प्रश्नकर्ता: कबीर साहब कहते हैं, 'खोजी हो तो तुरन्त मिल जाउँ, एक पल की ही तलाश में।' तो यह खोजी किस स्तर का होता है? और गीता के पंद्रहवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं, 'संसार-रूपी वृक्ष को केवल वैराग्य-रूपी हथियार द्वारा ही काटा जा सकता है।' क्या कबीर साहब का ‘खोजी’ और भगवान कृष्ण का ‘वैरागी’ एक ही हैं?
आचार्य प्रशांत: साधारणतया खोजी वह जो अपने लिए खोजता है। खोजने वाला शून्य तो होता नहीं न! खोजने वाले की कुछ अस्मिता होती है, उसकी कुछ सत्ता होती है। वह ‘न कुछ’ नहीं होता, वह ‘कुछ’ होता है, वह ‘समबडी’ होता है। है न? नाम, पहचान, धारणा, मान्यता। तो साधारण खोजी वह होता है जो खोजी के लिए खोज करता है। उसकी खोज का अंत कौन होता है? उसकी खोज किसके लिए होती है? खोजने वाले के लिए।
अब यह खोजने वाला कौन है? यह खोजने वाला अगर पूरा और तृप्त ही होता, तो क्या इसे खोजने की ज़रूरत पड़ती? ना! तो यह जो खोजी है, यह अपनेआप में एक अपूर्ण, अतृप्त, अयुक्त, अशांत इकाई है; और जो साधारण खोजी है, वह इसी इकाई के लिए खोजता है। इसी इकाई के लिए माने? इसी इकाई को बचाए रखने के लिए, इसी इकाई के संवर्धन के लिए, इसी इकाई के अलंकरण के लिए। यह साधारण खोजी है।
हम जो भी कुछ खोजने निकलते हैं, अपने लिए खोजते हैं न? ‘मैं जैसा हूँ, मुझमें कुछ वृद्धि हो जाए,' ऐसा हमारी खोज का आशय होता है। ‘मैं जैसा हूँ, मेरी थोड़ी सुंदरता बढ़ जाए, मेरा थोड़ा मूल्यवर्धन हो जाए, मैं कुछ ऊँचा, कुछ बेहतर हो जाऊँ।‘ ऊँचा और बेहतर भी मैं किसके मापदंडों पर हो जाउँ? इसी खोजी के, यह खोजी ही तय करेगा कि ऊँचाई किसको बोलते हैं।
अरे बाबा! तुझे इतना ही पता होता कि ऊँचाई किसे बोलते हैं, तो तू इतना नीचा क्यों होता? तो खोजी यह मौलिक भूल करता है, क्या? वह भूल जाता है कि वह एक खोजी है। खोजी है माने? अधूरा है, अज्ञानी है, नासमझ है। खोजी खोजने तो निकलता है, पर अपनी व्यक्तिगत समझदारी का इस्तेमाल करके खोजने निकल पड़ता है।
बात समझ रहे हैं?
अब यह विरोधाभास है, जो उसके कर्म और उसकी मान्यता में है। एक तरफ़ तो वह खोज रहा है — खोजने का आशय ही यही है कि तुम्हारे पास है नहीं, तुम्हें पता नहीं, तुम जानते नहीं, तुम पूरे नहीं — और दूसरी ओर वह जिन तरीकों से खोज रहा है और जिसको खोज रहा है, उसका निर्धारण वह स्वयं करना चाहता है। यह विरोधाभास आप समझ पा रहे हैं?
साधारण खोजी का यह हाल रहता है, उसे जो कुछ भी चाहिए जीवन में, अपने अनुसार चाहिए। चाहे वह कोई साधारण भौतिक चीज़ हो या फिर समस्त भौतिकता से मुक्ति - वह जो भी माँगेगा, माँगेगा अपने हिसाब से। उसे सत्य भी अपने अनुसार, अपने हिसाब से चाहिए - ‘मेरे मुताबिक, मेरे अनुकूल।‘
समझ रहे हैं?
