प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। सवाल एक व्यक्तिगत स्थिति से आता है। जब आपके वीडियो देखने मैंने शुरू किये और जब मुझे समझ में आया कि वीडियो से मुझे कोई लाभ हो रहा, तो मैंने अपनी पत्नी को भी वो वीडियो देखने के लिए कहा। तो उन्होंने आपके दो-चार या कुछ वीडियोस तो देखें, उसके बाद उन्होंने वो आगे देखना बन्द कर दिया, तो मैंने उनसे कारण पूछा।
तो उनका कहना था कि आचार्य जी की बातें मरने की याद दिलाती हैं। और उनका कहना था कि एक फ़िल्मी दृश्य उभरता है आपकी बातें सुनकर उनके मन में कि कोई मर गया है और वो जो माला लगाकर लोग बैठे हैं और उस तरह का एक माहौल जो क्रिएट होता है। तो मुझे ये अच्छा नहीं लगता है, इसलिए मैंने उन्हें सुनना बन्द कर दिया। ऐसी कुछ बातें एक-दो कलीग थे, उनके साथ जो डिस्कशन हुआ, उसमें भी सामने आया।
तो आचार्य जी, मैं ये समझना चाहता हूँ कि ऐसा कैसे हो जाता है कि लोग दवा को सिर्फ़ इसलिए लेने से मना कर देते हैं क्योंकि वो दवा बीमारी की याद दिलाती है?
आचार्य प्रशांत: वेदान्त का प्रश्न क्या होता है मूल? 'किसको?' 'किसके लिए?' निश्चित रूप से मैं जो बोल रहा हूँ वो मौत है, पर किसकी?
श्रोतागण: अहम् की।
आचार्य: तो क्या दिक्क़त है? आप जाते हो, पेट में कुछ गाँठ पड़ गयी है, ट्यूमर हो गया है। वो भी एक ज़िन्दा इकाई ही होती है न? वो आपकी ही ऊर्जा और आपके ही ख़ून पर पल रहा होता है आपके भीतर, है न? और आपके उपचार का एक ही मतलब होता है उस जीवित इकाई का क़त्ल। सर्जरी के बाद आपको होश आता है तो हो सकता है कि आपको दिखा भी दिया जाए कि ये देखो पेट से इतना बड़ा निकला है। वो मर गया बेचारा! माला पहना दी। ज़िन्दा था, पेट में था, क्या बिगाड़ा था? उसे हक़ नहीं जीने का? मार दिया!
मारा तो जा रहा है, पर किसको? आप कौन हैं? किससे आपका नाता है? आपका नाता स्वयं से है या ट्यूमर से है? जब तक निर्धारित नहीं होगा आप हैं कौन, आपको ये भी नहीं पता होगा कि शोक किसके लिए करना है। निश्चित रूप से अध्यात्म मृत्यु देता है, पर उसको देता है जो आप हैं नहीं। उसके लिए क्यों शोक करना?
जो आप हैं उसको तो जीवन ही मिलता है अध्यात्म से। और जिसको मृत्यु मिल रही है, उसके लिए आप यदि शोक कर रहे हैं तो बहुत ख़तरनाक बात है। इससे ये पता चल रहा है कि आप उससे जुड़े हुए हैं जो जी सकता ही नहीं। क्योंकि बात मेरी नहीं है, जो मरणधर्मा है, मैं होऊँ चाहे न होऊँ, वो तो मरेगा न? मैं बस आकर के याद दिला देता हूँ कि इस चीज़ की वास्तविक प्रकृति क्या है। मैं तो याद ही दिला रहा हूँ, मैं उसे मार नहीं रहा। मैं आपको बता रहा हूँ। मैं आपको न भी बताऊँ तो वो मरेगा नहीं? अहंकार का तो मतलब ही है 'प्रति पल मृत्यु'। मैं बस बता रहा हूँ। यहाँ कोई घड़ी नहीं लगी हुई है, तो समय नहीं बीत रहा क्या? कोई नहीं है आपको बताने वाला कि अभी समय बीत रहा है। तो क्या समय बीत नहीं रहा?
तो ये बात बिलकुल ठीक है कि आप दो हैं, जिसमें से एक बिलकुल मौत ही है, मरा हुआ ही है। मरा हुआ माने अचेतन। जिसमें चेतना नहीं है उसे ही तो मृत बोलते हो न? मुर्दे की क्या पहचान होती है? कैसे जानते हो कोई मुर्दा है? उसमें चेतना नहीं होती है। अहंकार वही है, उसके पास कोई चेतना नहीं है। वो बस बनता है जैसे जीवित हो, वो है मृत। क्या प्रमाण है कि वो मृत है? और कैसे पता चेतना नहीं है? मुर्दे का हाथ ऐसे उठा दो उठ जाता है, गिरा दो गिर जाता है। उसका अपना कुछ नहीं है न। बाहर वाले किसी ने हाथ उठा दिया तो उठ जाएगा।
अहंकार भी ऐसे ही होता है, उसका अपना कुछ नहीं होता। वो विवशता में जीता है, वो बाहरी ताक़तों के नियन्त्रण में जीता है, उसका अपना कुछ होता ही नहीं। इसलिए तो वो कभी ये नहीं बोल पाता कि 'मैं हूँ।' वो हमेशा कुछ नाम लेकर बोलता है, किसी से जुड़कर बोलता है। क्या बोलता है? 'मैं अच्छा हूँ, मैं अमीर हूँ, मैं रघु हूँ, मैं हिन्दू हूँ, मैं सम्माननीय हूँ, मैं शिक्षित हूँ।' ये मुर्दा होने की निशानी है। उसे कोई बाहर वाला लगातार चाहिए, क्योंकि बाहर वाला अगर नहीं है तो उसका अपना कोई वजूद ही नहीं है।
तो हम मार भी नहीं रहे, हम तो बस मुर्दे को मुर्दा बता रहे हैं। कोई गुनाह हो गया? और हम कर क्या रहे हैं? मुर्दे को ज़िन्दा मानने के फेर में जो वास्तविक जीवन है उससे हम चूक जाते हैं। जिसमें कोई जान है नहीं, उसको हमने घोषित कर रखा है कि ये ज़िन्दा है और इसके साथ जीना ही जीवन है। इन चक्करों में ज़िन्दगी से हम वंचित रहे आ रहे हैं। ये कोई बुद्धिमानी की बात है क्या?
