आचार्य प्रशांत : पहला क्या कह रहा है? पहला क्या कह रहा है?
श्रोता : सर, लेकिन पहले वाला भी आचरण वाला ॐ का निरंतर स्मरण |
आचार्य जी : कैसे करोगे के आचरण? ये आचरण कैसे हो सकता है? किसका स्मरण ?
श्रोतागण : ॐ |
आचार्य जी : ॐ क्या है? मैं तुमसे कहूँ किसी चित्र का स्मरण करो, तुम कर सकते हो | मैं तुमसे कहूँ किसी व्यक्ति का स्मरण करो, तुम कर सकते हो | मैं तुमसे कहूँ किसी गीत का स्मरण करो, तो तुम कर सकते हो | अनहद का स्मरण कैसे करोगे ? ॐ ‘अनहद’ है | ॐ कोई शब्द तो नहीं है ना कि जिसका कोई अर्थ हो |
ॐ ‘अनहद’ है | ॐ का मतलब है मौन |
कोई आवाज़ थोड़े ही है ॐ कि ॐ (लम्बे स्वर में), ये कोई आवाज़ नहीं है | तो ॐ का निरंतर निःस्मरण ही उसका ध्यान है | ‘मौन’ में स्थापित रहना, ‘शून्य’ में स्थापित रहना, यही ‘ध्यान’ है | ‘ध्यान’ वो सब नहीं है कि कोई बैठ कर के आसन जमा रहा है और फिर ये कर रहा है, और ये प्रक्रिया और वैसी विधि | इसको नहीं कहते हैं ध्यान | ये नहीं है ध्यान | लगातार वहीँ स्थापित रहना ही ध्यान है | उसके बाद चाहें तुम जो करो | आचरण तुम्हारा कुछ भी हो, चलेगा | स्थापित वहीँ रहो, निरंतर |
जो ये ‘निरंतर’ शब्द है ना, बड़ा कीमती है | लगातार वहाँ रहो, उसके बाद जो करते हो, करो | ये तुम चिंता ही छोड़ो कि मैं क्या कर रहा हूँ और क्या नहीं कर रहा हूँ | तुम तो बस ये देखो कि कहीं वियोग न हो | वियोग, वो न हो | उसके बाद तुम जो भी करो अच्छा है, कोई दिक्कत नहीं है | ॐ का निरंतर स्मरण मतलब कभी भी ऐसा न हो को वियोग में रहूँ, कभी भी ऐसा न हो कि उससे अलग रहूँ | लगातार जुड़ा हुआ हूँ | लगातार समाधिस्त हूँ |
दूसरा सूत्र क्या कह रहा है ?
सर्वकर्म निराकर्णम आवाहनं |
सारे कर्मों के कारण की समाप्ति आवाहन है |
कर्मों के कारण होते हैं, निश्चित रूप से होते हैं | अकर्म का कोई कारण नहीं होता |
जिसका कारण है वो किसमें आ गया ? वहाँ कारण होते हैं, जैसे मशीन कुछ भी करे उसका एक कारण है | तो ये भी भूल जाओ कि सब कर्मों के कारण की समाप्ति, मैं कह रहा हूँ कारण मात्र की समाप्ति | ‘कारण’ का अर्थ है ‘समय’, ‘कारण’ का अर्थ है कि ‘चेतना’ नहीं है | जड़ता के नियमों से काम चल रहा है कि गेंद ऊपर उछली तो नीचे आयेगी | अकारण होना बहुत ज़रूरी है |
बेवजह, वो जो कुछ करता है, अस्तित्व में जो कुछ होता है, बेवजह ही होता है | कोई वजह बता दो कि एक कीड़ा इतना बड़ा हो और एक इतना छोटा हो | कोई वजह बता दो कि ये पेड़ यूँ सीधा-सीधा लम्बा खड़ा है और उसी का पड़ोसी पेड़ बिलकुल दूसरे आकार का है | प्रेम की कोई वजह बता दो | कोई क्यों मौज में है, इसकी वजह बता दो ? और अगर वजह बता पा रहे हो तो वो मौज वजह के हटते ही, हट जाएगी |
