पत्थर से प्यास बुझाने की कोशिश है कामवासना || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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पत्थर से प्यास बुझाने की कोशिश है कामवासना || आचार्य प्रशांत (2019)

प्र: आचार्य जी, बहुत डिप्रेशन (अवसाद) में रहता हूँ, बहुत। अत्यधिक डिप्रेशन में रहता हूँ। अपने काम को लेकर के बहुत तनाव में रहता हूँ। जैसे दुकान है, दुकान पर दिनभर झूठ बोलना पड़ता है। दिनभर जो काम करता हूँ, उसमें मतलब बहुत तकलीफ़ है। और दुकान में मन ही नहीं लगता मेरा।

कस्टूमर (ग्राहक) आते हैं, कभी-कभी वापस कर देता हूँ। और आपको ही सुनता रहता हूँ, सुनता रहता हूँ। तीन-तीन, चार-चार घंटे बीत जाते हैं। मेरा सिर दर्द करने लगता है, लेकिन संतुष्टि नहीं मिलती। सुनता रहता हूँ। तो ये चीज़, मतलब भीतर बहुत छटपटाहट है, आचार्य जी। कैसी है, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ क्या है।

आचार्य: किस बात की छटपटाहट है?

प्र: सत्य चाहिए। प्रेम नहीं है। प्रेम नहीं है जीवन में। जीवन में बोध नहीं है। जीवन में मुक्ति नहीं है। यही छटपटाहट है आचार्य जी।

आचार्य: वो क्या है जो चाहिए?

प्र: सत्य। प्रेम चाहिए, मुक्ति चाहिए।

आचार्य: अच्छा, इन दोनों में से किसी एक का चुनाव करना हो तो क्या चाहिए? प्रेम या मुक्ति?

प्र: प्रेम, प्रेम चाहिए। कोई ऐसा नहीं है जिससे मैं अपने दिल का हाल सुना सकूँ। कोई ऐसा नहीं है।

आचार्य: क्या उम्र है तुम्हारी?

प्र: उन्नीस वर्ष।

आचार्य: किस चीज़ की दुकान है?

प्र: (रोते हुए) प्लास्टिक की।

आचार्य: शान्त बैठो, शान्त बैठो।

प्र: आचार्य जी यहाँ...।

आचार्य: किस शहर से हो?

प्र: महू। मैँ... आचार्य जी, मैंने बहुत मतलब इधर-उधर से मैंने पैसा जोड़कर के कैसे-कैसे मैं यहाँ आया। आपसे मिलना चाहता था। चार दिन से नोएडा में हूँ लेकिन...।

आचार्य: अच्छा क्या हो जाए तो शान्त अनुभव करोगे? जो तुम्हारी दिनचर्या है, जिसमें तुम कहते हो, ‘प्रेम नहीं है और मुक्ति नहीं है।’ उसमें तुमने कहा कि कोई है नहीं जिससे दिल की बात कर सको, तो क्या हो जाए, क्या मिल जाए तो शान्त अनुभव करोगे?

प्र: आचार्य जी, आपका सान्निध्य मिल जाए बस, और कुछ नही चाहिए। इससे बड़ी बात मेरे लिए कुछ नहीं होगी। बस यही चाहता हूँ, पूरे दिल से चाहता हूँ।

आचार्य: नहीं, मेरा सान्निध्य तो तुम्हारे लिए एक विचार भी अधिक-से-अधिक पिछले दो सालों में बना होगा। परेशान तो तुम, कह रहे हो, पिछले पाँच-छ: सालों से हो, जबसे तुम जवान हुए।

प्र: आचार्य जी, मैं एक सच्चे गुरु की तलाश में था जोकि मैं इधर-उधर ढूँढा, बहुत खोजा, मुझे कुछ भाया नहीं। कहीं नहीं भाया।

आचार्य: गुरू की तलाश...मेरे साथ रहो थोड़ा अभी। सान्निध्य कह रहे हो न, तो अभी साथ रहो। गुरु की तलाश शुरू ही होती है किसी परेशानी से। दुख न हो तो मुक्ति की कोई ज़रूरत भी नहीं है। तो वो मूल परेशानी क्या है जिससे तुम पाँच-छ: साल से त्रस्त ही हो, जिसके कारण तुम अध्यात्म की ओर गये।