अध्यात्म पूरा है ही यही आपको सिखाने-समझाने के लिए कि जिसको आप जीवन मानते हैं उसमें जीवन जैसा कुछ नहीं है, वो पूरी तरह मृत है। आध्यात्मिक प्रगति का, साधना का अर्थ ही होता है — मरे को मार देना। फिर बात थोड़ी हिंसक लग गयी, 'मार देना', ठीक है, 'मुर्दे को मुर्दा घोषित कर देना।' जैसे कि अस्पताल में लाया जाता है न कई बार, तो उसको बोलते है 'ब्रॉट डेड!' (मृत लाया गया) उन्होंने मारा थोड़े ही है, उन्होंने बस घोषित कर दिया, ‘ये तो पहले से मुर्दा था, ब्रॉट डेड।'
एक बार आप मरे को मरा जान लेते हो, फिर जीवन शुरू हो जाता है।
ये पिछले कुछ दिनों में तीसरी-चौथी बार है कि सुसंयोग बना है कि मैं कबीर साहब की वो साखी फिर दोहराऊँ। कौनसी?
जिस मरने से जग डरे, मेरो मन आनन्द। कब मरिहों, कब भेटिहों, पूरण परमानन्द।।
∼ कबीर साहब
कि दुनिया पागल है, मरे हुए को ज़िन्दा जानती है। और मेरा मन आनन्दित होता है मरे को मरा जान लेने में। क्यों? जब मरे को मरा जान लेते हो तो फिर जीवन से भेंट होती है। “कब मरिहों, कब भेटिहों।" मरे को मरा जान लो, तो जो जीवित है उससे भेंट हो जाती है, "पूर्ण परमानन्द।" फिर पूर्ण परमानन्द है। हमारा जो जीवन है, उसमें आनन्द है कहीं पर? नहीं है आनन्द, क्योंकि मृत्यु में आनन्द कैसा! मृत्यु में तो बस जड़ता हो सकती है और शोक हो सकता है, इसीलिए हमारा जीवन आनन्द से वंचित रहता है।
सन्तों ने सिखाया है, 'क्यों मरे हुए को आभूषित करते हो? जो है ही नहीं, क्यों उससे इतना जुड़ाव रखते हो? कह दो वो नहीं है, फिर जीवन शुरू होता है।' उसी को जीवनमुक्त भी कहा गया है। जीवनमुक्ति का अर्थ ही यही है — जिसको जीवन जानते थे उसको मृत्यु जान लिया। ये जीवन है ही नहीं, ये मौत है जो साँसे लेती रहती है। “जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्राण।" प्राण नहीं है, साँसे चल रही हैं। जीवन हमारा ऐसा होता है। तो हम ऐसे जीवन को समाप्त करते हैं। कहा, 'इतिश्री, ख़त्म!'
अथ से लेकर इति तक, जो पूरी गति है जीवन की, वो एक मुर्दा गति है। वो गति ऐसे ही है जैसे पीला टूटा पत्ता हवाओं में गति कर रहा हो, वैसे ही हम गति करते हैं। बस हमें भ्रम ये रहता है कि हम स्वयं कर रहे हैं, चैतन्य होकर के, अपने संकल्प से गति कर रहे हैं। हम अपने संकल्प से नहीं गति कर रहे होते। हम पीले पत्ते की तरह होते हैं, हमें उड़ा रहे हैं, हम इधर-उधर जा रहे हैं। पत्ते को देखकर कभी कहते हो, ‘देखो, पत्ता उड़ रहा है’, कहते हो क्या? ऐसा कहते हो क्या कि पत्ते ने चुना है उड़ना, अब पत्ता आया है? नहीं, वो तो आप ऐसे कहते हो, ‘जैसे धूल उड़ रही है, वैसे पत्ता उड़ रहा है। जान थोड़े ही है उसमें।'
हम भी पत्तों जैसे हैं। जिधर को हवाएँ हमें ले जाती हैं, उधर को चल देते हैं। और तुर्रा ये कि दावा ठोकते हैं कि हम स्वयं आये हैं। हम आये नहीं हैं, हम लाये गए हैं हवाओं द्वारा। हम मृत हैं ही। मुर्दे को पलटा दो, उधर पलट जाएगा न? हमें भी पलट दिया तो हम भी पलट जाते हैं। हमारे पास किसी तरह की निजता है क्या? स्थितियों का हम कितना सामना कर पाते हैं? हम पूरी तरह से स्थितियों के ही पुतले हैं न? दूसरे के हाथ की कठपुतली हैं न? यही तो मृत्यु की निशानी होती है।
संयोगों ने हमें जन्म दे दिया, संयोग ही हमें मृत्यु दे देंगे। संयोग से किसी दिन कोई सामने पड़ गया था, हमने कह दिया प्रेम हो गया। संयोग से हमारे बच्चे हो जाते हैं, संयोग से किसी कॉलेज में एडमिशन हो गया। संयोग से आप किसी धर्म में पैदा हो गये, और फिर जीवनभर शोर मचा रहे हो, ‘मैं तो फ़लाने धर्म का मानने वाला हूँ।’ आपने चुना था उस धर्म में पैदा होना? संयोग से एक देश में पैदा हो गये, तो जीवनभर बोलोगे, 'मुझे तो क्रिकेट बहुत पसन्द है, क्रिकेट बहुत पसन्द है।' कहीं और पैदा हुए होते तो क्रिकेट पसन्द होता क्या?
सबकुछ पीले पत्ते जैसा ही तो है। जिधर को हवाएँ चलीं, उधर को चल गये। हाँ, साथ-ही-साथ घोषणा करते गये, ‘मैं कर रहा हूँ, मैं कर रहा हूँ।’ आप क्या कर रहे हैं? क्या कर रहे हैं?
कृष्ण गीता में अभी कह रहे थे न, कुछ श्लोक पहले, ‘तुम तो अपने सब कर्मों में, अर्जुन, अकर्म ही देखो। तुम अभी पैदा ही नहीं हुए, तुम कुछ करोगे कैसे? पैदा तो व्यक्ति मृत्यु के बाद होता है। और जो मृत्यु से घबराता है, उसको सज़ा ये मिलेगी कि वो कभी पैदा ही नहीं हो पाएगा। अर्जुन, अभी तुम पैदा ही नहीं हुए। अभी तो प्रकृति तुमसे सारा काम करवा रही है, तुम कुछ नहीं कर रहे। करने वाला तो मैं हूँ। और जो मेरे जैसा हो जाएगा, सिर्फ़ वही अपनेआप को कर्ता बोल सकता है।'
जो कृष्ण सरीखा हो गया, सिर्फ़ वही कह सकता है कि मैं कर्ता हूँ। बाक़ी सब करते नहीं हैं, बाक़ी सबसे हो जाता है, जैसे डकार आ गयी। है कोई जो डकार तय करके मारता हो? वैसे ही तुम्हारा पूरा जीवन ही एक बहुत बड़ी डकार है। हो गया। छींक की तरह, ‘आ छी!’
‘ये क्या हुआ है?’ ‘ये बच्चा पैदा हुआ है। चाहा नहीं था, हो गया।’
और फिर कहेंगे, ‘देखो, हम महान हैं, हमने जन्म दिया।' आपका अपना तो जन्म अभी हुआ नहीं, बच्चों को कैसे जन्म दे दोगे? समझ में आ रही है बात?
