प्रेम - आत्मा की पुकार || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

Acharya Prashant

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प्रेम - आत्मा की पुकार || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

उठा बगुला प्रेम का, तिनका चढ़ा आकाश। तिनका तिनके से मिला, तिनका तिनके पास ।। ~ संत कबीर

आचार्य प्रशांत: प्रेम से मन बचता ही इसीलिए है, उसको तमाम सीमाओं, वर्जनाओं में बाँधता ही इसीलिए है, उससे संबंधित नफ़े-नुकसान के तमाम किस्से गढ़ता ही इसीलिए है, क्योंकि अदम्य होता है प्रेम, एक विस्फोट की तरह। ऐसी उसकी असीम शक्ति होती है, कि उसके आगे ना मन ठहर सकता है, ना मन के तमाम तर्क।

जो हमारा साधारण प्रेम होता है, आदमी-औरत के प्रति, जो खिंचाव होता है मान-सम्मान के प्रति, जो आकर्षण होता है वस्तुओं के प्रति, इसी में बड़ी ताक़त आ जाती है। जबकि ये वास्तविक प्रेम की छाया भर भी नहीं है। लेकिन देखा है, जब किसी स्त्री से, पुरुष से, प्रेम की लहर उठती है, तो जीवन में कैसी ख़ुशबू, बहार जैसी आ जाती है? कैसी ताज़गी, कैसी ऊर्जा, जैसे चारों तरफ़ एक उत्सव हो। और ये बड़ा साधारण प्रेम है।

पूरा अस्तित्व लगता है जैसे नाच रहा हो, फूले नहीं समाते, अघाए-अघाए फिरते हो। ऐसा लगता है जैसे मुट्ठी में आकाश क़ैद कर लिया हो, जैसे सब कुछ मिल गया हो। ये अनुभव तो हुआ ही होगा? सभी गुज़रे ही होंगे इससे। तो ये तो साधारण आकर्षण है, इसी में इतनी तीव्रता होती है।

वास्तविक प्रेम, आध्यात्मिक प्रेम, वो तो वास्तविक रूप से अदम्य होता है।

तुम्हारा साधारण प्रेम तो एक सीमा के बाद दबाया जा सकता है, कुचला जा सकता है। तुम जानते हो, तुम्हें अच्छे से पता है प्रेम की ताक़त का। उसके आगे तुम्हारे सारे तर्क हार जाते हैं। असल में ‘हारना’ कहना भी अतिश्योक्ति होगी।

विस्फोट के समक्ष बंधन हारते नहीं है, क्षण भर में टूट जाते हैं। हार और जीत तो ऐसा लगता है जैसे, कम-से-कम घमासान की, युद्ध की, खिंचाव की, कोई संभावना हो। जैसे कुछ हद तक बराबरी का सौदा हो। यहाँ तो प्रेम ऐसा कि उसके आगे सारे बंधन समझ ही नहीं आ रहा कि गए कहाँ।

तो कबीर कह रहे हैं कि भभके के जैसा उठता है – “उठा बगूला प्रेम का”। एक ऐसी लहर, जिसमें पूरा सागर समा गया हो, इतनी बड़ी लहर। तो सागर की विशालता, और लहर की गति। सागर की अनंतता और लहर-सा पागलपन – इन दोनों को मिला दो, इसका नाम है ‘प्रेम’।

“उठा बगुला प्रेम का”

अब कहाँ बंधन-वंधन का ज़िक्र भी अच्छा लगता है। बात ही पीछे छूटी। इस आवेग को, इस लहर को, इस उन्मत्तता को, कैसे करोगे काबू में? भक्ति-सूत्र कहते हैं, “मत्तो भवति, आत्मारामो भवति।” मस्त हो जाते हो, आत्माराम हो जाते हो, बिलकुल मस्त-मौला।

“तिनका चढ़ा आकाश”

और इसीलिए तो तिनका डरता है, क्योंकि जब अपनी सीमित दृष्टि से, अपनी तिनके जैसी दृष्टि से तिनका जब स्वयं को देखता है, तो उसे यकीन ही नहीं होता कि वो आकाश पर चढ़ सकता है। तिनका ही तो है। तर्क उठता है, “अरे तिनके, हैसियत में रह, अपनी औकात देख। तू आकाश पर चढ़ेगा?” तिनका डरता है। कहता है, “पता नहीं क्या नुकसान हो जाए, मेरी क्या सत्ता! पता नहीं क्या खो बैठूँ!”