प्र: कामवासना।

आचार्य: तो उसमें मेरा सान्निध्य लेकर क्या करोगे? (हँसते हुए)

प्र: नहीं तो, ठीक है, बात सही है, लेकिन उससे, उससे मुक्ति मुझे चाहिए। कहाँ मिलेगी? उससे मुक्ति तो चाहिए न। परेशान हूँ उससे, लेकिन मुक्ति उससे चाहिए।

आचार्य: अब जाकर के थोड़ी तुमने पते की बात करी। कामवासना नहीं किसी को परेशान करती। तुम क्या हो, काम क्या है, इसके प्रति नासमझी से परेशान होते हैं लोग। कामवासना — कहो कि — परेशान कर रही है तुम्हें, ये वैसा ही है जैसे कोई कहे कि मेरा बायाँ अँगूठा मुझे बहुत परेशान करता है। अँगूठा तो अँगूठा है। जैसा उसे प्रकृति ने बना दिया वैसा वो है।

(अपना अँगूठा दिखाकर) ये अँगूठा, ये क्या करेगा? इसकी कोई मँशा नहीं है तुम्हें परेशान करने की। ठीक। उसी तरीके से देह है। देह कोई स्टैटिक एंटिटी (स्थैतिक इकाई) थोड़े ही होती है। बिलकुल थमी हुई, रुकी हुई, जमी हुई, फ्रोज़न इकाई नहीं होती है।

आमतौर पर जब तुम कहते हो, ‘देह।‘ तो तुम्हारे मन में एक तस्वीर आती है। एक छवि आती है। है न। जैसे तुमने अपना चित्र लेकर, अपनी फोटो लेकर कहीं चिपका दी हो, तुम कहते हो, ‘ये मैं हूँ।’

शरीर को लेकर भाव ही ऐसा आता है जैसे कोई रुकी हुई चीज़ है। वो रुकी हुई चीज़ नहीं है। साफ़ होना चाहिए कि जितनी प्रक्रियाएँ हैं देह की, वो भी देह ही हैं। तुम किसी की तस्वीर लगाओ जिसमें उसकी नाक है, तो क्या ये ज़ाहिर सी बात नहीं है कि वो साँस भी ले ही रहा होगा भाई। कि नहीं ले रहा होगा?

आप पासपोर्ट साइज फोटो लगाते हैं, उसमें नाक होती है कि नहीं होती या नाक हटाकर लगाते हैं? तो नाक है, तो साँस चल रही होगी कि नहीं। चल रही होगी?

तो इसी तरीक़े से शरीर में बाक़ी कलपुर्जे भी हैं। कामवासना कोई इधर-उधर की चीज़ नहीं है। जैसे तुम्हारी नाक है, वैसे ही कामवासना है। नाक फेंफड़े से अलग है? नाक और फेंफड़े साँस से अलग हैं? नहीं हैं न। तो वैसे ही शरीर के जितने हिस्से हैं, सब अपना-अपना काम करते हैं। वो सब संस्कारित हैं प्रकृति द्वारा, अपना-अपना काम करने के लिए।

और शरीर के हिस्सों की जब बात हो रही है तो उसमें बाहरी हिस्से ही थोड़ी आते हैं कि नाक...। अन्दरूनी हिस्से भी आते हैं। ये एक मशीन है जो पहले से ही एक मिशन (उद्देश्य) लेकर के बैठी हुई है। हर मशीन का एक उद्देश्य होता है न। क्या खाएगी, क्या पिएगी, क्या उसमें अन्दर जाएगा, क्या उससे बाहर आएगा, ठीक?

