आचार्य प्रशांत: खिंचाव है, आकर्षण है, किधर को जाने की इच्छा, बदल जाने का मन; कुछ अनजाना, कुछ नया पा लेने की अभीप्सा। कोई ऐसा है जिसको ये न होता हो? कोई ऐसा है जो किधर को खिंचता न हो? कोई है जिसको कुछ-न-कुछ आकर्षित न करता हो? सब हैं न ऐसे? उसी को प्रेम कहते हैं। लेकिन खिंचाव दो तरह का हो सकता है — एक तो वो जो आपको वहाँ तक ले जाए जो आप सचमुच चाहते हैं, दूसरा वो जो वादा तो ये करे कि असली मंज़िल तक ले जाएगा, ले कहीं और जाए; खिंचाव दोनों ही हैं।
पर जैसे दुनिया की हर चीज़ के साथ होता है, जैसा हमारी हर साँस के साथ होता है, हमारी हर गतिविधि के साथ होता है, मामला असली भी हो सकता है और नक़ली भी। तो खिंचाव तो खिंचाव है, पर ये देखना पड़ता है कि किधर को जा रहा है, अन्ततः आपको शान्ति चाहिए। अन्ततः आपको कुछ ऐसा चाहिए, जो आपको बिखेरकर रख दे, कुछ ऐसा चाहिए, जो आपको भस्मीभूत कर दे, आह्लाद से ऐसा पूरित कर दे कि आप नाच उठो, ऐसा मतवाला कर दे आपको कि आपके मुँह से आवाज़ न निकले। हम सबको उसकी तलाश है। उससे कम में हम कभी राज़ी होंगे नहीं। इसका प्रमाण ये है कि छोटा-मोटा जब मिलता है, तो वहीं पर रुक जाते हो कभी? लगातार मान लो कि आश बनी रहती है, कुछ और भी तो मिले। हममें से कोई ऐसा है, जिसको पूरा पड़ गया हो? सबके मन में क्या आशा रहती है? अभी और चाहिए। यही प्रेम है। दिक़्क़त ये होती है कि हम ये नहीं जान पाते कि हमें और?
श्रोता: क्या चाहिए।
आचार्य: क्या चाहिए। हमें लगता है और फर्नीचर चाहिए, हमें लगता है और कटलेरी चाहिए, हमें लगता है और एयर कंडीशनर चाहिए, दो-चार और मकान-बंगला वगैरह चाहिए या थोड़ी इज़्ज़त या ओहदा चाहिए। बात आ रही है समझ में? और क्या चाहिए? और?
श्रोता: क्या चाहिए।
आचार्य: क्या चाहिए। चाहने में बुराई नहीं है। दिक़्क़त ये है कि क्या चाह रहे हो। क्या चाहिए? चाहना तो शुभों में शुभ है, सवाल बस ये है कि किसको चाह रहे हो, क्या चाहते हो; चाहना तो प्यारी बात है। नितान्त जो इच्छा है तुम्हारी, आख़िरी बिलकुल, आत्यन्तिक, जिसके बाद कोई अवशेष नहीं रहनी, वो तो है मुक्ति। वो तो है कि कुछ ऐसा चाह लें जो हमें चाहने से ही?
श्रोता: मुक्त कर दे।
आचार्य: मुक्त कर दे। चाहत ही ख़त्म कर दे यार, ये झंझट ख़त्म हो और चाहने का। क्योंकि जितनी बार चाहते हैं उतनी बार फिर निराशा भी तो मिलती है, और गुस्सा और फिर और इंतज़ारी, फिर और श्रम, फिर और परिणाम की अपेक्षा और प्रतिक्षा। यही सब तो होता है चाहने के साथ। अरे! अभी रिज़ल्ट (परिणाम) का?
श्रोता: इंतज़ार कर रहे हैं।
आचार्य: इंतज़ार कर रहे हैं। तो कुछ ऐसा चाहिए कि सारी इंतज़ारी ही ख़त्म हो जाए। ये चाहना ही रुख़सत हो, कुछ ऐसा चाहो, चाहने का अन्त। वो तभी हो सकता है, जब कुछ बहुत बड़ा मिल जाए। इसीलिए चाहते हम भी हैं और चाहती मीरा भी हैं?
श्रोता: वो चाह रही हैं जो सबको समाप्त कर देगा, उन छोटी-छोटी चीज़ों को।
आचार्य: वो कुछ ऐसा चाह रहीं हैं, जो उन्हें मंज़िल तक पहुँचा देगा। और हम कुछ ऐसा चाह रहे हैं, जो हमें मंज़िल से अभी और अलहदा ही रखेगा। चाह दोनों रहे हैं। मीरा के पास जाओ; कहो, ‘चाहिए? बोलेगी, बिलकुल।’ और जो खड़े हों, फर्नीचर की दुकान के आगे, उनसे पूछो। ‘चाहिए?’ वो कहेंगे, ‘बिलकुल।’ चाहिए तो दोनों को। तो ज़रा सा समझदारी से चाहना।
तुम जिसको चाह रहे हो, उसी को तुम्हारा जीवन बन जाना है। तुम जिसे चाह रहे हो, वो तुम्हारे मन और व्यक्तित्व का आईना है। चक्र चलता है। तुम जैसे हो, वैसे को ही तुम चाहने लगते हो। और जैसे को तुम चाहने लगते हो, वो तुम्हें और वैसा ही बनाए रखता है, जैसे तुम हो। समझ रहे हो बात को?
फिर कहता हूँ, इस कुचक्र से सावधान रहना। तुम क्या चाहोगे? जैसा तुम्हारा मन है, वैसी ही तुम्हारी चाहत होगी। और जितना तुम अपने मन को और अपने संसार को अपने द्वारा चाही हुई चीज़ों से भरते जाओगे, उतना तुम्हारा मन वैसा ही रहा आएगा जैसा वो है; बल्कि चाहतों में और घिर रहा जाएगा। मन तो प्रभावों पर चलता है न? प्रभाव माने जो देखा, जो सुना, इसको प्रभाव कहते हैं।
तुमने भर लीं अपने चारों-ओर वही चीज़ें जो तुम्हें लगता है तुम्हें चाहिए। अब मन दिन-रात उन्हीं को तो देखेगा। तुम कामुक आदमी हो, मन में देह की चाह बसी हुई है। तुम उठा लाए कामुकता से भरे चित्र और तुमने टाँग दिये दीवारों पर। अब क्या होगा? बोलो, क्या होगा? तुम्हारी कामुकता को और ईंधन मिला, तुम्हारी वासना और उद्दीप्त हो जाएगी।
तो जैसे तुम हो वैसी तुम सामग्री ले आये और जैसी तुम सामग्री ले आये, वैसे तुम और होते जाओगे। इसीलिए अपने चाहने पर ज़रा निगाह रखना। किसको घर उठा लाए, किसको अपना संसार बना लिया, किससे अपना माहौल भर लिया। मीरा के तो चहुँ दिश कृष्ण हैं और भीतर भी, वो अब नहीं भटक सकती। वो तो कृष्ण से भटकेगी तो कृष्ण के पास ही जाएगी क्योंकि इसके लिए चारों तरफ़ क्या है?
प्र: कृष्ण।
आचार्य: कह सकते हैं, किसी दिन सुबह उठे तो रूठ जाए कृष्ण से। कह रहे, ‘हटो, तुम बंसी बजईया, तोड़ते हैं तुम्हारी आज बंसी।' भक्त करते हैं कभी-कभी ऐसा, रूठते भी हैं भगवान से। तो लिया और कन्हैया को बक्से में बन्द कर दिया कि तुम चलो इधर और हटाओ ये सब बाँसुरी-वाँसुरी। अब बक्से से मुड़ी तो सामने कौन खड़े थे?