“जैसे खाल लुहार की।” बस खाल है, वो उसमें से हवा फेंकता है ऐसे दबा-दबाकर (हाथ से लुहार के खाल से हवा फेंकने का संकेत करते हुए)। खाल ऐसे-ऐसे होती है, जैसे फेफड़े साँस ले रहे हों। उसमें जान नहीं है लेकिन। हवा अन्दर-बाहर हो रही है, जान नहीं है। जैसे आदमी मुर्दा पड़ा है वेंटीलेटर पर। मर चुका है, वेंटीलेटर पर पड़ा है। चल रहे हैं फेफड़े अभी भी, जान नहीं है। हम सब वेंटिलेटर वासी हैं। शारीरिक क्रियाएँ सारी हो रही हैं। वेंटिलेटर प्रकृति है, वो शारीरिक क्रियाएँ स्वयं करा देता है। आप एकदम ही जड़ आदमी हों, आपको ज़िन्दगी का कुछ न पता हो, तो भी भूख लगती ही है। लो, हो गयी शारीरिक क्रिया।
एकदम बुद्धू आदमी, पागल हो, महा पागल हो, तो भी उसकी शारीरिक क्रिया चलती रहती है न? ऐसा थोड़े ही है कि पागल आदमी है तो साँस नहीं लेगा या पागल आदमी है तो खाना नहीं खाएगा, शौच नहीं जाएगा। सब तो उसका चलता ही रहता है, पागल हो तो भी। वैसे ही हम हैं। मृत्यु का अर्थ होता है ये जो जड़ता चल रही है, जो संयोगिकता चल रही है, ये जो यन्त्रवत चल रहा जीवन है, इसको विराम दो, इसको मृत्यु दो। उसको मृत्यु ही नहीं कहा गया, उसको महामृत्यु कहा गया है।
नाथ परम्परा के प्रणेता थे गोरखनाथ।
"मरो हे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा। ऐसी मरनी मरौ, जित मरनी गोरख मर जिठा।।"
∼ गुरु गोरखनाथ
वो तब से यही सीखा रहे हैं। बोले, ‘मरो, मरने से ज़्यादा कुछ मीठा नहीं हो सकता।’ पर कौनसी मौत की बात हो रही है? साधारण मृत्यु को तो मृत्यु कहेंगे। वो जिस मृत्यु की बात करते है वो महामृत्यु है। वो मरनी मरो, ऐसी मरनी मरो जैसी मरनी मरकर गोरख ज़िन्दा हो गया। ये सब लोग जो अपनेआप को ज़िन्दा बोलते हैं, चलते-फिरते मुर्दे हैं। लाशें चल रही हैं इधर-उधर। इन्हें काहे को ज़िन्दा बोलना!
दुनिया की आबादी क्या है? आठ सौ करोड़ लाशों की आबादी। तभी तो उसको सन्तों ने कहा है कि बहुत बड़ा श्मशान। वो ऐसे ही था अपरिचित यात्री। उसको घाट है और थोड़े ही कुछ है! “साधो रे, मुर्दों का गाँव।” ये आठ सौ करोड़ का श्मशान। वो ऐसे ही था अपरिचित यात्री। उसको है। मुर्दों का गाँव है यह, मुर्दे घूम रहे हैं इधर-उधर।
एक अपरिचित ने उनसे पूछा, बैठे हुए थे पेड़ के नीचे, ‘बस्ती कहाँ है?' तो उधर था श्मशान। वो ऐसे ही था अपरिचित यात्री। उसको उन्होंने बताया, (श्मशान की तरफ संकेत करते हुए) उधर चला गया। वहाँ से लौटकर आया। बोलता है गुस्से में, ‘कहाँ भेज दिया मुर्दाघर में! हमने पूछा था बस्ती कहाँ है।’ बोले, ‘जितने बसते हैं, वहीं जाकर बसते हैं। इधर तो उजड़ती है, बस्ती सिर्फ़ उधर है। इधर तो जितने भी घर हैं उनको सिर्फ़ उजड़ते देखा है। बसे तो जितने हैं वो वहीं जाकर बसे हैं। वहाँ एक बार जो बस गया वो फिर वहाँ से नहीं हटता। तो बस्ती तो वही है, इधर उजड़ती है।' बोला, ‘किससे पूछ लिया?’ उसने फिर अनसब्सक्राइब कर दिया होगा।
समझ में आ रही है बात?
जीवित को नहीं मारा जा रहा है, मुर्दे को मुर्दा जाना जा रहा है। इसको क़त्ल कहें? बोलिए। हत्या है ये? तो फिर तो जितने डॉक्टर घोषित करते हैं कि फ़लाने की मृत्यु हो गयी, सब हत्यारे हैं। कहे, ‘तूने ही तो मारा है। हमें पहले उम्मीद थी कि ज़िन्दा है। तेरे पास लेकर आये, तूने बोला ये तो मर चुका है। तो तू ही हत्यारा है।' मान लें? चिकित्सक को हत्यारा मानकर आपको क्या मिलने वाला है? दे दीजिए चिकित्सक को सज़ा और हमारा इतिहास यही रहा है। सब चिकित्सकों को हमने सज़ा ही दी है, क्योंकि वही हैं जो सबसे पहले बताते हैं कि बेटा, ये तो मर चुका है। काहे बाँधे घूम रहे हो? जैसे बंदरिया, छोटा उसका मर भी जाता है तो उसको बाँधे-बाँधे घूमती है कुछ समय तक।
हम ज़िन्दा नहीं हैं। स्वागत है! साधो रे, ये मुर्दों का गाँव है, यहाँ कोई ज़िन्दा नहीं है। ज़िन्दा होना बड़े संकल्प, बड़े सौभाग्य की बात होती है। लाखों पैदा होते हैं तब कोई एक ज़िन्दा हो पाता है। बाक़ियों की यात्रा मृत्यु से मृत्यु तक की होती है। और मृत्यु से मृत्यु की यात्रा में यदि बीच में महामृत्यु को प्राप्त हो जाओ, तो जीवित हो जाओगे, अमर हो जाओगे। जीवित मात्र नहीं, अमर हो जाओगे। जो मर गया वो अमर हो जाता है। जो अपनेआप को ज़िन्दा ही समझता रहता है, वो कभी एक साँस भी जीवन की ले नहीं पाता।
अब समझ में आ रहा है आदमी को मौत से इतना ख़ौफ़ क्यों होता है? क्योंकि वो मरा हुआ है। जो ज़िन्दा हैं उन्हें मौत आ नहीं सकती। वो सिर्फ़ ज़िन्दा नहीं हैं, वो अमर हैं। वो मौत प्रूफ हैं। तो उन्हें मरने से डर नहीं लगता है फिर। वो शारीरिक मृत्यु को गले लगाने को भी तैयार हो जाते हैं, कहते हैं, ‘आओ, क्या हो गया? कुछ नहीं।' और जो मरे हुए हैं, उन्हें मरने से बड़ा डर लगता है। मुर्दा डर रहा है, कहीं मौत न आ जाए! बड़ी दहशत में हैं। क्या? 'कुछ हो न जाए कहीं!' ‘देख भाई, ये जो खाल है, ये बहुत हमने सम्भालकर, सँजोकर रखी थी, प्यार से आग लगाना, कहीं जल न जाए!'
