प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आपको सुनना शुरू करने से एक-दो महीने पहले मेरी शादी हो गयी थी। शादी तो हो गयी, अब समस्या यह है कि एक प्रकार से हम दोनों बिलकुल अलग-अलग ध्रुव हैं। लोग कहते है कि विपरीत ध्रुव एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं, असल ज़िंदगी में शायद ऐसा नहीं होता है।
मैं स्पिरिचुअली (अध्यात्म की ओर) थोड़ा झुका होता हूँ हमेशा, थोड़ा समझता हूँ भौतिकता को, बाज़ार को और उसके (पत्नी के) साथ क्या है कि वो बिलकुल ही उस तरफ़ है कि नहीं, सिर्फ़ अच्छा कपड़ा चाहिए, अच्छा खाना, अच्छी जगह घूमना, इत्यादि. इत्यादि। तो इस वजह से हमारे बीच में हमेशा क्लैश (संघर्ष) होता है।
और उसके साथ क्या है कि धार्मिक तो वो भी है, उनके लिए शायद धार्मिकता यही है कि गुरुवार को नाख़ून नहीं काटना या किस दिन शैम्पू नहीं करना। इस तरह की धार्मिकता उनके साथ होती है। तो इसमें भी हमारा क्लैश होता है। मैं कहता हूँ कि ऐसा क्यों ही है, तो इस पर बहुत सारे वाद-विवाद होते हैं आपस में। और फिर उन्हें उसके बाद ये लगता है कि मैं नॉर्मल (सामान्य) नहीं हूँ, वो नॉर्मल है।
तो मुझसे कहती है कभी-कभी कि नॉर्मल क्यों नहीं हो जाते तुम, नॉर्मल क्यों नहीं रहते हो। मुझसे कल से कह रही हैं कि शिविर में क्यों जाना है, मत जाओ, मत जाओ।
तो एक सवाल मेरा यह है कि इस क्लैश से कैसे हम बाहर निकलें या दूर हों।
मेरा दूसरा प्रश्न है कि अगर आत्मा का जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना ही लक्ष्य होता है, तो वो इसमें आती क्यों है और कैसे? क्यों फँसती है इसमें?
आचार्य प्रशांत: आत्मा किसी चक्र में नहीं फँसी हुई है। आत्मा स्वभावतः शुद्ध-बुद्ध मुक्त ही है, आत्मा नहीं कहीं फँस गयी। आत्मा कहीं नहीं फँसती। ये कहाँ से पढ़ आए कि आत्मा फँस जाती है?
प्र: लोग बोलते हैं न कि उसका लक्ष्य जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति है।
आचार्य: लोग माने किसको सुन आए? ये तो ऐसी बातें कर रहे हो जैसे घर में सुनकर आए हो। 'लोग बोलते हैं।' ये तुम नॉर्मल बातें कर रहे हो?
(श्रोतागण हँसते हैं)
आत्मा पर इतना बोला है, इतना बोला है, पर मैंने कभी बोला है कि आत्मा फँसी हुई है या आत्मा बंधन में है? आत्मा तो आत्मा है, उसे कौन बंधन में डालेगा? आप बंधन में हो क्योंकि आप आत्मा से दूर हो। आत्मा का तो नाम मुक्ति है। मुक्ति बंधन में कैसे हो सकती है?
आप अहंकार बने बैठे हो, आपको आत्मा से दूरी रखनी है, वो आपका चुनाव है। आत्मा को कोई समस्या नहीं है कहीं; आत्मा मस्त है। सारी समस्याएँ आपको हैं, क्योंकि आप 'आप' हैं, आत्मा नहीं हैं। जब आप 'आप' होते हैं और आत्मा नहीं होते तो आपका क्या नाम होता है? अहंकार। तो सारी समस्याएँ उसको होती हैं।
अहंकार कैसे फँस गया? उसकी मर्ज़ी! किसी ने साज़िश करके तो फँसाया नहीं है। मैं क्यों कह रहा हूँ कि उसकी मर्जी? क्योंकि चाहे तो आज मुक्त हो सकता है। अब चाहत अगर नहीं है तो आप जानो। किसी बाहर वाले ने तो आज्ञा नहीं दी है कि फँसे रहो, आज चाहो तो आज़ाद हो जाओ। क्यों नहीं आज़ाद होना? क्योंकि कुछ और है जो ज़्यादा प्यारा लगता है।
तो फिर यह मत पूछो न कि मैं क्यों फँसा हूँ, ये कहो, 'मैं फँसा हूँ ही नहीं’। वही तो हो रहा है आपके साथ जो आप चाह रहे हो। आपको मुक्ति से ज़्यादा कुछ और प्रिय है। जो आपको प्रिय है वो आपको मिल रहा है।
सबको पूरी छूट है, जो चाहोगे मिलेगा। आत्मा और मुक्ति चाहोगे तो वो मिल जाएँगे और बंधनों में ही बड़ा मज़ा आ रहा हो तो बंधन मिले रहेंगे। कोई ज़बरदस्ती आकर के गाँठें नहीं खोलने वाला। कोई नहीं कहने वाला, 'चलो, चलो ज़बरदस्ती मुक्त होओ।' आपको उम्र भर बंधन में रहना है तो रहे आइए, आपका चुनाव है।
इसी चुनाव को मिथ्या भी कहते हैं, भ्रम भी कहते हैं। उसकी क्या वजह है? क्योंकि जब आप बंधन चुनते हो तो ये सोचकर चुनते हो कि बंधन में ही सर्वोच्च आनंद है; ये आपकी धारणा मिथ्या है। इसलिए जो पूरी सांसारिक गति है, उसको मिथ्या कहा गया है। संसार को ही मिथ्या कहा गया है।
क्योंकि अहम् अपने लिए संसार चुनता ही यह सोचकर के है कि संसार में कुछ ऐसा मज़ा आ जाना है जो मुक्ति में नहीं मिलना है। आम आदमी को यही लगता है न कि दुनिया में कुछ ऐसा रसीला ज़ायका होगा जो त्याग में नहीं है। यह बात झूठी है, यह बात किसी भी प्रयोग या अनुभव से सिद्ध नहीं होती, इसलिए संसार को मिथ्या कहा गया है।
संसार को जब मिथ्या कहा जाए तो उसको ऐसे सुनिए कि सांसारिकता मिथ्या है। सांसारिकता का अर्थ है, संसार में वो खोजना जो दे पाने की सामर्थ्य संसार में है नहीं। वो मिथ्या है। आप वहाँ जो तलाश रहे हो, वो वहाँ है ही नहीं, तो नहीं मिलेगा। आपकी खोज व्यर्थ जाएगी। ठीक है?
आत्मा अपनी जगह है, आत्मा को कोई समस्या नहीं। सबकुछ ख़त्म हो जाएगा तो भी आत्मा को कोई समस्या नहीं रहेगी, सौ-पचास ब्रह्माण्ड और खड़े हो जाएँ तो भी आत्मा को कोई समस्या नहीं रहेगी। दुनिया में सब राज़ी-खुशी रहें, आत्मा तब भी अपनी जगह है; संपूर्ण प्रलय हो जाए तो भी आत्मा मस्त है। आत्मा का दुनिया के कारोबार से कोई सम्बन्ध नहीं। आपके सुख-दुख आपके लिए हैं, आत्मा के लिए नहीं। और आत्मा गंदी हो गयी, आत्मा परेशान हो गयी, आत्मा पर कर्मफल का प्रभाव पड़ गया — ये सब बातें व्यर्थ हैं। आपका कर्मफल आप भोगते हैं, आत्मा नहीं भोगती।
आत्मा तो अंतिम शुद्धतम बिंदु है जिस तक कोई अशुद्धि पहुँच ही नहीं सकती। आपकी सारी अशुद्धियाँ आपने अर्जित करी हैं, वो आपको प्रभावित करेंगी; आत्मा को थोड़े ही। आत्मा तो वहाँ बैठी है (ऊपर की ओर इंगित करते हुए)। चेतना की उच्चतम स्थिति को आत्मा कहते हैं। उस पर क्या किसी का प्रभाव पड़ेगा, वो तो उच्चतम है। ठीक है?
पहले प्रश्न पर मैं मौन ही रहूँ तो बेहतर है। क्या बोलूँ, मतलब?
