प्रश्न: सर, मैं खुल कर के बोल क्यों नहीं पाता?
वक्ता: सवाल यह नहीं है कि मैं खुल कर बोल नहीं पाता। हालाँकि पूछा यही गया है की मैं खुल कर के बोल क्यों नहीं पाता हूँ। पर जब यह सवाल पूछा गया, तो खुल कर के ही बोले। किसी को ऐसा लगा कि बिना खुले बोले? दब के बोले? मैंने जैसा सुना, तुम्हारे कहने में कोई कमी नहीं थी। ठीक ठाक ही कहा। और कैसे कहोगे? सहज रूप से अभिव्यक्ति हो गयी, काफ़ी होता है। लेकिन फिर भी तुम्हें लगता यही है कि खुल कर के बोल नहीं पाते, तो कोई बात तो होगी। बात क्या है? निश्चित रूप से, और ऐसे वर्ग हैं, लोग हैं, ऐसे अवसर हैं, जहाँ पर तुम्हें बोलने में हिचक हुई है, संकोच हुआ है। तुम्हें सवाल को ज़रा बदलना पड़ेगा और यह पूछना पड़ेगा कि ऐसे कौन से लोग हैं, ऐसे कौन से मौके हैं जहां मैं बोल नहीं पाता। इसी सवाल के जवाब से तुम्हें काफ़ी कुछ स्पष्ट हो जाएगा।
क्या आईने के सामने नहीं बोल पाते?
तुम्हारा कोई जानवर हो, जो दोस्त हो, पालतू हो, उसे बुलाना हो तो क्या नहीं बोल पाते?
जो लोग वास्तव में तुम्हारे दोस्त हैं, क्या उनके सामने भी नहीं बोल पाते?
माँ के सामने नहीं बोल पाते?
पर, समूहों में नहीं बोल पाते। सभा में नहीं बोल पाते। ऐसे अवसर जब आते हैं तब पाते हो कि नहीं बोल पाते। यही होता है न? तो, कुछ तो है सभा, समूह, में जिसके कारण तुम्हारा मन भय की जकड़ में आ जाता है।
क्या है ऐसा वहाँ पर?
क्या है ऐसा वहाँ पर जो अलग है तुम्हारे बाकी जीवन से?
एक सभा में ऐसा क्या है जो आईने के सामने नहीं होता?
वहाँ पर है दूसरों की आँखें और उन आँखों में श्रेष्ठ कहलाने की तुम्हारी इच्छा। तुम्हें जितना अपने आप को किसी की नजरों में स्थापित करने की इच्छा होगी, उतना ज़्यादा तुम उससे डरोगे। कल को तुम्हें यही लगने लग जाए कि तुम्हें अपनी माँ या भाई की नजरों में ऊँचा उठना है, तो तुम पाओगे कि वहाँ भी तुम्हारे सामने हिचक आ गयी है।
जितना तुम्हारे भीतर यह भाव रहेगा कि मैं वही हूँ जैसा दूसरे मेरे बारे में सोचते हैं, या कि मैं वह हूँ जो स्थान मुझे दूसरे दे दें, उतना ज़्यादा तुम दूसरों पर निर्भर रहोगे और डरे हुए रहोगे।
कोई भी सम्बन्ध उस दिन डर का सम्बन्ध बन जाता है, जिस दिन उसमें निर्भरता आ जाती है। तुम किसी पर निर्भर हुए नहीं कि तुम उससे डरना शुरू कर दोगे। इस नियम को अच्छे से समझ लो। तुम जिसपर भी निर्भर हो गए, उसका और तुम्हारा रिश्ता डर का हो प्रेम खत्म हो जाएगा। चाहते तो यदि कि तुम्हारे रिश्तों में मुक्ति रहे, सहजता रहे, और प्रेम रहे, तो अपने रिश्ते में निर्भरता को मत आने देना।
अगर तुम निर्भर हो गए हो कि दूसरे तय करेंगे मेरा स्थान और मेरी हैसियत, तो अब तुम दूसरों के सामने बोलते समय संकुचाओगे। बोलते ही समय भर नहीं, कुछ करते समय भी। और दूसरों का ख़याल हर समय तुम्हारे ज़हन में हावी रहेगा। तुम हर समय यही सोचते रहोगे कि मैं जो कर रहा हूँ, दूसरे इसे किस नज़र से देखेंगे। क्योंकि तुमने अपने आप को क्या परिभाषित कर लिया? ‘मैं वैसा, दूसरों ने देखा जैसा।’ मैं वैसा नहीं जैसा मैं हूँ। ‘मैं वैसा, जैसा दूसरों ने मुझे देखा।’ यह परिभाषा ही गलत है। यह परिभाषा ही खतरनाक है।
और उससे भी गड़बड़ बात यह है कि हममें से अधिकांशतः लोग इसी परिभाषा पर चलते है।
‘हम कैसे? दुनिया कहे जैसे।’
यह हमारी अपनी परिभाषा है। दुनिया कहे सफल, तो हम?