प्र: आचार्य जी, ये जो बात है कि हम ज़िन्दा माने बैठे हैं और तब डर रहे हैं। लेकिन इसमें जब हम बात करते हैं तो तर्क ये आता है, वो यही कहते हैं कि हाँ, हमें पता है कि मरना है। ऐसा नहीं है कि हमें पता नहीं।
आचार्य: मरना है नहीं, मरे हुए हैं। ‘मरना है’ में तो ये भाव आ गया कि?
प्र: मरेंगे।
आचार्य: समझ ही नहीं रहे, मुर्दा तर्क दे रहे हैं आप।
प्र: धन्यवाद, आचार्य जी।
आचार्य: हम मरे हुए हैं। जीवित वो होता है जिसके पास स्वतन्त्र चुनाव की शक्ति हो। उसको हम कहेंगे कि ये मुर्दा नहीं है। जड़ और चेतन का अन्तर याद रखिए न सदा! सबकुछ यदि भयवश चल रहा है, लोभवश चल रहा है, देहवश चल रहा है, तो आप कहाँ ज़िन्दा है! मुर्दे को भी पेड़ से नीचे छोड़ दो तो गिर पड़ेगा न? तो उसने यात्रा करी है? ‘महाराज यात्रा करके आये हैं, खिलाओ-पिलाओ, थक गये होंगे।’ वैसी हमारी सारी यात्राएँ होती हैं। किसी के आकर्षण में किधर को चल दिये और गुरुत्वाकर्षण में पेड़ से नीचे गिर गये, इनमें कोई अन्तर है?
और आप आज तक किधर को भी चले हैं बिना किसी के आकर्षण के? जिधर को भी गये हैं, कुछ लालच रहा होगा, तभी तो गये हैं न? किसी ने खींच लिया, उधर को चल दिये। एक क़दम भी कभी किधर को बढ़ाया है बिना लालच के, स्वार्थ के? आकर्षणों ने खींचा। किसी फील्ड में थे, उसने खींच लिया, चल दिये। मुर्दा भी ऐसे आप छठी मंज़िल से छोड़ दीजिए, तो नीचे को यात्रा करेगा। हमारी यात्रा और मुर्दे की यात्रा में अन्तर क्या है, बताइए न।
मुर्दा ज़्यादा ईमानदार है। वो दावा नहीं करेगा कि मैंने यात्रा करी, वो बस गिर पड़ेगा, भद से। हम पहुँचेंगे, कहेंगे, 'अरे, मैं तो यात्रा करके आया पहुँचा हूँ।'
प्र: आचार्य जी, इसमें एक और पहलू था कि जैसे ये बात है कि हमें पता है, लेकिन उस पर पर्दा डाले-डाले मैं जिये जाता हूँ।
आचार्य: नहीं, जिये नहीं जाता। अभी भी, पीछे से ही सही, लेकिन दावा यही बरकरार रखना है कि ‘ज़िन्दा हूँ।’
प्र: धन्यवाद आचार्य जी। (सभी हँसते हैं)
आचार्य: कॉलेज में थे। तो ऐसे ही एक था, वो तुकबन्दी किया करता था। तो उसने कुछ ऐसा सा लिखा था अपने और अपनी गर्लफ्रेंड को लेकर के। अब ठीक से याद नहीं आ रहा है, अलूफ और रूफ करके था तो बता देता हूँ। ‘आवर रिलेशनशिप मेक सो मच नॉइस, दो वी बोथ आर सो अलूफ।’ लड़ाई बहुत होती थी उसकी गर्लफ्रेंड से, आवाज़ें, चीख-चिल्लाहट ये सब चलता था। ‘आवर रिलेशनशिप मेक सो मच नॉइस, दो वी बोथ आर सो अलूफ। लाइक टू स्केलेटन मेकिंग लव, ऑन हॉट टिन रूफ। अ हॉट टिन रूफ।' (हमारा सम्बन्ध इतना शोर करता है – यद्यपि हम दोनों अकेले हैं – जैसे कि दो अस्थिपंजर टिन के छत पर प्यार कर रहे हों)।
तो शोर होगा न बहुत सारा? लाइक टू स्केलेटन मेकिंग लव, ऑन हॉट टिन रूफ। हमारी रिलेशनशिप उतनी ही नॉइज़ पैदा करती हैं। दो मुर्दे हैं और गरमा-गरम टिन की चद्दर के ऊपर उनका कार्यक्रम चल रहा है और शोर मच रहा है। और चूँकि शोर मच रहा है इसीलिए दोनों को भ्रम हो गया है कि हम ज़िन्दा हैं।
प्र२: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न मृत्यु से सम्बन्धित ही है। हाल ही में आपने लल्लनटॉप पर एक इंटरव्यू दिया था। उसमें एक महिला जो अपने क़रीबी व्यक्ति को खो चुकी थी, तो वो भावुक हो गयी थी। तो आपने उसे बताया कि ठीक है, ये तो चलता ही रहता है। कोई आज, कोई कल, कोई बीस साल पहले, कोई दस साल बाद। इसको हम रोक नहीं सकते हैं। लेकिन ये जो हमारे क़रीबी व्यक्ति जाते रहते हैं, वो आपको समझने के लिए कठिन होगा, लेकिन आप ऐसा समझ लो कि ये आपके लिए कुछ उपहार देकर जा रहे हैं। ऐसा उपहार कि जैसे मृत्यु को हम हमेशा याद रख सकें।
मैं व्यक्तिगत तौर पर अपनेआप को देखता हूँ तो आपने जैसा बताया वैसा ही हुआ है। बस एक मुर्दा लाश की तरह मैं जी रहा हूँ। असल में मैं जिया ही नहीं हूँ अभी तक।
उसकी वजह ये है कि बचपन में मैं जब एक साल का था, तब मेरा एक बड़ा भाई था ग्यारह साल का, उसकी दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। एक साल का था मुझे कुछ याद नहीं है तब का। माँ सिर्फ़ बताती है कि मैं बहुत उसके साथ ही रहता था, खेलने जाता तो भी साथ ही रहता था। तब जब हम नुक्क्ड़ पर रहते थे, स्कूल का रास्ता वही था। तो स्कूल छूटने के बाद मैं रेंगते-रेंगते दरवाज़े तक आता था। स्कूल का हर एक बच्चा, आख़िरी बच्चा जाते तक मैं उसको ढूँढते रहता था। बात बोल तो नहीं सकता था, एक साल का था, बात तो नहीं कर सकता था। लेकिन ये बातें माँ कुछ बताती है मुझे।