प्र: कोई सलाह आपकी जिससे वो क्लैश कम हो।
आचार्य: मेरा काम क्लैश कम करना है ही नहीं। वो ठीक है कि ऑपोजिट पोल्स अट्रैक्ट (विपरीत ध्रुव आकर्षित करते हैं), लेकिन वो कहानी पूरी नहीं बताई न किसी ने आपको। दे अट्रैक्ट एंड देन दे डिस्ट्रॉय ईच अदर (वे एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं और फिर एक-दूसरे को नष्ट कर देते हैं।)
दो इलेक्ट्रॉन और दो प्रोटोन हों या एक इलेक्ट्रॉन है, एक प्रोटॉन है, वो निश्चित रूप से दूसरे की ओर खिंचेंगे। और खिंचकर फिर एक-दूसरे को क्या कर देंगे? ख़त्म कर देंगे। न वो बचेगा, न वो बचेगा, दोनों नष्ट हो गए। तो बताने वाले आपको हमेशा आधी कहानी बता देते हैं पिक्चरों में। आप वो आधी कहानी देखकर कूद पड़ते हो कि हम भी विपरीत को आकर्षित करेंगे — पूरी बात कोई बताता नहीं है।
भाई, एक इंसान होता है, छोड़ दो कि उसका लिंग क्या है कि एक स्त्री है, एक पुरुष है; एक इंसान है। कुछ सोच-समझकर उसकी संगत करोगे या बस यूँ ही?
तुम छोटी-छोटी बात पर तो सोशल मीडिया पर लोगों से भिड़ जाते हो न। किसी ने आपकी पोस्ट पर कॉमेंट कर दिया, एकदम चिढ़ जाओगे, फिर उसको रिप्लाई करने के लिए कई बार इधर-उधर जाकर के लिंक खोजोगे, “नहीं, मैं जो बात बोल रहा हूँ वही सही है, देखो यहाँ से साबित होती है।”
आप जिस व्यक्ति के साथ अब कह रहे हो कि मैं दिन में चौबीस घंटे गुजारूँगा और अगले कम-से-कम पाँच-दस साल गुजारूँगा; वो इंसान कैसा है, कुछ परखते भी हो क्या? या बस लिंग देखकर के मतवाले हो जाते हो?
यहाँ तो आप राहुल गाँधी के साथ लगे हो, कोई मोदी के साथ लगा है तो इस बात पर भी लड़ लेते हो, अनजानों से लड़ लेते हो। लड़ लेते हो कि नहीं लड़ लेते हो? ट्रेन में चल रहे हो, वहाँ पर कोई सामने बैठा हुआ है, उससे यूँ ही बिना बात के, उसका नाम भी नहीं जानते, उससे बहस कर लेते हो।
और जिस व्यक्ति को अपने घर ला रहे हो या जिसके साथ अब उसके घर में प्रवेश कर रहे हो, कभी तुमने देखा कि उसके खोपड़े में, उसकी धारणाएँ कैसी हैं, उसकी क्या मान्यताएँ हैं, उसकी अपनी क्या राजनीति है, उसका क्या अर्थशास्त्र है, उसका समाजशास्त्र क्या है? ये सब कभी चर्चा ही नहीं करते।
तब तो शादी से पहले बस एक-दो महीने की डेटिंग पर्याप्त होती है। उस डेटिंग में फिर क्या बातचीत होती है? आमने-सामने बैठे, दो मिनट बात की, फिर सहलाने लग गए एक-दूसरे को। उसमें तुम्हें क्या पता चलेगा कि वो व्यक्ति आंतरिक तौर पर कैसा है।
और जो सामने व्यक्ति है वो अपना लिंग मात्र तो नहीं है न। किसी व्यक्ति का जो जेंडर होता है, क्या वही उसकी केंद्रीय पहचान होती है? उसके पास सौ और चीज़ें हैं। फिर जब उसको घर लेकर आते तो पता चलता है इसके पास तो बहुत कुछ है।
तुम्हें कौनसी चीज़ देखनी है टीवी पर, वो कुछ और देखे जा रहा है। जिन चीज़ों से तुम ज़िंदगी में नफ़रत करते हो, वो उसको बहुत प्यारी हैं। फिर एक के बाद एक राज़ खुलते हैं, फिर कहते हो, “ये गड़बड़ हो गयी।”
लेकिन क्या करोगे, ये जो लिंग-बद्धता है, जेंडर फोकस , ये आँखों पर एकदम पर्दा डाल देता है। फिर बस ये दिखाई देता है कि सामने वाले की शक्ल-सूरत कैसी है, देह बढ़िया होनी चाहिए। देह का क्या करोगे, देह से तुम्हारा वास्ता दिन में पड़ेगा भी तो दस मिनट, आधा-एक घंटा; बाक़ी तेईस घंटे कैसे झेलोगे उसको?
और हर व्यक्ति एक पूरा पैकेज होता है। होता है कि नहीं? या वो सिर्फ़ अपना लिंग होता है? नहीं, वह पूरा पैकेज होता है। वो पूरा पैकेज हम कभी अच्छे से जाँच-परखकर देखते नहीं, कि देखते हो?
