प्रयत्न माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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प्रयत्न माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: सर, जैसे सुबह बात हो रही थी कि शारीरिक तनाव या शारीरिक थकान के बाद, जो थकान से पहले का ध्यान था, वो गुम हो जाता है। तो इसका मतलब क्या ये निकल कर आता है कि जिस ध्यान में हम आ रहे हैं वो सिर्फ़ एक प्रयास है हमारा, और अगर वो प्रयास नहीं है तो ध्यान भी नहीं है?

वक्ता: देखो, प्रयास हमेशा मानसिक होता है। प्रयास किसको कहते हो? प्रयत्न का अर्थ ये होता है कि मन बटा हुआ है, प्रयास को साफ़-साफ़ समझ लो। प्रयास का मतलब होता है कि मन का एक हिस्सा कह रहा है कि ‘मत कर’, दूसरा हिस्सा कह रहा है कि ‘कर’; और दूसरा हिस्सा पहले हिस्से से जूझ रहा है।

मन का एक हिस्सा शरीर से संयुक्त है, शरीर थका हुआ है तो मन का वो हिस्सा क्या कह रहा है? – “मत कर!” मन का दूसरा हिस्सा ज्ञान से संयुक्त है, वो कह रहा है कि “शरीर थका हुआ भी है तो तू कर”, अब जो होगा, उसे प्रयत्न कहते हैं।

प्रयास कभी भी शारीरिक नहीं होता; प्रयास हमेशा मानसिक होता है।

प्रयास का मतलब है कि मन में घमासान मचा हुआ है कि करें कि न करें, वो प्रयत्न है। तुमको किसी को बस एक जवाब देना है, हाँ या ना का, देखा है कि हाथ कांप जाते हैं, लिखने में दिक्क्त हो जाती है कि वाई (हाँ) टाइप करूँ या एन (नहीं) टाइप करूँ, ज़बरदस्त प्रयत्न लग रहा है! अब बताओ क्या इसमें शरीर थक रहा है वाई या एन दबाने में? क्या शरीर थक रहा है? लेकिन प्रयास बहुत लग रहा है। लग रहा है कि नहीं लग रहा है?

लोगों को देखा होगा वो जाते हैं प्रपोस (प्रस्ताव) वगैरह करने, अब वहाँ पर मुँह नहीं खुल रहा है, ज़बान चिपक गयी है। अब शारीरिक श्रम इसमें क्या है? या तुम पोडियम (मंच) में खड़े हो, *एच. आई. डी. पी*. चल रहा तुम्हारा और प्रेज़ेन्टेशन (प्रदर्शन) करने के लिए मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही है। अब क्या शरीर थका हुआ है? पर प्रयास ज़बरदस्त है; प्रयास हमेशा मानसिक होता है। जब कभी भी मन विरोध ही न करे, तो प्रयास कैसा?

शरीर थका है, बहुत बुरी तरह थका है लेकिन मन एक है, इंट्रीग्रेटिड (एकीकृत) है, और उसे अच्छे से पता है कि अभी क्या होना है, उसके पास कोई विकल्प ही नहीं है तो वहाँ कोई प्रयत्न नहीं है।