श्रोता: सफल।
वक्ता: दुनिया कहे सम्मान्नीय, तो हम?
श्रोता: सम्मान्नीय।
वक्ता: दुनिया कहे नालायक, तो हम?
श्रोता: नालायक।
वक्ता: और यह बातें कितनी जुड़ी हुई हैं। अगर दुनिया के कहने से तुम सफ़ल हो सकते हो तो दुनिया के कहने से ही तुम्हें नालायक भी होना पड़ेगा न, कि नहीं होना पड़ेगा? बात आ रही समझ में? अब जब नालायक घोषित होने की तलवार तुम्हारे सर पर लगातार लटक रही है, तो डर तो तुम्हें लगेगा ही। दूसरों के सामने बोलने जाते हो, तमाम शंकाएँ तुम्हारे भीतर कौंध जाती हैं – ‘क्या पता कौन मेरी खिल्ली उड़ा दे? क्या पता इन्हें मेरी बात पसंद आए न आए? क्या पता इन्हें मेरा चेहरा और कपड़े ही ना भाएँ? कौन जाने यह क्या कह दें?’ और यह जो कुछ भी कह देंगे एक प्रकार का फैसला होगा मेरे अस्तित्व पर। तुम उस फैसले से बहुत घबराते हो।
तुमने उन्हें हक़ दे रखा है तुम्हारे ऊपर फ़ैसला आरोपित कर देने का। तुमने उनसे कह रखा है कि ‘माई-बाप, मैं कुछ बोलूँगा, और अगर आपने स्वीकार कर लिया, तो मैं अच्छा, और मैंने जो बोला, अगर वह आपको नहीं भाया, तो मैं बुरा।’
तुमने अपनी डोर इन बाहर वालों के हाथों सौंप दी, अब डरो इनसे!
मैंने कहा था न तुमसे कि या तो एक से समक्ष समर्पण कर दो, या इन सैंकड़ो, हज़ारों की गुलामी करते रहो। निश्चित रूप से तुम्हारे जीवन में समर्पण का अभाव है।
दुनिया से वही डरते हैं जो परमात्मा से भगते हैं । जिसे दुनिया से डर लगता हो, सब से पहले तो यह जान लेना कि वह बड़ा श्रद्धाहीन आदमी है। उसके जीवन में सत्य बिलकुल नदारद है। और झूठ तो डराता है। सच और झूठ की बात ही यही है – सच, डर से मुक्ति देता है, और झूठ, डर में और गहरे धकेलता है।
यह सब बैठे हों तुम्हारे सामने, 500 लोग, इनकी हैसियत क्या है? यह होते कौन हैं तुम्हारे ऊपर निर्णय कर देने वाले!
तुम बेख़ौफ़ होके इनके सामने क्यों नहीं खड़े हो सकते?
जिससे बोलने की अनुमति मिलनी थी, उससे मिल गयी न। जिसके शब्द तुम्हें उच्चारित करने हैं, उसी के शब्द कर रहे हो न। जिस एक से तुम्हारा नाता है, उसके साथ हो न। तो फिर इन छोटों-मोंटों की, परायों की फ़िक्र क्या करनी है? जो तुम्हें करोड़ों-अरबों देता है, वह तुमसे नाखुश नहीं है न। तो फिर इन दो-दो रूपए की भीख उछालने वालों की परवाह क्यों करनी है?
यह खुश होते हों तो हो जाएँ, यह खुश ना होते हों तो इनकी मर्ज़ी। हमें तो उससे जो मिला है हम बाँट रहे हैं। वही हमारा धर्म है। वही हमारा कर्म है। उसी में हम रत्त हैं। तुम्हें हमारी बात सुहाए, बहुत अच्छा, सौभाग्य है तुम्हारा। और तुम्हें हमारी बात न सुहाए तो कोई बात नहीं, हम प्रार्थना करेंगे तुम्हारे लिए। पर हम आहात तो नहीं हो जाएँगे, हम डर तो नहीं जाएँगे। हमने क्या गलत किया है की हम डर जाएँ?
पर तुम डर जाते हो, क्योंकि तुमने जो परम गलती होती है, वही कर डाली है। और परम गलती है परम सत्य को भूल जाना। परम गलती है एक उथला और सतही जीवन बिताना जिसमें दुनिया के लिए तो जगह है पर सच्चाई के लिए जगह नहीं है। जाओ दुनिया के पास, कष्ट, ठोकरें और परेशानियां ही मिलेंगी। दुनिया ने किसी को आजतक कुछ और नहीं दिया। हाँ, आकर्षित वह बहुत करती है, झूठे वादे भी वह खूब करती है, पर देती बस वह वही है, कठिनाईयाँ, तनहाईयाँ और परेशानियाँ।
जिन्हें कठिनाईयों, तनहाईयों का और परेशानियों का शौक हो, वह खूब जुटे रहें दुनिया के साथ। और जिन्हें मौज चाहिए, जिन्हें मुक्ति चाहिए, जिन्हें प्रेम पीना हो, उनको तो रुख ज़रा दूसरी दिशा करना पड़ेगा। उनको तो प्रथम वरीयता, प्रथम को ही देनी पड़ेगी। हाँ, प्रथम का जब आदेश होगा, तो दुनियादारी भी कर लेंगे। दुनिया में भी कैसे जीना है, इसका आदेश आ जाता है। वह बता देता है, ऐसे जियो। पर पहला वह है, सुनेंगे उसकी, और फिर वह जैसा कहेगा, वैसे दुनिया में जियेंगे। वह कहता है दाएँ तो हम चले दाएँ , वह कहता है बाएँ तो हम चले बाएँ। अब कैसा डरना।
बहुत भाव मत दिया करो। दुनिया तुम्हारे सामने जो कुछ बड़े से बड़ा जो रख सकती है, वह बहुत छोटा है। तुम्हें डरने की कोई जरूरत ही नहीं। असल में तुमने जो बहुत बड़ा है उसे देखा नहीं है, तो इन छोटों को ही तुम बहुत बड़ा समझने लगते हो। जिसने हिमालयों को देख लिया हो वह ऊँटों से प्रभावित थोड़े ही हो जाएँगे। और ऊँट तो छोड़ दो, तुम्हें तो चूहे भी डरा जाते हैं।
बात आ रही है समझ में?
जिसने विराट को देख लिया हो और उसका सामीप्य पा लिया हो, वह छोटे से डरना छोड़ देता है।
वह कहता है, “क्या! यह कौन सी बड़ी बात है। जो बड़ा है उसको हम जानते हैं, वह पास में ही रहता है। यह कौन सी बड़ी बात है, इनसे डरेंगे!”
यह याद रखोगे?
तुम जिसे बड़े से बड़ा मानते हो, वह जो असली बड़ा है उसके सामने बहुत छोटा है। तो डरना मत। असली बड़ा क्या है, यह बहुत सोचने की ज़रुरत नहीं है। अभी तो अगर मान सकते हो तो इतना ही मान लो कि जो कुछ भी तुम्हारी आँखें देख सकती हैं, जो कुछ भी तुम्हारे मन में समा सकता है, वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। वह इतना बड़ा नहीं कि तुम उसके सामने झुक जाओ और डर जाओ, इतना काफ़ी है।
कुछ दिखे जो बड़ा प्रभावित कर रहा हो, तो पूछना अपने आप से कि आँखों से ही दिख रहा है न? अगर आँखों से ही दिख रहा है तो बहुत बड़ा नहीं हो सकता। कुछ हो जो मन को बेचैन करे दे रहा हो तो पूछना अपने आप से कि इसके बारे में सोच रहा हूँ न, अगर इसके बारे में सोच सकता हूँ तो कोई बड़ी बात नहीं हो सकती। जो वास्तव में बड़ी बात है उसके बारे में सोच ही नहीं पाओगे। जो वास्तव में बड़ा है उसको आँख से देख ही नहीं पाओगे। आँखों से दिखता हो, यही काफ़ी है इस प्रमाण का कि छोड़ो ना छोटा है, बड़ा होता तो आँख से दिखता कैसे?
इतनी छोटी सी आँख, इसको कोई बड़ी चीज़ दिख कैसे जाएगी? इतना छोटा सा मन, इसमें कुछ बड़ा समा कैसे जाएगा? तो आँख से दिख रहा है न, जब बोलने जाओ तो देखना भीड़ को और पूछना,
कैसे देखा?
आँख से।
आँख से, धत!
हम बड़े कि आँख?
तुम तो इतने भी बड़े नहीं हो कि हमारी आँख से ज़्यादा बड़े हो जाओ। दो कौड़ी के हो, तुमसे क्या डरें। तुम्हारा पूरा आकार इतना है कि इस कटोरे (सिर को इंगित करते हुए) में समा जाता है, तुमसे क्या डरें!
(हँसते हुए) कितना डरें!
आ रही है बात समझ में?
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।