उस वक़्त क्या सदमा पहुँचा मेरे दिमाग पर ये तो नहीं जानता। लेकिन अब ये कुछ कम था। तो जब मैं सात साल का था, मेरा दूसरा भाई सोलह साल का था, उसकी भी दुर्घटना में ही मृत्यु हो गया, रेलवे एक्सीडेंट में। उसकी जब मृत्यु हो गयी, मुझे कुछ धुँधला सा याद है। जैसे कि ट्रेन एक्सीडेंट में पोस्टमार्टम होता है। तो जब उसे लाया गया था तो उसके स्टीच किये हुए टाके थे, वो मुझे दिखते थे। वो अभी भी मेरे नज़र के सामने से जा नहीं रहे। और उस वक़्त की कुछ ऐसी चीज़ें है कि जैसे उसकी अस्थि लेकर चले गये, तो जो पैसे वगैरह उछालते हैं न तो वो मुझे अभी भी याद है कि पैसे उठाकर बिस्कुट खा लिया था हमने।
तो इससे मैं कैसे निकलूँ? और अपनी आगे की यात्रा मैं कैसे सुलभ कर पाऊँ कि वो ठीक है यार, वो तो हो गया, अभी वो थोड़े ही बार-बार होने वाला है। क्योंकि अभी ऐसा होता है कि पूरे जीवन में हमेशा डर बैठा रहता है कि मेरा कोई भी चला जाएगा, मेरा वो चला जाएगा। यहाँ तक कि आपका भी ख़याल आ गया कि ‘अरे, आचार्य जी अभी हमें सब देते हैं। अचानक आचार्य जी ऐसा कुछ हो गया तो क्या होगा?’ ऐसी मनगढ़न्त कहानियाँ मेरे दिमाग में चलती रहती हैं। तो कृपया उस पर मार्गदर्शन करें।
आचार्य: जो चीज़ होनी है, उसको सम्भावित नहीं मानते, उसको निश्चित मानते हैं न। ये सम्भावित नहीं है, इसको निश्चित जानिए। ऐसा थोड़े ही है कि कुछ सम्भावना है कि ऐसा हो सकता है और कुछ सम्भावना है कि ऐसा नहीं हो सकता है। ये मत कहिए कि चला जाएगा, ये कहिए, 'निश्चित है कि जा रहा है।' बस ज्ञान इतना नहीं है हमारा कि प्रकृति के संयोगों को पढ़ पाये और बता पाये कि किस तिथि को जा रहा है। तिथि के अतिरिक्त तो सबकुछ बिलकुल सुनिश्चित है न?
कष्ट आपको उम्मीद देती है। उम्मीद को त्याग दीजिए। कह दीजिए, ‘हाँ, जा रहा है। जा रहा है, बिलकुल जा रहा है।' अपनेआप को वहीं पर खड़ा कर लीजिए जहाँ वो जा ही रहा है। जिस तिथि का कुछ पता नहीं, उस अनाम तिथि पर जाकर खड़े हो जाइए। ‘हाँ, वो जा ही रहा है।' और अब कहिए, ‘इसमें अब कोई अनिश्चितता नहीं बची कि वो जा रहा है। अनिश्चित अब एक दूसरी चीज़ है। उसके जाने से पहले कुछ समय मिला हुआ है, उसका क्या करना है। वो अभी अनिश्चित है।' उसको तय करिए।
हम क्या करते हैं कि जो समय मिला हुआ है, जब तक शारीरिक मृत्यु नहीं हो गयी, उसको तो व्यर्थ बर्बाद करते रहते हैं। और जो भी आपके प्रियजन हैं, स्वजन हैं, उनकी विदाई को लेकर के अपनेआप को सान्त्वना दिये रहते हैं कि अरे, क्या पता, न ही जाए! क्या पता अभी दो साल न जाए, चार साल न जाए, पाँच साल न जाए। इस झूठी सान्त्वना के चलते जो आपको एक अवसर मिला हुआ है जीवन का, समय का, वो अवसर बर्बाद हो जाता है। मृत्यु को हमें सम्भावना नहीं जानना है। यदि शरीर से सम्बन्धित है हमारा जीवन, तो मृत्यु उसका यथार्थ है।
ऐसे देखा करिए, 'अच्छा, जान तो सकते नहीं, लगभग कितना होंगे, पाँच साल होंगे, चलो मान लिया पाँच साल। अब बस पाँच ही साल दीजिए अपनेआप को। अब इन पाँच साल का करना क्या है?' ये प्रश्न बचा ही नहीं की मृत्यु होगी या नहीं। मृत्यु हो गयी है, पाँचवें साल में मृत्यु तय है। अब प्रश्न बदल गया। प्रश्न दूसरा क्या हो गया है अब? ‘अब ये पाँच साल का करना क्या है?’ अब जीवन बिलकुल मज़ेदार हो जाता है, क्योंकि अब डर नहीं बचा।
डर एक धमकी होता है। डर क्या करता है? हाथ मरोड़ता है, धमकियाँ देता है। धमकी क्या बोल रही है? मर जाएगा, कुछ छिन जाएगा, अनिष्ट होगा। आपने उस धमकी को बेअसर कर दिया। कैसे? आपने कहा, 'हो जाएगा नहीं, हो गया।' तो अब वो प्रश्न आपके लिए प्रासंगिक बचा ही नहीं। आप कह रहे हैं, मौत वाली बात अब सेटल हो गयी।
प्र२: मैं मेरे वैयक्तिक मृत्यु के बारे में तो नहीं डरता हूँ ज़्यादा, लेकिन जिनसे मेरा स्नेह लगा हुआ है, उनके लिए मुझे डर रहता है।
आचार्य: उन्हीं की बात कर रहा हूँ, उन्हीं की बात कर रहा हूँ। जिनसे स्नेह लगा हुआ है, आप चाहते नहीं कि उनका कुछ भला हो? आप चाहते नहीं उनके साथ आपके आनन्द के क्षण बीते? पर मौत के साये तले किसका कल्याण होगा और कहाँ आनन्द मिलेगा? तो सबसे पहले तो मृत्यु के प्रश्न को ही हमें किनारे कर देना है। उस प्रश्न का सीधा-सीधा हमें उत्तर दे देना है, ‘हाँ मान लिया, धमकी दे रहे हो न कि ऐसा कर दूँगा! तुम कर दोगे नहीं, कर दिया। जिस क्षण तुमने जन्म दिया था, उस क्षण तुमने मृत्यु भी दे दिया।'
अभी नवरात्रि बीती है। माँ को क्या बोलते हैं? जननी भी बोलते हैं, और?