प्र: श्रीकृष्ण।
आचार्य: हो गया काम। अब ऐसे में तुम्हारी मुक्ति सुरक्षित है, आश्वस्त है। अब तुम मुक्ति से फिसलोगे भी तो मुक्ति की ही गोद में जाकर गिरोगे। आध्यात्मिक साहित्य में आप खूब पढ़ते होंगे, सुनते होंगे कि इच्छाओं, कामनाओं, वासनाओं के निराकरण पर खूब ज़ोर दिया गया है, वो कई बार दमन के रूप में भी सामने आता है। देखे रहे हैं न? आप किसी आध्यात्मिक आदमी से मिलेंगे, ये ही कहेगा, 'भाई, इच्छाओं से बचना है।'
इच्छाओं में बुराई नहीं है, इच्छाओं में बुराई मात्र इतनी है कि वो आपको आपकी प्रबलतम इच्छा से वंचित कर देती हैं। इच्छाओं का समझ लीजिए ऐसा है कि जैसे आपके शरीर को किसी पोषक तत्व की इच्छा हो — खून की, प्रोटीन की, विटामिन की, किसी मिनरल की; और आप जाते हों, चिकित्सक की ओर या जाते हों दवाई की दुकान की ओर। तो आप जा रहे हैं उस इच्छा की ओर जो वास्तव में आपके लिए हितकारी है। और रास्ते में दूसरी इच्छाएँ आ घेरें।
चले थे दवा लेने को और मिल गया चाटवाला, चले थे दवा लेने को और मिल गया खिलौने वाला और कर दी खिलौने की इच्छा, और कर दी चाट की इच्छा तो नतीजा क्या होगा? नतीजा ये होगा, जो वास्तविक इच्छा है, जिस इच्छा में सार है, सार्थकता है वो न पूरी हो पाएगी, कलपते रह जाओगे।
"खूब चाहो, चाहने में अपना पूरा ज़ोर लगा दो, असली को जाओ।"
जीवन को इच्छा शून्य मत कर देना, जीवन को इच्छा से खाली मत कर देना। तुम्हारे चाहने में तो आग होनी चाहिए लेकिन फिर सवाल वही होगा कि क्या चाहते हो? जान लगा दो चाहने में, और जिसको चाह रहे हो उसको ऐसा चाहो कि कोई समझौता हो ही न पाये। दुनिया लाख प्रलोभन दे या डराए; तुम कहो, ‘नहीं साहब, कुछ और नहीं चलेगा, हमें तो वही चाहिए जिसको चाहा है। ऐसी ऊर्जा, ऐसी कशिश हो; लेकिन सही लक्ष्य के प्रति।’
मीरा आम प्रेमिका नहीं हैं कि कोई मिला जिसका व्यक्तित्व ज़रा आकर्षक लगा, जिसको देखकर मन उत्तेजित हुआ और उसकी तरफ़ खिंच गये कि वाह! ‘कितने सुन्दर व्यक्तित्व वाला आदमी, कितनी सुन्दर देहदृष्टि वाला व्यक्तित्व है! क्या आँखें हैं, क्या बाजू हैं और पैसे वाला भी लगता है! और क्या नाचता है, क्या बाँसुरी बजाता है! पता नहीं कहाँ सीखकर आया है! तो चलो ज़रा इसकी हसरत कर लें।’ न; ऐसे नहीं।
ऐसी चाहतों में जीवन की आग ज़ाया मत कर देना, तुम्हारी आग आरक्षित होनी चाहिए सत्य के लिए। क्यों? क्योंकि तुम्हें वही चाहिए और कोई उत्तर नहीं है इसका। हम थोड़े ही कह रहे है, तुम खुद कह रहे, तुम्हारा दिल कह रहा है तुम्हें ही तो चाहिए वो। और प्रमाण क्या है? कुछ और मिलता है, तुम्हें सन्तुष्टि नहीं मिलती। ये मैं नहीं कह रहा, तुम्हारा दिल कह रहा है; मैं तो आईना हूँ, तुम्हारी बात को तुम तक पहुँचा रहा हूँ।
दो बातें हैं — बहुत सावधानी रहे कि जो मुझे वास्तव में चाहिए मैं उसी की ओर जा रहा हूँ, कहीं भटक नहीं गया हूँ, विचलन के विरूद्ध सतर्कता। और दूसरी बात, जिसको चाह रहा हूँ उसको सर्वस्व न्यौछावर करके चाह रहा हूँ, उसके प्रति पूरी तरह समर्पित होकर चाह रहा हूँ। अब मुझे वो चाहिए भले उसके लिए अपना सर्वांग तिरोहित करना पड़े।
आसानी से किसी को चाह नहीं लूँगा, पहले पक्का करुँगा कि ये चाहने लायक़ है कि नहीं। और जब चाहेंगे तो मिटकर चाहेंगे, जब चाहेंगे तो जलकर चाहेंगे, जब चाहेंगे तो कुर्बान हो जाएँगे; आसानी से चाहेंगे नहीं। यूँही नहीं कि कभी इधर, कभी उधर गब्दूदाद फँसते जाते हैं।
पूछना पड़ता है कि आज कौन से वाली, हर पन्द्रहवें दिन उनकी चाहत बदलती है। मिले हो ऐसों से? अरे! इसमें बात सिर्फ़ स्त्री-पुरुष की नहीं है। ऐसे भी होता है — ‘वो गुलाबी साड़ी ठीक नहीं है वो बेकार लग रही है, हरी वाली।’ ये भी तो वही हो रहा है, चाहतें ही तो बदल रही हैं। पन्द्रह दिन तक दिमाग़ पर गुलाबी साड़ी छायी थी, कृष्णपक्ष में। फिर लगा शुक्लपक्ष तो सफेद साड़ी छा गयी। ऐसे थोड़े ही होता है।
सतर्क होकर चाहेंगे, पक्का कर लेंगे कि कौन ऐसा है जो प्रेमी का दर्ज़ा पाने लायक़ है। और जब तक पक्का नहीं करा, तब तक कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, जहाँ हो वहीं बैठे रहो। और एक बार पक्का हो गया, तो फिर सर्वस्व न्यौछावर है। सर्वस्व माने सर्वस्व, सर्व — पूरा-का-पूरा, कुछ पीछे बचाकर नहीं रखना है।
शरीर किसलिए है ताकि आहुति दे सकूँ इसकी वहाँ पहुँचाने के लिए, ईंधन बने मेरी यात्रा के लिए ये शरीर। बुद्धि किसलिए है ताकि रास्ता सुझा सके। पूरा-का-पूरा मेरा तंत्र किसलिए है ताकि मुझे प्रेमी से मिला सके। ये सबकुछ मुझे मिला ही इसलिए है ताकि इसका इस्तेमाल हो सके, ये उपाय मिला है मुझे वहाँ तक जाने का। ये इसलिए नहीं मिला है कि शरीर भोगा जाए।
ज़बान इसलिए है कि राम का नाम ले, कदम इसलिए हैं कि मन्दिर तक जाएँ, बुद्धि इसलिए है कि रास्ता बताए। इसे कहते हैं सर्वस्व को न्यौछावर कर देना। ‘मैं पूरा-का-पूरा इसलिए हूँ ताकि मेरी पूरी व्यवस्था का इस्तेमाल हो सके, वहाँ तक जाने के लिए। वरना तो ये हाड़-माँस बचाकर करना क्या है?’ जलाना है, अन्ततः चिता पर डालना है। ये हाड़-माँस बचाना नहीं है, इस हाड़-माँस का प्रयोग करना है।
जब आप लोग एक साथ होते हैं, ग्रुप (समूह) में होते हैं, तब मन्थन होना चाहिए बहुत सारा। उस मन्थन से ही वो सवाल निकलेंगे, जो हमारी बातचीत में और गहराई लाएँगे। मन्थन समझते हैं न? मथना चाहिए, ग्रुप में मथनी चलनी चाहिए। उसमें अन्त में क्या निकलता है? मक्खन। मक्खन मुझे पसन्द है। मन्थन हो रहा है; मन्थन हो रहा है तो फिर वो सवाल कहाँ हैं? वो बातें कहाँ हैं? वो मक्खन कहाँ है?
