प्रेम और होश || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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प्रेम और होश || आचार्य प्रशांत (2014)

वक्ता: ज़िन्दगी की ये बहुत साधारण सी बात है: होश और प्रेम दो अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं; बिल्कुल एक चीज़ है। जो ये पाता हो कि मैं दावा तो कर रहा हूँ कि मैं प्रेम में हूँ, पर बेहोश हो जाता हूँ, कुछ समझ में नहीं आता, तो वो ये अच्छे से जान ले कि उसे प्रेम भी नहीं पता। क्योंकि प्रेम होश लाता है, और होश प्रेम लाता है — दोनों एक ही हैं। तो एक छोटा सा सूत्र ये है कि जहाँ कहीं भी फैसला करना हो, तो अपनेआप से पूछो, कि प्रेम किधर है? और जिधर है, उस राह को कभी ठुकराओ मत। उसी को थोड़ी देर पहले कह रहा था कि न्योता कभी ठुकराना मत। बड़े निर्णय करते हो न, “ये, कि वो,” “ऐसा, कि वैसा,” हर निर्णय के पीछे सिर्फ़ एक बात होनी चाहिए: “मैं तो प्रेम की दिशा जाऊँगा”, और कुछ नहीं। लेकिन वो जो प्रेम की दिशा है, वो अन्धा प्रेम नहीं है। इसीलिए तुमसे पहले ही कहा था कि प्रेम और होश एक हैं। प्रेम की दिशा का मतलब फूहड़ता मत समझ लेना।

श्रोता १: सर, पर हम तो लगाव को ही प्रेम समझ लेते हैं।

वक्ता: अब जान गए न? लेकिन कल भी यही करोगे। इसका मतलब क्या है? तुम समझ ‘लेते’ नहीं हो; तुम समझना ‘चाहते’ हो।

सौ-बार तो सुन चुके हो और सौ-बार चर्चा कर चुके हो, और सौ-बार तुम्हें ख़ुद भी ये अहसास हुआ है कि मोह प्रेम नहीं है । लेकिन उसके बाद भी मोह को ही प्रेम बोले जाते हो। तो मतलब क्या है? मतलब यही है कि तुम चाहते हो अभी कि मोह ही प्रेम बना रहे, क्यों? क्योंकि अभी असली प्रेम से बच रहे हो। अभी तुमने असली प्रेम चाहा ही नहीं है। असली प्रेम से अभी भागे-भागे फ़िर रहे हो, छुप रहे हो। और जब असली वाला सामने आता है तो हालत ख़राब हो जाती है। बिल्कुल कहीं मुँह छुपा ही लेते हो। कहा जाता है, “करीब आओ। करीब आओ।”, और सबसे दूर जाकर बैठ जाते हो। वो ऐसे ही बुलाता है, “करीब आओ। करीब आओ।”, पर वो तुम्हें ज़बरदस्ती उठा करके थोड़े ही कहेगा कि “आकर बैठ जाओ”। अरे, उसका भी कुछ हिसाब-किताब है। तुम्हें बड़ा करा है। तुम्हें अक्ल दी है। तो उसके साथ तुम्हें ये हक भी दिया है कि अब तय भी तुम्हीं करो कि करीब आना है कि नहीं। मैं बुला लूँगा, पर आना है कि नहीं आना है, तुम जानो। तुमको छिटक करके वहाँ बैठना है तो तुम्हारी मर्ज़ी।

सब कुछ तुम्हारी चाहत पर है।

क्या चाहते हो?

जो चाहते हो, वही होगा।

अब ये मत पूछना कि चाहें तो करें क्या? कुछ नहीं। चाहना काफ़ी है। चाहने से रास्ता अपनेआप निकल आएगा।

श्रोता २: करना कुछ नहीं, बस चाहना है।

वक्ता: बस चाहना है। बैठे-बैठे चाहो। कोई पूछे, “क्या कर रहे हो?”, बोलो, “चाह रहे हैं”।

(श्रोतागण हँसते हैं)

“ये दिन में दो घंटा ‘चाहा’ करते हैं। ये ‘चार से छ:’ का समय है चाहने का।”

(सभी श्रोतागण हँसते हुए)

देखो, कोई तुमसे अगर बहुत ज्ञान की बातें भी बोलता है, अगर बात वो वही कह रहा है जो पहले से ही तुम्हारे मन में है, तब तो वैसे भी उसने तुम्हें कुछ दिया नहीं। ठीक है? उसने सिर्फ़ तुम्हारे ही मन की कोई बात दोहरा दी। मान लो मैं आया तुम्हारे सामने, संवाद में, तुम्हारे कॉलेज आया, मैंने तुमसे कुछ ऐसे ही बोल दिया जो तुम पहले ही सोचते थे, तो मैं वैसे भी तुम्हारे किसी काम का नहीं। ठीक है न? अब मैंने तुमसे कुछ ऐसा बोला, जो तुम्हारे मन से बाहर की बात है, तो वो भी तुम्हारे काम नहीं। क्यों?

श्रोता ३: मन स्वीकार ही नहीं करेगा।

वक्ता: वो तुम्हारे ऊपर से ही निकल जाएगा — “ये क्या है?”, समझ रहे हो? अगर कुछ ऐसा बोलूँ जो तुम्हारे मन-मन का है, तो वो तुम्हें शायद अच्छा लग सकता है, पर वो तुम्हारे किसी काम का नहीं। लेकिन अगर कुछ ऐसा बोलूँ जो तुम्हारे मन के बाहर का है, तो वो भी तुम समझ तो नहीं सकते। ठीक है न? क्योंकि वो तुम्हारी बुद्धि में समाएगा ही नहीं।

तो फ़िर बोलने का प्रयोजन क्या हुआ? क्यों कोई बोले?

