प्रश्नकर्ता: महाभारत पढ़ते हुए प्रश्न उठा कि यह सब क्या प्रभु की ही लीला है, सब खेल है, जिसमें पहले से किरदार निर्धारित थे? कुछ नायक, कुछ खलनायक। सबने अपना किरदार निभाया। सब पहले से ही तय था? हम जिसे अपना कर्तव्य मानते हैं, वह तो उठा ही राग-द्वेष और मोह-माया से है, फिर सच्चा कर्तव्य क्या है?
आचार्य प्रशांत: सिद्धान्तों से नीचे उतरो। यह मत पूछो कि जो हुआ, क्या वह प्रभु की लीला थी, किरदार निर्धारित थे इत्यादि। तुम मुझे यह बताओ, तुम्हारी ज़िन्दगी में जो कुछ घट रहा है क्या तुम उसे लीला की तरह देख पाते हो? मैं कह दूँ, 'हाँ, महाभारत तो कृष्ण की लीला भर थी। सब कठपुतली थे और सबकी डोर कृष्ण के हाथ में थी और कृष्ण ने सबको नचाया, बढ़िया तमाशा चला। कह लो कई शताब्दियों का या कह लो अट्ठारह दिन का। और सबका बड़ा मनोरंजन हुआ क्योंकि लीला का तो अर्थ ही है क्रीड़ा। सबने तमाशा देखा, खेल ख़त्म।' यह मैं कह सकता हूँ। इससे तुम्हें क्या लाभ हो जाएगा?
तुम्हारे जीवन में तो जो कुछ चल रहा होगा, तुम उसके प्रति गम्भीर ही रहे आओगे। बैठे महाभारत पर चर्चा कर रहे हो और कह रहे हो, ‘अरे! ये जो दस लाख लोग मरे, यह तो बस लीला थी। तभी बाँह में मच्छर काट जाता है, कहते हो, ‘भाग ससुरा!’
दस लाख लोग मरे तो वह तो लीला थी और तुम्हारी बाँह पर मच्छर काट गया तो यह यथार्थ है! अब यह लीला नहीं है? तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन में जो कुछ हो रहा है, वह यथार्थ है। वहाँ का तो मच्छर भी यथार्थ है, क्योंकि तुम बहुत बड़े यथार्थ हो न! अहंकार यही तो कहता है, ‘हम सबसे बड़े सत्य हैं।‘ जब हम सबसे बड़े सत्य हैं तो हमारी बाज़ू पर जो मच्छर बैठा हो उसे भी सत्य होना पड़ेगा। और बाक़ी सब लीला है। पड़ोसी मर गया तो लीला है। अपनी साइकिल में पंचर हो गया तो यह कलियुग है और महापाप है।
आसमान से विमान नीचे गिर पड़ा, ढाई सौ लोग मर गये, ‘अरे! कुछ नहीं। न कोई मरा है न कोई जिया है। आत्मा का कोई जन्म-मृत्यु होता है? कुछ नहीं। यह तो बस लीला है।‘ यहाँ अपनी साइकिल में पंचर है तो पूरी दुनिया को गरिया रहे हैं। 'सरकार गिरा देनी चाहिए। सड़क पर कंकड़ कितने हैं, वह भी ठीक हमारे घर के सामने। हमारी सड़क पर कंकड़ है तो सरकार गिरनी चाहिए। भारत भर की नहीं, पूरी दुनिया की सरकारें गिरा दो।'
कृष्ण गोपियों के साथ रास करते हैं, तो कहोगे, ’कुछ नहीं, लीला है।’ और तुम्हारे पड़ोस में लीला देवी रहती हैं, उन पर मरे जा रहे हो, गिरे जा रहे हो। मुँह, हाँथ, घुटना, ईमान सब तुड़वा चुके हो। तो तब तो लीला देवी भी लीला नहीं है। क्या फ़र्क पड़ता है?
और यह प्रश्न बहुत पूछे जाते हैं। मुझे माफ़ करना अगर मैं थोड़ा सा उग्र होकर के ज़वाब देता लगता हूँ तो। पर इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि यह बात हमेशा पूछी जाती है।
'सीता का हरण हो गया, राम रो रहे थे, वो लीला ही थी न?' हाँ, थी लीला। वो लीला थी। तो उससे क्या हो गया? राम तो रो रहे थे कि सीता का हरण हो गया। तुम रोते हो कि तुम्हारी पत्नी का हरण नहीं हो रहा। अरे! अपनी ज़िन्दगी की बात करो भाई।
सुना है न, एक आदमी रो ही नहीं रहा था, उसकी बीवी मर गयी। वह बैठा हुआ है अपना, उसको देख रहा है, वह मरी पड़ी है। लोगों ने कहा, ‘यह तो बड़ी बदनामी की बात है। रोना चाहिए।‘ तो एक बोला, ‘अभी रुलाये देता हूँ।‘ वह गया, कान में कुछ फूँक कर आया। वह फूट-फूटकर रोने लग गया, बिलकुल छाती पीटने लग गया। लोगों ने कहा, ‘क्या बोला था?’ बोला, ‘मैंने बोला कि पक्का नहीं है कि मरी है।’
तुम्हारे जीवन में जो कुछ हो, वो सब बहुत क़ीमती! उसके प्रति बड़ी गम्भीरता! उसको ऐसे देखोगे कि अरे! दो रुपया नहीं मिल रहा है, काम वाली ने चुराया है क्या। उससे कहोगे, ‘पूरी तलाशी दे। दो रुपया मिलना ही चाहिए।‘ और बैंक लुट जाए कोई दूर का, तो लीला है। अपने जीवन में ज़रा निस्पृह हो पाओ, निरपेक्ष हो पाओ तो 'लीला' शब्द उच्चारित करना। नहीं तो काहे को लीला!
इंटरनेट पर वीडियो पड़ा हुआ है। जाने वो सत्संग दे रहे हैं, जाने कुछ पढ़ा रहे हैं। पहले देखा था। पर वो जो कुछ कह रहे हैं, उसका लब्बोलुआब यही है कि ये सब यूँही है, आँखों का खेल है, इन्द्रियों का धोखा है, बेकार। तो एक छिपकली गिर पड़ती है उनके ऊपर। पढ़ाते ही पढ़ाते, पट से गिरी। वो उछलकर भागे, टेबल-एबल गिरा दी। पन्ने बिखरे पड़े हैं। ज़रा सी छिपकली तो लीला लगती नहीं, बाक़ी क्या लीला है!
फिर पूछ रहे हो कि सच्चा कर्तव्य क्या है। इसका उत्तर दे चुका हूँ। मत पूछा करो सच्चा क्या है कर्तव्य, बड़ी अकड़ है इस सवाल में। तुम ऐसे पूछ रहे हो जैसे पुश्तैनी हक़ हो तुम्हारा सच पर। 'सच बताओ।' हाँ भाई! तुममें क्या योग्यता है, क्या पात्रता है कि तुम्हें सच बताया जाए? और तुम्हें क्यों लग रहा है कि तुम्हें आज तक सच बताया नहीं गया, कि जैसे सच कहीं छुपा हुआ है, मानो तुमसे डरकर के। और तुम उसे खोजने निकले हो कि इस ससुरे सच को तो खोजकर निकालूँगा। 'हम कुछ हैं ही ऐसे दबंग कि हमारे सामने सच छुप जाता है, तो हम सत्य की तलाश में निकले हैं।'
जैसे लोग अपने कुत्ते की तलाश में निकलते हैं, वो शाम को खो गया है। तो वैसे ही बड़े-बड़े खोजी हैं जो बताते हैं, ‘हम तो सत्य के पथिक हैं। हम सच की तलाश में निकले हैं।‘
क्या कर रहे हैं? 'खोजी हैं।' क्या खोज रहे हैं? 'परमात्मा।' अच्छा! दुबक गया होगा कहीं, आपका जलवा ही कुछ ऐसा है।
सच को मत खोजो। तुम जहाँ खड़े हो, तुम झूठ को खोजो। झूठ को खोजो, आसानी पड़ेगी, बहुत सारा है। सामने है, भीतर है, लगातार है। मत पूछो कि मेरा सच्चा कर्तव्य क्या है। यह पूछो कि इन जिन कर्तव्यों का पालन करे जा रहा हूँ इनमें कितना सच है। पूछो, ‘ये कहाँ से आये?‘ ख़ुद ही कह रहे हो न कि यह आते हैं राग-द्वेष, मोह-माया से। अगर यहाँ से आते हैं तो फिर बताओ क्यों इनका पालन करे जाते हो?