प्र: हम चर्चा कर रहे थे तो इसमें दो जगह पर एक वर्ड (शब्द) का इस्तेमाल हुआ था और ऐसा लग रहा था कि दोनों जगह अलग-अलग हैं। पहले तो कलह और क्लेश के लिए इस्तेमाल हुआ — टेंशन (तनाव)। जो तब होती है, इसमें बड़ी खूबसूरती से बताया गया, जैसे कि आपने भी कहा है कि मेरा काम है शीशा दिखाना बिलकुल मिरर (शीशा)। तो वही था कि असली द्रष्टा वो जो शीशा दिखा दे, रिवील (प्रकट) कर दे।
तो एक टेंशन तो जो हमारी सामान्य कलह होती है जिसमें कि हम और दूर जाते रहते हैं और एक टेंशन वो होती है जो रिवील होने की टेंशन होती है। जब आप उघाड़ते हो तब जो टेंशन होती है। दोनों देखने में टेंशन हैं पर उनकी डायरेक्शन (दिशा) अलग है।
तो सवाल ये था कि जब ये पढ़ रहे हैं तो ऐसा लग रहा है कि अंडरएस्टीमेट (कम आँकना) करते हुए नाइंटी-नाइन-पर्सेंट (निन्यानवे प्रतिशत) रिश्तों में मिरर वाला काम तो नहीं है। ऐसा ही है कि मैं तुम्हारी छुपाता हूँ, तुम मेरी छुपाओ। फिर क्या करें?
आचार्य: देखिए कि नुकसान है और क्या। प्यार है तो सामने वाला का नुकसान करना चाहोगे? प्यार है तो सामने वाले को आईने की जगह झूठी तस्वीर दिखाना चाहोगे? उसकी आँखों के नीचे गड्ढे पड़ गये हैं, उसके चेहरे पर झुर्रियाँ आ गयी हैं। और तुमसे पूछता है, 'मै कैसा दिखता हूँ?' तो उसे उसकी यौवन की तस्वीर दिखाओगे? ये तो तुम ग़ुमराह कर रहे हो उसको। कर रहे हो कि नहीं?
प्र: हाँ।
आचार्य: आईना दिखाने का क्या मतलब होता है? आईना दिखाने का मतलब ये होता है तात्कालिक रूप से तुझे चोट लगेगी। तुझे ज़रा झटका लग सकता है अपने चेहरे की हालत देखकर के, पर इस झटके से तेरी चिकित्सा शुरू होती है। ज़रा सा तुझे दर्द हो रहा है, इस दर्द से तेरे स्वास्थ्य का द्वार खुलता है।
तो सवाल फिर एक है — चाहते हो भी कि नहीं चाहते हो? जो चाहता होगा वो अपनी आँखों के सामने अपने प्रिय का नुक़सान होते कैसे देख लेगा। और अगर नुक़सान देखे जा रहे हो, तो हटाओ ये सब बातें कि चाहते हैं, इत्यादि। फिर तो सीधे बोलो कि बस किसी तरीक़े से एक जुगाड़ू व्यवस्था चल रही है, किसी तरीक़े से समय काटने का आयोजन चल रहा है कि भाई, दस-बीस साल मेरे बचे होंगे, दस-बीस साल तेरे बचे होंगे, किसी तरीक़े से काट लें।
जैसे कि बस की सीट पर दो लोग अगल-बगल बैठ रहे हों जिनकी निभ न रही हो, पर दोनों एक-दूसरे को सांत्वना दे रहे हों या अपनेआप को सांत्वना दे रहे हों कि करना क्या है! अगले स्टेशन पर इसने उतर जाना है और उसके अगले पर मुझे उतर जाना है, तो थोड़ी देर की बात है निभा लो। ऐसे ही करते हो न?
तो तुम्हारा, तुम्हारे पिता से या तुम्हारी पत्नी से या तुम्हारे पड़ोसी से या पूरे संसार से रिश्ता कैसा है? ऐसा ही कि बस की सीट पर बगल में कोई बैठ गया है और वो सुहा नहीं रहा है। लेकिन तुम अपनेआप को क्या सांत्वना दे रहे हो, कि अरे उतर ही जाएगा आगे। और वो आपको क्या दिलासा दे रहा है? ‘अरे भाई, चार घंटे की बात है।’ अब चार घंटे हों कि चालीस साल, कोई अन्तर है?
हम भी तो ऐसे ही जिये जाते हैं। ठीक है, कितना परेशान करेगी बुढ़ा तो गयी है। ‘बुढ़िया मरने के करीब आ रही है, क्या इसको हिलायें-डुलायें!’ और अक्सर ये तर्क भी दिया जाता है, 'बेटा, अब हमें न सिखाओ, अब इस उम्र में हम न बदल पाऍंगे। हम तो जैसे हैं अब हमें चिता तक पहुँचने दो ऐसे ही।' ये क्या उजाड़ तर्क है, इसमें कितनी क्रूरता है, आप देख रहे हैं, आप क्या कह रहे हैं? आपके पास अगर पाॅंच साल भी शेष है तो पाॅंच साल आप काॅंटो पर चलना चाहते हैं। और अगर मैं आपको चाहता हूँ तो मैं आपको ये अनुमति दे सकता हूँ क्या?
पाँच साल हटाओ, पाँच महीने हैं? पाँच महीनें आप दर्द में गुज़ारना चाहते हैं? तो फिर ये क्या तर्क है कि हमारी तो अब उम्र गयी। और बूढ़े तोते को — सुना है न ये? यू कैन नॉट टीच एंड आई वॉन्ट नाउ न्यू ट्रिक्स (आप सिखा नहीं सकते और मैं अब नयी युक्तियाँ चाहता हूँ)। हम बहुत बूढ़े हो हुए तोते, हमें राम-राम न सिखाओ।
अरे! तोते नहीं हैं हम और राम-राम सीखने वाली बात नहीं है, तो ये व्यर्थ के मुहावरे न उछाला करिए। ये अभी-अभी सुना है मैंने — कि बेटा, ये तोता बहुत बूढ़ा हुआ अब राम-राम न बोल पाएगा। क्या! कितनी खौफ़नाक बात है!