अब जैसे ये मशीन खाती है, इस देह को बचाए रखने के लिए, अपनेआप को बचाये रखने के लिए, वैसे ही ये मशीन संस्कारित है अपनेआप को आगे बढ़ाने के लिए। अपनी ही कई प्रतिलिपियाँ तैयार करने के लिए। अपनी ही कई, प्रतिलिपियाँ तैयार करने के लिए।

कुछ मामले में जैसे ये समझ लो, फोटोकॉपियर जैसी हो या किसी मैकेनिकल वर्कशॉप की डाई जैसी हो कि जहाँ एक चीज़ रखी हुई है और उसी से मिलती-जुलती कई चीज़ें वो पैदा करेगी, निर्मित करेगी। वो इसका काम है।

फिर तुम हो, तुम जो इस देह से साझा हुए बैठे हो, तुम जो कहने लग जाते हो, ‘मैं ये देह ही तो हूँ।’ अब तुम अगर ये देह हो, तो तुम इसी देह के माध्यम से शान्ति खोजोगे क्योंकि तुम देह बने ही अपनी अशान्ति में थे।

मूल अशान्ति है अहम्, इसीलिए उसे किसी-न-किसी का हाथ पकड़ना है। जैसे तुम कह रहे हो कि कोई चाहिए जिससे दिल का हाल साझा कर सकें। अहम् का नाम ही है मूल अपूर्णता, अकेलेपन का भाव, एक सूनापन, एक लोनलिनेस (अकेलापन)।

तो अहम् अब इस सूनेपन में, इस तन्हाई में किसी दूसरे को तो बाद में पकड़ता है, सबसे पहले किस को पकड़ता है, अपनी ही देह को पकड़ता है। आप क्या सोचते हो कि आप अपना सूनापन मिटाने के लिए बस किसी आदमी, औरत का ही हाथ थामते हो? न। सूनापन मिटाने के लिए आप सबसे पहले किसका हाथ थामते हो, इस देह का। आप कहते हो, ‘ये मैं हूँ।’ ये आपने एक गठबँधन करा है। मैं देह हूँ।

जड़-चेतन ग्रंथि कहते हैं इसको। चेतन जाकर के जुड़ गया है, किससे, जड़ से। गाँठ बाँध ली है, ग्रंथि। गठबँधन हो गया। करा ही क्यों था ये गठबँधन, क्योंकि दुखी हो। अब गठबँधन कर लिया, अब दुखी हो। किसी को अपने घर ले आये, किसको घर ले आये, देह को।

अब जिसको घर लाये हो, उससे कुछ उम्मीदें भी होंगी। क्या उम्मीद है, कि उसी के माध्यम से पूर्णता मिलेगी। देह को घर ले आये हो, उसी के माध्यम से पूर्णता ढूँढते हो। अब देह लेकिन तुम्हारे लिए थोड़ी ही बनी है भैया।

जैसे तुम कोई आदमी औरत घर ले आते हो और उसके माध्यम से फिर रौनक ढूँढते हो न और पूर्णता ढूँढते हो न कि अब मेरी ज़िन्दगी में बहार आ जाएगी, पूरापन आ जाएगा, ये हो जाएगा, वो हो जाएगा। लेकिन तुम भूल ही जाते हो कि जिसको तुम अपने घर लेकर के आये हो, वो तुम्हारे लिए थोड़े ही बना है।

लेकिन जब उसको घर लाते हो तो तुम्हारी उम्मीदें कुछ ऐसी ही होती हैं कि मेरी ज़िन्दगी में जो जो कुछ बर्बाद था, अब आबाद हो जाएगा। काहे कि हमने किसी का हाथ थाम लिया है अब। उसी तरीक़े से तुम देह से ये उम्मीद रखते हो कि मेरी सारी कामनाएँ देह पूरी कर देगी। देह काहे को पूरी कर दे?

देह अपनेआप में एक स्वतंत्र यंत्र है। वो एक इंडिपेंडेंट मशीन (स्वतंत्र यंत्र) है जो तुम्हारे बिना भी काम करती है। प्रमाण, तुम सो जाते हो देह काम नहीं करती रहती? जब अहम् गहरी नींद में होता है, तब भी देह चलती रहती है कि नहीं।

तो देह को तो तुम्हारी जरूरत भी नहीं है। उसके पास अपना काम है, अपना मिशन है, अपने सरोकार, अपना एजेंडा है उसके पास। और तुम लगे हुए हो, ‘चल न, तू मुझे शान्ति दे दे।’ काहे को दे दे?

