने दो बातें कहीं, तुम्हें स्थान खाली करना है किसी ऐसे के लिए जो बहुत-बहुत बड़ा हो। अब तुम तो स्थान खाली किए जा रहे हो और दूसरे में बड़प्पन ही नहीं है तो बात बनेगी नहीं ना। तो दोनों बातें एक साथ होनी चाहिए, भक्त भी होना चाहिए और भगवान भी होना चाहिए। भक्त को छोटे होते जाना है और भगवान को बड़ा होते जाना है।

प्र: आचार्य जी, इन दोनों में गुरु कहाँ है?

आचार्य: गुरु दूर बैठा हँस रहा है। गुरु तुमको ले आया, ‘गोविंद दियो मिलाय।’ अब क्या करेगा, वो दूर खड़ा हँस रहा है। भक्त को भगवान के पास ले आया गुरु, अब क्या करेगा? क्या करेगा? वो वहाँ खड़ा हुआ है, कहेगा एक मामला और निपटा। गुरु का और क्या काम होता है?

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाय।

वो अपना काम कर चुका। अब तुम जानो, तुम्हारा भगवान जाने।

प्र: आचार्य जी, हमारे लिए सही या गलत क्या है कैसे जान सकते हैं?

आचार्य: जितना तुमको पता है उसपर चलो। मैं तुमसे ये नहीं कह रहा हूँ कि तुम्हें आखिरी और विशुद्धतम सत्य का पता होना चाहिए। अगर मैं तुमसे ये कह दूँगा तो बहुत बड़ी माँग हो जाएगी तुम्हारे ऊपर। मैं तुमसे कहूँ कि तुमको पूर्ण सत्य का पता हो तभी आगे बढ़ना, तो तुम ज़रा भी आगे नहीं बढ़ पाओगे। क्योंकि पूर्ण सत्य का पता हो नहीं सकता। मैं तुमसे कह रहा हूँ, तुम्हें जितना भी पता है, तुम उसके साथ तो इंसाफ करो। तुम्हारी समस्या ये नहीं है कि तुम्हें पूर्ण सत्य नहीं पता। तुम्हारी समस्या ये है कि तुम इतने डरे हुए हो कि जो तुमको पता भी है थोड़ा बहुत कि ठीक है, तुम उसपर भी नहीं चलते।

तुम पूछ रहे हो कि ठीक क्या है, कैसे पता करें? मैं तुमसे पूछ रहा हूँ, "जो तुमको पता ही है कि ठीक है, क्या उसको भी कर रहे हो?" थोड़ा ठीक करके, और ठीक का पता चलता है। बैठे-बैठे आखिरी सत्य तुम्हें नहीं पता चल जाएगा। एक कदम बढ़ाओ तो अगले कदम का पता चलता है। तुम्हें, आधा-तीहा, आंशिक, मिश्रित, जितना पता है उसका पालन तो करो।

कल एक सज्जन से मैं बात कर रहा था। उनसे मैंने कहा था अष्टावक्र गीता पढ़ना।

मैंने पूछा, "कितनी पढ़ी?"

बोले, "ज़रा भी नहीं।"

मैंने पूछा, "क्यों?"

बोले, "कुछ श्लोक समझ में नहीं आए।"

मैंने कहा, "कुछ तो समझ आए थे?"

बात ये नहीं है कि अगर बीस श्लोक हैं तो तुमको बीस के बीस समझ आएँ। तुमको बीस में से पाँच समझ में आ रहे थे? इतने तो आते हैं? तुमने उन पाँच को ही क्यों नहीं जपा? मेरी तुमसे ये बिलकुल उम्मीद नहीं है कि तुम्हें बीस के बीस श्लोक समझ में आएँगे, कि तुम्हें पूर्ण सत्य समझ में आएगा। पर मेरी तुमसे ये उम्मीद ज़रूर है कि जितना तुम्हें समझ में आता है, उसको मत उपेक्षा दो। जो दिख ही नहीं रहा, उसके सामने तो तुम विवश हो। दिखा नहीं, गड्ढा था, गिर गए। पर आँखों-देखी मक्खी तो मत निगलो।

समस्या ये नहीं है कि आँखे गड्ढा देख नहीं पाईं इसीलिए गड्ढे में गिर गईं। कोई बात नहीं गिर गए तो। दिखा ही नहीं, तो गिर गए, कोई अपराध थोड़े ही हो गया। इंसान पैदा हुए हो, इंसान की दृष्टि सीमित। गड्ढा नहीं दिखा तो गिर गए। कोई बात नहीं। लेकिन तुमने आँखों देखी मक्खी निगली तो ये तुमने अपराध किया। जो दिख रहा हो, कम-से-कम उसे अनदेखा ना करो। मैं तुमसे कह रहा हूँ, जो तुम्हें दिख रहा है, उसको क्यों झुठलाते हो? जो तुम्हें दिख रहा ही है, उसके साथ छल क्यों करते हो? अनजाने में भूल हो जाए, कोई बात नहीं, तुम जान-बूझ कर भूल क्यों करते हो? आँखों-देखी मक्खी?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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