श्रोता: जगत-जननी।
आचार्य: जगत-जननी भी बोलते हैं, और साथ में? माँ को बोलते हैं जन्मदात्री, मृत्युदात्री और मुक्तिदात्री भी। जन्म भी देती है, मृत्यु भी देती है और अगर चाहो तो मुक्ति भी देगी। तो जन्म होते ही क्या निश्चित हो जाता है? मृत्यु। तो उसको हम ऐसे क्यों मानें कि क्या पता, क्या है, क्या नहीं? ठीक है, जन्म जैसे हुआ, निश्चित बात है न? फ़लानी तारीख लिख देते हो, उस तारीख को जन्म हुआ। वैसे ही मृत्यु भी उसी समय निश्चित हो गयी।
अब प्रश्न बच रहा है कि समय का क्या करना है। अब हम अपनी सारी ऊर्जा इस प्रश्न पर लगाएँगे कि समय का क्या करना है। और समय अपनेआप को कम-से-कम देंगे, क्योंकि मृत्यु का कुछ पता नहीं है। जन्म तो निश्चित कर दिया था भाई, अट्ठारह अक्टूबर उन्नीस-सौ-पिचहत्तर, मृत्यु वाला दिन हमें अभी कुछ पता नहीं। इसलिए समय अपनेआप को हम कम-से-कम दें तो बेहतर है। अब मानिए कि इतना ही समय है और उसका आनन्द और कल्याण हेतु सार्थक सदुपयोग करना है, कैसे करना है। ये है जीने का तरीक़ा। मेरे पास इतना सा समय है, यही अवसर है मेरा, इसी में जी उठना है।
मौत के साये तले जी नहीं पाओगे। सन्तों ने इसलिए तो बार-बार कहा है न, मौत की कल्पना में मत जियो। मौत की कल्पना को तोड़ने का एक ही तरीक़ा है — मौत को यथार्थ मान लो।
कोई आकर आपको धमकाये, 'मेरा कहा कर नहीं तो तेरे हज़ार रुपये छीन लूँगा। और आप हज़ार का नोट निकालकर उसको दे ही दो। तो क्या हो गयी? धमकी से मुक्ति मिल गयी न। जब तक वो हज़ार का नोट आप दबाये रखते, तब तक वो आपको धमकाता रहता। धमका-धमकाकर और न जाने आपसे क्या-क्या करवाता रहता।
मृत्यु भी ऐसे ही धमकाती है। वो आकर बोलती है, तेरा ये छीन लूँगी, सब छीन लूँगी। आपको क्या कहना है? तू जो कुछ छीन सकती है अभी छीन ले। मेरे पास बस आत्मा शेष रहे, वही आनन्द है। जा, ले जा। पराया माल है, वैसे भी कौन उसको कहाँ ले जा सकता है? उधार की चीज़ है, तूने ही दी थी। तूने दिया, तू ले जा। हम चोर नहीं बनते। तू रख अपना माल और धमकाने मत आना दोबारा। हम पर अब कोई कर्ज़ शेष बचा नहीं है। जितना था, सब तुझे वापस कर दिया। दोबारा धमकी नहीं चाहिए, मुँह मत दिखाना।
अब हमारे पास बस एक चीज़ बची है, क्या? जीना, जो आज तक करा नहीं, क्योंकि डरे बैठे थे। जो आदमी डरा बैठा है, वो अपनी सुरक्षा का इंतज़ाम करेगा या आनन्द का? हमारी पूरी ज़िन्दगी बीतती है बस किसी तरह अपनी सुरक्षा करने में, ‘बचे रहें, बचे रहें, बचे रहें।' सारे समय तो फ़िक्र बस ये रहती है कि बस बचे रहें, हाय राम, यहाँ नुक़सान न हो जाए! कोई छीन न ले जाए! चोट न लग जाए! घात न हो जाए! यही लगा रहता है न? आनन्दित होकर जीते कब हो? और आनन्दित होना ही जीवन है।
असुरक्षा में जीना, डर में जीना माने मुर्दा हो। उस डर को स्वीकार ही कर लीजिए। जब तक वो सम्भावना है, तब तक वो डराती है। जब वो सुनिश्चित हो जाता है तो मुक्ति मिल जाती है।
'मरूँगा नहीं, मरा हूँ। क्या मैं अब जी सकता हूँ?' बिलकुल, अब जी सकते हो। जिसको देखिए सामने, उससे कर लीजिए न मौत की दो-चार बातें ताकि मुद्दा खुलकर के हमेशा के लिए बन्द हो जाए। हमने मौत को क्या बना रखा है? एक अस्पृश्य विषय, ज़बान पर नहीं ला सकते।
कर लो न बात, ‘देखो, जैसी तुम्हारी सेहत है और जैसा तुम्हारा काम है, हमें लग रहा है लगभग पाँच-दस साल और चलोगे। ये अधिकतम बोला है। बाक़ी कुछ पता नहीं। कोविड जैसे दो-चार और वायरस भी तैयार हो रहे हों, क्या मालूम! पर अधिक-से-अधिक पाँच-दस साल का हमारा-तुम्हारा है। अब बताओ करना क्या है?’ तो ये बात तो पहले ही तैयार हो गयी कि पाँच-दस साल ही हैं अपने पास। ठीक है, फाइल बन्द। अब नयी फाइल खुली। क्या फाइल? अब बताओ, करना क्या है। अब आएगा रोमांच। अब हुई न बात, कि नहीं?
प्र२: शुक्रिया।
आचार्य: देखिए, मौत जब आये न, तो ये अफ़सोस नहीं रह जाना चाहिए कि जिये बिना मर गये। मौत हमें भयभीत भी इसलिए कर पाती है, धमकाती भी इसीलिए है क्योंकि हम जिये नहीं। जीने का जो प्रोजेक्ट था, जो लक्ष्य, जो उपक्रम था जिसकी ख़ातिर शारीरिक जीवन मिला था, वो पूरा नहीं हुआ न?
