प्राण क्या है? || (2016)

Acharya Prashant

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प्राण क्या है? || (2016)

प्रश्नकर्ता: सर, प्राण क्या चीज़ होती है और, वो आता कहाँ से है, जाता कहाँ है? क्या प्राण और आत्मा एक ही चीज़ हैं, या अलग-अलग हैं? वो क्या चीज़ है जो इंसान को जीवित बनाती है? क्या वो प्राण है, या आत्मा है? वो क्या है?

आचार्य प्रशांत: एक ही है।

उपनिषद् कहते हैं, “प्राण ही ब्रह्म है।” मिट्टी का आपका शरीर है, उसमें जितनी प्रक्रियाएँ होती हैं, वो सब यांत्रिक हैं। पर कुछ ऐसा भी घटित होने लगता है इस शरीर में जो यांत्रिक नहीं है। जो कुछ भी यांत्रिक है उसका कारण होता है। कुछ ऐसा भी घटित होने लग जाता है इस शरीर में जो यांत्रिक नहीं है।

आप आनंद अनुभव कर सकते हैं, आप बोध में उतर सकते हैं। आप प्रेम में डूब सकते हैं, ये बड़ी विलक्षण घटना घटी। मिट्टी को प्रेम का अनुभव होने लग गया। शरीर मिट्टी ही है न? मिट्टी, हवा,पानी, इनसे बना शरीर, और उस शरीर से उपनिषद् फूटने लग गए। ‘वो’ है जो आपके भीतर, जिससे उपनिषद् फूटने लग जाते हैं, उसे ‘प्राण’ कहते हैं। ‘वो’ जो आपके भीतर प्रेम का अनुभव कर सकता है, उसे ‘प्राण’ कहते हैं। वही जान है आपकी, वही ‘प्राण’ हैं आपके। यदि आपके जीवन में बोध नहीं और आनंद नहीं, प्रेम नहीं, तो आप निष्प्राण हैं। फिर आप मिट्टी ही भर हैं। समझिएगा बात को।

वो जादू जो मिट्टी में प्रेम उतार देता है, उसे ‘प्राण’ कहते हैं। इसीलिए उपनिषद् कहते हैं, “प्राण ही ब्रह्म हैं।” ‘वो’ कुछ ऐसा कर देता है जो हो नहीं सकता था। राख हो जाना है आपको, और राख से ही आए हो आप। पर इस राख की उड़ान देखो, इस राख की समझ देखो, इस राख की गहराई देखो – ये ‘प्राण’ कहलाती है, ये ‘प्राण’ है।

जीवन तभी है जब उसमें प्राण हों। और ‘प्राण’ का मतलब साँस मत समझ लीजिएगा कि, "साँस चल रही है, तो मैं प्राणी हुआ।" आप प्राणवान केवल तब हैं, जब आपके जीवन में ‘वो’ मौजूद है जो आपके जीवन को जीने क़ाबिल बनाता है, अन्यथा आप अपने-आपको मुर्दा और निष्प्राण ही मानें।

जिसके जीवन में मुक्ति नहीं, आनंद नहीं और प्रेम नहीं, वो मुर्दा। वो चल-फिर रहा होगा, वो हो सकता है प्राणायाम भी कर रहा हो, पर तब भी निष्प्राण है। ‘प्राण’ का मतलब साँस मत मान लीजिएगा। साँस तो आपको तब भी आ-जा सकती है जब आप करीब-करीब मर चुके हों, और आपको मशीन पर , वेंटीलेटर पर लिटा दिया गया हो।

पर सिर्फ़ साँस का आना-जाना आपको प्राणवान नहीं बना देता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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