प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, ‘प्रभु के रंग में रंगा होना’ क्या होता है? कृपया विस्तार से समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं होता है प्रणय (प्रश्नकर्ता), प्रभु का कोई रंग नहीं होता। प्रभु के रंग में रंगा होना ये होता है — ग़ौर से समझना — कि रंग कोई भी हो, रंग के पीछे कौन है — इससे वाक़िफ़ रहो तुम। प्रभु का कोई रंग नहीं है; और रंग तो बाहरी होते हैं, रंगों की बात करोगे तो रंगों के पीछे क्या है — उसको छुपा जाओगे।
रंग तो सब ज़माने के हैं, दुनिया के हैं; संसार में रंग ही रंग हैं, विविधता ही विविधता है। हर रंग के पीछे कौन है — ये लगातार याद रहे। ऐसे समझ लो जैसे तुम कोई थीम पार्टी में गए हो, दोस्तों-यारों ने एक दावत रखी है। थीम पार्टी है और उसकी थीम क्या है — नर्क। थीम क्या है — नर्क।
तो वहाँ सब नारकीय जीव बन के आए हैं। नर्क में, जहन्नुम में कैसे होते हैं लोग? कोई पिशाच बन के घूम रहा है, किसी की एक आँख नहीं है, कोई चुड़ैल है, भूतनी है, कोई कपड़े फाड़े हुए है, कोई विक्षिप्त घूम रहा है, कोई राक्षस है, सब ने ये भेस धर रखा है। सब ने तरह-तरह के क्या धर रखे हैं? रंग।
सब ने तरह-तरह के रंग ओढ़ रखे हैं। अब तुम्हारे सामने आ गई है, वो भूतनी बनी और चिल्ला रही है बाल खोल के। क्या करोगे, मार दोगे उसको? बोलो, मारोगे? क्यों नहीं मारोगे? क्यों नहीं मारोगे? क्योंकि तुम्हें पता है कि उसके पीछे कौन है, ठीक!
इसी तरह से एक आ गया, वो असुर बना हुआ है। दावत है, कुछ भी हो सकता है! उसने चढ़ा और ली है और तुम को चाकू दिखा के डरा रहा है। तो क्या करोगे, पुलिस बुलाओगे कि ये चाकू दिखा के हमें डरा रहा है? क्या करोगे? कुछ नहीं करोगे; जानते हो कि इस लबादे के, इस रंग के पीछे कौन है।
इसी तरीक़े से वहाँ मायावी अप्सराएँ घूम रही हैं, वो लुभा रही हैं तुमको बिलकुल मोहिनी, कामिनी बन के। अब एक आती है तुम्हारे पास और लगती है तुम को रिझाने, तुम क्या करोगे, तुम रीझ जाओगे? बोलो।
तुम्हें पता है कि इस पूरे अलंकार के पीछे कौन है। ये होता है प्रभु के रंग में रंगे रहना कि जितने रंग हैं, उनके पीछे हमें पता है कौन है, हम रंगों के बहकावे में नहीं आएँगे। ऊपर-ऊपर जो चल रहा है वो एक बात, खेल का हिस्सा हो लेंगे। कोई आया है तुम्हारे पास और खौं-खौं कर रहा है; अब दावत है और खौं-खौं कर रहा है और तुम ऐसे खड़े रहो उदासीन, सपाट चेहरा ले के, तो ये ज़रा अपमान की बात होगी न।
तो कोई आता है तुम्हारे पास और वो तुम्हें अपने खेल में शामिल करने की कोशिश करता है और तुमसे बोलता है, ‘खौं-खौं’, और तुम्हें चक्कू दिखाता है, तो तुम क्या करोगे? तुम भी उसके साथ थोड़ा अभिनय कर लोगे, तुम ऐसा दिखाओगे जैसे तुम डर गये। ‘अरे! अरे! अरे!’
