श्रोता: निरन्तरता क्या है?
वक्ता: कुछ शब्द हैं, उनमें थोड़ा अंतर करना चाहेंगे। समझना ध्यान से। निरन्तर का मतलब है, जो लगातार प्रवाह में है, जो लगातार चल रहा है। समय निरन्तर है। समय ही शाश्वत भी है। जो स्रोत है, न उसको सतत कहा जा सकता है और न शाश्वत कहा जा सकता है। कभी भी परम के लिये ‘शाश्वत’ शब्द का प्रयोग मत करना। ‘शाश्वत’ तो समय है। ‘सतत’ शब्द परम के लिये अनुपयुक्त है। उसको वहाँ मत लगाना। उसके लिए जो उपयुक्त शब्द है, वो है होना, सत या वरतना।
श्रोता: शाश्वत?
वक्ता: कुछ भी ऐसा जहाँ पर प्रवाह का भाव आता है, उसको इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि वहाँ कोई प्रवाह नहीं है। वहाँ बस होना है। इसीलिए ‘है’..’है’। कृष्णमूर्ति इस मामले में बड़े सजग रहते हैं। वो बार-बार कहेंगे, इटरनल मत बोलना, इटरनल मत बोलना, क्योंकि आकांक्षाएं इटरनल हैं, उम्मीदें इटरनल हैं, आदमी की मूर्खता इटरनल है। जो समय में कभी ख़त्म नहीं होने वाली है, वो सब इटरनल है। तो इनको इटरनल बोलो, वो इटरनल नहीं है। वो समय के परे है। इटरनल का अर्थ है, ‘जो समय में लगातार है’, और वो, ‘समय के पार है’। तो इसलिए निरंतरता किसकी है? समय की है। समय इटरनल है। परम सदा नहीं है। परम सदा नहीं है क्योंकि सदा से क्या भाव आता है? कि परम सदा समय में स्थित है। परम सदा नहीं है। परम है, जिसमें सदा भी हैं और जो सदा नहीं हैं, वे भी हैं।
The present is all that is. The present is all that is not.
उसमें वो भी है, जिसको आप कहते हो कि वास्तविक है, और इसमें वो भी है जिसको कहते हो कि अवास्तविक है। वो बस है। तो निरंतरता पर मत जाना कभी कि लगातार, लगातार, एक बहाव। उपस्थिति है, और ऐसी उपस्थिति है जिसमें सारी उपस्थिति और सारी अनुपस्थिति समाहित है। जिसको आप उपस्थिति बोलते हो, क्योंकि हम तो इंद्रियगत रूप से ही बोलते हैं, जिसको आप उपस्थिति बोलते हो, जिसको आप अनुपस्थिति बोलते हो, उसमें दोनों शामिल हैं। वो ऐसी उपस्थिति है। उसमें निरंतरता भी है और अनिरंतरता भी है। सब उसी में है।
तुमने छोटा कर दिया परम को, अगर कह दिया कि निरंतर है। तो फिर जो अनिरंतर है, वो क्या है? वो कहाँ से आया? जिस भी शब्द का विपरीत मिल जाए, जाहे का भी विपरीत उपलब्ध हो, उसमें क़ैद करने की कोशिश मत करना परम को। कभी मत कहना कि वो बहुत अच्छा है। फिर बुरा कौन है? कभी मत कहना कि बड़ा करुणामय है। तो फिर क्रूर कौन है? कभी न कहना कि वो जीवन है। तो फिर मृत्यु कौन है? कभी न कहना कि वो पिता है। वो यमराज भी तो है। वो जन्म अगर देता है पिता रूप में, तो मारता भी तो है यम रूप में। न माँ कहना, न बाप कहना। यह बस है। जितना कहोगे उतना फसोगे।
न बड़ा मीठा सा चेहरा बनाकर प्रार्थना करना, कि सच्चे मन से प्रार्थना करो तो स्वीकार होती है, इस तरह की जो मूर्खता पूर्ण बातें हैं। तो जो अस्वीकार कर रहा है वो कौन है? वो भी तो अस्तित्व में ही है। द्वैत में मत बाँध लेना उसको। मन की लगातार यही कोशिश है कि वो परम को भी द्वैत में बांध ले। और द्वैत में जो अच्छे से अच्छा हो सकता है उसकी उपाधि परम को दे दे। जब सब कुछ समय में सीमाबद्ध है, तो परम को बोल दो, वो समय में असीम है। वो निरंतर है। और मन अपनी ओर से सोचता है कि हमने बड़ा मज़ेदार काम किया, हमने बड़ा ऊंचा काम किया। हमने परम को पद्मभूषण दे दिया है कि वो समय में लगातार बना हुआ है, खंडित भी तो वही है न। क्यों बोलते हो कि अखंड है? खंडित भी तो वही है। और यह जो भाव है इसमें समग्र स्वीकार है, अखंड भी तुम, खंड भी तुम। अब जिसको हम ज़िन्दगी बोलते हैं अपनी, ये फूलती है। अब इसमें तुम्हें कोई शोभ नहीं रह जाता कि यह कमी रह गयी।
अरे, पूरे भी तुम, अधूरे भी तुम।