बोलने का प्रयोजन ये नहीं होता है कि वहाँ जो बाते कहीं जा रही हैं, मुझे ऐसा कोई गुमान है कि तुम उसको झटके में समझ ही जाओगे। नहीं ऐसा कुछ नहीं है। तुमसे आकर के बोलता हूँ तो इसलिए नहीं बोलता हूँ कि डेढ़-दो घन्टे, ढाई घन्टे के संवाद में तुम अचानक से जागृत हो जाओगे। वो हो नहीं सकता। हालाँकि तुम दावा करते हो अपने फीडबैक-फॉर्म में कई बार कि “हो गया”। और मैं वो पढ़ करके कहता हूँ, “कैसे हो गया?” (हँसते हुए) हो ही नहीं सकता! तुम लिख देते हो। और मज़े की बात ये है कि एक-एक आदमी कई-कई बार लिखता है, क्या? — “आज पहली बार हुआ”। इसने (एक श्रोतागण को इंगित करते हुए) पिछली बार भी यही लिखा था कि आज पहली बार हुआ।

(सभी हँसते हुए)

तो क्यों वहाँ पर संवाद किया जाता है? क्यों संवाद बोलता हूँ? इसलिए नहीं कि तुम्हें कोई विशेष बात समझ में आ जाएगी। सिर्फ़ इसलिए कि तुमको पता लगे कि कुछ ‘है’, कहीं और का, किसी और पार का। वो जो तुमसे दोस्ती करने में उत्सुक है, कहीं से आती हैं आवाजें, कोई बुला रहा है।

कौन बुला रहा है? नहीं समझ सकते।

क्यों बुला रहा है? नहीं समझ सकते।

क्या होगा मिल करके? ये भी नहीं समझ सकते।

लेकिन ये पक्का है कि कोई बुला रहा है। यही है ज़िन्दगी जीने का मन्त्र। और इसके लिए बड़ी बहादुरी चाहिए, कि समझ में तो नहीं आया पर जा उधर को ही रहे हैं। क्योंकि अगर समझ में आ गया और फ़िर कहीं को जा रहे हो, तो तुम क्या कर रहे हो? तुम व्यापारी हो। ये काम तो कोई भी कर लेगा कि अच्छे से पता है कि किधर को जाती है ये सड़क, और हम भी उसी पर चल दिए। ये तो कोई भी कर सकता है। ठीक-ठीक जानते हैं कि ये राह किधर को जाती है, कितने घन्टे में पहुंचाएगी, रास्ता कैसा है, और हम चल दिए उस पर। ये तो कोई भी कर सकता है।

प्रेमी तो वो है जो नहीं जानता कि राह कहाँ को जाएगी, लेकिन फ़िर भी चल दिया। क्यों? अच्छा लग रहा है। इसके लिए विनम्रता भी चाहिए, बहादुरी भी चाहिए, और बड़ा साफ़ मन चाहिए। लेकिन याद रखना, मैं बेवकूफ़ी की बात नहीं कर रहा हूँ। प्यार और होश अलग-अलग नहीं होते हैं।

वरना तो जो रात को चोर घूमते हैं वो भी यही करते हैं, कि जानते नहीं हैं कि अंदर माल कितना है, पर घुस गए; तो कहें कि, “बड़े प्रेमी थे भाई”। विनम्रता भी है कि जानता नहीं था कितने अंदर हैं, और बहादुरी भी है — तो परम प्रेमी है ये तो। यहाँ कुछ और ही बात हो रही है। समझ रहे हो?

तुम क्या सोचते हो कि जो अनियोजित तरीके से चलते हैं, वो डरे-डरे रहते हैं? योजना बनाने में कोई आश्वस्ति नहीं होती। लेकिन जो अनियोजित ज़िन्दगी होती है, उसमें बड़ी गहरी आश्वस्ति होती है। अगर आश्वस्ति नहीं होती, तो अनियोजित चल ही नहीं सकते थे। समझ रहे हो बात को? बात को समझना। आमतौर पर हम ये सोचते हैं कि योजना बनाकर आश्वस्ति मिल जाएगी। उल्टा है। आयोजित ज़िन्दगी में तो सिर्फ़ शक ही शक होते हैं। बे-शक तो सिर्फ़ अनियोजित ज़िन्दगी ही होती है। तो जो आदमी उस राह चलेगा, कि “जानते तो नहीं हैं कि कहाँ जा रही है”, ये मत समझना कि वो बड़ी चिंता में रहेगा। उससे ज़्यादा निश्चिन्त कोई हो ही नहीं सकता था। क्योंकि अगर वो निश्चिन्त न होता, तो उस राह चलता कैसे? नहीं आ रही बात समझ में?

तुम आम तौर पर सोचते ये हो कि अच्छी सी योजना बना लो। पूरा एक टाइम-टेबल बना लो, सारी योजनायें तैयार कर लो, तो उससे हम निश्चिन्त हो जाएँगे। यही लगता है न?

उल्टा है!

उससे तुम कहीं निश्चिन्त नहीं हो जाते। लगता है थोड़ी देर को कि ‘हो गए’। होते नहीं हो।

निश्चिन्त्ता तो वैसे ही आती है।

किधर को जा रहे हैं? पता नहीं। पर पक्का है कि जाना तो इधर को ही है। अब ये बड़ा उल्टा-पुलटा जवाब है।

कोई पूछे, “कहाँ जा रहे हो?”

नहीं पता।

“फ़िर?”

पक्का है कि उधर को ही जाना है।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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