प्रशंसा - स्वास्थ्य का भ्रम || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

9 min
229 reads
प्रशंसा - स्वास्थ्य का भ्रम || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

निंदक मेरा जनि मरु, जीवो आदि जुगादि । कबीर सतगुरु पाइये, निंदक के परसादि ॥

वक्ता: स्वास्थ्य स्वभाव है और स्वस्थ होने का मतलब होता है, सब ठीक है। सब ठीक है और इतना ठीक है कि उसके विषय में सोचने की कोई ज़रूरत नहीं। कुछ भी अपना अहसास नहीं करा रहा है। प्रशंसा स्वास्थ्य का भ्रम देती है। देखियेगा आप कि जब भी किसी ने आप की तारीफ़ की है, उसने आपसे यही कहा है कि तुम ठीक हो। तुम ठीक से ठीक हो। कोई कमी नहीं है तुममें। दूसरों में कमी होगी तुममें कोई कमी नहीं। इसी कारण तुम श्रेष्ठ हो। प्रशंसा आपको भुलावा देती है कि आप स्वस्थ हैं। और यदि आप स्वस्थ हैं तो आपको स्वलोकन की कोई ज़रूरत नहीं। आपको कोई आवश्यकता नहीं है कि आप अपनी ओर देखें।

यदि आप स्वस्थ ही हैं तो फिर ज़रूरत क्या है मन का दृष्टा होने की? यदि आप स्वस्थ ही हैं तो साक्षीत्व की भी कोई ज़रूरत नहीं। फिर कैसी तुरिया? यदि आप स्वस्थ हैं तो आपके पास परम उपलब्धि है ही। मन प्रशंसा क्यों मांगता है? समझियेगा बात को। मन प्रशंसा इसलिए मांगता है क्योंकि प्रशंसा उसे याद दिलाती है स्वास्थ्य की, एक झूठी याद। वो उसे उसका भुलावा देती है जो अभी उसे मिला नहीं है, पर जिसकी याद उसे खूब सताती है।

मन स्वास्थ्य की अपेक्षा में जी रहा है, मन स्वास्थ्य के अभाव में जी रहा है। मन स्वयं एक विकृति है, विक्षिप्तता है, विकार है, और मन को खूब पता है कि वो क्या है। मन को खूब पता है कि वो क्या है। ऐसे में कोई आकर उसे ढांढस बंधा जाता है, वो मन की तारीफ़ कर देता है, वो मन को कहता है कि सब ठीक है। मन को पल-पल अनुभव यही हो रहा था कि कुछ गड़बड़ है, कुछ खोट है, कुछ कमी है। कोई बाहर वाला आता है और मन को क्या सांत्वना दे देता है? कि ठीक है सब। इसी सांत्वना का नाम है प्रशंसा। इसी का नाम है तारीफ़। इसी कारण मन को तारीफ़ अच्छी लगती है। मन के पेंच को समझिये कि हम सब क्यों तारीफ़ के लिए इतने लालायित रहते हैं। क्योंकि तारीफ़ हमसे कहती है कि हम स्वस्थ हैं। तारीफ हमसे कहती है कि जीवन में कुछ ऊँच-नीच नहीं है, मामला ठीक है। तारीफ़ हमें उसकी याद दिलाती है जो हमें होना ही था और जो हम हैं हीं, पर जिसे हम भुलाए बैठे हैं।

तारीफ़ हमें हमारे घर की याद दिलाती है, लेकिन झूठी याद दिलाती है। हमसे ये नहीं कहती कि घर की ओर जाओ। तारीफ़ हमसे कह देती है कि तुम घर पर हो ही। और जो अभी घर पर नहीं है यदि उससे कह दिया गया कि तुम घर पर हो ही, तो उसके घर जाने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया। समझ रहे हो बात को? तारीफ हमें क्यों प्रिय लगती है, यह समझ में आ रहा है? तारीफ़ में क्यों हमारी इतनी रूचि रहती है? क्योंकि कहीं ना कहीं हम वो हैं हीं जो हमारी तारीफ़ करके हमसे कहा जाता है।