उसके पास अपना काम है। उसके पास जो एक काम है, उसका नाम है कामवासना। कामवासना देह का अपना काम है, तुम काहे उलझ रहे हो उससे? हाँ, देह के माध्यम से तुम्हें वास्तव में वो मिलता हो जो तुम्हें चाहिए है, तो देह का वाजिब इस्तेमाल कर लो।

दिक्क़त कामवासना में नहीं है, दिक्क़त है देह से मूर्खतापूर्वक उलझने में। तुम किसी से गठबँधन करो और उससे माँग करने लगो कि मुझे चाँद-तारे ले आकर के दे दे। भाई, वो नहीं ला सकता। और ज़्यादातर गठबँधनों में तनाव इसीलिए होता है न।

तुम चाह रहे हो कि वो तुम्हें चाँद-तारे लाकर दे दे। और तुम चाह रहे हो कि वो तुम्हारी ज़िंदगी में बिलकुल खुशियाँ भर दे। न वो वो कर सकता है जो तुम चाहते हो। न वो कर सकता है जो तुम चाहते हो। दोनों एक दूसरे से फिर परेशान हैं।

यही रिश्ता अहम् और देह का है। तुम देह से परेशान हो, देह तुम से परेशान है। देह सोना चाहती है, तुम उसे कोंच-कोंच जगा देते हो। देह को खाने के लिए सिर्फ़ सीधा सरल पौष्टिक खाना चाहिए। तुम अपनी वासना के चलते उसमें ठूँस-ठूँसकर मसाला भर देते हो और देह बर्बाद होती है।

सब वासनाएँ किसकी, तुम्हारी। भुगतना किसको पड़ता है, देह को। तनाव तुम लेते हो और दिल का दौरा देह को आ जाता है। देह तुमसे परेशान है। तुम देह से परेशान हो। अपना और शरीर का सही रिश्ता तो समझो। और तुम जब अध्यात्म की ओर आ रहे हो न, तो तुम बिलकुल वही काम कर रहे हो जो तुमने शरीर के साथ करा है।

तुमने शरीर को पकड़ा है शरीर से एक नाजायज़ माँगकर के। क्या माँगकर के, मेरा सूनापन हटा दो। अब वही माँग तुम सब गुरुओं से कर रहे हो। मेरा सूनापन हटा दो। तीन-चार से कर चुके हो, अगला नम्बर मेरा है।

जैसे देह तुम्हारा सूनापन नहीं मिटा पायी, वैसे ही मैं भी तुम्हारा सूनापन नहीं मिटा सकता क्योंकि बड़े लोग बता गये है, वो सूनापन है ही नहीं। जो चीज़ हो, उसको तो मिटाया भी जा सकता है। जो हो ही न, उसको कैसे मिटाओगे?

वो ये जो दीवार है, चलो, इसमें जो लाल-लाल धब्बे हैं, इनको सबको साफ़ करो। और जब तक साफ़ नहीं करोगे, मैं तुम्हे चैन नहीं लेने दूँगा। खड़े हो जाओ। ये जो दीवार है, इसमें जितने ये लाल-लाल धब्बे हैं, सबको साफ़ करो।

और साफ़ जब तक दिखाओगे नहीं कि साफ़ कर दिया, ‘देखिए, ये धब्बा था, ये साफ़ कर दिया।‘ तब तक मैं पीछे से कोंचता रहूँगा। तो अब क्या होगा तुम्हारा? अब तुम अभिशप्त हो जीवनभर कोंचे जाने के लिये। अगर लाल धब्बे होते तो तुम बच जाते। कैसे बच जाते, मिटा देते, बच जाते।

पर जो है ही नहीं, उसको मिटाओगे कैसे? अब तो मारे गये तुम। एक काल्पनिक सूनेपन को मिटाने के लिए तुम देह को परेशान कर रहे हो। उसी काल्पनिक सूनेपन को मिटाने के लिए तुम कबीर साहब के पास पहुँच गये, ओशो के पास पहुँच गये और हर जगह जब विफलता मिली तो अभी मेरे पास आये हो। मैं कहाँ से जीत जाऊँगा भाई, बहुत छोटा आदमी हूँ।