प्रयत्न सिर्फ़ तब है जब विकल्प हैं। प्रयत्न सिर्फ़ तब है जब दो हैं, हिस्से हैं।

देखो, एक शारीरिक थकान होती है, उसकी बात नहीं कर रहा, वो तो होगी ही होगी, वो तो एक रासायनिक चीज़ है। शरीर में, कोशिकाओं में ग्लूकोज़ (शर्करा) होता है, वही ग्लूकोज़ जल कर क्या बनता है? ऊर्जा बनता है। अब अगर वो मॉलिक्यूल (अणु) ही नहीं है कोशिकाओं में, तो वो ऊर्जा कहाँ से आएगी? तो मैं शारीरिक थकान की कोई बात नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि वो पूरे तरीके से क्या है? एक रासायनिक प्रकृति है; एक रसायन से हम नहीं लड़ सकते। रासायनिक प्रकृति है; प्रकृति के अपने नियम हैं, हम उससे नहीं लड़ सकते। और ग्लूकोज़ का एक मॉलिक्यूल जलेगा तो उसमें से जितनी ऊर्जा निकलनी है उतनी ही निकलेगी, तुम उससे ज़्यादा तो नहीं निकाल सकते। मैं शारीरिक थकान की बात कर ही नहीं रहा और शारीरिक थकान हमें होती भी नहीं। हम जिसको थकान बोलते हैं, हम जिसको प्रयास बोलते हैं, तुम ध्यान से देखना वो मानसिक होता है।

जब मन बटा हुआ नहीं होगा, तब पूछो कि शारीरिक थकान का मन क्या करेगा? तब वो शारीरिक थकान को बस एक इनपुट (संकेत) की तरह लेगा। वो कहेगा, “ठीक है, यह परिस्थिति है कि ये एक शारीरिक उपकरण है, और ये थका हुआ है और इसकी बैटरी सिर्फ़ आठ प्रतिशत बची हुई है और इस स्थिति में मुझे पता है कि मुझे क्या करना है”। अब इसमें प्रयत्न क्या है? मुझे पता है मुझे क्या करना है! और ये बात मेरे पास सिर्फ़ एक इनपुट (संकेत) की तरह आ रही है, कि देह में ९२ प्रतिशत ऊर्जा का लोप हो चुका है, ये बात सिर्फ़ संकेत है, ये थकान नहीं है।

थकान कहाँ होती है?

मन में!

थकान उस समय शुरू होगी जब मन का एक *बॉडी आईडेंटिफ़ाइड* (देह से संयुक्त) हिस्सा खड़ा हो कर के बोले कि “जब देह में से ९२ प्रतिशत ऊर्जा का लोप हो चुका है, तो अब तुम्हें कुछ नहीं करना है”। और दूसरा हिस्सा कहे कि “ना… इस समय पर कुछ और करना है, मेरा धर्म है कुछ और करना”।

अब थकान होगी?

कल हम रात को बारिश से आ रहे थे, तुम लोग गाड़ी में बैठे थे, तुम्हें नहीं पता है। और जब बाईक चल रही है, बारिश में भी हम चालीस-पचास की गति से तो चल ही रहे थे। जब पचास की गति से बाईक चल रही होती है, और बारिश की बूंदे हों, तो वो चेहरे पर ऐसी लगती हैं कि जैसे चांटा मारा जा रहा हो। अब बड़ी थकान हो जाए अगर हर दो-मिनट में सोचना पड़े कि चलानी है कि नहीं चलानी है। अगर पता ही है कि चलानी तो है ही, रुकने का तो कोई सवाल ही नहीं है तो थकान नहीं होगी। लेकिन अगर, बारिश करीब दो घंटे चली है, उस दो घंटे में हर पाँच-मिनट में आपको पूछना पड़ रहा है कि “ये क्यों हो रहा है? मेरे साथ ही ये क्यों हो रहा है? बाईक किसी और को दे दूँ।” सत्तर तरीके के विचार उठ रहे हैं मन में, बड़ी गहरी थकान होगी, नहीं तो नहीं होगी।

श्रोता १: सर, जैसे आपने बोला कि मन को बदलना पड़ता है, अगर आपको कुछ भी बात आगे बढ़ानी है। अब आपने प्रयास की बात करी और आपने बता दिया कि जब आपके पास विरोधाभासी विचार होंगे, वहीँ पर प्रयास होगा, और फल-स्वरूप थकान हो जाएगी। हम इसे एक कांसेप्ट (अवधारणा) की तरह तो समझ गए लेकिन मन तो अभी बदला नहीं है। प्रयास तो रहेगा ही न?

