प्रकृति अमर है! पर कैसे? || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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प्रकृति अमर है! पर कैसे? || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। एक तो सर्वप्रथम तो, मेरा देहरादून से आना हुआ और वहाँ हमारा सत्संग जो है, हमारे गुरुजी जी साकार रूप में है। और पूरे सत्संग प्रेमियों ने आपको सादर चरण स्पर्श बोला। और बोला है कि आचार्य जी को बोले कि कभी आप देहरादून भी आइए।

आचार्य जी मेरा एक प्रश्न था कि अभी लास्ट-सेशन (गत सत्र) जो गोवा में चल रहा था, 26-27 जून को, तो उसमें आपने बोला था कि प्रकृति अमर है। तो अब मुझे ये एक जो सेंटेंस (वाक्य) है वो एक पकड़ में आया है क्योंकि हम हमेशा सुनते हैं कि प्रकृति नश्वर है। तो अब किस संदर्भ में बोला उस समय हो सकता है थोड़ी नींद लग जाती है लेकिन यह बात मेरी पकड़ में आ गयी थी।

आचार्य प्रशांत: अहम् जो है न, वो नश्वर है। अहम्-वृत्ति कभी ख़त्म होते देखी? अहम् तो नश्वर है, अहम् वृत्ति को कभी समाप्त होते देखा? इंसान मरता है, ‘मैं’ बोलने वाला कभी मरते देखा? ‘मैं’ बोलने वाला कोई भी न बचे तो भी एक प्रसुप्त वृत्ति तो बची रहती है न? ‘मैं’ अचानक कहीं से उठ आएगा।

एक समय था जब इस पृथ्वी पर कोई जीव नहीं था। जीव कहाँ से आ गया? मिट्टी में वृत्ति थी कि वो एक दिन फूल बनेगी। तो करोड़ो साल तक मिट्टी ऐसे ही पड़ी रही दहकती गरम। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे मामला ठंडा हुआ, फिर समुद्र उठे। जो पृथ्वी की विकास यात्रा है, यही है न? फिर उसमें जीव कहाँ से आ गया? फिर उन समुद्रों में जो लम्बे-लम्बे प्रोटीन के मॉलिक्यूल्स (अणु) थे, वो सारे इकट्ठा होने लगे। फिर उनमें धीरे-धीरे सेंटिएंस (चेतना) खड़ी हो गई। पहले एकदम छोटा-सा निकला — अमीबा जैसा, एक कोशिका का। तो ये सब कहाँ से आ गये? वृत्ति तो सदा से थी न।

अहम् नश्वर है, अहम्-वृत्ति अमर है। लोग आते-जाते रहते हैं, लोगों के आने-जाने की वृत्ति तो नहीं मिटती न? ट्रैफ़िक समाप्त हो सकता है, सड़क समाप्त होती है कभी? रात हो जाती है, उस पर गाड़ियों का आवागमन मिट जाता है, पर सड़क मिटती है कभी?

तो इस अर्थ में कहा था कि प्रकृति अमर है। क्योंकि वृत्ति तो कभी नहीं जाती, वृत्ति कभी नहीं जाती। लेकिन उसका एक अपवाद होता है। कौन? जो आप्त-पुरूष होता है, मुक्त, ज्ञानी। उसके लिये प्रकृति या अहम्-वृत्ति मिट जाती है। बस वो अपवाद होता है।

प्र: ठीक है। आचार्य जी, मेरा एक और प्रश्न था। वैसे तो उसका जवाब अभी मिल ही गया कि हम लोग को कुछ भी मालूम नहीं होता था कि क्या, एबीसीडी भी मालूम नहीं होता था। न गुरु का मतलब मालूम होता था, जब सत्संग में भी जाना होता था तो पहले वाले प्रेमी बोलते थे गुरु तो हम लोग झाँका-झाँकी करते थे कि किसको बोल रहे हैं गुरु।

धीरे-धीरे, धीरे-धीरे वो हमारे अहंकारों को निकलवाते हैं। हमारी तो कोई ताक़त हैं नहीं कि हम निकाल सकें। कि अपना अवलोकन करवाना शुरू करवाते निकालते-निकालते। तब समझ में आया कि हमारे भीतर कुछ चल रहा है। हम बैठे हैं पास में, हमारे अंदर कुछ चल रहा है और हमें तो होश ही नहीं होता है, उड़े हुए होते हैं। लेकिन उनके मुख से निकल रहा है कि हमारा मन कहाँ उड़ रहा है अभी। तो मतलब, कैसे वो लोग नतमस्तक भी अपने प्रति करवाते हैं, वो भी संत-महात्मा, गुरु लोगों की कृपा होती है। लेकिन उससे दिखाया उन्होंने कि जीवन हल्का होता जाता है और कहीं हमें, जैसे यह सारा जो आपका ज्ञान चल रहा है उसी संदर्भ में है।

लेकिन अब ऐसा है कि लगन तो आप लोगो ने लगाई लेकिन कई अब भी हमारी आसक्तियाँ, अटैचमेंट जो होते हैं, वो हमें कई बार तो धैर्य, धैर्य भी हमें आप लोगों का दिया होता है। लेकिन कई बार हम बह जाते हैं उन आसक्ति और उसमें। तो अपनी स्थिति से हम खिसक जाते हैं वो भी अब अच्छी नहीं लगती कि हम कहाँ फँस गये। तो यही कहना था कि इस लगन में हमारी अगन कैसे लग जाये? आजकल यह मेरे दिल में बहुत चल रहा है कि हमारी ऐसी स्थिरता आ जाये कि हम खिसक न सकें।

आचार्य: वही सबकुछ देना पड़ेगा जो संसार को दिया है — समय, संकल्प। चादर मैली भी संसार से ही हुई है, तो फिर उतनी ही ज़ोर से साबुन रगड़ना पड़ेगा। साहब बोलते हैं न, ज्ञान का साबुन, ध्यान का पानी, रगड़िए लगाकर। ज्ञान का साबुन, ध्यान का पानी और बाज़ू अहम् का। उसी को मेहनत करनी पड़ेगी। और नहीं कोई तरीक़ा। और क्या है हमारे पास? हमारे पास है क्या? समय और संकल्प के अलावा हमारे पास क्या है? लगाइए ज़ोर से।

प्र: ठीक है। बहुत-बहुत धन्यवाद आचार्य जी। प्रणाम।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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