तुम तोते हो? चोंच दिखाओ, पँख दिखाओ। और राम-राम कोई रटने वाली बात है? तुम्हें रटाया जा रहा है। दिल की बात है न! जहाँ प्यार होता है वहाँ ये सब निभाने और समन्वय की बातें नहीं चलती कि थोड़ी तुम्हारी, थोड़ी हमारी। प्यार इसी को तो कहते हैं, नहीं तो तानाशाही हो जाएगी। प्यार का मतलब ही ये होता है, सत्य की तानाशाही। हम भी उसके प्यादे, तुम भी उसके ग़ुलाम, वो मालिक अकेला।
उसमें ये नहीं होता कि थोड़ी सच्चाई की और थोड़ी झुठाई की। आज अरहर और उड़द की दाल बनायी है। थोड़ी इस रंग की, थोड़ी उस रंग की, थोड़ी पीली, थोड़ी काली। ऐसे तो हमारी गृहस्थी चलती है, अरहर-उड़द की दाल जैसी; घरों में ख़ूब बनती है।
सत्य एक होता है — अडिग, अचल, अपरिवर्तनीय, कट्टर। उसके साथ कोई छेड़खानी नहीं होती। और प्यार का मतलब होता है उस सच्चाई की ओर बढ़ना, और अपने साथी का दामन पकड़े रहना कि जैसे मैं बढूँगा, तू भी बढ़ेगा। ‘मेरा पहुँचना तेरे पहुँचने पर निर्भर करता है, अकेले तो नहीं जाऊॅंगा सनम; चलेगा तो तू भी साथ। अब कैसे तुझे ले जाना है, येन-केन-प्रकारेण मैं उपाय निकालूँगा।’ ये बुद्धि किसलिए है? ये उपाय निकालने के लिए; बुद्धि इसलिए थोड़े ही है कि चालाकियाँ सीखें, चतुराइयाँ सीखें। बुद्धि है ही इसीलिए कि सच्चाई की तरफ़ बढ़ने का उपाय निकालें, इसलिए दिया गया है दिमाग — दिमाग का ये है वाजिब इस्तेमाल।
हम दिमाग का इस्तेमाल किसमें करते हैं? किसी को लूटने में, कहीं अपनी छवि बना लेने में, कहीं दो पैसे के फ़ायदे में, ये सब में दिमाग लगा देते हैं, दिमाग इसलिए नहीं है। दिमाग इसलिए है ताकि जब मन्दिर की ओर चलो और रास्ते में बाधा हो तो बुद्धि लगा सको कि पार कैसे करनी है। और यहाँ कोई ऐसा नहीं जिसकी बहुत उम्र हो गयी है। आज प्रातः भी मैंने कहा था आपसे, ‘मुझे तो आप छोटी बच्ची सी दिखती हैं (एक प्रतिभागी की ओर इंगित हुए), वही मासूमियत है और वैसी ही शुरुआत दिख रही है।
तो कोई ये तर्क न दे कि हमारी उम्र अब ज़्यादा हुई। जीवन इसलिए है ताकि जीवन की पूर्णता तक पहुँच सको, आख़िरी दम तक भी जीवन इसीलिए है। और आख़िरी दम में भी अगर पहुँच गये पूर्णता तक तो जीवन सार्थक हो गया। कोई पहुँचा होगा बीस की आयु में, कोई पहुँचा होगा चालीस की आयु में; तुम अपने आख़िरी दिन पहुँच जाओ। तुम बिलकुल उन्हीं की कोटि में आ गये, जो पहुँच गये। अब फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन बीस में पहुँचा था और कौन अस्सी में पहुँचा; सब पहुँचे हुए कहलाऍंगे, सब एक हो गये।
तो ये मत कहना कि अब तो हमारा आख़िरी साल चल रहा है। अरे, आख़िरी साल चल रहा है तो भी अभी तीन सौ पैसठ दिन हैं न, लगे रहो! क्या पता आख़िरी क्षण में हो जाए! कहिए, बोलिए।
प्रश्नकर्ता: तीसरे पृष्ठ पर पढ़ रहे थे, उसमें बहुत ज़्यादा इस बारे में बात हो रही थी कि कपड़ा डालो, कपड़ा डालो।
आचार्य: हटा लो?
प्र १: डालो। ‘छुपाओ-छुपाओ, जो भी हो ढॅंक दो, ढॅंक दो।’ कॉम्प्रमाइजिंग बात वहाँ पर ये थी कि जो रिश्ता है, रिश्ते का मतलब है जो अभी है, और मैं अब से भागने के लिए पुरानी चीज़ उठाकर लाता हूँ, भविष्य को सुरक्षित करता हूँ, जिससे कि अभी से बच सकूँ। उसी में हमारी कॉम्प्रमाइजिंग रिलेशनशिप आती है, जहाँ पर हम कहते हैं, जैसे ही रिपीट होता दिखे उसे ढॅंक दो।
आपने शुरू में कहा कि असली रिश्ता वो है जो शीशा दिखाये। आख़िरी पैराग्राफ़ में दो शब्दों का इस्तेमाल किया गया है — सुरक्षा और डर। अगर मैं ही डरा हूँ, तो मैं शीशा नहीं दिखाऊँगा, क्योंकि मैंने शीशा दिखाया तो शीशा मुझे भी देखना पड़ेगा; समस्या वहाँ पर आती है।
अब ये जो ढॅंका-ढॅंका वाला है, ये थोड़ा आसान लगता है देखने में, ये थोड़ा ऐसा है कि प्रयास नहीं लगेगा उसमें। मान लीजिए यहाँ मैं आ रहा हूँ सत्र की तरफ़ और मैं देखता हूँ कि मेरे से किसी दूसरे किसी ग्रुप का बन्दा फ़ोन पर बात कर रहा है। तो मेरा फर्ज़ बनता है कि जाऊँ और कहूँ कि फ़ोन अभी चार दिन एग्जिस्ट नहीं करना। मेरे लिए भी बहुत ज़्यादा आसान जो है वो ये है कि मैं आऊँ और यहाँ बैठ जाऊँ। मैं वहाँ जाऊँगा हो सकता है वो मुझसे थोड़ी नफ़रत भी करे और ये सब करे।
तो ऐसा लगता है कि कपड़ा डालना थोड़ा ज़्यादा आसान काम है। और तब लगता है कि ऑंखों के गड्ढे हैं भरे जा सकते हैं, चेहरे की जो झुर्रियाँ हैं वो ठीक करी जा सकती है। तो ऐसा लगता है कि आसान है ढ़ँकना — ज़्यादा आसान है। अच्छा नहीं लगता, उस वक़्त लगता है कि उसके पास जाकर बोलो कि फ़ोन दो और आपनी जेब में रख लूँ।
आचार्य: प्रार्थना करो कि तुम्हें इतनी ऊर्जा मिले कि तुम सबको टोक सको। यहाँ जिस आसानी की तुम बात कर रहे हो न, वो और कुछ नहीं थकावट है। कितनी बार टोकूँ और कहाँ-कहाँ टोकूँ, और कितनी बार झेलें तुम्हारा नफ़ा होगा क्योंकि टोकता हूँ तो तुम खफ़ा हो जाते हो।
प्र २: इससे अपने तो शान्ति में भी ढ़ूँढ़ना होगा न? मेरा काम यही है क्या?