जो तुम माँग रहे हो, उसको कोई नहीं दे सकता तुमको। तुम एक ऐसे गड्ढे को भरने की कोशिश कर रहे हो जो है ही नहीं। बोलो कैसे भरोगे? तुम एक ऐसी बीमारी को मिटाना चाह रहे हो, जो मात्र तुम्हारी कल्पनाओं में है। बोलो कैसे मिटाओगे?

यहीं से तुम्हें नुस्खा भी मिल गया होगा। बीमारी नहीं मिटानी है, कल्पना मिटानी है। बीमारी काल्पनिक है, ये समझो बस। और वो बीमारी तुमको लगी कहाँ से है?

वहीं से जहाँ से तेरह की उमर में सबको प्रेम रोग लगता है। फिल्में देखते होओगे, आसपास तुम्हारे जो यार-दोस्त होंगे, उनके लफड़े-चपड़े शुरू हो गये होंगे। तो बस और क्या किया है? छोटे शहर, कस्बे से आ रहे हो, वहाँ तो सब गुलफ़ाम हैं।

काम-धन्धा किसी के पास कुछ है ही नहीं। जिसको देखो वही आशिक है। समय की कोई कमी नहीं। दिन चौबीस नहीं, अड़तालीस घंटे का होता है। चाय की दुकान पर बैठे हैं। चौराहों पर खड़े हैं। नई-नई मूँछे आ रही हैं।

उस उमर में तो सब लगती हैं साँवली-सलोनी। आहा! तब से त्रस्त हो। और यहाँ पर आकर अध्यात्म की बात कर रहे हो। कह रहे हो, ‘सत्य चाहिए।’ सत्य थोड़ी चाहिए तुम्हें, सत्यवती चाहिए। सत्यवती से भी अगर तुम्हारा इलाज हो सकता तो मैं प्रार्थना करता कि मिल जाए तुम्हें सत्यवती कोई।

तुम्हें सत्यवती मिल गयी, तुम उसको परेशान कर डालोगे। और लाभ तुम्हें कुछ नहीं होने वाला। बल्कि और ज़्यादा तुम हताशा में घुस जाओगे, अवसाद में, डिप्रेस हो जाओगे। कहोगे, ‘मिल गयी सत्यवती लेकिन कुछ पा नहीं रहा हूँ।’

ऐसा करना सत्र के बाद यहाँ जितने लोग बैठे हैं न थोड़ी चढ़ी उम्र के, उनसे कहना, ‘बस दो मिनट दे दीजिए।’ सब से यही पूछना कि मेरी उम्र में आपको भी यही चाहिए था न? कहेंगे, ‘हाँ।’ पूछना, ‘आपको मिला?’ कहेंगे, ‘मिला।’ फिर पूछना, ‘अब हाल क्या हैं?’

तुम इस बात पर बेहाल हो कि तुम्हें मिल नहीं रहा। जिनको मिल गया है, उनका भी तो हाल पूछो न कि उनका क्या...। जो तुम्हें चाहिए ही नहीं, उसको पाकर भी तुम्हें क्या मिल जाना है? और जो तुम्हें चाहिए है, उसका तुम्हें कुछ अन्दाज नहीं। उसकी ओर तुम्हारा बिलकुल ध्यान नहीं।

ये जो तुम हरकत कर रहे हो कि चार दिन से यहाँ पर आकर के बैठ गये हो, ये तो बिलकुल ही — माफ़ कर देना — लेकिन, सड़कछाप आशिकों वाली हरकत नहीं है? कि उसके शहर पहुँच गये और चार दिन से इंतज़ार कर रहे हैं, गोरी कब दीदार देगी। वैसे ही तुम...।

स्टॉकिंग कहते हैं भाई इसको। मानवाधिकार उल्लंघन का मामला बन जाएगा । और ये बहुत लोग करते हैं। यहाँ सामने आकर के सड़क पर घूम रहे हैं, ये सब कर रहे हैं। मेरा निकलना दूभर हो गया है। गौर से देखो न, सब लक्षण वही हैं बिलकुल, कि नहीं हैं?