वो कोई बोधग्रंथ पढ़ेगा तो कहेगा, ‘नहीं, इस ग्रंथ की बातें तो ठीक हैं, पर बताने का तरीका मुझे कुछ ठीक नहीं लगा।‘ वह चाहता है कि जो उसे बता रहा है, उसके बताने का तरीका भी सुनने वाले के हिसाब से हो। तो वह प्राथमिकता किसको दे रहा है, ऊँचा किसको मान रहा है? सुनने वाले को। और वह भूल ही जाता है कि भाई अगर तुम ही ऊँचे होते, तो तुम सुनने क्यों आते।
और अगर सुनने आए हो तो सबसे पहले ज़रा बुद्धिमानी के साथ — मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ कि विनम्रता के साथ — मैं कह रहा हूँ कि बुद्धिमानी के साथ इतना तो मानो कि अगर तुम खोजने निकले हो, सुनने निकले हो, पाने निकले हो, तो तुम यह स्वीकार करके निकले हो कि तुममें दोष है, तुममें कमी है। और अगर तुममें कमी है, तो तुम्हें यह अधिकार नहीं है न फिर, कि जहाँ तुम जाना चाहते हो, उससे कहो कि तू मेरे अनुरूप हो जा। वह तुम्हारे अनुरूप होगा या तुम्हें उसके अनुरूप होना पड़ेगा? साधारण खोजी का ऐसा होता है किस्सा।
कबीर साहब कह रहे हैं, 'खोजी हो तो तुरन्त मिल जाऊँ, एक पल की ही तलाश में।' यह फिर किस कोटि के खोजी की बात कर रहे हैं? यह उस कोटि का खोजी है जिसे खोजी हुई वस्तु अपनी हस्ती से ज़्यादा प्यारी है; बस यहीं पर अंतर आ जाता है। एक खोजी होता है जो अपनी हस्ती के लिए तलाशता है। उसे ज़्यादा लगाव किससे है - खोजी हुई वस्तु से या अपनी हस्ती से? हस्ती से।
एक दूसरा खोजी होता है जिसका उल्लेख कबीर साहब यहाँ पर कर रहे हैं। वह अपनी हस्ती के लिए नहीं तलाश रहा, वह कह रहा है कि मैं अपनी हस्ती को कुर्बान करने के लिए तैयार हूँ अपनी खोज के लिए। यह अपनी हस्ती को कुर्बान करने को तैयार है अपनी खोज के लिए; और जो साधारण खोजी होता है वह अपनी खोज को ही कुर्बान कर देता है जब उसकी हस्ती पर आँच आती है।
ऐसे खोजी खूब देखे हैं न? वह खोजने निकलेंगे, खोजने निकलेंगे; वह कहेंगे, ‘मुझे जानना है, मुझे पाना है, मुझे समझना है, मैं ज्ञान का बड़ा पिपासु हूँ, मैं गुण का बड़ा ग्राहक हूँ।‘ लेकिन जैसे ही उनकी हस्ती पर आँच आनी लगेगी, वह खोज को ही त्याग देंगे। और दूसरा खोजी है, जब उसकी हस्ती पर आँच आने लगती है तो वह अपनी हस्ती को त्याग देता है। यह अंतर है।
तुम्हारी खोज बड़ी है या खोजने वाला बड़ा है? जब तक खोजने वाला बड़ा है, तब तक खोज हो नहीं सकती। जब खोज में इतनी गहराई आ जाए, इतनी आत्मीयता आ जाए कि खोजने वाले की कोई हैसियत न रहे, और तुम कहो, ‘खोजने वाला दो कौड़ी का है, तभी तो यह खोज रहा है। इसकी कुर्बानी देकर, इसको भेंट चढ़ाकर, इसकी बलि देकर अगर मेरी खोज पूरी होती है, तो तत्काल मैं इस खोजी को अच्छा जी बोलता हूँ। जाइए, जाइए आप! क्योंकि आपके होने का उद्देश्य ही क्या था? खोज की पूर्ति।‘