प्रेम की यदि वजह बता पा रहे हो तो वजह के हटते ही, प्रेम भी हट जायेगा | जो कुछ कीमती है वो अकारण है |
दूसरा सूत्र, ‘अकारण’ का आवाहन है | दूसरा सूत्र है इसमें ‘अकारण’ को पूजा गया है |
श्रोता : ये भी कह सकते हैं की सारे के सारे कारण हमारे मन की ही उपज हैं |
आचार्य जी : बिलकुल, मन कारणों पर चलता है | लेकिन याद रखना जो प्रथम है, वो स्वयं ही अकारण है | ‘कारण’ मतलब उसके पीछे कुछ होना चाहिए, जिससे वो निकल के आ रहा है |
जो ‘परम’ है वो तो प्रथम है | उसका अपना कोई कारण नहीं है | तो जब तुम उससे मिल जाते हो तो तुम्हारा भी कोई कारण बचता नहीं | तुम बड़े अकारण हो जाते हो, बड़े बेवजह हो जाते हो |
दुनियाँ की नज़रों में बड़े फ़िज़ूल हो जाते हो | क्योंकि तुम सारे काम ही ऐसे करते हो जिनका कोई ठौर-ठिकाना ही नहीं पता चलता, कोई कारण ही नहीं पता चलता कि तू कर क्यों रहा है और ऐसा नहीं कि शब्दों की कमी है | कोई कारण है ही नहीं तो बतायें कैसे?
हम तो इतना ही कह सकते हैं कि ज़रूरी नहीं कि कारण हो | हम ये नहीं कह रहे हैं कि हमारे पास कोई बहुत उत्तम कारण है | हम तो बस इतना ही कह रहे हैं कि अगर कारण नहीं भी है, तो क्या हो गया? हम आपसे नहीं कह रहे हैं कि हमारे पास कोई बेहतरीन वजह है कुछ करने की | हम कह रहे हैं वजह नहीं भी है तो क्या हो गया? बिना वजह कर रहे हैं |
क्या वजह है ? क्यों ये कीड़े आवाज़ कर रहे हैं ? क्या वजह है ? ये बड़ा, कैसे बोलूँ इसको? बहुत बहादुरी का आमंत्रण है ये कि ज़रा बेवजह हो के दिखाओ और बेवजह तुम हो नहीं पाओगे जब तक, वो जो परम बेवजह है उसके साथ एक नहीं हो जाते | बेवजह होने का स्रोत ‘वही’ है | अब क्यों, क्यों ये झाँक रही है, और क्यों इसको उत्सुकता है और क्यों ये बिल्ली यहाँ आ करके, क्या वजह क्या दोगे ?
पानी खौलाया, पानी गर्म हो गया, वजह है | क्या वजह है ? खौलाया तो गर्म हो गया | इन बातों की वजह होती हैं, पर जो असली, जो सत्य ही है, जो सार ही है, उसकी कोई वजह नहीं पाओगे | जो आदमी वजहों पर चलता हो, बड़ा गरीब आदमी है वो |
मैं फिर कह रहा हूँ, हिम्मत है तो बेवजह जियो ना | पकड़ के रखने की वजह तो हमेशा होती है | पकड़ के रखने की क्या वजह होती है ? कि कुछ मिला, हमें चाहिए था | समर्पण की क्या वजह बताओगे? समर्पण की क्या वजह बताओगे?
बोलो |
गए थे और छोड़ आये | क्या वजह बताओगे? करके दिखाओ | तब जब बोलता हूँ तो थोड़ी सी आशंका उठती है | मैं तो कह दूँ कि बेवजह कर के दिखाओ और तुम बेवजह का पता नहीं क्या अर्थ निकाल लो | तुम ऐसे काम कर डालो जिनकी वजहें हैं पर तुम्हें पता नहीं हैं और तुम कहो कि बेवजह कर रहे हैं | कोई जा के पहाड़ी पे चढ़ गया, कोई नदी में कूद रहा है, कोई दो हैं वो गायब हैं दिन भर और कहें आप ही ने तो कहा तो बेवजह | नहीं, बेवजह नहीं है, वो तुम्हारी खुजली है | उसकी वजह तुम्हारी खुजली है | उसकी वजह है, तुम्हें पता नहीं है |
पूर्णतया बेवजह हो जाना बिलकुल दूसरी बात है, वो बिलकुल दूसरी चीज़ है | वो वही है जिसको कबीर कहते हैं “साधो सहज समाधी भली” | वो सहज समाधी है और वही फिर ‘निष्काम कर्म’ भी है | तुम कुछ करते भी हो तो उसकी वजह भी होती है और उसकी वजह से तुम कुछ पाना भी चाहते हो | ये भी समझना | निष्काम का अर्थ ये, जब मैं कह रहा हूँ कि जो भी करो वो अकारण हो, तो बात दोनों तरफ जाती है | एक तो ‘अकारण’ ऐसे हो कि उसके पीछे कोई कारण ना हो और दूसरा वो ‘अकारण’ ऐसे हो कि उसके आगे कोई कारण ना हो | पीछे का कारण उसकी ‘उत्पत्ति’ का कारण होता है, आगे का कारण उसके फल का कारण होता है | पीछे का कारण उसकी उत्पत्ति का कारण है कि क्यूँ किया और आगे का कारण ये है कि क्या पाने के लिए किया | बात समझ रहे हो ना |
दोनों ही वजहें हैं | एक वजह ये है कि अतीत की ओर से देख रहे हो और दूसरा ये है कि क्या पाने के लिए किया | तो निष्कामता है इसमें कि कुछ पाने के लिए नहीं किया | भविष्य की ओर देख ही नहीं रहे थे | कारण की आहुति दे दो |
श्रोता : सर, जैसे अभी जब हम लोग चढ़े ऊपर, उत्सुकतावश चढ़ गए उतर भी गए | वहाँ पे डर नहीं था कि कोई खा जायेगा जानवर क्योंकि पता था कि एक झटके में मारेगा और खा के किनारे कर देगा और अभी जैसे वो छोटा सा कीड़ा पैर में चिपका |
आचार्य जी: बेटा, अगर वास्तव में वहाँ खड़ा होता ना जानवर, तो नहीं दे पातीं ये तर्क कि एक झटके में मार के ख़त्म कर देगा |
श्रोता : वो भी सही है | वही हम कह रहे हैं कि अभी वही छोटा सा कीड़ा लग गया पैर में और थोड़ी सी जो खून निकली तो पूरा डर हिल गया |
आचार्य जी : हाँ, तो वहाँ कारण था | एक तरह की उत्तेजना मिलती है | ये उद्दीपन है, है | उद्दीपन ये ही नहीं होता कि कामवासना में | ये सब भी बड़ा उद्दीपन है | हाँ, कारण है उसको अकारण मत समझ लेना | कोई नहीं चढ़ रहा, उसके पास भी कारण है, उसे डर लगता है | कोई चढ़ रहा है, उसके पास भी कारण है, उसे रोमांच मिलता है | ‘अकारण’ बिलकुल अलग चीज़ है | ‘अकारण’ ऐसा होगा कि तुम्हें ही नहीं पता होगा कि अकारण है | अकारण है |
श्रोता : अकारण का कोई स्वभाव? ना चढ़ रहा होगा, ना उतर रहा होगा, तो फिर क्या कर रहा होगा ?
आचार्य जी : तो बड़ा फिर अच्छा है ना | कुछ भी करो और फिर बोलो कि ‘अकारण’ था | तो किस कारण किया? ‘अकारण’ | तो ‘अकारण’, कारण है | बहुत बढ़िया | कारण की एक नई कोटि खोजी गई है – अकारण |
श्रोता : आचार्य जी, अभी आपने बताया कि जैसे कीड़े हैं, जो की शोर मचा रहे हैं | आचार्य जी, पर इस बात को कैसे छोड़ दें? हमनें बताया कि पढ़ा भी है विज्ञान में कि, की ये क्यूँ शोर मचाते हैं?
आचार्य जी : चलो कर लो | आज एक कुत्ते और एक बिल्ली को खेलते देखा, कारण समझाओ | वो कुत्ता खा सकता है उसको और कुत्तों ने बिल्लियों को खूब मारा है, कारण समझाओ |
श्रोता : सर, एक विडियो मैंने देखा था जिसमें एक बिल्ली ने बत्तख के बच्चों को पाला था | तो बाद में, हालाँकि उसमें था नहीं पर, उसमें ये था की, जब वह अपने बच्चे को जन्म देने वाली होती है, उस समय एक प्राकृतिक घटना होती है कि बहुत सारे स्पाईक्स आ जाते हैं उसके लिए, उसे यह महसूस हो गया है, कि वो सब उस बच्चे को पाल ले |
आचार्य जी : चलो ठीक है और अगर दिखे कि जो फर्री नहीं है, उसको भी बिल्लियाँ पाल रही हैं | फिर क्या करोगे ? फिर जब तुम कारण खोजते हो, निश्चित रूप से तुम कारण खोज सकते हो | तुम कहोगे कि पहाड़ी इलाका है, पेड़ लम्बा इसलिए होता है ताकि रोशनी अधिक से अधिक पा सके | जितनी ऊँचाई बढ़ेगी, रोशनी की सम्भावना उतनी ही बढ़ेगी, ठीक है | क्यों और रोशनी चाहिये ? क्यों और रोशनी चाहिये ? उसका कारण खोजो | फिर उसका भी खोजो | फिर उसका भी खोजो | अंततः पहुँचोगे तो अकारण पर ही | कारण कहाँ तक खींचोगे ? तो जब अंततः अकारण पर ही पहुँचना है, तो एक झटके में ही पहुँच जाओ ना | तो एक झटके में ही पहुँच जाओ | कारण की सबसे बड़ी सीमा ही यही है कि खिंच नहीं सकता | पाँच कदम, सात कदम, पन्द्रह कदम बाद वो हाथ खड़े कर देगा कि अब आगे कारण हमें नहीं पता | तो जब अंत में अकारण ही बैठा है, तो शुरू में ही अकारण हो जाओ |
श्रोता : लेकिन आचार्य जी अभी तो आपने बोला कि चलो ठीक है, हमने तो मान लिया कि हम ‘अकारण’ कुछ भी करेंगे | लेकिन वो तो कारण से निकल के आ रहा है |
आचार्य जी : अरे! भाई, ये चेतावनी है कि जब ‘अकारण’ की बात करो तो सजग रहना कि कोई गड़बड़ ना हो जाये |
श्रोता : आचार्य जी, ऐसा भी तो हो सकता है कि कारण है पर हम नहीं जान सकते |
आचार्य जी : बिलकुल, तभी कह रहा हूँ कि सजग रहना | अगर कारण है जिसे तुम नहीं जान सकते, तो ‘अकारण’ ही है |
श्रोता : सर, आप कह रहे हैं कि उसके लिए सजग रहना | तो सजग कैसे रहेंगे ? क्योंकि हम तो समझाने योग्य हो जायेंगे कि ‘अकारण’ है |
आचार्य जी : तुम नहीं जान सकते तो तुम नहीं, मन ही नहीं जान सकता | वो जानने की सीमा से बाहर है | अज्ञेय है, तो हो गया, ख़त्म बात | ऐसा नहीं है कि अभी तुम्हें उसका ज्ञान नहीं है और कोशिश करो तो जान जाओगे | वो ‘अज्ञेय’ है |
श्रोता : ‘अकारण’ होना तो हो सकता है, ‘अकारण’ करना सम्भावना नहीं है | क्योंकि करना जैसे होगा, वो फिर कारण ही होगा | ‘अकारण’ में होना की सम्भावना है |
आचार्य जी : ऐसे कर लीजिये | तीसरा सूत्र क्या है ? निश्चलं ज्ञानं आसनं | उस ज्ञान के साथ सम्बन्ध बनाओ, उस ज्ञान के पास बैठो जो बाहरी नहीं है | ‘चलायमान ज्ञान’ वो जो मिला | जो मिला है ज्ञान वो किसी ना किसी अवस्था में आ कर के तुम ठुकराओगे भी | निश्चल ज्ञान वो जो कहीं से आया नहीं, कहीं को जाएगा नहीं | निश्चल ज्ञान ही आसन है | बस उसी को अपना मानो, उसमें बैठो | बाहर से जो भी ज्ञान मिला है, उसके साथ अगर जुड़ोगे . . .