तो ऐसे ही एक बार बात चल रही थी, कहीं यूनिवर्सिटी में, मैंने पूछा था कि तुम्हारा अभी चल रहा हो परीक्षा पत्र और बीस सवाल थे, दो घंटे का समय था। और करे हैं तुमने अभी कुल आठ-दस, क्योंकि मन नहीं लगाया कभी विद्या में। और फिर आता है निरीक्षक, इनविजीलेटर , वो क्या करता है? छीनने लगता है। तो कैसी हालत होती है तुम्हारी? और एक बैठा है जिसको दो घंटे दिये गये थे, वो पौने-दो घंटे में ही सबकुछ करके बैठ गया है, ‘और भाई, क्या हाल!' ये अपने हाथों उठाकर दे आता है, ‘लीजिए। क्या समय लगा रहे हैं आप, हम दे आते हैं, लीजिए। धमकाइए नहीं, ले जाइए।'
जिस काम के लिए पैदा हुए थे, वो पूरा कर लिया। डरे-डरे नहीं बैठे थे। जितना डरे रहोगे, जिस काम के लिए पैदा हुए हो, वो होगा नहीं। वो काम जल्दी पूरा करो। वो काम तभी जल्दी पूरा कर सकते हो जब मौत को सतत याद रखो। जो मौत को याद नहीं रखते उनका काम पूरा नहीं होता। जब काम पूरा नहीं होता और कॉपी छिनती है, तो फिर वो रोते हैं।
फिर वो कहते हैं, ‘डॉक्टर साहब, दो महीने और मिल सकते हैं?’ काम पूरा क्यों नहीं किया? दो महीने और क्यों माँग रहे हो? जीने को इतना समय मिला, चालीस साल, साठ-अस्सी साल मिले। काम पूरा क्यों नहीं किया? अब मौत आ रही है तो रो रहे हो। मत रोओ, काम जल्दी पूरा करो। और काम तभी पूरा होगा जब मौत याद रहेगी। तो मौत लगातार याद रखने वाली चीज़ है ताकि काम पूरा करो। और काम जो पूरा कर लेगा वो मरेगा नहीं, क्योंकि मौत माने मौत का डर। मौत का डर अगर नहीं है, तो तुम अमर हो गये।
अमरता की यही पहचान है, जिसको अब मृत्यु का डर नहीं बचा, वो अमर हो गया।
तो जीवन जी लें पूरा। मृत्यु को अलग रखिए और जीना शुरू करिए। मौत से किसी तरह बचने के फेर में हम रोज़ कई-कई बार मरते हैं। कोशिश यही है कि मौत न आये और उस चक्कर में मरे ही जा रहे हैं, मरे ही जा रहे हैं, मरे ही जा रहे हैं। एक भी क्षण व्यर्थ न जाए, क्योंकि मौत 'है', आनी नहीं है, ‘है’। तो एक भी क्षण व्यर्थ न जाए। जिसके क्षण अब व्यर्थ नहीं जा रहे हैं, वो मृत्यु से अब अस्पर्शित रह गया।
और जो मौत से जितना घबराता हो, जान लीजिए वो उतना बेकार छात्र है। वो इनविजिलेटर आया हुआ है, अपनी गाड़ी पर सवार होकर। कौनसी गाड़ी? भैंसा। और कह रहा है, ‘जितना कॉपी है उनका बंडल बनाकर ले जाना है।' और जाँचेगा कौन? कौन जाँचता है सारे, जो कुछ लिखा है? वो जाँचेगा। आपको जो समय मिला था, आपने उसका सदुपयोग करा नहीं। अब जब कॉपी छिनने की बारी आती है तो ‘हाय हाय!’
जीवन अनजिया नहीं बीतना चाहिए। अपने हम जिनको कहते हैं, स्वजन हमारे, उनके जाने पर जानते हो बड़े-से-बड़ा दुख क्या रह जाता है? बहुत कुछ हो सकता था, जो हुआ नहीं इस रिश्ते में! ये रिश्ता अधूरा रह गया। मौत नहीं सताती, जो सब आधा-अधूरा छूट गया न, वो सताता है। आधा-अधूरा मत छोड़िए!
मुझे अपने मित्र से सम्बन्धित कुछ बातें याद आ गयी हैं, वही भैंसेवाले मित्र। बात छिड़ी ही है तो। बारह-चौदह साल पहले की बात होगी, इलाहाबाद में कॉलेज में सेमिनार था तो मैं वहाँ गया हुआ था। तो गाड़ी से जा रहे थे। वहाँ कैंट एरिया था शायद। ये सुनने में बड़ा विचित्र लगेगा लेकिन सड़क पर कुत्ता मरा हुआ था। मेरे साथ में भी कोई बैठे थे। दूर से ही दिख रहा था। तो मेरे मुँह से निकल गया कि वो कुत्ता नहीं मरा हुआ है, मैं ही मरा हुआ हूँ। उनको बुरा भी लगा।
पर तब से, शायद उससे पहले से ही, आज तक मेरा ये अभ्यास रहा है कि दुनिया में भौतिक, प्राकृतिक जितनी चीज़ें होती हैं उनके आकार, प्रकार, रंग-रूप-रोगन से नीचे, उनकी जो मौलिक अवस्था है उसको याद और ध्यान रखूँ। जैसे कुछ भी दिखा कहीं तो उसको बोल देना कि क्या है ये? मॉलिक्यूल्स हैं। धीरे-धीरे अभ्यास करके किया।
वैसे अपने प्रति मेरा एक अनुशासन ये रहता है कि जैसे अपनी खाल को देखा और मुर्दे मैंने देखे हैं। तो खाल देखा और कहा कि मुर्दे की खाल है। कोई भी क्षण ऐसा हो सकता है जो ये मुर्दे की खाल बन जानी है, एक सेकेंड के अन्दर। वैसे ही किसी की खाल को देखकर के अगर आकर्षण हो रहा है, तो ये युक्ति भी काम आती थी। बस ये पूछिए, ‘ये जो खाल अभी दिख रही है, इतनी आकर्षक लग रही है, जलती हुई कैसी लगेगी चिता में?’
“हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जलै ज्यूँ घास। सब जग जलता देखकर, भये कबीर उदास।।"
~ कबीर साहब
जवानी में होता है न कि किसी के बाल बड़े अच्छे लग गये। उसी समय उनको धूँ-धूँ करके जलता भी देख लीजिए। उसने कुछ बिगाड़ा नहीं है बेचारी ने, पर अच्छा रहता है। हाड़ माने हड्डी। "हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जलै ज्यूँ घास।" ये घास की तरह जलते हैं। "सब जग जलता देख कर, भये कबीर उदास।" ये जितने भी हड्डी वाले घूम रहे हैं, सभी की लकड़ी की तरह हड्डी जलेगी। घास की तरह केस जलेंगे।
मेरे स्वजन थे कुछ। मुझे बहुत प्रिय थे। और जब वो थे, तो मैं कल्पना नहीं कर सकता था कि उनके बिना भी ज़िन्दगी होती है। फिर वो नहीं रहे। मैंने उनकी चिताएँ भी देखीं। मैंने आग भी देखी, राख भी देखी। इतना पर्याप्त होना चाहिए। एक बार देख लेना पर्याप्त होना चाहिए। वो आँख से फिर भूलता थोड़े ही है। और वो कोई एक मृतदेह थोड़े ही है, वो सब मृतदेहों की कहानी है न? आपकी भी देह वही है। उसके बाद भुलेगा कैसे?