तो प्रेम का रास्ता चलने से मन सदा डरता है।

कबीर कहते हैं, “प्रेम तो बस उसी सूरमा के बस का है, जो जात बरन कुल खोने को तैयार है।” डरपोक और कायर मन के लिए प्रेम है ही नहीं। और बड़ी विलक्षण घटना घटती है तब। बाहर से देखो तो तिनका, तिनका, और तिनके आकाश में पाए नहीं जाते। पर ये तिनका चढ़ गया आकाश। कैसे? जब तक तिनका, ‘तिनका’ है, आकाश में चढ़ सकता नहीं। इस तिनके ने आकाश को अपने भीतर समा लिया है, और ये आकाश में समा गया है।

ये कैसी अजीब बात है? बाहर से देखो तो ‘तिनका’ और उसका दिल खोलो तो ‘आकाश’। दूसरा तिनका देखे तो यही कहे कि “तिनका है”, और आकाश की दृष्टि से देखो तो पता चले कि आकाश हो गया। तिनका ‘मन’ है, तिनका ‘देह’ है, आत्मा ‘आकाश’ है।

मन का आत्मा की पुकार को जवाब देना, खिंचे चले आना – यही प्रेम है।

और जब तिनका खिंचता है, तो इसका ‘तिनका’ होना मिट जाता है। ऐसे-ऐसे काम होने लगते हैं, जो तिनका कभी कर ही नहीं सकता था।

“तिनका चढ़ा आकाश”

अनंत आकाश में तिनका? हो ही नहीं सकता था। तिनके की जगह तो पाँव तले है। वास्तव में फिर वो ‘तिनका’ रह नहीं जाता। यही उसकी परम उपलब्धि है, और यही उसका परम डर भी है। परम उपलब्धि ये कि चढ़ जाएगा आकाश पर, और परम डर ये कि जो आकाश पर चढ़ेगा, वो अब ‘तिनका’ नहीं कहा जा सकता। तिनका मर गया। बहुत डरता है, कहता है, “बहुत कुछ पा लूँगा, पर स्वयं को खो दूँगा।”

जितना बहुत कुछ पाने का आकर्षण है, उतना ही अपने आप को खो देने का डर भी। मामला बराबरी का बना रहता है, एक तरह का स्टेलमेट, उहापोह। और कुछ होता नहीं जीवन भर। बस आत्मा की पुकार और संसार की आसक्ति, इनके बीच में इंसान का जीवन व्यर्थ होता रहता है।

ना तो वो ये हिम्मत कर पाता है कि पूरे तरीके से समर्पित हो जाए, आत्मा के आमंत्रण को स्वीकार कर ले, इतनी हिम्मत नहीं दिखा पाता। और ना ही वो ऐसा बहरा हो पता कि उसे अब वो पुकार सुनाई ही ना पड़े। तो विचित्र स्थिति रहती है। एक तरफ राम पुकारते हैं, दूसरी तरफ माया खींचती है, और तुम अनिर्णय में झूलते रह जाते हो।

कबीर का ‘तिनका’ अनिर्णय से मुक्त हो गया है। वो गया राम के पास। अब वो राम ही हो रहा। जैसे कबीर अपने लिए कहते हैं, “क्या अब राम की पूजा अर्चना करूँ, अब तो राम ही हो रहा, क्या आरती करूँ? किसको स्मरण करूँ?”

“तिनका चढ़ गया आकाश”

“तिनका, तिनके से मिला, तिनका, तिनके पास”।

तिनका तिनके से मिला, ऐसे मिला कि - तिनका, तिनके पास। तिनके ही तिनके हैं। ‘तिनका’ होने का अर्थ ही है, इतना ज़रा-सा होना, कि तुम्हारे जैसे बहुत सारे होंगे। ‘तिनका’ होने का अर्थ ही है भीड़ में एक होना। भीड़ ही भीड़ है, तिनके ही तिनके हैं, वैविध्य ही वैविध्य है। और तिनका उलझा हुआ है, वैसे ही अनिर्णय में है जैसे तुम अनिर्णय में हो।

बता रहे हैं कबीर हमें कि ये असम्भाव्य घटना घटी कैसे, तिनका चढ़ा कैसे आकाश पर। तो तिनकों की भीड़ में एक हमारा भी तिनका है – उलझा, डरा, शंकित, बँटा। पुकार रहा है आकाश, पर बंधा हुआ है धरती से। आकाश का प्रेम खींचता है, पर धरती का बंधन बड़ा सघन है।

ऐसे में तिनका एक दूसरे तिनके से मिलता है। ये तिनका भी दिखता तिनके जैसा है, पर इसके हृदय में आकाश का वास है। “तिनका तिनके से मिला”। अब ये कोई साधारण मिलन नहीं है, ये बड़ी विरल घटना है। कोई ऐसा मिल जाए तुमको, जो दिखने में तुम्हारे जैसा हो, पर जो अपने भीतर आकाश समेटे हुए हो। और जब ऐसा हो जाता है, तब, “तिनका, तिनके पास”। तब जिसका था, उसको वापस चला जाता है, ‘तिनका - जिसका था, तिनके - उसी को, वापस - पास’।

“तिनका तिनके से मिला, तिनका तिनके पास”

‘तिनका’ होना तुम्हारी नियति नहीं, तुम्हारा सत्य नहीं। तुम जो हो मात्र वही तुम्हारा सत्य है, वो नहीं जो तुम दिखते हो।

तिनका, ‘तिनका’ दिखता भर है, है वो आकाश ही। तिनका भी आकाश, तिनके को खींचने वाली पृथ्वी भी आकाश। यही कारण है कि तिनका जब आकाश चढ़ भी जाता है, तो भी दिखता वो बाहर से तिनके के ही समान है और उसे इसमें कोई अड़चन भी नहीं होती है।

वो कहता है, “ठीक, अब तिनके जैसे दिखते भर हैं। जान हम गए हैं कि तिनके नहीं हैं, अब कुछ भी दिखें हमें क्या परेशानी? दिखें या ना दिखें, उसमें भी कोई परेशानी नहीं। मृत्यु का खौफ़ भी गया। दिखने से संबंधित जो कुछ था, अब वो महत्त्वपूर्ण रहा नहीं; इन्द्रियगत जो कुछ था, अब वो महत्त्वपूर्ण रहा नहीं। अब तो बस मौज है।”

“साहब सेवक एक संग खेले सदा बसंत।”

तिनका मिल गया आकाश से, सेवक मिल गया साहब से।

उलटि समाना आप में, प्रगटि ज्योति अनंत। साहब सेवक एक संग, खेलैं सदा बसंत ।।

अन्य तिनके देखेंगे तो कहेंगे कि, "ये एक तिनके का दूसरे तिनके पर असर है, ये गुरु तिनके का शिष्य तिनके पर असर है।" इससे ज़्यादा वो सोच भी क्या सकते हैं? तिनका बुद्धि! इससे आगे क्या जाएगी? वो कहेंगे, “देखो प्रभाव में आ गया, देखो पागल हो गया, देखो तिनका होकर आकाश पर चढ़ने की व्यर्थ दुष्चेष्टा कर रहा है। दुःसाहसी है, मरेगा।”

वो ये जानेंगे भी नहीं कि खेल तिनकों का है ही नहीं। बात तिनकों से बहुत आगे की है। तिनका, तिनके से नहीं मिला है, आकाश, आकाश से मिल गया है। किसी का किसी पर कोई प्रभाव नहीं है। प्रभावित करने के लिए कोई दूसरा होना तो चाहिए न। अनंत, जब अनंत से मिले तो कौन किसे प्रभावित करेगा? और कौन किससे मिला? कोई घटना घटी ही नहीं है। जो जैसा था वैसा ही है, बस कुछ भ्रम दूर हो गए हैं।

सब कुछ वैसा ही है, बस कुछ भ्रम दूर हो गए हैं। दृष्टि साफ़ हो गई है। दृष्टि के साफ़ होने भर से, ऐसी ऊर्जा, ऐसा उत्सव, ऐसी मस्ती, ऐसा पागलपन आया कि वो चढ़ा जा रहा है, चढ़ा जा रहा है। और नीचे से बाकी तिनके मचाते होंगे शोर, हो सकता है नीचे से वारंट भेज देते हों, समन भेज देते हों। फ़ौज और पुलिस भी लगा देते हों कि, “देखो, सीमाएँ तोड़ रहा है। बिना वीसा-पासपोर्ट के आसमान पर चढ़ा जाता है, उल्लंघन कर रहा है वर्जनाओं का।” पर अब वो तो कर रहा है। “उठा बगूला प्रेम का”, उसे रोक ही नहीं पाओगे तुम।

जिसके कदम प्रेम में उठते हैं वो स्वयं भी नहीं रोक सकता अपने कदमों को, ज़माना क्या रोकेगा!