आचार्य: ‘मेरा काम यही है क्या?’ और पता भी चल जाता है काम यही है, तो लगता अब जाने दो, अब छोड़ो न। इसलिए कह रहा हूँ, प्रार्थना करो कि इतनी ऊर्जा मिले कि कभी मन में ये बात न उठे कि जाने दो। रात के तीन बजे भी तुम्हें दिखाई दे कि कहीं कुछ ग़लत हो रहा है तो तुम उछलकर बैठ जाओ मुझे जाना है, मुझे उचित सलाह देकर आना है।
भले ही पिछली दस साल से मेरी सलाह को दरकिनार किये जाते हैं, मैं ग्यारहवीं बार भी जाऊँगा, मैं अपना फ़र्ज़ निभाऊँगा। ये बात बड़ी ऊर्जा माँगती है, मैं ऊर्जा शब्द पर ज़ोर दे रहा हूँ बार-बार, क्योंकि हम थकने लगते हैं, शारीरिक-मानसिक दोनों रूप से। मानसिक हताशा को भी मैं थकान ही कह रहा हूँ।
प्र २: लेकिन सर, ऊर्जा तो मिलती रहती है। इस चीज़ (सत्र) से ऊर्जा मैंने अपने जीवन में देखी है, मुझे सेवा से बहुत ऊर्जा मिलती है और मुझे अच्छा लगता है। जिस किसी को भी ज़रूरत होती है तो मैं मदद करती हूँ।
और उनको टोकने के लिए मुझसे रहा नहीं जाता, तो मैं टोकती हूँ बार-बार। लेकिन ये लगता है मुझे कि मेरे टोकने के बाद मुझे वो इज़्ज़त नहीं मिलती है और मैं फिर भी टोक रही हूँ, ये बात मुझे अपने में परेशान करती है। न चाहती हूँ फिर भी मैं परेशान होती हूँ, क्योंकि मैंने टोका। मुझे सुनना पड़ा और मुझे ये भी सुनना पड़ता है कि ये बाज़ नहीं आती।
आचार्य: यही बात है, यही बात है कि जितनी भी बार भलाई के बदले में बुराई मिले उतनी बार बुराई मुझे तोड़ न दे, और न मुझमें ऐसा अहंकार जाग्रत हो जाए कि मैं इसी भावना में जिऊॅं कि मैंने ही ठेका उठा रखा है भलाई करने का। मैं प्रेम पूर्वक जाऊॅं, मैं हाथ जोड़कर के निवेदन कर दूँ कि मुझे क्या ठीक लगता है। उसके बाद परिणाम में मुझे अगर तारीफ़ मिले (तो) मैं सिर झुका दूँगा और मुझे अगर निन्दा मिले तो मैं तो भी सिर झुका दूँगा। निन्दा हमें तोड़ देती है।
ये जो भावना होती है न कि इज़्ज़त नहीं मिली या मैं तेरे पास आया था। तुझे कुछ ऐसा पता नहीं अगर तेरा हित होता और तूने कह दिया, ‘एजी, हटिए! या तूने कह दिया कि मुझे पहले से ही पता है, या तूने कह दिया कि हम अपने मालिक ख़ुद हैं भई! देख लेंगे, अपना रास्ता ना;, बड़ा बुरा सा लगता है न? बुरा सिर्फ़ तब न लगेगा, जब आप ये काम व्यक्तिगत तौर पर नहीं कर रहे होंगे।
जितना ज़्यादा आप इस काम को परमात्मा का काम मानेंगे, उतना आप इसको थके बिना कर पाऍंगे। अपना काम करेंगे, तो अपनी ऊर्जा से करना पड़ेगा, आपकी ऊर्जा सीमित है। आप अपनेआप को परमात्मा का ग़ुलाम मानकर, प्रतिनिधि मानकर या प्रेमी मानकर या जो भी कह लीजिए; दास मानिए, प्रेमी मानिए, प्यादा मानिए, जो भी मानिए, जो भी मानिए।
मानकर करेंगे तो फिर आपकी व्यक्तिगत ऊर्जा से नहीं होगा काम, फिर उसकी ऊर्जा से होगा, वो असीमित होती है। फिर आप पाएँगे कि उम्र मायने नहीं रखती, दिन का वक़्त मायने नहीं रखता, जब भी फ़र्ज़ का बुलावा आता है, आप तैयार हैं। फिर आपको इससे अन्तर भी नहीं पड़ता कि पिछली बार जब आप वहाँ गये थे, तो हार भी मिली थी और अपमान भी मिला था।
लगे रहना होता है। ये एक अन्तहीन क्रीड़ा है। मैं इसे अन्तहीन युद्ध भी कह सकता था, पर युद्ध बोलूँगा तो फिर ऐसे लगेगा जैसे दुनिया तो बड़ी हिंसक जगह है। तो मैं इसे कह रहा हूँ, ये एक अन्तहीन क्रीड़ा है। अब तो ये एक निमंत्रण हो गया न! अब एक ऐसे खेल खेलें जो ख़त्म ही नहीं होना है। हाँ, उसको आप अपना व्यक्तिगत खेल मानोगे तो अन्तहीन युद्ध बन जाएगा। फिर संघर्ष करना पड़ेगा।
मानो न परमात्मा का खेल है, आप प्यादे हो। आपको फ़र्ज़ दिया गया, भई! आप अपना काम कर करो और आपकी निष्ठा बस उसके (ऊपर की ओर संकेत) प्रति है। आपको अगर कोई नापने-तौलने वाला भी है तो वो (ऊपर की ओर संकेत)। वो फैसला करेगा कि आप इज़्ज़त के क़ाबिल हो या नहीं। दुनिया की निगाहों में चढ़ गये और उसकी निगाहों से उतर गये, तो क्या पा लिया!
प्र: बीच-बीच में तो वहाँ से हिल जाता है कि कहीं डगमगा जाते हैं।
आचार्य: असल में हम पूरी तरह कभी उसके होते नहीं हैं। हम कहते हैं, ‘तेरे होंगे बशर्ते — कंडीशन लगाते हैं। तेरे होंगे बशर्ते। अरे! थोड़ा-थोड़ा कुछ मिलता रहे। हम उस प्यादे की तरह हैं, जो तनख़्वाह के लालच में काम करता है। हम उस प्रेमी की तरह हैं, अक्सर जो कुछ पाने की आशा में प्रेम करता है।
हम भगवान से कहते हैं, भाई तेरे प्रतिनिधि हैं पर बेइज़्ज़ती तो मत दिला राम संसार में। अब हम जाएँ, राम नाम लें और जूते खाएँ, तो कहेंगे, अरे! ये राम नाम काहे का, बेकार व्यर्थ! राम से भी हमारी उम्मीद बँधी है कि तेरा नाम लें, तो इज़्ज़त मिलेगी।
असली प्यार करेंगे। तेरा नाम ले रहे हैं उसी में आनन्द मिल गया। अब उसके बाद जूते मिले, कि माला मिले, क्या फ़र्क पड़ता है, हमें तो जो मिलना था, मिल गया। कब मिल गया?
प्र २: जब नाम लिया.
आचार्य: जब नाम लिया, तभी मिल गया। नाम लेने में ही तृप्ति थी। अब बाद में क्या मिला, क्या करना है! नाम के बाद जो मिले वो सही इनाम। हम कहते हैं, ‘नहीं-नहीं, इनाम नहीं चाहिए।’ क्या चाहिए?
श्रोता: इनाम।
आचार्य: इनाम। हम सब जानते हैं — अपनी-अपनी सम्भावनाओं में थोड़ा-थोड़ा ही सही पर हम सबको भनक तो लगती रहती है कि क्या सही है हमारे लिए। लगती है या नहीं लगती है? और मैं आपसे इतनी बातें करता हूँ, इसी आधार पर करता हूँ। क्योंकि अगर आपको भनक भी नहीं लग रही तो मेरा बोलना व्यर्थ जाना है।
आप जाते हैं चिकित्सक के पास वो आपका इलाज तभी तो करता है न, जब तक आपकी साँस ज़रा सी बची होती है। आप मुर्दे ही हो तो कौनसा चिकित्सक आपका इलाज करेगा। ज़वाब दीजिए? ज़रा से प्राण आपमें होते हैं तभी तो चिकित्सक इलाज करता है। कहता है, 'अभी है तो मैं इलाज कर रहा हूँ।'
तो मैं भी आपसे जितनी बातें करता हूँ, इसी बिनाह पर करता हूँ कि अभी साँस चल रही है, अभी धड़कन बाक़ी है, अभी रोशनी है, अभी आपको भनक लगती है परमात्मा की, सत्य की, आप जानते हैं दिल-ही-दिल में कि आपके लिए सही क्या है। तो मैं तो सिर्फ़ खड़ा होकर के वो जो प्राण संकुचित हो रहे होते हैं उनको ज़रा ईंधन देता हूँ, ज़रा ऊर्जा देता हूँ, ज़रा प्रोत्साहन देता हूँ, बुलाता हूँ, आमन्त्रण देता हूँ।
वो प्राणशक्ति आपकी अपनी ही है, वो आग आपकी अपनी है। मैं उसे बस हवा देता हूँ। आप जानते हैं, भले थोड़ा-थोड़ा जानते हैं पर जानते तो हैं, इनकार मत करिएगा दिल टूटता है मेरा। जानते हैं कि नहीं जानते?
श्रोता: जानते हैं।
आचार्य: जानते हैं कि नहीं जानते?