तो परेशानी काहे की? फिर तुम यह नहीं कहोगे कि जहां सब बड़ा अच्छा है और सुन्दर है, ये देखो मुझे यहाँ पर परम का हाथ दिखाई देता है। तो ये जो कीचड़ है और ये जो नाले हैं, इसमें किसका हाथ दिखाई देता है? इसके लिए कोई और आया था? अपने कैलेंडर में जो ब्यूटी वाला पृष्ठ है, उसमें एक पंक्ति है कि “Beauty is not something nice, beauty is not something pleasant. Beauty is beauty in the ugly and beauty is beauty in the unpleasant”. वो आदमी ही क्या जो सिर्फ एक सुन्दर नदी में ही कहे कि इसमें मुझे छवि दिखायी दी परम की। अरे गंदे नाले में दिखे तब बात है। वहाँ कौन देखेगा? निरंतर ये परंपरा चली आ रही है, पिछले पांच हज़ार सालों से एक सतत परम्परा है। ये बड़ी ऊंची परम्परा है। और ये जो टूट टूट कर बिखरा पड़ा है, टुकड़े टुकड़े, इसकी बात कौन करेगा? सब वही है। और ये है समग्र स्वीकार का भाव। अब आया मज़ा। अब मन लगातार डूबा। मन क्यों नहीं ध्यान में डूबता? क्योंकि उसने शर्तें बाँध रखी हैं। मन अपनी ही शर्तों के जाल में उलझा हुआ है। कुछ अच्छा-अच्छा मिलेगा तो परम महान है। और जो बुरा-बुरा देगा फिर उसकी कौन बात करेगा? मन मुताबिक प्रेम मिल जाए तो ईश्वर की कृपा है, और जो अनअपेक्षित डंडे पड़ जाएँ? नहीं, कुछ इधर-उधर का है, ये है, वो है। वो रूठ गया है। प्रसाद चढ़ा देते हैं। रूठ नहीं गया है, वो ऐसा है ही। बड़ी बात नहीं, कोई प्रसाद चढ़ाने जाए, एक्सीडेंट हो जाए, और मर ही जाए। फिर तुम्हारे मन में जीवन के प्रति बड़ा धिक्कार भाव आता है। आता है कि नहीं, बताओ? गए थे मंदिर, हाथ में प्रसाद था और तुम्हारे मंदिर के सामने एक्सीडेंट हो गया। ऐसा कुछ नहीं है। सब ठीक है। सब उसी का है। ऐसा ही तो है। जब सब कुछ उसी की इच्छा से हो रहा है तो इसका मतलब उसकी कोई विशेष इच्छा है ही नहीं। नहीं समझे बात को?
इसका मतलब है कि खुल के खेलो। उसकी कोई इच्छा नहीं है। तुम जो खेलो, वही उसकी इच्छा है। परम मुक्ति है ये। इसलिए जो धार्मिक आदमी होता है, बड़ा उद्दण्ड होता है।
कबीर कहते हैं ‘साहिब सेवक एक संग, खेलें सदा बसंत’।
तो वो खेलते हैं। साहिब सेवक एक संग, अब वो संग में खेलते हैं। उन पर कौन बंदिश लगा सकता है? कहते हैं कि हम जो करें, वही हरि की इच्छा है। हम हरि की इच्छा पर नहीं चलते। हम जो करते हैं, वही हरि इच्छा है। हम किसी की इच्छा का पालन नहीं कर रहे क्योंकि जो कर रहे हैं, वही उसकी इच्छा है। अब ये परम स्वतंत्रता है। तुमको कौन रोक सकता है ? किसका बंधन है? कैसा अनुशासन?
अवधूत गीता कहती है ‘मैं नमन भी किसको करूँ? नमन करने के लिए भी कौन है? नमन करूँ, तो भी उसको और नमन न करूँ, तो भी उसको।
जो कर रहा है वो भी वही, जिसको किया जा रहा है, वो भी वही। तो ये सब क्या बेवकूफी है कि नमन करो और प्रणाम करो।
जैसे, मछली पानी खोजने सागर के एक कोने में जाए कि वहाँ पानी मिलेगा। उथला भी वही, गहरा भी वही। तुम्हें छवियाँ बनाने में आनंद आता है तो बनाओ, कि सुन्दर-सुन्दर है। फिर इसलिए ज़ोर का पटाखा लगता है। फिर और ज्यादा दर्द इसलिए होता है कि दिल के अरमान आंसुओं में बह गए। तन्हाई ज्यादा न सताए अगर दूसरी लाइन ना हो कि ‘हम वफ़ा करके भी तनहा रह गए’। दिक्कत ये नहीं है कि तनहा रह गए। तुम पूजा करके भी प्रसाद से वंचित रह गए। ज़िन्दगी भर नाक रगड़ी। ये जो श्रद्धालु लोग होते हैं, इनकी नाक पर अक्सर एक निशान पड़ जाता है, और दूसरा यहाँ माथे पर। दो हिस्से होते हैं जो ज़मीन से छूते हैं, और ये उनको लगातार याद दिलाते हैं कि हमने बड़ी कीमत दी है। सिर रोज़ झुका है। और मिला क्या? ठन ठन गोपाल। तो जीवन के प्रति आक्रोश तो आएगा ना? बड़ा गहरा आक्रोश आता है।
-क्लैरिटी सेशन पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।