दुनिया तुमसे कहने आए, “रुक जाओ”, तो कहना, “रुक सकता तो रुक जाता! तुम्हारे रोके क्या रुकूँगा, अरे, मैं अपने रोके नहीं रुक पा रहा। तुम मुझसे क्या परेशान हो, मैं ख़ुद अपने आप से बहुत परेशान हूँ। मैं कब चाहता था जाना? मैंने तो भरसक कोशिश की, कि ना हो। मेरे बस में जितना था, मैंने सब कर डाला, अपना सारा ज़ोर आज़मा लिया। अपनी ओर से जितने दाँव-पेंच, हथकंडे हो सकते थे, अपनी सारी कुटिलता लगा दी। अब तो फँस गया, अब तो छल लिया छलिया ने।”

“तुम आए हो मुझे रोकने, मैं कह रहा हूँ, मेरी मदद कर सकते हो तो कर दो। अरे, मैं ख़ुद नहीं जाना चाहता। कौन-सा तिनका आकाश पर चढ़े? मुझे रोक सकते हो तो रोक लो, मदद करो मेरी। लो हाथ पकड़ो मेरा। क्या पता तुम्हीं रोक लो।” और ज्यों ही ये कहोगे, तिनका, तिनके से मिल जाएगा, एक और तिनका भी आकाश पहुँच जाएगा। (हँसते हुए) ऐसा ही होता है। क्या कैसे होना है, तुम जानते नहीं।

जो तुमसे कहते हों कि यहाँ ना आओ, उनसे कहो, “तुम भी आओ, और जो बाकी लोग हैं, उन्हें भी वापस लेकर चले जाओ। असल में वो पूरी सभा ही मुक्ति कि तलाश में है। फँसे हुए लोग हैं, तुम आओ और उन्हें मुक्ति दे दो। मुझ एक को क्या मुक्त कराते हो, मैं ही भर थोड़े ही फँसा हूँ। और भी कई हैं जो बेचारे फँस गए हैं। आओ, सबको बचा लो, हाथ पकड़ो मेरा।”

हाथ पकड़ ज़रूर लेना ज़ोर से, उड़ान के समय सीट-बेल्ट बाँधनी पड़ती है। फ़िर भागने ना पाए। तुम्हारे साथ-साथ वो भी आकाशीय हो जाएगा। और वास्तव में कुछ हुआ भी नहीं होगा। होने को है क्या? व्यर्थ का सपना, वो भी खौफ़नाक - हट जाएगा।

(कुछ श्रोता मुस्कुराते हैं)

मुस्कुराते क्या हो? यही जीवन है हमारा। पहले तो सपना है, अवास्तविक। दूसरे, खौफ़नाक है, डरावना। और तुम इसे पकड़े बैठे हो।

अरे! कोई मधुर सपना हो, और देख रहे हो, तो समझ में भी आता है। बड़ा ज़ालिम सपना है, पिट रहे हो तुम, हालत ख़राब है, पर सपना देखे जा रहे हो। अब ये सपना यदि टूटे, तो कुछ हुआ है क्या वास्तव में? बस - तिनका तिनके पास। जो जैसा था, वैसा दिख गया है। यथार्थ सामने है - तथाता। कोई घटना घटी नहीं है वास्तव में। ये महाक्रांति, अ-क्रांति है।

एक बुज़ुर्ग आए एक दिन सत्र में। वो पूछने लगे, “ये आपने बिना लिफ्ट की बिल्डिंग में, सबसे ऊपर वाली मंज़िल पर क्यों कार्यक्रम रखा है?” वो सुनेंगे इस सत्र को विडियो में तो समझ जाएँगे। अरे! तिनके को आकाश चढ़ना है या नहीं? लिफ्ट पर बैठकर नहीं आते।

प्रेम का बगूला उठता है, तब चढ़ा जाता है। सीढ़ी नहीं गिनी जातीं, प्रेम के पंखों पर आते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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