मैं तो प्रश्न ये कर रहा हूँ कि ये सारे राज़ शादी के बाद क्यों खुल रहे हैं, शादी से पहले क्या कर रहे थे? पहले पिक्चर देखते थे साथ में। अरे, पिक्चर मत देखो, उसको देखो; उसकी भी बहुत बड़ी पिक्चर है। ये पिक्चर फिर बाद में खुलेगी तो कहोगे कि ये तो फ्लॉप है।
(श्रोतागण हँसते हैं)
आप बहुत सफ़ाई-पसंद हो। जिसको ले आए हो उसका काम है कि कपड़े उतारे, एक उधर फेंक दिया, पंखे के ऊपर टाँग दिया, एक वहाँ फेंक दिया, कुछ कर दिया। शौचालय का प्रयोग किया तो वहाँ पर फ्लश नहीं करा। अब सोचो, आप अगर सफ़ाई-पसंद आदमी हो और किसी ऐसे को ले आए हो जो टट्टी-बाथरूम गंदा करके छोड़ देता है, तो जिओगे कैसे, बताओ? और ये बड़ी गहरी आदतें होती हैं, छूटती नहीं हैं। क्या बोलोगे उसको कि जा वापस जा, साफ़ करके आ? और ऐसा दो-चार बार बोल दिया तो फिर क्लैश और कलेश सब हो जाएगा।
पर ये जाँचने का मौक़ा विवाह से पहले मिलता ही नहीं कि फ़लाना व्यक्ति शौचालय का उपयोग करने के बाद ठीक से फ्लश करता है कि नहीं, यह तो जाँचा ही नहीं था। यह जाँचा करो, क्योंकि ये सब चीज़ें ही बड़ी महत्वपूर्ण हो जानी हैं।
कई-कई होते हैं वो चार-चार दिन कपड़े नहीं बदलते। फिर जब चौथे दिन बदलते हैं, समस्या उस दिन शुरू होती है।
"यह तो पूछा ही नहीं।"
(प्रश्नकर्ता समाधान की आशा में आचार्य जी की ओर देखते हैं)
मुझे नहीं पता।
ऐसी उम्मीद भरी निगाहों से मेरी ओर क्या देख रहे हो! मैं नहीं जानता। जो रास्ता लिया नहीं, हम तो यही बता सकते हैं कि उससे बचना कैसे है। उस पर चलना कैसे हैं, ये कैसे बताएँ? ये तुम जानो। हम तो दूर से देखेंगे; मज़े और लेंगे (सामूहिक हँसी)।
कुछ नहीं, क्या है अब; कोशिश करो अब तो उम्र भर। थोड़ा-थोड़ा कुछ प्रगति होती रहेगी। ऐसा नहीं कि कुछ भी नहीं हो सकता। यात्रा भले ही हज़ार मील की हो, पर इस जन्म में तुम कम-से-कम दो-चार कदम तो आगे बढ़ सकते हो न। तो उतना आगे बढ़ो, उससे ज़्यादा वैसे भी नहीं बढ़ पाओगे।
तुम किसी को आगे को बढ़ा रहे हो, वो तुमको पीछे को खींच रहा है, तो उसमें दो-चार कदम से ज़्यादा की प्रगति तो वैसे भी नहीं हो सकती। तुम उतनी ही कर लो, उससे अपनेआप को संतोष दे लेना कि कुछ किया।
पहले नहीं पता था, नाख़ून किस दिन कट रहे हैं या सिर्फ़ जुल्फ़े ही निहारते थे? ये नहीं पूछते थे, “शैम्पू तू सिर्फ़ एक ही दिन क्यों करती है?” वो भी पूछ लेते कि यह क्या चक्कर है। ”हफ़्ते भर बाल गंधाते हैं, एक दिन खुशबू आती है, यह क्या है? सिर्फ़ शुक्रवार को शैम्पू होता है?”
अब तो वही है कि फिर पति से ज़्यादा अपनेआप को अगर अध्यापक मान सकते हो तो मानो, प्रयास करो, समझाओ, अच्छी किताबें दो पढ़ने को। जो कुछ भी होता है आंतरिक विकास में सहायक, वो सामने ले जाकर रखो, प्रेरित करो। धीरे-धीरे बात आगे बढ़ेगी।
हाँ, उसका लाभ यह होगा कि दूसरों को सिखाने की चेष्टा में तुम्हारा अपना विकास और गहरा जाएगा। ये फ़ायदा हो जाएगा।