वक्ता: मन बदला नहीं है। देखो, मन बदलता कैसे है। मन बना कैसे है?

श्रोता १: संस्कारों से।

वक्ता: तुमने कुछ ला कर के रख लिया था अपने ऊपर; अभी जो सुन रहे हो, उससे उस परत का क्या हो रहा है?

श्रोता १: मिट रही है।

वक्ता: ठीक है।

श्रोता १: लकिन अगर शुरुआत में वो प्रयत्न लगता है, तो क्या करें?

वक्ता: मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि अभी इसे सुन लोगे तो तुम्हारी ज़िन्दगी प्रयास-रहित हो जाएगी। तुम्हारा जो कर्मफल है वो तुम्हारे साथ है ही है। तुमने जो पुराने बीज बोए हैं उन्हें तो तुमको भुगतना ही पड़ेगा; फसल काटनी ही पड़ेगी जो बोई है। लेकिन अब नई नहीं बोओगे और पुरानी का भी जो तुमको प्रभाव मिलेगा, उस प्रभाव से बहुत हिल नहीं जाओगे। कोई यह ना सोचे कि अगर उसे यह पता चल गया है कि पीड़ा माने क्या, तो वो पीड़ा से मुक्त हो जाएगा।

तुमने जो कर रखा है वो तो तुम्हारे साथ है ही। लेकिन हाँ, इतना हो जाएगा, दो बातें हैं: पहला, कुछ और नहीं पैदा करोगे, पहले जो तुमने हरकतें कर दीं अब वो तो अपरिवर्तनीय हैं, समय एक तरफ़ को ही बहता है। लेकिन, इतना होगा अब तुम और ऐसी हरकतें नहीं करोगे जो भुगतनी पड़ें आगे। दूसरी बात, पुराना जो करा भी था, उसका जो तुम पर असर आएगा, उस असर को बहतर झेल पाओगे। तुम समझ जाओगे कि ये जो मुझे मिल रहा है, ये क्या है। और जितना कम अपनी पहचान तुम उस मिलने से बनाओगे, उतना कम कष्ट होगा। लेकिन घुमा-फ़िरा के एक बात तो पक्की है, कि जो भी कुछ करते आए हो, वो अपना रंग तो दिखाएगा।

तुम ज़िंदगी भर ऐसे काम करो जिनसे कैंसर होता है, और जब तुम पचास साल के हो जाओ तो तुम कैंसर पे खूब ज्ञान अर्जित कर लो। तुम्हें कैंसर के बारे में सब पता हो गया, तुम अब सब कुछ जानते हो — क्या क्रियाविधि है, कौन सा प्रोटीन है, कौन सा मॉलिक्यूल (अणु) है, कौन सी कोशिका में क्या होता है तो कैंसर होता है। तुम्हारे ये जान लेने से क्या तुम्हें अब कैंसर नहीं होगा?

तुमने पचास साल कर्म ऐसे करें है जिनसे कैंसर होना पक्का है, पचासवे साल में आ के तुमने ज्ञान अर्जित कर लिया कैंसर के बारे में, तो क्या अब तुम्हें कैंसर नहीं होगा? बोलो? वो तो होगा, क्योंकि तुमने पचास साल का जो गोदाम भरा हुआ है, वो अपना रंग तो दिखाएगा। लेकिन फ़ाएदा होगा तब भी, ये जो तुमने ज्ञान अर्जित किया इससे तुम्हें फ़ाएदा तो होगा। क्या फ़ाएदा होगा?

  1. तुम अब और ऐसा कुछ नहीं करोगे जो कैंसर को बढ़ाए।
  2. कैंसर से जो तुम्हें कष्ट होगा उस कष्ट के साथ कम पहचान बनाओगे, समझ जाओगे कि ये क्या चीज़ है। चिल्लाओगे नहीं, शिकायते नहीं करोगे।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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