प्रेम क्या होता है? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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प्रेम क्या होता है? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप प्रेम पर बहुत बोलते है। अभी ओशो भी पढ़ रहा था मैं, ओशो ने भी पूरा प्रेम-ही-प्रेम पर बोला है। तो इस वाले प्रेम में और रिलेशनशिप वाले प्रेम में बहुत ज़्यादा अन्तर है या फिर कुछ झलक है इस प्रेम में उस प्रेम की जिसकी आप बात करते हो? या दोनों एकदम अलग है?

आचार्य प्रशांत: सम्बन्धित भी हो सकते हैं, असम्बन्धित भी हो सकते हैं, समझना बात को। हृदय जब आकर्षित होता है परमात्मा के प्रति एक यह भाषा है बोलने की, या कह सकते हो कि मन जब आकर्षित होता है हृदय के प्रति यह दूसरी भाषा है बोलने की, तीसरी भाषा है बोलने की कि भीतर की अहंता जब आकर्षित होती है सत्य के प्रति या आत्मा के प्रति वो प्रेम का शुद्धतम स्वरूप है, वो प्रेम की वास्तविक परिभाषा है। मैं झूठ हूँ और चूँकि झूठ हूँ इसीलिए बेचैन हूँ तो मुझे क्या है जो खींचता है अपनी ओर? सच, जैसे प्यासे को खींचें पानी अपनी ओर, ये प्रेम है। झूठ का सच के प्रति आकर्षण है प्रेम।

अब झूठ का सच के प्रति आकर्षण बड़ी दुविधापूर्ण चीज़ होती है क्योंकि झूठ अगर सच की तरफ़ खिंच रहा है तो अब वो झूठ बना नहीं रह सकता। तो एक तरफ़ तो खिंच रहा है और दूसरी ओर बचना भी चाह रहा है क्योंकि झूठ कह रहा है, ‘सच तो चाहिए अपनी प्यास बुझाने के लिए पर प्यास मेरी है ना, मैं ही नहीं रहूँगा तो प्यास किसकी है?’ समझो बात को, यह ऐसा आकर्षण है जिसमें तुम्हें वो तो मिल जाएगा जो तुम चाहते हो पर पाने के लिए तुम शेष नहीं रहोगे।

अब तुमसे पूछा जाता है बता दो जान ज़्यादा प्यारी है या चाहत ज़्यादा प्यारी है? एक वो लोग होते है जो कह देते है जान ज़्यादा प्यारी है तो वो अपनी जान लिए बैठे रहते है और दुसरे होते है जो कह देते है चाहत ज़्यादा प्यारी है। जो कह देते है कि चाहत ज़्यादा प्यारी है उन्हें वो मिल जाता है जो उन्हें प्यारा है। बस जब मिल जाता है तो उन्हें पता भी नहीं चलता मिल गया, क्यों? मिला तो मिटे। मिला तो मिटा और बचे रहना है तो प्यास में, अप्राप्ति में जियो। समझ रहे हो? तो यह तो आन्तरिक बात है कि मन जा रहा है सच्चाई की तरफ़, ये अन्दर की घटना है प्रेम। वो घटना बाहर क्या रूप लेती है? बाहर यह रूप लेती है कि सच वैसे तो निराकार लेकिन संसार में जी रहे हो, जीव हो, शरीरी हो, तो तुम्हारे लिए सब कुछ क्या है? साकार।

सच अमूर्त ही नहीं है मूर्त भी है। इसी संसार में सच के रूप भी घूम रहे हैं, वो रूप सबके लिए अलग-अलग हैं। किसी के लिए नदी है, किसी के लिए पर्वत है, किसी के लिए चाँद है, किसी के लिए कोई ग्रंथ है, किसी के लिए कोई व्यक्ति है, किसी के लिए कोई घटना है।

तो भीतर जब सत्य की प्यास होती है तो बाहर तुम उसकी ओर आकर्षित होते जो तुम्हें तुम्हारे झूठ से मुक्ति दिला दे। जी रहे हो अगर तो किसी-न-किसी से तो सम्बन्धित होकर जीओगे न। जिसमें भीतर सच्चाई की प्यास होती है वो बाहर किससे सम्बन्धित होकर जीना चाहेगा? जो उसे सच के करीब ला दे। बात समझ में आ रही है?