वही गले का रूँधना, जैसे जब प्रणय निवेदन करते हो प्रेयसी से तो उसके सामने जाते हो और गले में ही शब्द अटक जाते हैं। वैसे ही तुम यहाँ बात कर रहे हो तो हो रहा है। ये तुम ग़लत जगह ग़लत नम्बर घुमा रहे हो। मामला ख़तरनाक है यहाँ। फँस मत जाना।

प्र: आचार्य जी, बहुत परेशान हूँ। कहीं मतलब मिल नहीं रहा है। क्या करूँ, क्या नहीं, समझ नहीं आ रहा है।

आचार्य: ये देखो ये कैसे हँस रहे हैं।

प्र: हँसने दीजिए, मुझको फ़र्क नहीं पड़ता।

आचार्य: नहीं, हँसने दीजिए! उपहास नहीं कर रहे हैं। कुछ बात है जो वो समझ रहे हैं, जो तुम समझ नहीं पा रहे हो।

प्र: नहीं, यह मज़ाक उड़ा रहे हैं।

आचार्य: न। किसी का इरादा — जहाँ तक मैं समझता हूँ — खिल्ली उड़ाने का नहीं है तुम्हारी। अनुभवी हैं, उम्र के उन पड़ावों से गुजरे हैं जहाँ पर तुम फँसे हो। इनसे बात करो और पूछना। उन्नीस के ही तो हो अभी। इनसे सबसे पूछना थोड़ा सा। ये होता है। ठीक है। लेकिन, इसके पार जाना पड़ता है भाई।

प्र: वही कोशिश कर रहा हूँ। तभी तो मैं यहाँ हूँ।

आचार्य: जिस तरीके से कोशिश कर रहे हो वो तुम्हें और डुबोएगी। ऐसे नहीं करते। समस्या यहाँ (अँगुली की ओर इशारा करते हुए) हो और उपचार तुम यहाँ (गाल की ओर इशारा करते हुए) करो तो उपचार होगा नहीं न। नहीं होगा न?

और बीच-बीच में वैसा लगेगा — जैसा तुमने कहा कि — सालभर तक मैं भजन गाता था, बड़ी शान्ति मिली, फिर शान्ति गायब हो गयी। वो उसी तरह की सतही और झूठी शान्ति मिलेगी क्योंकि तुम सही जगह अभी देख ही नहीं रहे हो।

जीवन को एक समुचित उद्देश्य देना पड़ता है। ये जिस अपूर्णता के साथ हम पैदा होते हैं, सबसे पहले उसे जानना पड़ता है ये जानने के लिए भी कि वो नहीं है। और इतना आसान नहीं है कि बैठे-बैठे जान लोगे। बड़ी मेहनत करनी पड़ती है।

आजन्म साधना करनी पड़ती है सिर्फ़ ये समझने के लिए कि मेरी बीमारी झूठी है। बात मज़ेदार है। जीवनभर अपना उपचार करना पड़ता है सिर्फ़ ये समझने के लिए कि बीमारी तो है ही नहीं।

मेहनत करनी पड़ती है। ऐसे नहीं कि दुकान में हैं, वहाँ काम भी नहीं करते, पढ़ाई-लिखाई पर भी बहुत ध्यान नहीं दिया। श्रम लगता है भाई। और उस श्रम में भजन-कीर्तन, सत्संग के अलावा भी बहुत कुछ आता है।

कोई ये न सोचे कि ये जो जीवन का कुरूक्षेत्र है, इसमें आप भजन-कीर्तन करके ही जीत ले जाएँगे या सत्संग करके या कुछ किताबें पढ़कर, नहीं-नहीं, नहीं-नहीं, नहीं।

जान का ज़ोर लगाना पड़ता है। वैचारिक, शारीरिक, हर तरह की मेहनत करनी पड़ती है। तमाम तरह के द्वंद्व से होकर गुजरना पड़ता है। एक-से-एक बड़ी बाधाओं को जीतना पड़ता है। आदमी का जन्म लिया है आपने। देवता भगवान नहीं हैं।