खोजी इसीलिए था न, कि खोज लें? अगर खोज इसी शर्त पर पूरी होगी कि खोजी मिटे, तो खोजी सहर्ष मिटेगा। पर कबीर साहब के खोजी की बात कम करिए। जो साधारण, सामान्य खोजी होता है, उसकी बात ज़्यादा करिए, वह भूल कहाँ कर रहा है यह समझिए। उसकी खोज आंतरिक विरोधाभास से भरी हुई है। वह ऐसा है कि जैसे कोई चिकित्सक के पास जाए और फिर चिकित्सक को चिकित्सा का पाठ पढ़ाए।
तुम अगर इतने ही बड़े चिकित्सक हो, तो अस्पताल आए किसलिए हो? तुम अस्पताल आए हो और चिकित्सक को पाठ पढ़ा रहे हो! देखे हैं न ऐसे रोगी? वह चिकित्सक से भी संघर्ष और बहस शुरू कर देते हैं।
और यह उदाहरण अगर जम न रहा हो, तो विचार कर लें किसी मनोरोगी का, क्योंकि आध्यात्म में वह तुलना ज़्यादा सटीक बैठती है। मनोरोगी है, और वह गया है किसी मनोचिकित्सक के पास। अरे भाई, यह पगला गया है पगलों के डॉक्टर के पास, और वहाँ वह वही कर रहा है जो पगला करेगा। वह क्या कर रहा है? वह डॉक्टर को मेडिकल साइंस पढ़ा रहा है। और करेगा क्या, वह तो पगला है! और थोड़ी देर में उसने यह भी कर दिया कि उसने डॉक्टर को पगला घोषित कर दिया।
ऐसा आम साधक होता है, आम खोजी होता है। वह अपने ही केंद्र पर अड़ा रहता है, वह कहता है, ‘मैं हूँ न!’ उसको साफ़-साफ़ दिखाई ही नहीं पड़ता कॉन्ट्राडिक्शन (विरोधाभास), कि तुम अगर इतने ही सही होते तो तुम वैसे क्यों होते जैसे तुम हो, तुम निश्चित रूप से ग़लत हो। और अगर तुम ग़लत हो तो झुको भाई, क्यों अड़े रहते हो इतना?
फिर पूछा है कि क्या कबीर साहब का ‘खोजी’ और भगवान कृष्ण का ‘वैरागी’ एक ही है। खोज का अर्थ ही होता है वैराग्य; बिना वैराग्य के खोज नहीं हो सकती। जिन वस्तुओं से आपको राग हो जाए, कि द्वेष हो जाए, वह तो चारों तरफ़ बिखरी ही पड़ी हैं, उपलब्ध हैं। खोज का मतलब होता है किसी ऐसे की तलाश जो मेरे माहौल के पार का है। जो कुछ भी आपमें राग उत्पन्न कर सकता है, वह आपको खींच रहा है, आकर्षित कर रहा है, पर आप कह रहे हैं, ‘मुझे तेरी ओर आना नहीं है, मैं किसी और को खोज रहा हूँ।‘ खोजी का कथन बता रहा हूँ आपको।
दुनिया अपने सब राग, सब प्रलोभन लेकर के उसको आकर्षित कर रही है, और वह क्या कह रहा है? वह कह रहा है, ‘मुझे तुम्हारी तरफ़ आना नहीं है, क्योंकि मैं तो कुछ और खोज रहा हूँ।‘ यह खोजी है। यह जो इसने अभी-अभी कहा, इसी का दूसरा नाम क्या है? वैराग्य। ‘दुनिया बुला रही है, दुनिया खींच रही है, सब राग-रंग दिखा रही है, लुभा रही है। पर हमें कुछ और चाहिए, हमें दरकार किसी और देश की है, हम यहाँ रुकने वाले नहीं।‘ इसी का नाम है वैराग्य।
तो वैराग्य का मतलब यही भर नहीं होता है कि राग नहीं बचा; वैराग्य का अर्थ होता है कि प्रेम हो गया। ‘किसी ऐसे से प्रेम हो गया है जो राग-रंग से आगे का है, तो इसीलिए अब राग से हो गया मुझे वैराग। राग नहीं जँचता, राग नहीं आकर्षित करता, प्यार हो गया है न!’ और प्रेम नहीं है तो खोज कैसे भई! प्रेम नहीं है तो खोज को ईंधन ही नहीं मिलेगा!