समस्त धर्मों ने, पंथों ने कहा है ना हमसे? परमात्मा की तारीफ करो, तारीफ़ करो, ‘प्रेज़ दा लार्ड’, ईश वंदना करो। ऐसा क्यों कहा है? क्योंकि मात्र आत्मा ही वंदनीय है। जब हमारी कोई तारीफ़ करता है, तो हमें बड़ा सहज सा लगता है, बड़ा सुकून मिलता है क्योंकि हैं तो हम आत्मा ही और मात्र वही वंदनीय है। पर वो तारीफ़ झूठी होती है क्योंकि अभी हमारा तादात्म्य दूसरी चीजों से है, अभी हमने अपने आप को आत्मा जाना ही नहीं है, पर हम प्रशंसा ग्रहण किए जा रहे हैं। जबकि प्रशंसा होनी किसकी चाहिए? मात्र ‘उसकी’। ‘प्रेज़ दा लार्ड (उसकी वंदना करो)’। मात्र आत्मा ही वंदनीय है- ‘ईशा वास्यम इदम सर्वं’। बात समझ रहे हो? इस कारण मन तारीफ़ मांगता है।

मन को तारीफ़ कैसे मिलेगी? कैसे मिलेगी? एक मालिक था और एक नौकर था, दोनों एक रास्ते से प्रायः गुज़रा करते थे। लोग उनको झुक-झुक कर सलाम करते। नौकर को बड़ा अच्छा लगता। नौकर कहता कि खूब तारीफ़ हो रही है, खूब तारीफ़ हो रही है। खूब तारीफ़ मिलती भी थी उसको। एक दिन वो अकेला निकल पड़ा। बोलता है कि तारीफ़ के काबिल तो मैं हूँ ही, तारीफ़ मुझे मिलती भी है, तो साथ में मालिक की ज़रूरत क्या है। तो वो एक दिन अकेला निकल पड़ा। बाज़ार में किसी ने उसकी ओर मुड़ कर भी नहीं देखा। लोगों ने फब्तियाँ और कसीं। कुछ निंदक भी सामने आ गए। ‘बड़ी अकड़ है। कैसे चल रहा है? ये घूर कर किसको देख रहा है? अरे रास्ता छोड़ कर चल’। नौकर हैरान हो गया। तारीफ़ क्यों नहीं मिली? आज निंदा क्यों हो गई?

इस कहानी को अगर हम समझ लें तो हमें प्रशंसा और निंदा, दोनों के मनोविज्ञान का पूरा पता चल जाएगा। जब भी हमारी प्रशंसा हुई है, वो वास्तव में मालिक की प्रशंसा है। पर हमें लगता ऐसा है जैसे हमारी है। हम यूँ ही अकारण अपने आप को श्रेय दिए चले जाते हैं। बात समझ रहे हो? तुम्हारे भीतर जो भी कुछ है, जो वास्तव में सुन्दर है, श्रेष्ठ है, वो इसी कारण है क्योंकि तुम मालिक के करीब हो। और जितना करीब रहोगे, तुम्हें उतनी प्रशंसा भी मिलेगी। वो तुम्हारी प्रशंसा नहीं है, वो मालिक की प्रशंसा है। पर क्योंकि तुम उसके इतने करीब हो तो तुम्हें भी मिल जाएगी।

और जब तुम अकेले चलोगे तब तुम्हें जो प्रशंसा मिलेगी, वो प्रशंसा झूठी प्रशंसा होगी। वो सिर्फ सांत्वना होगी एक प्रकार की और वो तुमको और ज़्यादा भुलावे में रखेगी। लेकिन वैसी प्रशंसा मिलेगी भी कम। बहुधा यही पाओगे कि जब अकेले चले हो तो निंदा ही पायी है। ठीक यही कारण है कि कबीर, निंदक को सतगुरु तक पहुँचने का रास्ता बता रहे हैं। ‘कबीर सतगुरु पाइये, निंदक के परसादि’। अकेले चलते हो निंदा मिलती है, शुभ है। अब मालिक की याद आएगी। मालिक ही तो गुरु है। गुरु से दूर हो जाओगे, निंदा पाओगे, और यही निंदा का प्रसाद है। ‘कबीर सतगुरु पाइये, निंदक के परसादि’।