इसी तरीक़े से कोई आती है तुम्हें लुभाने के लिए और वो नाच रही है तो तुम भी थोड़ा सा नाच लोगे। लेकिन नाच रहे हो, चाहे डर रहे हो, चाहे जो कर रहे हो, लगातार तुम्हें याद तो है न कि ऊपर-ऊपर का खेल है ये सबकुछ, इसको गंभीरता से नहीं ले लेना है। और अगर कहीं ले ही लिया गंभीरता से, तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। जो चीज़ जो है नहीं, उसको वो समझ बैठोगे और फँसोगे और पछताओगे।
अब ये क्या है? पानी। रंग बताओ। रंग कुछ नहीं है। मैं क्या हूँ? मैं क्या हूँ? प्यासा। मैं हूँ प्यासा, ठीक! अब प्रणय ये लेकर के गया और उसने कहा, गुरुजी प्यासे हैं, तो इसमें उसने थोड़ा-सा नींबू मिला दिया। अब इसका रंग कैसा हो गया?
श्रोतागण: सफ़ेद।
आचार्य: सफ़ेद सा हो गया। अभी बिलकुल पारदर्शी था मामला, नींबू घोल दिया तो कुछ अलग ही सा मिश्रण दिख रहा है। लेकिन मुझे तो बस रंग समझ में आते हैं। अब मेरे सामने रखा हुआ है नींबू पानी और मैं क्या कह रहा हूँ — ये पानी है ही नहीं। क्योंकि पानी का तो रंग कुछ और होता है; पानी का तो रंग ही नहीं होता, पारदर्शी होता है पानी।
और मेरे सामने जो रख दिया, कभी उसमें संतरा मिला रखा है, कहीं आम मिला दिया है थोड़ा सा, कहीं खस का शरबत तैयार कर दिया है। वो तो हरा है, हम कह रहे हैं — ये ज़हर दे दिया है क्या? वो बेचारा क्या दे रहा है मुझे? वो मुझे पानी से बढ़कर कुछ देने की कोशिश कर रहा है, वो कह रहा है, ‘सिर्फ़ पानी देंगे तो प्यास क्या बुझेगी! लीजिए उसमें दो बूंद नींबू निचोड़े देते हैं, ज़रा सी शक्कर मिलाए देते हैं।’
पर हम तो इतने होशियार हैं कि हमें समझ में आ रहा है सिर्फ़ रंग, लो फिर! मरो प्यासे! मरो प्यासे! तुम्हें तो बस रंग दिखता है। रंग का मतलब समझ रहे हो न — सतह।
रंग माने वो जो इंद्रियों के अनुभव में आता है। रंग माने सारे ही अनुभव! अनुभवों में फँसकर मत रह जाना, अनुभवों के साक्षी हो तुम। अनुभव सब आते-जाते रहेंगे; शरीर लिया है तो अनुभव मिलेंगे। तुम्हारी एक सत्ता है जो शरीर से आगे की है, जो जन्म से पहले की है, जो मौत के बाद की भी है। शरीर बीच की चीज़ है। तुम सदा के शरीरी नहीं हो।
और इसका प्रमाण ये है कि जब तुम अपनेआप को शरीरी समझते हो, तब भी संभव है तुम्हारे लिए शरीर से एक सम्मानजनक, उचित, स्वस्थ दूरी बना कर रखना। और जिसके पास शरीर से एक स्वस्थ दूरी नहीं है, वो बड़ी बीमार ज़िंदगी जियेगा। जो बात ही सारी रंगों की भाषा में करता है, उसकी बात ही बीमार रहेगी।
नहीं समझ आया?
चाहिए, चाहिए, चाहिए, चाहिए (एक-एक कर मेज़ पर रखे सामान को उठाकर दिखाते हुए) — लगातार क्या चाहिए? क्या हैं ये सब? सारी बात ही किसके संदर्भ में हो रही है? और हमारी ज़बान से तो जब भी कुछ निकलता है, ‘चाहते’ ही निकलता है। चाहतों के अलावा किसी की बात करते हो तुम? तुम अपनी आम बात भी उठाकर देख लो और शर्त लगा लो कि उसमें चाहत छुपी हुई होगी।
तुम कुछ ऐसा कह ही नहीं सकते जिसमें चाहत मौजूद न हो। और चाहत है सदा किसकी — रंग की। इन्हीं के तो रंग होते हैं। रह गए न फँस के!
कुछ हो गया, क्या हो गया? 'एक देश ने दूसरे पर आक्रमण कर दिया।’ ‘बाज़ार में फ़लानी चीज के भाव गिर गये।’ ‘कहीं पर बाढ़ आ गयी।’ ‘दो लोगों ने ब्याह कर लिया।’
ऐसी ही ख़बरें रहती हैं दिमाग में। देखो कि इन ख़बरों में तुम लगातार दुनिया को क्या समझ रहे हो। तुम दुनिया को पदार्थ समझ रहे हो। तभी तो तुम इन ख़बरों को सच की जगह देते हो, तुम कहते हो, ‘सचमुच ऐसा हुआ, सचमुच ऐसा हुआ।’ जितनी भी वस्तुएँ, विचार, व्यक्ति और घटनाएँ तुम्हारे सामने आयें, उनसे बिल्कुल हिल मत जाओ, और न ही उनसे हिल-मिल जाओ। तुम अपनी जगह पर कायम रहो।
अपनी जगह पर कायम रहने को ही मैं कह रहा हूँ — शरीर से अर्थात् पदार्थ से एक स्वस्थ दूरी बना कर रखना। दुनिया अपनी जगह है, तुम अपनी जगह हो। तुम्हारा और दुनिया का एक व्यावहारिक रिश्ता है, एक कामचलाउ रिश्ता है बस! काम चला लो, उससे ज़्यादा यहाँ से कुछ पाओगे नहीं। और जिन्होंने भी ये हसरत रखी है कि यहीं से सबकुछ पा लेंगे, उनसे ज़्यादा बुरा हश्र किसी का नहीं हुआ है।
तो इस जुमले का इस्तेमाल बहुत होता है कि “सांवरे तेरे ही रंग में रंग गयी! प्यारे तेरे ही रंग में रंग गयी!” सुना है न! लेकिन जो लोग उसके रंग में रंगते हैं, उन्हें ये अच्छे से समझ लेना चाहिए कि रंग तो सतह पर होता है। तुम ये भी कह दो कि तेरा रंग तो मुझ पर ऐसा चढ़ा कि कोई और रंग चढ़ता नहीं, तो भी रंग कहाँ है? है तो सतह पर ही न। हो सकता है बड़ा पक्का रंग हो लेकिन फिर भी कहाँ पर है? सतह पर ही तो है।
तो इसीलिए ये चक्कर ही छोड़ो कि अपनेआप को उसके रंग से रंगना है। अपनेआप को बचाने की ऐसी भी क्या ख़्वाहिश कि हम तो वही रहेंगे जो हम हैं, बस ऊपर-ऊपर चढ़ा लेंगे रंग। अपनेआप को बचाने की इतनी तमन्ना कुछ अच्छी नहीं!
तुम कहो, ‘दिल में तू रहे और बाहर-बाहर जितने रंग होते हों, रहे आयें।’ दिल में तू रहे, और फिर जितने रंग हैं, सब सुंदर हैं। फिर हमें किसी रंग से कोई ऐतराज़ नहीं और न ही किसी रंग की कोई विशेष हसरत।
समझ रहे हो बात को?
रंगों से कोई ऐतराज़ नहीं — “न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।” और न ही किसी रंग की कोई विशेष चाह। सुख आएगा, दुख आएगा; कभी मिलना होगा, कभी बिछड़ना होगा; कभी ताक़त आएगी, कभी कमज़ोरी आएगी; कभी यहाँ हैं, कभी वहाँ हैं; कभी बड़ा सम्मान मिलेगा, स्तुति मिलेगी, कभी बड़ी निंदा मिलेगी। ये सब घटनाएँ कहाँ चलती रहेंगी — सतह पर। रंग बदलते रहेंगे।
बाहर आते रहें रंग, भीतर बिना रंग वाले का संग; फिर हर रंग का अपना मज़ा है, लुत्फ़ लो!
जैसे हर मौसम का अपना मज़ा होता है न, और मौसम कितने अलग-अलग होते हैं पर हर मौसम का अपना मज़ा है। जाड़े की दोपहर, गर्मी की रातें; बनारस की सुबह, लखनऊ की शामें, सबके मज़े हैं। दिल में वो होना चाहिए जो हर रंग से सर्वथा अछूता है और हर रंग जिसकी मेहरबानी से है।