आ रही है बात समझ में कुछ?
जो कुछ साधारण जीव को सरलता से सुलभ है, उसकी खोज थोड़े ही करनी पड़ेगी! खोज का तो अर्थ ही होता है वह पाना जो हमारी छोटी-सी, सीमित और क्षुद्र दुनिया में नहीं है; तभी तो खोजना पड़ेगा न? कोई चीज़ सामने रखी हो तो खोज कैसी? और सामने हमने वही सबकुछ रखा है जो हमने रच रखा है - हमारी ही दुनिया, हमारी ही धारणाएँ, हमारे ही रिश्ते-नाते, हमारा ही कारोबार, हमारा ही संसार। खोज का अर्थ है - ‘इससे आगे का कुछ अब बुलाने लगा है, उसकी ओर जाना है।‘ यही वैराग्य है।
तो वैरागी को रूखा-सूखा मत समझ लीजिएगा; वैरागी तो बड़ा रसिक होता है, प्रेमी होता है वो। वैराग्य को सुनते ही हमारे मन में चित्र कुछ ऐसा खिंचता है जैसे मरुस्थल; जैसे वैराग्य माने रेत ही उड़ रही है, पानी की बूँद भी नहीं। वैरागी तो बड़ा मीठा आदमी है, बड़ा स्नेही, प्रेम-विह्वल। और अगर आपके जीवन में उस कोटि का वैराग्य आया है जो रेगिस्तान जैसा दिखाई देता है, तो समझ लीजिए कि यह वैराग्य चलेगा नहीं बहुत।
संसार के प्रति वैराग्य सत्य के प्रति अनुराग के साथ आना चाहिए। झूठ से वैराग और सच से अनुराग, दोनों इकट्ठे होंगे तभी तो गाड़ी आगे बढ़ेगी न! अगर सिर्फ़ वैराग कर लिया, और अनुराग है ही नहीं, तो थोड़ी देर में छटपटाने लगोगे। वैरागी होकर भागे थे दुनिया की दावत से, थोड़ी देर में नाक कटाकर फिर वहाँ पहुँच गए पत्तल चाटने।
ऐसा बहुत वैरागियों के साथ होता है। जब दावत में बुलाया जाता है तो कहते हैं, ‘नहीं, हम वैरागी हैं, दावतखोरी में हमारी रुचि नहीं!’ और फ़िर दो घंटा-चार घंटा बाहर बैठे रहते हैं, पेट कुलबुलाता है, तो अंत में जब जूठे पत्तल-भर बचे होते हैं, तो पहँच जाते हैं, कि हे-हे-हे, हम भी आ गए।
ये समझ रहे हो न, यह मैं आध्यात्मिक आदमी का खाका खींच रहा हूँ। उसका यही होता है, बिलकुल कमर कसकर निकलता है, कि दुनिया तो हमने छोड़ ही दी, हमें सच की तलाश है। दस-बीस साल इधर-उधर गँवाकर के फिर वह दुनिया के ही दरवाज़े जाकर के बड़ी कातरता से दस्तक देता है; कहता है, ‘कहीं कुछ मिला नहीं, हम वापस आए हैं।‘ फिर दुनिया से भी क्या पाता है? जूठन और असम्मान।
प्रेम होना चाहिए, लक्ष्य के प्रति एक कशिश होनी चाहिए; फिर लौटकर नहीं आओगे, फिर छोड़ोगे तो छोड़ोगे।