अगर प्रशंसा मिल गयी अकेले चलकर, तो वो तुम्हें तुम्हारी ओर नहीं भेजेगी। वो तुम्हें अंतर्गमन नहीं कराएगी। प्रशंसा मिल गयी तो तुम यही सोचते रहोगे कि मैं स्वस्थ हूँ, सब ठीक है। जिसकी प्रशंसा हो रही हो, क्या वो कभी आत्म-मंथन करेगा? वो तो क्या कहेगा? कि सब बढ़िया चल रहा है। लेकिन जब निंदा होती है, तो अपनी ओर मुड़ कर देखना पड़ता है। अपने आप से पूछना पड़ता है कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है। चोट लग रही है अहंकार को, उसे अपने आप को देखना पड़ेगा कि क्या गलत है। ‘कब तक दूसरों को दोष दूं, कहीं ना कहीं तो मुझमें खोट होगा ही’, तो निंदा काम आती है। निंदा तुम्हें विवश कर देती है कि तुम अपने आप को देखो। और जब देखते हो अपने आप को, समझने की कोशिश करते हो कि क्यों हो रही है निंदा, तब स्पष्ट दिखाई देता है कि निंदा इसलिए हो रही है क्योंकि मालिक साथ नहीं है।

जब तक मालिक साथ है, तब तक तो तारीफ़ ही तारीफ़ है। और जहाँ मालिक दूर, वहाँ निंदा ही निंदा। कबीर कह रहे हैं, ‘निंदक का प्रसाद है सतगुरु’। ये वही बात है कि कोई तुमसे कहे कि कष्ट शुभ है, क्योंकि कष्ट तुमको प्रेरित करता है परमात्मा की ओर जाने को। याद है हमने एक बार कहा था, ‘पीड़ा पैगाम परम का’। याद है हमने कहा था कि मौत भी इसलिए है ताकि वो तुमको अमर कर दे।

सांझ ढली दिन ढल गया, बाघन घेरी गाय।

गाय बेचारी ना मरे, बाघ ना भूखा जाए।।

सारे कष्ट, सारे उपद्रव, सारी पीड़ा, सारी भूख, सारी व्यग्रता, विरह और निंदा, सब शुभ हैं। वो तुमको भीतर भेजते हैं और वो तुम्हें मिलते ही इसलिए हैं क्योंकि तुम मालिक से बिछुड़े हुए हो। अन्यथा तुम्हें इतनी पीड़ा मिलती कैसे? अन्यथा तुम्हें निंदा मिलती कैसे? दूसरे मौकों पर यह भी कहा गया है, ‘निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाए’, इसीलिए कहा गया है। निंदक तुम्हें मजबूर करेगा कि अपने आप को देखो।

एक बात और समझना- यदि निंदा व्यर्थ है और ऐसा हो सकता है कि निंदा व्यर्थ हो, तो फिर वो निंदक, निंदक नहीं रहा। तो मन में ये कुतर्क ना उठे कि लोगों का तो दिमाग ख़राब रहता है, लोग तो जलते हैं, लोग तो व्यर्थ बोलते हैं। हम सब जानते हैं कि लोग मूर्ख हैं, नासमझ हैं, तो उनकी निंदा को हम क्यों महत्व दें? तुम महत्व दे रहे हो, तभी तो वो निंदक है ना। अन्यथा निंदक है कहाँ? अन्यथा तो तुम कहते, ‘कौन निंदा कर रहा है? हमने तो सुनी नहीं’।

तो निंदक, निंदक है ही तभी जब वो तुम्हें आहत करे। और अगर तुम आहत हो रहे हो तो इसका अर्थ यही है कि तुम मालिक से दूर हो। समझ में आ रही है बात?

-‘बोध-शिविर सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories