फिर बाप नहीं, दोस्त ही काम आता है || आचार्य प्रशांत,वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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फिर बाप नहीं, दोस्त ही काम आता है || आचार्य प्रशांत,वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। पहली बात तो आप और विवेकानंद जी एक ही फ्रेम (चौखट) में दो सुपर हीरोज बैठे हैं, तो आपकी जो बात है, डबल इंटेंसिटी (दोगुनी प्रबलता) से आ रही है।

तो, आचार्य जी, मेरा प्रश्न यह है कि ऐसे तो मेरी लाइफ स्टाइल (जीवन शैली) सब सही चल रही है और ज़्यादातर समय मैं ख़ुद के साथ ही बिताता हूँ। घर पर भी जितना कम हो सके उतना रहता हूँ, अपने काम में ही रहता हूँ।वाइफ भी पाँच-छः बार कुछ बोलती है तो, एक बार 'हम्म' करता हूँ। और सिर्फ़ यह एक है कि आई एम ए फादर ऑफ़ टीन डॉटर (में एक किशोर बेटी का पिता हूँ)। तो अब तक मैंने जैसे मेरी डॉटर (बेटी) की परवरिश की है — शी हैज़ वोन एट डिस्ट्रिक्ट लेवल इन वेट लिफ्टिंग (उसने भारोतोलन में जिला स्तर पर जीत हासिल किया है) और अच्छे से की है।

लेकिन अब क्योंकि वो दसवीं में है, पंद्रह साल की है । अब उसे कई सारे शी हैज हर थिंग्स दैट शी वॉट्स टू डू (उसे अपने के लिए कुछ करना है)। उसका फ्रेंड सर्कल है और ख़ास कर इस सोशल मीडिया , टिंडर के समय में अभी उसका झुकाव स्पोर्ट्स (खेलों) के प्रति थोड़ा कम है, जो कि लाज़मी है इस उम्र में। क्योंकि ये मेरे कर्तव्य की वज़ह से — मुझे कुछ एक्सपेक्टेशन (आशा) भी नहीं है उससे कि ये करें, वो करें — तो मेरा कर्तव्य यह कहता है कि मैं कैसे उसको सेफगार्ड (सुरक्षा) कर सकूँ कि उससे कोई ऐसी गलती कुछ न हो। वो मुझे थोड़ा सताती है बस।

आचार्य प्रशांत: पास अगर उसके बने रहना है तो उसका दोस्त ही बनना पड़ेगा।

प्र: आचार्य जी, उसमें क्या हो रहा था कि अभी हमारे बीच में कुछ कॉन्फ्लिक्टस (संघर्ष) हो रहे हैं जहाँ पर मैं ऐसा हो रहा हूँ जैसे…

आचार्य: समझ रहा हूँ। मुश्किल पड़ता है। ये तो समस्या ऐसी है जिससे मैं ही दिनभर जूझता हूँ और पूरे तरीक़े से उसमें कोई जीत तो हासिल हुई नहीं है मुझे। हार ही ज़्यादा मिली है।

देखिए, जिसको आप समझाना चाहते हैं, जिसको आप सुरक्षा देना चाहते हैं, उसके निकट तो होना पड़ता है। और उससे बहुत दूर ही हो गये — मानसिक ही नहीं, शारीरिक भी — तो वो बहुत दूर ही वहाँ जाकर बैठ गया है, कहीं और रहने लग गया है तो आप न उसको सुरक्षा दे पाएँगे, न सलाह दे पाएँगे।

और जो सामने वाला है उसकी भी अपनी चेतना है, और उसकी भी अपनी एक उम्र है। वो भी अपने पसंद-नापसंद का निर्धारण करने लग जाता है। तो व्यवहारिक तौर पर ऐसी स्थितियों में सबसे ज़रूरी तो ये होता है कि सलाह देने का कार्यक्रम आप थोड़ा पीछे रखें। और निकट बने रहें, इस बात को ज़्यादा महत्व दें, क्योंकि अगर दूर ही हो गये तो फिर कौनसी सलाह? फिर तो आपको पता भी नहीं चलेगा कि वहाँ चल क्या रहा है। ठीक है?

तो आप शिक्षक या गाइड या पिता बाद में बनिएगा। अभी तो आप वन ऑफ द गाइज (उन्हीं में से एक) बन जाइए । आई एम ए पार्ट ऑफ योर पार्टी सीन नाउ; वेयर इज द पार्टी? (मैं तुम्हारे पार्टी करने वाले दल का हिस्सा हूँ; कहाँ है पार्टी?) वो आपके लिए थोड़ा मुश्किल होगा, लेकिन इसी बात में तो फिर आपकी परीक्षा है।

प्र: वो शेयर (साझा) नहीं कर रही है कुछ।

आचार्य: वो नहीं करेगी न पिता से। दोस्त बनने की कोशिश करेंगे तो फिर भी कर देगी। पिता के साथ कुछ बातें जुड़ी होती हैं सांस्कृतिक रूप से। पिता कोई व्यक्ति नहीं होता, पिता एक छवि और एक सिद्धांत होता है और उसमें कुछ बातों की वर्जना हो जाती है। तो इसलिए पिता से दूरी बनाना ज़रूरी हो जाता है जब लड़की बड़ी होने लगती है — या लड़का भी — किशोर होने लगते हैं, उन्हें दूर होना पड़ेगा।

आपको उनके जीवन में अगर बने रहना है तो आपको समझना होगा कि अब वो दस साल के नहीं हैं। तो जैसे पहले ऊँगली पकड़ने वाला कार्यक्रम होता था और बात-बात में सिखाने, समझाने, टोकने वाली चीज़ होती थी, अब नहीं चल सकती।

आपको अपनी उम्र को पीछे धकेलना होगा क्योंकि उनकी उम्र आगे बढ़ रही है। वो दस से पंद्रह के हुए न। तो आपको चालीस से पच्चीस का होना पड़ेगा क्योंकि पंद्रह और चालीस वालों का चलता नहीं साथ। वो सीधे कहेंगे 'अंकल।' और अंकल बनकर तो काम हो ही नहीं पाएगा। अंकल बनकर नहीं हो पाता काम, पास रहिए। पास रहिए।

मैं आप लोगों से अभी जैसे यहाँ बात कर रहा हूँ, जब कहीं जाऊँ किसी कॉलेज वग़ैरह में और वहाँ दिख जाए कि ये सब सत्रह साल वाले हैं, हो जाता है कई बार कि जितने आये हैं, ज़्यादातर फर्स्ट ईयर के ही बैठ गये हैं, सत्रह-अठारह साल के, उनसे अलग तरीक़े से बात करता हूँ। कम-से-कम प्रयास करता हूँ। उनसे मैंने बहुत अगर आगे की बात कर दी तो, और ये जो नई पीढ़ी है ये बहुत ज़्यादा मर्यादा वगैरह रखती भी नहीं है।

(श्रोतागण हँसत हैं)

अच्छी बात है। मैं भी नहीं चाहता हूँ कि ऊपरी-ऊपरी सम्मान रखा जाए। कुछ मामला भीतर का हो तो अच्छा रहता है।

वो नहीं उठेंगे, आप उन्हें किसी ऊपरी तल पर ले आना चाहते हो चेतना के, वो नहीं उठेंगे। लेकिन अगर आप ये संभावना भी कम-से-कम सुरक्षित रखना चाहते हो कि कभी और उठ पाए तो उनका साथ मत छोड़िएगा।

और आमतौर पर जैसे ही बच्चा किशोर होता है, टीन एज में प्रवेश करता है, साथ ही छूट जाता है। वो फिर कहने को बच्चा और माँ-बाप एक घर में रहते हैं। वो वास्तव में दो अलग-अलग संसार बन जाते हैं। वो एकदम अलग दुनिया है। ऊपर-ऊपर से ये दिलासा रहती है कि हमारा बच्चा हमारे साथ रहता है। बच्चा गृहत्याग कर चुका होता है। उसकी दूसरी दुनिया है।

और अब तो मोबाइल है, वो अपनेआप में एक पूरा यूनिवर्स (ब्रह्माण्ड) हैं जिसमें आपको प्रवेश की अनुमति है भी नहीं। मालूम है न क्या करते हैं? सबसे पहले अपने पूरे खानदान कुनबे को ब्लॉक करते हैं। (श्रोतागण हँसते हैं)

कहते हैं, 'इन्हें नहीं पता चलना चाहिए। कोई भी और कुछ देख ले, इन्हें नहीं दिखना चाहिए हमारा चल क्या रहा है।' और घरवालों के लिए एक दूसरा, पैरलल अकाउंट बनाकर रखते हैं। तो उस पर रहेंगे उनके साथ में। जो असली अकाउंट होता है वो अलग चल रहा होता है। और ये मतलब ऐसा नहीं कि एक-आध मामलों में होता है। ये होता ही है, ये चलन है।

आठवीं-नौवीं क्लास की लड़कियाँ होंगी, उसमें से हर एक ने यही कर रखा होगा, उनके दो अकाउंट होंगे। एक जिस पर भाई, बहन, बाप, माँ, पूरा घर खानदान, मोहल्ला सब ब्लॉक होंगे, सारे स्कूल टीचर सब ब्लॉक होंगे लाइन से। तो ये मत होने दीजिए। आप उस वाले अकाउंट में घुसें। कैसे? जो बाप वाला अकाउंट है वो तो ब्लॉक हो गया। अब आपको भी एक दूसरा अकाउंट बनाना होगा।

(आचार्य जी और श्रोतागण हँसते हैं)

सब पता है मुझे। यही तो तरीक़े होते हैं। कई अकाउंट बनाइए और फोन नंबर भी एक एक्स्ट्रा रखिए। इसके बिना नहीं हो पाता है।

साथ ही छूट गया तो फिर आप क्या किसी की भलाई कर पाएँगे? ये नहीं होने दीजिएगा। और कुछ शर्तें मान लीजिएगा, भले नाजायज़ लगे। बड़ी लड़ाइयाँ जीतने के लिए छोटी-मोटी मुठभेड़ हारना स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। और छोटी-छोटी चीज़ों पर अगर आप बहुत दुराग्रह करने लग गए तो आप बड़ी लड़ाई हार जाओगे। उनको जितने दीजिए, उनकी चलने दीजिए। इसी में आपका बड़प्पन है।

साथ बने रहिए ताकि ये नौबत न आये कि जिस दिन उन्हें आपकी ज़रूरत हो, उस दिन तक रिश्ते इतने बिगड़ चुके हों कि वो ज़रूरत होने के बावजूद आप तक आ ही न पाएँ। और ये बहुत होता है क्योंकि उन्हें आपकी ज़रूरत तो पड़ेगी ही; हैं तो अभी बच्चे ही। ज़रूरत तो उन्हें पड़ेगी, आप प्रतीक्षा करिए। साथ रहिए, थोड़ी सी दूरी बनाकर के। एक दिन आएँगे आपके पास, बार-बार आएँगे आपके पास। बस रिश्ते इतने मत बिगाड़ लीजिएगा कि वो आपके पास आना स्वीकार ही न करें। इतनी मत बिगाड़िएगा।

माँग उनकी मानिए, उन्हीं के जैसे रहिए। उनका अपना एक चलन है। देखिए, कम-से-कम भारत में संस्कृति जितनी पिछले बीस-तीस साल में बदली है, उतनी पिछले सौ साल में नहीं बदली थी। ये जो सब पैदा हुए हैं उन्नीस सौ पच्चासी के बाद — और फिर विशेषकर सन दो हज़ार के बाद — ये लगभग स्पीशीज (प्रजाति) ही दूसरी है।

पहले हमको यही लगता था कि मिलेनियल्स (अस्सी और नब्बे के दशक में पैदा होने वाले) अलग होते हैं पिछली पीढ़ियों से। वो सब भी बहुत पीछे छूट गए। ये जो अभी चल रहे हैं न इनके लिए तो मिलेनियल्स भी ऐसे हैं जैसे अलीबाबा के ज़माने के। इनकी आदतें, इनका चाल-चलन, इनके तौर-तरीक़े सब बहुत अलग है।

अब तौर-तरीक़ों को बहुत महत्वपूर्ण मत दे लीजिएगा। बहुत आपको आदर-सम्मान न दिखाएँ, मर्यादा न दिखाएँ, बहुत आपके प्रति संवेदनशीलता न दिखाएँ, आप बुरा मत मानिएगा। बड़े आप हैं। बड़े आप हैं तो फ़र्ज़ भी आपका ही है कि अपनेआप को बस उपलब्ध रखिए, अवेलेबल। आई एम नॉट इंपोजिंग माइं सेल्फ ओन यू (मैं अपनेआप को तुम्हारे ऊपर थोप नहीं रहा हूँ), बट आई एम अराउंड (परंतु में तुम्हारे आस-पास ही हूँ)। व्हेनेवर यू विल नीड मी, यू विल फाइंड मी अवेलेबल (जब भी तुम्हें मेरी ज़रूरत पड़ेगी तुम मुझे अपने पास खड़ा पाओगे)। ठीक है ?

अनअवेलेबल (अनुपलब्ध) मत होने दीजिएगा अपनेआप को। पुराना बाप तो बनिएगा ही मत, अमरीश पुरी जैसा। वो सिमरन कब की विदा हो गयी। वो जाकर अपनी ज़िन्दगी जी रही है अब। उसको तो उन्नीस सौ पंचानवे में ही ट्रेन पर बैठा दिया था। तो अपनी बच्ची को सिमरन मत बनाने की कोशिश करिएगा कि बाप जो बोले वह उसी का पालन करेगी। वो नहीं करेगी।

लग रहा है न कि सामने बहुत बड़ी चुनौती है? एक बच्ची है आपकी है?

प्र: एक बच्ची, एक बच्चा।

आचार्य: एक बच्ची, एक बच्चा। मेरे दो-तीन हज़ार हैं। मेरी सोचिए। दिक़्क़त मेरी ये है कि मैं भी लगभग उन्हीं के जैसा हूँ। मेरे भी भीतर कोई बैठा हुआ है जो बड़ा होने से इनकार करता है। तो बाप जैसा मैं रुख़ पूरा-पूरा रख भी नहीं पाता। जैसे उनमें एक टीनएजर (किशोर) बैठा है, एक टीनएजर मुझमें भी है।

उसके फ़ायदे भी है, नुक़सान भी है। नुक़सान यह है कि बड़प्पन दर्शाने में समस्या आ जाती है। उन्हीं के तल पर उन्हीं से भिड़ जाता हूँ। और फ़ायदा ये है कि जब दोनों ओर टीनएजर रहते हैं तो निब्बा-निब्बा ख़ूब पटती है — सेम टू सेम। चेहरे पर मत जाना और बालों पर मत जाना, बाक़ी सब सेम टू सेम है। मैं और भी टिप्स दे सकता हूँ, एकांत में। इन सब कामों का मुझे अनुभव है। अलग से बताऊँगा।

पूरी जो अद्वैत संस्था की यात्रा रही है, वो रही ही है बहुत सालों तक बस इसी आयु वर्ग से उलझने की। मैंने पढ़ाना शुरू किया था पहली बार सन दो हज़ार तीन में, दस-बारह साल तक तो मेरे सामने यहीं रहते थे। और इनके तौर-तरीक़े, इनका एटीट्यूड (मनोवृत्ति)। फिर मुझे भी मज़ा ही तभी आता था जब कुश्ती हो ही जाए। और जब इनकी ओर से कोई विरोध न आए, प्रतिक्रिया न आए, ज़्यादा आसानी से बात मान लें, तो मुझे कुछ अधूरा-अधूरा सा लगे। कहें, आज तो मज़ा ही नहीं आया। कुछ होना तो चाहिए। दो-चार खड़े हो के नारे लगाए, कोई बोले आई जस्ट डोंट अग्री विथ दिस (मैं इससे बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ)।

प्र: रिबेलियस टाइप (विद्रोही किस्म) के हैं।

आचार्य: अच्छा है न? मैं भी ऐसा ही था। सबको ऐसे ही होना चाहिए। क्यों मान लें किसी की बात? भाई, बात मनवाने लायक़ है तो साबित करो। और साबित नहीं कर सकते तो काम क्या? हवा आने दे। हवा आने दे ज़रा।

श्रोता: आचार्य जी, हमें भी चाहिए टिप्स (तरकीब)।

आचार्य: पुरानी विडियोज देखिएगा (हँसते हुए)।

प्र२: नमस्ते आचार्य जी। मेरा नाम उल्लास है। मैं आपको गोवा में मिल चुका हूँ और ऑनलाइन भी मैं आपके साथ में जुड़ा हूँ। बहुत सारे कोर्सेस में हूँ। किताबें भी पढ़ता हूँ।

मेरा सवाल इसी पहले प्रश्न से मिलता-जुलता है। मेरी भी दो बेटियाँ हैं। अभी एक है ट्वेल्वथ (बारहवीं) में और एक छोटी है फोर्थ (चौथी) में। तो आपने जो भी टीनएजर्स वाला बताया कि उनमें जो गुण है, वो होता है। लेकिन बड़ी का जो है वो अभी ट्वेल्वथ की पढ़ाई में इतनी व्यस्त है, तो कभी-कभी टेंशन (तनाव) में आ जाती है। आपकी वो रिसेंटली (हाल की) अलार्म वाली जो वीडियो थी — सुबह बोलती थी, पापा मुझे जल्दी उठा देना। तो मैंने दो-तीन बार कोशिश की लेकिन नहीं हज़म हुआ। उसको भी नहीं जमा।

तो एक दिन ऐसे ही मैं कार में छोड़ने निकला तो वो वाली वीडियो लगा दी। तो उसने वो सुन ली। उस दिन पूरा दिन बैठकर पढ़ाई की। शाम को बोलती है आज कुछ अलग हुआ है। मैंने बोला, ‘ठीक है, हो गया, मुझे नहीं पता क्या हुआ।‘

तो मेरा ऐसा है कि मैं उसको आगे और क्या टिप्स (सलाह) दे सकता हूँ कि उसकी पढ़ाई भी हो — मैं उसके साथ में हूँ। वो जो भी बोलती है मैं सुनता हूँ। अगर मुझे कुछ अच्छा लगा तो मैं बोलता हूँ कि, ‘ये ऐसा-ऐसा मैंने आचार्य जी का एक सुना है, ज़रा साथ में सुन के देखते हैं न। अगर तुझे समझ आये तो मुझे भी बताना। कुछ समझ में नहीं आ रहा है।‘ तो वो बोलती है, हाँ ठीक है, सुनेंगे-सुनेंगे। तो ऐसा हमारा थोड़ा बहुत मैचिंग चलता रहता हैं। बस उसके बारे में मुझे टिप्स चाहिए था कि और क्या कर सकता हूँ मैं उसके लिए?

आचार्य: मैंने बोला तो, अपनी उम्र कम करिए। वही है। आप अपनी प्रौढ़ता को जितना छोड़ते जाएँगे, आप बच्चियों के उतना निकट आते जाएँगे। और ये अच्छी भी बात है न, इसी बहाने बुढ़ापे को टालने का कुछ अवसर मिलेगा। नहीं तो जैसा कालचक्र चल रहा है, उसी को चलने दें तो बुढ़ापा ही तो आ रहा है प्रतिदिन, और क्या हो रहा है? इससे अच्छा बच्चों के साथ बच्चा बनने का प्रयास ही कर लेते हैं।

अब जैसे बच्चे हैं तो वो तो कोई चीज़ अब सीखना पहली बार शुरू करेंगे, क्योंकि उनकी ज़िन्दगी में पहली बार आ रही है। और जो चीज़ें उनकी ज़िन्दगी में पहली बार आ रही है उनमें से बहुत चीज़ों से आप भी परिचित नहीं है। ठीक है? मान लीजिए कोई कोर्स कर रहे हैं और वो कोर्स नए ज़माने का है। आपने भी नहीं कर रखा, आपके समय में ऐसा कोर्स होता ही नहीं था। आप भी कर लो न उनके साथ।

थोड़ा-बहुत अजीब लगेगा कि उसी कोर्स में बाक़ी सब टीनएजर होंगे, उनके साथ एक आप भी पहुँच गये। कोई बात नहीं। अच्छी बात है। इससे अपना भी तो आत्म विकास होता है न। क्योंकि अपनेआप को — मान लीजिए आप चालीस-पैंतालीस के हैं — अपनेआप को पैंतालीस का मानना देहभाव ही तो है। तो चालीस पैंतालीस या पचास का होकर भी अगर आप पंद्रह साल वालों के साथ बैठ गए, तो क्या ये आध्यात्मिक प्रगति नहीं है?

आप कह रहे हो कि मैं अपनी उम्र से आइडेंटिफिकेशन , तादात्म्य नहीं रख रहा भाई। शरीर से होऊँगा पैंतालीस का, पर मैं बैठ सकता हूँ पंद्रह साल के बच्चों के साथ। मैं बैठ सकता हूँ। तो करिए।

कुछ खेलना शुरू कर रहे हों बच्चे, आप कहो कि चलो मैं भी सीख लेता हूँ। जैसे तुम सीख रहे हो वैसे हम भी सीख लेते हैं। एक निकटता भी बनी रहेगी और सेहत भी बढ़िया रहेगी। है न? वो कहीं जा रहे हों, अगर वो इजाज़त दें तो आप भी साथ में लग लीजिए। थोड़ी देर के लिए मुक्ति मिलेगी आपको भी घर के झंझटों से। कह दो कि तुम चल रहे हो तो मुझे भी ले चलो। थोड़ा आपको मक्खन-मालिश करना पड़ेगा, ले चलो सामान उठा लूँगा तुम्हारा, पीछे-पीछे, कुछ बना लेना मुझे — शेफ, सेंट्री, केयरटेकर, गार्ड, पोर्टर।

प्र२: वो होता ही रहता है । (हँसते हुए)

आचार्य: ‘मैं साथ में चल लूँगा। तुम्हारा भी उठा लूँगा, तुम्हारी फ्रेंड्स का भी उठा लूँगा। ले चलो मुझे।‘ मज़ा तो आएगा। क्योंकि एक बात बताऊँ आपको सही में? ये पीढ़ी हमारी पीढ़ी से ज़्यादा खुली ज़िन्दगी जीती है। कम पाखंडी है, डरी हुई कम है, कम-से-कम बाहर-बाहर से। अतीत का, स्मृतियों का, संस्कारों का इस पर बोझ कम है और बहुत मामलों में इसका दिमाग़ हमारी पीढ़ी से ज़्यादा खुला हुआ है। क्योंकि ये लोग इंटरनेट के माध्यम से पश्चिम से ज़्यादा एक्सपोज्ड (अनावृत) हैं। और पश्चिम में ऐसा बहुत कुछ है जो भारत को सीखने कि ज़रूरत है। और पिछली पीढ़ियों को वो चीज़ नसीब नहीं हुई थी।

वास्तव में वो चीज़ भारत को मिलनी ही शुरू हुई है दो हज़ार बारह-तेरह के बाद से। उससे पहले इंटरनेट तो था, पर डाटा महँगा था। वो चीज़ इनको है। और इस मामले में ये हमसे आगे भी हैं और हमसे ज़्यादा किस्मत वाले भी हैं। तो इनके साथ रहकर के ऐसा नहीं कि आप बस इनको फ़ायदा दोगे। उनके साथ रहकर के आपको भी फ़ायदा मिल जाएगा। तो दोनों ओर से यातायात रहे।

सिखाने की, सुरक्षा देने की मंशा है एक बाप की, वह बहुत अच्छी बात है। लेकिन एक मनुष्य की सीखने की भी मंशा होनी चाहिए। बाप सिखाए, इंसान सीखे, और दोस्त साथ-साथ लगा रहे। इन तीनों में लेकिन — फिर दोहरा रहा हूँ — इनको भी बोला था — इन तीनों में सबसे महत्वपूर्ण दोस्त है। क्योंकि अगर दोस्ती नहीं रही तो साथ छूट जाएगा। और साथ सौ में से निन्यानवे घरों में छूट रहा है। वो मत होने दीजिएगा।

सीखना भी बाद में, सिखाना भी बाद में, साथ बना रहे, यही बड़ी गनीमत है। तो साथ बरकरार रहे। वो जो मानसिक भेद आ जाता है न, साइकोलॉजिकल डिस्टेंस , अभिभावकों में और बच्चों में, वह फिर पाटे नहीं पटता। और वह जन्म भर के लिए हो जाता है। नहीं आने दीजिएगा।

प्र२: इसी से आगे मैंने यह भी देखा है कि मेरे आस-पड़ोस में उसी की फ्रेंड्स हैं तो उनके यहाँ पर बाप और बेटे में झगड़ा हो रहा है। अभी से हो रहा है। वो कुछ बोल रहा है, ये कुछ बोल रहे हैं। तो मुझे ऐसा लग रहा है कि ये जो उनको अभी मिल रहा है, उसके हिसाब से ये डर भी बैठता है कि इसके साथ में ऐसा न हो जाए।

आचार्य: बहस होने दीजिएगा। झगड़ा उस किस्म का नहीं होना चाहिए जिसमें दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात को लेकर अड़े हुए हैं। बातचीत से शुरू होकर चीज़ बहस तक चली जाए, वो तो होगा। देखिए, दो ध्रुवों में संवाद हो और बहस न हो, ये तो नहीं हो सकता। पर वो बहस झगड़े तक नहीं जानी चाहिए। झगड़े का तो फिर ये मतलब होता है कि या तो हम जीतेंगे या तुम, अब तुम हमारे दुश्मन हो गये। वो बात दुश्मनी की नहीं बननी चाहिए।

प्र२: धन्यवाद, आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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