श्रोता: जानते हैं।
आचार्य: तो सारी आध्यात्मिकता, सारी ईमानदारी, सारे धर्म का एक ही मतलब है जितना भी जानते हो तो थोड़ा-थोड़ा सा उस पर अमल करो। झूठ मत बोलना, एक बार जान गये हो तो चलना, झूठ मत बोलना। और थोड़ा-थोड़ा जानकर उस पर चलोगे तो और जानोगे, और जानोगे; चलने के फलस्वरूप, निष्ठा के फलस्वरूप और जानते जाओगे। पर ये मत कहना कि हम कौन होते हैं जानने वाले; हमें तो ज़रा सा ही पता है, ज़रा और पक्का तो कर लें।
वो पक्का जीवन भर नहीं होने वाला। बैठे-बैठे कुछ पक्का नहीं होता। बैठे-बैठे तो पिछवाड़ा पक्का हो जाता है।
(श्रोता हँसते हैं)
चलो। 'चरैवेति-चरेवैति' कहते हैं उपनिषद्। जितना थोड़ा पता है, उसी पर चलो। बढ़ोगे सच्चाई की ओर, तो वो और खींचेगी।
प्र: (अस्पष्ट 39:50)
आचार्य: ये बुद्धि है न, इसको राम की सेवा में लगने दो, इसको सच्चाई की सेवा में लगने दो। बताने-बताने के तरीक़े होते हैं। बताने का एक सम्यक् तरीक़ा भी होता है, उचित। फिर कहता हूँ, हम कोई मशीन थोड़े ही हैं, जिसमें दो ही बटन हैं — सच और झूठ। किसी को बोला, ‘सच-सच-सच’। किसी को बोला, ‘झूठ-झूठ-झूठ’। अरे! एक क़ायदा होता है, एक बात होती है, एक नज़ाकत होती है। उसी को तो उपाय कहते हैं।
शिव सूत्र कहते हैं, 'गुरु उपाय है’। मतलब समझो। गुरु वो जो उपाय जानता है। आत्मा उपाय जानती है। अरे! निकालो न तरीक़े! वो ऐसे नहीं सुनता तो ऐसे सुनेगा। उपनिषदों की नहीं सुनेगा तो पुराणों की सुनेगा, निराकार की नहीं सुनेगा तो साकार की सुनेगा। अट्ठारह अध्याय हैं गीता में, अट्ठारह तरह के योग हैं; ये क्या चल रहा था? ‘तू ऐसे नहीं सुनेगा तो वैसे सुनेगा; ज्ञान से नहीं सुनता, ले भक्ति से सुन; भक्ति से नहीं सुनता, ले विभूति से सुन; विभूति से नहीं सुनता, ले क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग सुन।’
बात तो एक ही बतानी है न, वो पगला समझता नहीं है तो उसको ऐसे नहीं वैसे। देखो, दोनों चीज़ें देखो — ऊर्जा भी देखो, उपाय भी देखो। ऊर्जा कितनी है कि एक के बाद एक कोशिशें जारी हैं। अक़्ल वाला होता अर्जुन तो पहले अध्याय में गीता न ख़त्म हो गयी होती! (श्रोतागण हँसते हैं)
पर कृष्ण की भी ज़िद देखो — ‘लड़ेगा तो तू है, भागने तो दूँगा नहीं तुझे यहाँ से, और उपाय देखो’। और बता रहा हूँ, अट्ठारहवें तक भी वो न माना होता तो अभी छत्तीस तक जाते, वो नहीं रुकने वाले थे। ऐसे-ऐसे योगों का आविष्कार करते कि तुमने सुने न हों।
नहीं तो वो बात कर रहे थे न, कि योग कोई दस-पच्चीस प्रकार का होता है, योग-तो-योग है। पर अट्ठारह तरह के निकाल दिये उन्होंने। और अट्ठारह पर गिनती अभी रुक नहीं गयी है, अभी वो छत्तीस-चालीस और पाँच-सौ तक जाते; अर्जुन इतना अड़ियल था ही नहीं।
तो ऐसी होनी चाहिए तुम्हारी ऊर्जा। तुम निकाले जाओ उपाय, तुम निकाले जाओ उपाय। प्यार से बुला लो, कभी रूठकर बुला लो। प्यार न चले तो रूठना चलेगा। सच न चले तो झूठना चलेगा (हँसते हुए)।
प्र: अभी उसमें पढ़ा था, सर, एक रिलेशनशिप (सम्बन्ध) की बड़ी छोटी सी, प्यारी सी परिभाषा थी — रिलेशनशिप इज़ सेल्फ़ रेवोल्यूशन (रिश्ता आत्मक्रांति है)। अब जब ये पढ़ा जाता तो डायलेक्चुअल और थोड़ा सा सर्वांग भी लगता है कि मैं तो मेरा काम है — उघाड़ना, उघाड़ना।
उसी के समानांतर जब आप कृष्ण की बात कर रहे हैं, तो ऐसा लग रहा है कि चल तो वही रहा है — रिलेशनशिप इज़ सेल्फ़ रेगुलेशन लेकिन तरीक़ा ऐसा अपनाया जा रहा है कि तुम्हें पता भी नहीं लगा और कपड़े उतर गये, उतार दिये गये। जो ढँकाव है, वो हटा दिया और पता भी नहीं लगा।
आचार्य: भला ही तो चाहते हो न सामने वाले का। जो काम कष्ट दिये बिना हो सकता है, उसको कष्ट देकर क्यों करना है! और जब उसे कष्ट देना भी पड़े तो कम-से-कम दो। शास्त्र तुमसे कहते हैं — “सत्यं वद, प्रियम् वद।” पहली प्राथमिकता तो यही है कि सच्चा बोलना है। लेकिन उसके पीछे एक पुछल्ला भी है। क्या?
श्रोता: प्रिय बोलो।
आचार्य: ज़रा प्रिय बोलो। जहाँ तक हो सके, मीठा बोलो लेकिन पहली बात यही है कि सच्चा बोलना है। प्रिय बोलने के चक्कर में ये न हो कि सत्य से समझौता कर आये। जब ऐसा हो जाए कि या तो सच्चा होगा या प्रिय होगा, तब किसको चुनना है? सच को। तब सच्चाई को चुनना लेकिन जहाँ तक हो, जहाँ तक हो सके दोनों को लेकर चलो। “सत्यं वद, प्रियम् वद।” जब प्रिय बोलने से काम बिलकुल ही न चलता हो, सिर्फ़ तब बोलना कड़वा।
प्र २: कई बार प्रिय बोलने में भी बहुत प्रयास लगाना पड़ जाता है कि अगर किसी बात में से तो गुस्सा न आये। वो मीठा कैसे करें?
आचार्य: उससे कहिए ऊर्जा दे। उससे कहिए, ‘भाई, तेरा काम है’। (ऊपर की ओर इंगित करते हुए)
प्र २: तंग आ गये।
आचार्य: तंग आ गये, ये क्या? इससे भी मीठा बोलना पड़ेगा। ऐसे ही लगता है न? ये, महाराज अब इनसे मीठा बोलें।
(श्रोता हँसते हैं)
लगता है कि नहीं, आग उठती है। लगता है कि जला दें और चार गाली देकर निकाल दें।
प्र २ : जैसे एक बार मैंने सुना है, दो बार तुमने और सुना।
आचार्य: वही, अब इन्हें भी लड्डू खिलाएँ। जिन्हें जूते पड़ने चाहिए, उन्हें अब लड्डू परोस रहे हैं। कह रहे हैं, ‘अरे, अरे! नहीं-नहीं, सुनिए ज़रा आप भी’। यही करना होता है। ये काम अद्वैत में हम रोज़ करते हैं, बहुत ज़रूरी है। देखिए, इतना बुरा कोई नहीं होता कि उससे नफ़रत ही करने लग जाएँ।
प्र २: नहीं, रोज़-रोज़ वाला हो जाता है न। जैसे एक ही बात को बार-बार करना पड़ रहा है। जैसे बच्चों के साथ करके देखें, ‘अरे! नहीं, ये नहीं मान रहा है।’ नहीं मान रहा है, कोई बच्चा तो उसको पहली बार डाँट दिया।
आचार्य: लगता है।
प्र २: जैसे तैयार रहता है कि आज भी वो ही काम करने वाला है जो तो कल किया था। तो कल तो मैंने बहुत ज़ोर से लगा दिया था, फिर प्यार से बोला था। तो आज मैं पहले डाँट दूँ।
अचार्य: सैद्धान्तिक रूप से आप जो कह रहीं हैं, वो उचित लगती है कि जब इसे मानना डाँट से ही है, तो नौ बार प्यार से क्यों बोलें, जब मुझे पता है कि दसवीं बार भी ये सुनेगा तभी, जब डाँट दिया जाएगा। पहली बार में डाँट क्यों न दें! बिलकुल ऐसा लगता है कि तर्कयुक्त बात हुई। लेकिन एक बात समझिएगा ध्यान से, कोई कितना भी बहका हुआ हो, भटका हुआ हो, केन्द्र में तो उसके परमात्मा ही बैठा है। किसी को भी चोट पहुँचाना वाजिब सिर्फ़ तब है, जब बाक़ी सारे रास्ते बन्द हो गये।
जहाँ तक हो सके, उसको चोट पहुँचाने से पहले, अपनेआप को चोट पहुँचा लीजिए कि क्या पता ये उपाय काम कर जाए; कि देख भाई, 'तू नहीं चलेगा तो मैं खाना नहीं खाऊँगा'। क्या पता ये उपाय काम कर जाए। जब ये भी काम न करे, सिर्फ़ तब चोट पहुँचाइए। चोट बिलकुल आख़िरी-से-आख़िरी उपाय होना चाहिए। मुश्किल है, जब पहला हो सकता है, जब एक झटके में ही काम तमाम हो सकता है तो मन कहता है, ‘आख़िर तक इंतज़ार क्यों करें! क्यों इतनी ऊर्जा लगाएँ! क्यों इतना सब्र रखें!’ पर रखिए।
प्र २: आपकी किसी पुस्तक में मैंने पढ़ा था कि खंड-खंड हो जाएँ, निरन्तर आप अपने से हो करके। बस बार-बार मुझे वही ध्यान आ जाता है कि निरन्तर अपने उसी काम से भरे ही रहें।
आचार्य: करे क्यों नहीं? कबीर साहब कह रहे हैं, “कबीर साँचा सूरमा लड़े धनी के हेत। पुर्जा-पुर्जा हुई रहे, तबहूँ न छाड़े खेत।”
खंड-खंड हो गये, टुकड़ा-टुकड़ा, पुर्जा-पुर्जा हो गये। अब बड़ी बात है इसमें कि पुर्जा-पुर्जा हो गये हैं और लगे हुए हैं और ऐसा नहीं है कि अपनी किस्मत कोस रहे हैं। कि क्या है? खून-ही-खून है, चोट-ही-चोट है, दर्द-ही-दर्द है तब भी मौज़ है। सामने वाला इसी बात पर हार जाएगा, इसी अदा पर कुर्बान हो जाएगा। वो कहेगा, 'भाई, तू जीता और तू मालिक बता क्या करना है, तू हारकर भी जीत गया।' ये हारकर जीत का खेल है। फिर वो वार आप पर करेगा, चोट उस पर पहुँचेगी।
प्र ३: वो हमारी वो जो हमारी धारणाएँ होती हैं न वही रोकेंगी कि जैसे मैंने खाना बनाया है, बड़ी मेहनत की है। और समय भी ज़्यादा लग गया लेकिन कई बार ऐसा होता है कि वो बना-बनाया ही कोई और आकर तोड़ देता है। फिर लगता है — क्या किया उसने! तो क्या ऐसे विचार आना नहीं चाहिए? तो विचारों को भी कैसे रोकें?
आचार्य: घड़े से अगर भलाई होती थी तो दुबारा बना लीजिए, अन्यथा शुभ ही हुआ घड़ा टूट गया। वो घड़ा अगर वास्तव में देवताओं को जल चढ़ाने के लिए इस्तेमाल होता था, तो दुबारा गढ़िए या कोई अन्य उपाय निकालिए। और अगर वो घड़ा सिर्फ़ धन का संचय करने के लिए था तो भला हुआ फिर टूटा। कई बार ज़्यादा अच्छा ये होता है कि हमारे घड़े-सुराही सब फूट जाएँ, वो ज़्यादा अच्छा होता है। याद ही है न कबीर का?
भला हुआ मेरी मटकी टूटी, अब मैं पनिया भरन से छूटी।। ~ कबीर साहब तो अच्छा हुआ कि आकर घड़ा तोड़ गया। नहीं तो रोज़-रोज़ की वही बेगारी थी कि पानी भरो और ये करो। उसके आगे भी गये हैं कबीर, आप हैरान रह जाएँगे!
भला हुआ मेरी माला टूटी, अब मैं भजन करन से छूटी।
~ कबीर साहब
ये माला जब तक रहती तब तक भजन करना पड़ता।
श्रोता: एक ये गाना कोई गा रहे तो एक व्यक्ति आये और कहते हैं, 'ये तो अच्छा नहीं हुआ ये तो राम भजन से छूट गयी, ये तो अच्छा नहीं हुआ।'
आचार्य: उनको उत्तर देना था कि राम कभी ख़ुद को भजते हैं। जब जाकर के मिल ही गये राम से, बैठ ही गये उनके चरणों पर, तो अब क्या भजेंगे। राम ही तो हो गये। राम कभी राम को भजते हैं? पागलपन लगेगा कि राम कह रहे हैं, अरे वाह! वाह राम! वाह राम! वाह राम! अब क्या भजना? अब तो “सुमिरन मेरा हरि करें, पाछे-पाछे हरि फिरें।” हम क्या! मज़ेदार है कि नहीं?
पीछे-पीछे हरि फिर रहे हैं और तुम कह रहे हो, 'अरे यार, तुम बहुत परेशान करते हो।' और वो कह रहे हैं, ‘थोड़ा सा, थोड़ा सा, ज़रा सी बात थी’। तुम कह रहे हो, 'ठीक है, दो घंटे बाद आना।' ये होता है उनका जो राम हो जाते हैं। राम उनके दास हो जाते हैं, जो राम हो जाते हैं। पीछे-पीछे फिरेंगे।
प्र ४: चाहना तो क्या चाहना है? हमको तो पैसा चाहने के बाद पता चला कि इससे नहीं खुशी मिलेगी। गाड़ी खरीदा तो पता चला कि इससे भी नहीं मिलेगी, घर बनाया। ये तो पता चल रहा है कि इससे कुछ नहीं मिलना।
आचार्य: थोड़ा-थोड़ा तो पता है न कि क्या चाह रहे हो?
प्र ४: हाँ।
आचार्य: क्या चाह रहे हो?
प्र ४: जो ज्ञात है उसको पा गये तो पता चला कि इससे तो नहीं मिल रहा है। इतना पता चल रहा है।
आचार्य: वो जो अज्ञात है उसकी भी कुछ तो झलक मिली हुई है। वो जो अज्ञात है, वो किस रूप में तुम्हारे सामने आता है। वो शान्ति रूप है, वो सुकून है, वो विश्राम है। वास्तव में उसको इन रूपों में जानो कि सुकून मिल जाएगा। तो अपनी दिनचर्या को देखो, जो भी कुछ करते हो। उसको देखो कि वो सुकून देता है कि नहीं देता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस गाड़ी के पीछे भाग रहे हो, वो सुकून छीनने वाली हो। अब कर्ज़ा लेकर के मकान खरीद लिया है कि गाड़ी खरीद ली है। सुकून हुआ?
प्र ३: ये दास हो जाना माने क्या होता है?
आचार्य: अपनी मर्ज़ी को महत्व न देना।
प्र३: मैं तो अपने जीवन को देखता हूँ तो मेरे लिए तो वही सबसे ऊपर लग रहा कि मुझे क्या चाहिए, मेरी मर्ज़ी क्या है। मैं अपनेआप को बहुत महत्त्व देता हूँ कि मुझे ये अच्छा लगता है, ये पसन्द है।
आचार्य: एक बार तुम जान गये कि तुम्हारी वृत्ति तुम्हें किधर को ढ़केल रही है, उसके बाद भी क्या उसी के अनुसार चलना चाहोगे? दास हो जाने का मतलब ये है कि मैं जान गया कि मेरी वृत्ति है चटपटा खाने की। मेरे सामने मेज़ पर चटपटा सजा हुआ है और उसे न खाना मुझे बहुत बुरा लग रहा है लेकिन फिर भी मैं वो करूँगा जो सही है। भले ही वो जो सही है, मुझे बहुत बुरा लग रहा हो।
सही क्या है?