प्र२: मेरा प्रश्न है कि युद्ध के मैदान में अर्जुन अपनों को सामने पाकर मोहवश उदास होते हैं। कहते हैं कि मैं अपने सगे-सम्बन्धियों को कैसे मार सकता हूँ, यह उचित नहीं। तो श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं, "जब सिद्धान्तों की लड़ाई होती है तब केवल कर्तव्य का ही ध्यान रखा जाता है।" इस कथन को मुझे किस प्रकार समझना चाहिए? कृपया समझाने की कृपा करें। धन्यवाद, आचार्य जी।
आचार्य: श्रीकृष्ण ने कभी ऐसा कुछ कहा ही नहीं, तो मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ कि इस कथन का आशय क्या है? यह कहाँ से उठा लाये, बेटा? गीता उपलब्ध है न, गीता को सीधे पढ़ो। गीता सार मत पढ़ा करो। गीता के अनुवाद मत पढ़ा करो। गीता पर जो टीका-टिप्पणी होती है, वह न पढ़ा करो। यह तो तुम जो महाभारत सार पढ़ रहे थे, उसमें गीता पर चंद पंक्तियाँ लिखी हुई थीं। उसमें से तुम उठा लाये। गीता को महाभारत का हिस्सा ही भर मत मान लेना। गीता को चंद पंक्तियों में मत समझ लेना। बिलकुल भी नहीं कहा यह श्रीकृष्ण ने, बल्कि श्रीकृष्ण की बात इसके बिलकुल ही विपरीत है।
तुम कह रहे हो जब सिद्धान्तों की लड़ाई होती है तब केवल कर्तव्य का ही ध्यान रखा जाता है। श्रीकृष्ण ने इसका विपरीत बोला है। श्रीकृष्ण तो कह रहे हैं कि कर्तव्य छोड़ो, तुम अपने सारे धर्मों को भी छोड़ दो, “सर्व धर्मान परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज।”
कह रहे हो कि श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि कर्तव्य का पालन करो। वह तो कह रहे हैं कि तुम अपने सब धर्मों का भी परित्याग कर दो। एक ही धर्म है — श्रीकृष्ण का अनुसरण, और कोई धर्म भी नहीं होता। तुम कर्तव्य के तल पर ले आये श्रीकृष्ण को!
ऐसे ही गीता को लेकर चलता है। तमाम पोस्टर रहते हैं, 'जो हुआ सो अच्छा हुआ।' 'जो हो रहा है सो अच्छा हो रहा है।' 'जो होगा सो अच्छा होगा।' और उसमें कृष्ण की तस्वीर चिपका दी जाती है। कृष्ण भी ताज्जुब करते होंगे, 'ऐसा तो कभी बोला नहीं।' पोस्टर लेकिन धड़ल्ले से बिक रहा है। बड़ा अच्छा लगता है, 'जो हो रहा है सब बढ़िया हो रहा है।'
थोड़ी देर पहले मुँह फुड़वा कर आये हैं। नशे में थे, गड्ढे में गिरे, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है। अब दारू की अगली बोतल खोलने की तैयारी है। आगे भी जो होगा अच्छा ही होगा। बुरा तो मानो ही मत। कीचड़ में गिरो, गोबर से लथपथ रहो। अपनी हालत पर लाज न आये, इसलिए इस वक्तव्य का सहारा ले लो, 'जो हुआ सो अच्छा हुआ। जो हो रहा है अच्छा ही हो रहा है।'
तुम नहीं जानते कि जो हो रहा है वह दुर्दशा है तुम्हारी? तुम्हें वाक़ई लगता है जो हो रहा है अच्छा हो रहा है? जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है तो तुम्हारा थोबड़ा ऐसा क्यों है? आँखें देखो अपनी। यह अच्छेपन का सुबूत है? ज़िन्दगी से मुँह चुराना पड़ता है, नज़र झुकानी पड़ती है। यह शुभ संकेत है? चोरों की तरह सच से डरे-छुपे फिरते हो, यह अच्छा हो रहा है?
लेकिन साहब पोस्टर धड़ल्ले से बिक रहा है। नाम नीचे चिपका दिया है श्रीकृष्ण का। अब श्रीकृष्ण ही नहीं, नीचे साथ में यह भी लिख दिया है — 'गीता सार'। ग़ज़ब हो गया! गीता सार! कौनसा अध्याय भाई, कौनसा श्लोक, हमें भी बता दो।