श्रोता : उसमें बैठना बताया था ना?
आचार्य जी : उसके साथ रहो | वहीँ पे स्थित रहो | निश्चल ज्ञान |
श्रोता : क्या ये अपने आप आयेगा ?
आचार्य जी : अपने आप | ‘निश्चल ज्ञान’ का अर्थ होता है वो जो कोई तुम्हें बता नहीं सकता | जो तुमने जान ही लिया है | बस कैसे जान लिया है तुम नहीं बता पाओगे | कैसे जान लिया है ये समझा नहीं पाओगे | ये ‘निश्चल ज्ञान’ है | आया नहीं है कहीं से, किसी ने दिया नहीं है |
श्रोता : आसन का मतलब उसके लिए एक जगह निश्चित होना ?
आचार्य जी : कहने वाला कह रहा है कि तुम ये क्या दरी-चटाई बिछाते हो आसन के लिए | जब पूजा करने बैठते हो, आसन बिछाया जाता है ना | तो कह रहा है ये बेकार के काम हैं कि आसन बिछा रहे हो, फिर उसपे बैठ रहे हो | ये आसन बेकार, असली आसन है, ‘निश्चल ज्ञान’ | इस आसन पर तो बैठते हो और उठ जाते हो | वहाँ ऐसा बैठो, कभी उठो ही ना | मन बहता तो है ही है |
मन को किसी न किसी दिशा जाना है | या तो ‘राम’ को भेज दो, या तो ‘काम’ को भेज दो, या तो ‘सहस्रार’ को भेज दो, या तो ‘मूलाधार’ को भेज दो |
बात समझ में आ रही है ?
कहीं न कहीं तो वो जायेगा, कहीं न कहीं तो अड्डा बनाएगा | अब देख लो वो अड्डा किधर को बना रहा है | कहाँ अड्डा बना रखा है मन ने ? क्यों आशीष? कहाँ बसते हो? जब कोई पूछे कि पता क्या है ? तो असली उत्तर तो ये ही है कि कहाँ बसते हो ? ‘परम’ में कि गरम में | ये नहीं है कि एक खास दिशा में मुहँ करके देवताओं को जो चढ़ाया जाये सो ‘अर्ध्य’ है | समझ में आ रही है बात? मन किस दिशा मैं है | ये नहीं अंतर पड़ता कि तुम दक्षिण मुखी हो के पूरब मुखी हो के | ये सब सुना है न ? अंतर नहीं पड़ता कि तुम किस दिशा में हो | और बड़ा जोर रहता है कि सोते समय ये दिशा होनी चाहिए, मुर्दे की ये दिशा होनी चाहिए | कहने को ये भी कहा जाता है कि गुरु को हमेश दक्षिण मूर्ति होना चाहिए | हमेशा दक्षिण की ओर मुहँ करके बात करे |
गुरु को जो है आध्यात्मिक उत्तर ध्रुव माना गया है | तब वो उत्तर ध्रुव है तो उसका मुहँ हमेशा दक्षिण को होगा | तो ये है कि गुरु जब भी बात करे तो दक्षिण की ओर मुहँ करके बात करे | बेकार की बात है न | इसीलिए तो कह रहे हैं की फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा मुहँ किधर को है | फर्क इस बात से पड़ता है कि मन की दिशा क्या है ? मन का मुहँ किधर को है ? आ रही है बात समझ में ?
ये मत देखो कि किस दिशा सर करके सोते हो | देखते ही होंगे, घर में जब बिस्तर लगाया जाता है | इधर को है कि उधर को है | अरे! ये सब बेकार की बातें हैं कि किस दिशा मुहँ करके आरती करनी है, के पूजा करनी है, ये दिशा | बोले यार ये तुम्हारे मुहँ की दिशा किधर है इससे क्या फर्क पड़ता है, तुम्हारे मन की दिशा किधर है ये देखो | मुहँ की दिशा नहीं, मन की दिशा | क्या है अगला ?
श्रोता : अंतर प्रकाश में तथा अंतर के अनंत अमृत में निरंतर केन्द्रित रहना ही पूजा की तैयारी के लिए स्नान है |
आचार्य जी : तो ये नहीं कि पाँच बार जा के डुबकी लगा रहे हो और साबुन-वाबुन से बड़ी सफ़ाई कर ली कि स्नान कर रहे हैं कि वज़ू कर रहे हैं | वो सब कुछ नहीं |
मन को साफ़ करो, यही स्नान है |
और इस पर तो खूब संतों ने कहा ही है | असल में हिन्दुस्तान में शरीर को स्वच्छ रखने की बड़ी परम्परा रही है | बड़ी सफ़ाई रखनी है | ऐसे ही लोगों को ये सब बातें कहनी पड़ती हैं फिर | स्नान ये सब नहीं है कि पूजा करनी है तो ये सब नहा-धो रहे हैं और बिलकुल मल-मल के नहाना है | ये भी नहीं कहा जा रहा है कि नहाना नहीं है | (सभी हँसते हैं) | यहाँ देखो कि लिखा ही हुआ है कि नहाया मत करो | तो पूरा उपनिषद् हो गया, उससे सीखा क्या? नहाने में कुछ नहीं रखा है | अब यहाँ आये हो, नहाने को बड़े उत्सुक हो | नहाने जैसा आनंद, नहाओ-नहलाओ | कभी दूसरा वाला स्नान भी कर लिया जाये | मन को नहलाया जाये | आचार्य, ज्यादा नहाने से ठण्ड लग जाती है | ज़ोर से पढ़ो ये वाला वाक्य फिर से |
श्रोता : अंतर प्रकाश में तथा अंतर के अनंत अमृत में निरंतर केन्द्रित रहना ही पूजा की तैयारी के लिए स्नान है |
आचार्य जी : आ रही है बात समझ में ? भीतर रहो, उसी केंद्र पर बैठो, घूम-घूम कर बार-बार कर एक ही बात कही जा रही है, वही स्नान है | बुल्लेशाह क्या कह रहे थे ? “गंगा गयो ते मुग्दी नाहीं सौ सौ गोते खाइये” | तुम सौ नहीं पाँच सौ गोते खालो | गंगा ही गन्दी करोगे | तुम नहीं साफ़ होओगे, गंगा ज़रूर गन्दी हो जाएगी |
अगला ?
श्रोता : सब जगह उसी की अनुभूति है | ये एक मात्र गंध है |
आचार्य जी : ‘सुगंध’ बड़ी बढ़िया चीज़ है | सबसे जो हावी इन्द्री होती है, वो होती है आँख | ‘सुगंध’ ऐसी चीज़ है जिसको आँख देख नहीं सकती और कान सुन नहीं सकता लेकिन उसकी मौजूदगी का एहसास लगातार होता रहता है | इसीलिए कई धार्मिक परम्पराओं में ‘सुगंध’ पे बहुत जोर है | कहा भी है, वो ‘सुगंध’ जैसा है | इस अर्थ में ‘सुगंध’ जैसा है कि आँख को दिखाई नहीं देता, कान को सुनाई नहीं देता, लेकिन उसकी खुशबू बस है | और ऐसे फैलती है कि पता भी नहीं चलता कि फ़ैल गयी | जो ये खुशबू का विज्ञान है वो ये ही है कि मंदिरों, मस्जिदों में खुशबू रहती है उसका अर्थ समझो | वो ये ही है कि वो तुम्हें याद दिलाये | वो इसलिए नहीं है कि सुगंध बड़ी अच्छी थी तो वाह-वाह, वाह-वाह | वो याद दिलाने के लिए है | फिर से पढ़ो इस को एक बार |
श्रोता : सब जगह उसी की अनुभूति है | ये एक मात्र गंध है |
आचार्य जी : और किसी गंध की ज़रूरत नहीं है | न धूप जलाओ, न बत्ती जलाओ | सर्वत्र उस की अनुभूति हो रही है, यही काफ़ी है | बड़ी दिक्कत हो रही है | पूजा-पाठ का जो पूरा जो उपकरण होता है, वो तो बेकार कर दिया | ना नहाना है, ना अगरबत्ती जलानी है, ना अर्ध्य चढ़ाना है, ना किसी आसन की ज़रूरत है | ज़रूरत ही नहीं कुछ करने की | सब मामला अन्दर-अन्दर का है |
आगे |
श्रोता : अपने स्वयं के साक्षी स्वाभाव में स्थिर हो जाना ही ‘अक्षत’ है, जो की बिना निखारा व बिना टूटा ही पूजा के लिए काम में लिया जाता है |
आचार्य जी : ‘अक्षत’ क्या होता है ?
श्रोता : चावल |
आचार्य जी : तो ‘अक्षत’ शब्द के आत्यांतिक अर्थ को (स्पष्ट नहीं ) | ‘अक्षत’ माने जो टूटा ना हो | कि तुम टूटे ना रहो | यही ‘अक्षत’ है, चावल नहीं अक्षत है | चावल टूटा है के नहीं टूटा है, ये बात महत्वहीन है | महत्वपूर्ण ये है कि तुम्हारा मन टूटा है कि नहीं टूटा है | टूटा मन माने बंटा हुआ मन | मन अक्षत रहे, चावल कहाँ से अक्षत हो गया | मन टूटा हुआ न हो | फिर आगे |
श्रोता : कौन से फूल हैं जो कि पूजा के लिए हो सकते हैं ? चेतना से भरे होना है |
आचार्य जी : तो कौन से फूल चढ़ायें ? अपने फूल चढ़ाओ | तुम ही फूल बन जाओ | इधर-उधर से फूल चुन कर लाये और चढ़ा दिये, ये कोई बात नहीं हुई | अपना समर्पण करो | फूलों को क्या तोड़-तोड़, खुद को समर्पित करो |
आदमी ने ये चाल खूब चली है | खुद को समर्पित नहीं करना है तो फूल समर्पित कर दो, और चीज़ें समर्पित कर दो, रुपया-पैसा समर्पित कर दो, मिठाई चढ़ा दो, कुर्बानी दे दो | मिठाई क्या चढ़ाते हो दो रुपये की | कुर्बानी क्या देते हो किसी जीव-जंतु की | हिम्मत है तो अपने आप को अर्पित करो ना | असली कुर्बानी ‘अहंकार’ की कुर्बानी है, वो दे के दिखाओ |
वो तुम करोगे नहीं क्योंकि मन में चतुराई खूब है | फूल तोड़ लो, पेड़ काट दो, जानवर मार दो | ये तुम खूब कर लोगे और अगर रुपया-पैसा है तो रुपया-पैसा चढ़ा दो कि फलाने भक्त आये थे उन्होंने एक लाख रुपया दान किये | ये सब तुम खूब कर लोगे | लेकिन जो असली काम है करने का, वो कभी नहीं करोगे | क्या चढ़ाना है – फूल
फिर ?
श्रोता : शीश, अहंकार |