अब दिख रहा है प्रेम आन्तरिक भी है और सम्बन्धों में भी है। आन्तरिक रूप से प्रेम क्या है? कि मन शान्त होना चाहता है। और सम्बन्धों में प्रेम का क्या अर्थ है? कि तुम किसी ऐसे से जुड़ो जो तुम्हारे अहंकार के विगलन में सहायक हो, तुम किसी ऐसे से जुड़ो जो तुम्हें प्रेमपूर्वक तोड़ ही दे, तुम किसी ऐसे से जुड़ो जो तुम्हें तुमसे आगे ले जाए, यह सम्बन्धों का प्रेम है।

और अगर सम्बन्धों में तुम किसी ऐसे से जुड़ गए जो तुम्हें वही बनाये रखता है जो तुम हो तो वो फिर प्रेम नहीं है, वो फिर बड़े नुकसान का सौदा कर लिया तुमने। कि दिन-रात किसी ऐसे की शक्ल देख रहे हो, किसी ऐसे के साथ जी रहे हो जिसकी संगत में तुम्हारा झूठ, तुम्हारी दुविधा, तुम्हारे संशय, तुम्हारी अहंता और प्रबल होते है, यह तुमने अपने लिए अपने ही घर में नर्क पाल लिया। बात आई समझ में?

सम्बन्ध माने संगत ही तो, जिससे सम्बन्धित हो उसकी संगत है। अब या तो किसी ऐसे की संगत कर लो जो मन को, जीवन को हल्का करता हो या ऐसे की संगत कर लो जिसके साथ रह कर और चर्बी चढ़ती हो और भ्रम बढ़ता हो, कुंठा, निराशा बेसिर-पैर की कलह और चढ़ती हो। चुनाव तुम्हें करना है कि किसकी संगत में जी रहे हो।

प्र: आचार्य जी, मेरे खोपड़े में तो मैं ही चलता रहता है।

आचार्य: उसे खो दो और फिर कोई पूछे क्या हुआ? तो बोलो खो पड़ा। क्यों पकड़ कर बैठे हो उसे, उसे पकड़ क्यों रखा है?

प्र: खोता भी नहीं है।

आचार्य: उसे तुम बाँध कर रखोगे तो कैसे खोएगा? जैसे किसी ने केला खा लिया हो और छिलका जेब में रख लिया हो। जेब भी गन्दी कर रहे हो, कच्छा भी गन्दा होगा, सब ख़राब कर रहे हो। व्यर्थ की चीज़ को फेंक देना चाहिए, ऐसे (हाथ से इशारा करके) उछाल देते हैं। क्या करना है ध्यान दे कर कि कहाँ पड़ा? अगर यह भी ख़याल करा कि कहाँ पड़ा तो इसका मतलब अभी उसमें क़ीमत समझते हो। अगर कुछ व्यर्थ का है तो क्या यह भी देखना चाहोगे कहाँ छोड़ा उसको? क्यों?

भरोसा बहुत है तुम्हें। कोई बात नहीं, अच्छी बात है। जिन्हें भरोसा होता है उनको कहा जाता है भरो सा और भरो! आओ सा, भरो सा! क्या भरो? ज़ुर्माना, हर्जाना।

ऊपर देखो, सूरज की रौशनी पहले चाँद की रौशनी बनी फिर बादलों से छनी। वो जो चाँद के आस-पास तुम मण्डल देख रहे हो वो क्या है? वो बादल हैं। सूरज से चाँद, चाँद से बादल, जिस-जिस चीज़ पर पड़ती है उसे सुन्दर बना देती है। चाँद खूबसूरत है और बादलों में छिपा चाँद भी खूबसूरत है, रौशनी का ऐसा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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