आदमी अभिशप्त होकर के पैदा होता है, तड़पने के लिए। उस तड़प के पार जाना हँसी-ठट्ठा नहीं होता। न ये होता है कि कातर होकर के बस दो-चार आँसू बहा दिये तो कोई अनुकम्पावश तुम्हारा उद्धार कर देगा। ऐसे कोई अनुकम्पावश तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता।

वो सब किस्से-कहानियों में होता रहा होगा, कि ऋषिवर जा रहे थे तभी एक आया और चरण पकड़ लिए बिलकुल कि बड़े दुख में हूँ, बड़ी मुसीबत में हूँ, कल्याण करें। उन्होंने कहा, ‘तथास्तु।’ और वो जो आया था पाँव पकड़ने, वो सहसा एक बलिष्ठ और सुन्दर राजकुमार बन गया।

ऐसा नहीं होता। कोई भी हो, गुरु हो, ऋषि हो, कोई हो, वो तुम्हें अधिक-से-अधिक कुछ बात बता सकता है, कुछ रास्ता दिखा सकता है। तुम्हें ही चलना है, तुम्हें ही मेहनत करनी है। कोई दिव्य चमत्कार नहीं होने वाले।

बात समझ में आ रही है?

अच्छा हुआ है तुम्हारे साथ कि कम उम्र में ही तुम्हें एक हूक उठ रही है, एक पीड़ा है तुममें। अब दोनों यहाँ से सम्भावनाएँ हैं। समझोगे नहीं इस पीड़ा को, सस्ता रास्ता लोगे रोने का और आलस का, तो ये पीड़ा तुमको खा जाएगी। ये ही तुम्हारी ज़िन्दगी बन जाएगी। ऐसे ही जीना, ऐसे ही मर जाना एक दिन।

और दूसरा रास्ता है फिर साधना का। और साधना पुराना शब्द है लेकिन उससे पुराने अर्थ मत ले लेना। जब मैं कहता हूँ साधना, तो मेरा मतलब ये नहीं है कि चार घंटे आसन लगाकर बैठे हैं। कोई पूछे, ‘साधना कर रहे हैं?’

नहीं, जब मैं कहता हूँ साधना तो मेरा मतलब होता है पसीना बहाओ, दुनिया में निकलो। तुम क्या हो ये जानने के लिए तुम्हें दुनिया को समझना भी पड़ेगा और दुनिया से जूझना भी पड़ेगा। संसार को जाने बिना और संसार से उलझे बिना और संसार के बँधनों को काटे बिना अहम् को न जानना सम्भव है, न मुक्ति देना सम्भव है।

संसार और अहम् एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो संसार से मुँह चुरा रहा है, वो अहम् को, माने स्वयं को भी क्या जानेगा? दुनिया को समझो, दुनिया को जानो। दुनिया के खेल से लड़कर के अपनी आज़ादी पाओ।

इसलिए पूछा मैंने क्या काम करते हो और उसमें कितना ध्यान है, कितना समय देते हो। और अगर बात को आगे बढ़ाता तो ये सब भी पूछता कि दिन तुम्हारा जाता किन चीजों में है, पढ़े-लिखे कितना हो और जहाँ पढ़े-लिखे वहाँ अंक कितने पाये थे। ये सब भी पूछता।

अध्यात्म ऐसे थोड़े ही है कि दुनिया में बिलकुल शून्य, कुछ जानते नहीं, कुछ समझते नहीं, कहीं लड़े नहीं, कुछ जीता नहीं, लेकिन आन्तरिक दुनिया में सिकन्दर हो जाएँगे। ऐसा नहीं होता है। अन्दर जीत सको इसके लिए बाहर लड़ पाने का भी माद्दा होना चाहिए। ठीक है? धीरे-धीरे आएँगी बातें समझ में। भावुकता से बचना। ध्यान पर ज़ोर रहे, भावों पर नहीं।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=cB7r0Ofo1w0

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