चटपटा न खाना। और न खाना मुझे कैसा लग रहा है?
प्र: बुरा।
आचार्य: ये है दास हो जाना। मैं वो कर रहा हूँ, जो तेरी आज्ञा है, भले ही वो मुझे कितनी भी बुरी लगती हो। ग़ुलाम को अपनी मर्ज़ी चलाने का हक़ नहीं होता न। मैं सच्चाई का ग़ुलाम हुआ। अब मेरी मर्ज़ी का भले ही विरोध होता हो, भले ही दमन होता हो, मुझे परवाह नहीं। जो राइट (सही) है, वो करूँगा, भले ही वो मुझे कितना भी अखरता हो। मुँह मेरा सूख जाए, बुरे-से-बुरा लगता हो मुझे, पर जो सही है, उससे इनकार नहीं करूँगा।
प्र ३: दम लगेगा इसमें।
आचार्य: दम भी लगेगा। दूसरे, उससे (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) रूठोगे भी बहुत। कहोगे, 'तेरी बात माने तो ले रहे हैं लेकिन ये अच्छा नहीं करा तूने।' कभी, देखो, तुम्हारा कोई प्रिय हो और वो वज़न कम करने की कोशिश कर रहा हो। और उसने तुमसे ये अनुरोध किया हो कि मेरी मदद करो वज़न कम करने में। और वो बैठे पिज्जा खाने और तुम उसे सामने से हटा दो। और उसे याद दिलाओ कि तुम्हीं ने मुझसे कहा था कि वज़न कम करने में मदद करना मेरी। तो इस नाते मैं तुम्हारे सामने से पिज्जा हटाए देता हूँ। वो तब भी तुमसे नाराज़ ही होगा, मुँह तो फुलाएगा ही रखेगा।
प्र २: तो हम तो दुबारा से नाराज़ होते हुए के सामने अगर देखेंगे कि नाराज़ हो गये तो खा ले।
आचार्य: अब ये तो आपके प्यार की गहराई पर है। और वो खा ले और तभी उसे आ जाए हृदयाघात और वहीं लोटने लग जाए तो?
दास होने का मतलब समझ गये?
भले ही मुझे कितना भी बुरा लगता हो, कितना भी कड़वा लगता हो, लेकिन वो करूँगा जो सही है। जो सही है उस पर चलूँगा, भले ही मेरा दिल उससे टुकड़े-टुकड़े हो जाए।
प्र ४: राह कठिन है। इसमें जूझना तो पड़ेगा।
प्र ५: सर, जिद्दू कृष्णमूर्ती जी की दो पंक्तियाँ हैं इस पर– 'लाइफ़ इज़ एंड मस्ट बी ए सीरीज ऑफ़ चैलेंजेज एंड रिस्पॉन्सेज, चैलेंज इज़ अकॉर्डिंग टू अवर लाइक्स एंड डिस्लाइक्स, नॉट अकॉर्डिंग टू अवर पार्टिकुलर डिजायर्स बट एज्यूम्स डिफरेंट फॉर्म्स एंड डिफरेंट टाइम्स एंड वी हैव द कैपेसिटी टू मीट दैट चैलेंज एडीक्वेटली, फुली, करेक्टली देन देयर इज़ नो प्रोब्लम।'
आचार्य: और ये सब बातें भी बहुत बड़ी बात थोड़े ही हैं। व्यायाम करने जाते हो जिम में, जब तीसरा सेट मार रहे होते हो, तो इन बाजुओं को अच्छा लग रहा होता है क्या? कैसा लग रहा होता है?
श्रोता: बहुत ख़राब।
आचार्य: पर तुम क्या बोलते हो? 'तुझे बुरा लग रहा है लेकिन यही होगा', इसे कहते हैं दास हो जाना। भाई, तुझे बुरा लगता है तो लगे, होगा तो यही। क्योंकि ये सही है, यही होना चाहिए। और मुझे पता नहीं है क्या, कि आपको भूख रही है और नींद भी आ रही है। पर होगा तो वो जो सही है। और सही ये है कि हम ये बात करते रहें, चर्चा होती रहे। नहीं तो मुझे भी पता है कि आप लोग जब घरों पर होते होंगे, तो साढ़े दस बजे तक खा-पी चुकते होंगे।
प्र ५: बहुत जल्दी।
आचार्य: तो भले भूख लगती हो, भले ही नींद आती रही हो। पर सत्संग सबसे ज़्यादा क़ीमती है तो होना चाहिए, ये दास हो जाना है। अब देखिए, इस बार कैंप में कुछ लोग विदेशों से हैं और कुछ लोग ऐसे हैं जो हिंदी में ही बात करना चाहते हैं। तो मेरे लिए आवश्यक हो गया कि मैं दो अलग-अलग समूह बनाऊँ — एक हिंदी वाला, एक अंग्रेज़ी वाला। नतीजा क्या? नतीजा ये हो रहा है कि मुझे दुगना बोलना पड़ रहा है।
मेरे लिए कितना आसान होता न, मैं सबको एक में कर देता और थोड़ा हिंदी बोलता और थोड़ा अंग्रेज़ी बोलता। पर वो दोनों के साथ अन्याय होता। तो भले ही अब मेरे गले पर चोट पड़ रही है, मुझे दुना श्रम करना पड़ रहा है। पर मैं वो करूँगा न, जो सही है, भले ही मुझे बुरा लगता हो। खाना आपने भी नहीं खाया, मैंने भी नहीं खाया; ये है दास हो जाना।
प्र ४: सर, शरीर विरोध करता है, वो मात्र आदत है या वो क्या है?
आचार्य: शरीर की अपनी माँगें हैं। शरीर ने बिलकुल ठेका नहीं उठा रखा सत्य का, समर्पण का। आप समर्पित न रहिए, हो सकता है बहुत हट्टे-कट्टे जियें; और आप फ़क़ीरों को कई बार देखेंगे तो कृशकाय होगें। इतने पहलवान घूम रहे होते हैं, वो क्या कोई योगी होते हैं, महाभोगी होते हैं और ऐसे हट्टे-कट्टे घूम रहे हैं।
तो शरीर का सत्य से कोई विशेष नाता इत्यादि नहीं है। इसीलिए मैंने कहा कि शरीर का अपना कोई प्रयोजन नहीं है। शरीर का बस एक प्रयोजन होना चाहिए। क्या? कि ईंधन की तरह इसको इस्तेमाल करिए। इन टाँगों का एक ही इस्तेमाल है कि मंज़िल तक ले जाएँगी। ये इस्तेमाल नहीं है कि आप बलशाली बनाएँ और सुन्दर बनाएँ और सजाएँ। टाँगों की क़ीमत तभी है जब वो मंज़िल तक ले जाएँ।
शरीर का अपना कोई महत्व नहीं है। इसीलिए सन्तों ने शरीर की क़ुर्बानी देने में कोई विचार ही नहीं किया। बोले ये, इसकी क्या क़ीमत है। ये तो था ही इसीलिए कि मंज़िल तक ले जाए। अब मंज़िल सामने खड़ी है तो इसको बचाएँगे क्या? ले जाओ, यही सही; चढ़ा दो सूली में।
टिकिट होता है हाथ में, जब कंडक्टर आता है, तो कहते हो क्या कि अरे भाई, इसे फ़ाड़ मत देना। अरे! टिकिट था ही इसीलिए कि मंज़िल पर पहुँचा दे। अब फटता है तो फटे। तो शरीर भी इसीलिए है फटता हो तो फटे। मंज़िल क़ीमती है।