'फॉर व्हूम द बेल टोल्स? इट टोल्स फॉर दी' (किसके लिए घंटियाँ बजती हैं? ये तुम्हारे लिए बजती हैं)। कोई मर गया था, तो चर्च का घंटा बज रहा था। तो वहाँ कोई अपरिचित व्यक्ति था, उसने पूछा, ‘किसके लिए बज रहा है घंटा? फॉर व्हूम द बेल टोल्स?' तो पादरी बोलता है, ‘इट टोल्स फॉर दी। तेरे लिए बज रहा है, मूरख। तू अपनेआप को ज़िन्दा सोच रहा है क्या? तेरे लिए बज रहा है।’
ये सब बहुत साधारण क़िस्म के अभ्यास होते हैं। कैसे भूल सकते हो आप, जो चीज़ें आपको अच्छी लगती थीं, वो कालांतर में कैसी हो गयीं? वो बाइक कहाँ है जो आपको कॉलेज में बहुत प्यारी थी? वो साइकिल कहाँ है जिसके लिए आपने अपने पिताजी से या माता जी से बहुत ज़िद करी होगी और साइकिल आयी थी? कहाँ है वो साइकिल? और अगर वाक़ई आपको वो चीज़ें प्यारी थीं, तो उनका वियोग आप भूल कैसे सकते हो? प्रेम करा है कभी? कुछ भी दिल और जान से चाहा है कभी? वो बचा क्या? और अगर नहीं बचा, तो उसकी जुदाई भुला कैसे दी? या बिलकुल ढीठ हैं, मोटी खाल के हैं, बेशर्म हैं?
एक चोट पर्याप्त होनी चाहिए न सबक सीखने के लिए? एक बार दिल टूटा। बार-बार तुड़वाना है क्या? एक को जलते हुए देख लिया। अब स्वयं को जलते हुए नहीं देख पाते क्या? आईने के सामने खड़ा होकर के किया करिए कल्पना। मैं तो आईने के सामने दस में से नौ बार खड़ा ही तब होता हूँ जब यहाँ सत्र में आना होता है। नहीं तो काम ऐसे ही चलता रहता है अपना। बाल इधर-उधर उड़ रहे हैं अपना, फिर रहे हैं! जब आपके सामने आना होता है तो खड़े होकर देखना पड़ता है। और ख़ुद ही नहीं देखता, एक दो लोग और देखते हैं इधर से, उधर से। मेरी साधना तो तभी हो जाती है। वो दर्पण ही साधना है। उसको देखा कि ये देखो, मरेला। अब मुर्दा बोलेगा। सब बड़े ध्यान से सुनेंगे। 'ग़ज़ब बोलता है! कब का मर चुका और बोले ही जा रहा है।'
मन में ऐसी संवेदनशीलता हो कि हर बदलती और खोती चीज़ को आप मौत ही जानें। जहाँ कहीं कामनाएँ बिखर रही हैं, आशाएँ टूट रही हैं, तहाँ आपको तुरन्त मृत्यु का स्मरण आ जाए। वो सब मृत्यु ही है। कामना का टूटना, सम्बन्धों का खंडित होना, वो सब मौत ही है। इसलिए कह रहा हूँ कि ढीठ नहीं होना चाहिए। ज़िन्दगी मृत्यु का आपको बार-बार स्मरण कराती है, संवेदनशील रहिए।
एक मर रहा था, तो पूछता है, हमारे बन्धु (भैंसेवाले) से, 'आ गये लेने के लिए, बताकर नहीं आ सकते थे? वो बोला, ‘रोज़ बताता था। तुम्हें तुम्हारे उपद्रवों से फ़ुर्सत कहाँ थी सुनने की? जब पहला बाल तुम्हारा सफ़ेद हुआ तो बताया था मैंने कि नहीं बताया था? जब पहला दाँत तुम्हारा हिलने लगा, तो बताया था मैंने कि नहीं? जब पहली बार लगा कि अब पढ़ने में दिक्क़त हो रही है, चश्मा लगेगा, तो बताया था कि नहीं? आईने के सामने पहली बार जब झुर्री दिखी थी, मैंने बताया था कि नहीं? कितने तरीक़ों से तुम्हें रोज़-रोज़ बताता था, तुमने सुना नहीं।' आप सुना करिए।
आध्यात्मिक साधना, कहा जा सकता है, कुछ और नहीं है, मृत्यु का निरन्तर स्मरण है। और उसका प्रसाद ये मिलता है कि आप जी उठते हैं। जी ही नहीं उठते, हम कह रहे थे, अमर हो जाते हैं। एक आदमी जिसने मौत को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है, आप उसकी प्रफुल्लता देखिए, उसका आनन्द देखिए, उसकी जीवन्तता देखिए। उसमें कोई डर शेष नहीं रहता। उसके खुलेपन की फिर कोई सीमा नहीं रहती। आप उसे रोक नहीं सकते। आप उसकी फिर कलाई नहीं मरोड़ सकते, धमका नहीं सकते, ललचा नहीं सकते। वो इन सब के प्रति मर चुका है। वो जीवनमुक्त है।
तो जीना हो तो? अपनेआप को मरा जानो। मौत को दिन में कई-कई बार याद करो। उससे उदासी नहीं छा जाएगी। हमें लगता है, जो मौत को याद करेंगे तो उदासी आ जाएगी। जब मौत महीने में एक बार याद आती है, वो भी कोई ज़बरदस्ती याद दिलाता है, तब मौत उदास करती है। महीने में एक बार याद आएगी, तो डराएगी और उदास करेगी। पर लगातार याद रहेगी तो ज़िन्दगी से भर देगी आपको। मृत्यु समान कोई मुक्तिदाता नहीं होता।
छोटी-छोटी बातें हैं। जो बाल उड़ गये, वो ज़िन्दगी में कभी वापस आते हैं? हड्डियों में गठिया हो गया, वो कभी पलटेगा क्या? अब हो गया तो हो गया। बहुत सारी चीज़ें तो शरीर में ही ऐसी हो रही हैं जो बीत गयीं, अब लौटकर नहीं आ सकतीं। दिख नहीं रहा, ये क्या है? तो फिर? जगो। काम करो। उसी में मौज है, उसी में उत्सव है।
तब सुबह-सुबह जगाया करता था, जब शिवपुरी में शिविर होते थे पहले। क्या गाकर जगाता था? है किसी को याद? कोई है वहाँ का?
“नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग। आन रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग।।”
∼ कबीर साहब
इत्तु सा तो समय है और उसमें भी क्या कर रहे हो? सो रहे हो। "आया था किस काम को, सोया चादर तान।"
श्रोता: "सूरत सम्भाल रे ग़ाफ़िल।"
आचार्य: किसने बोला? आगे बोलो। "सूरत सम्भाल रे ग़ाफ़िल।" ग़ाफ़िल माने जो खोया हुआ है, नशे में है। “सूरत सम्भाल रे ग़ाफ़िल, अपना आप पहचान।” क्या चादर तानकर सोये हो? “आया था किस काम को" — उस काम को भूल गये हो क्या, जिस काम के लिए आये हो?
एक और है जो अभी स्मरण नहीं हो रहा। कोई गूगल करेगा, तो आ जाएगा। जिसमें वो कहते है, "एक दिन तोहे सोना है, लम्बे पाँव पसार।" कहते हैं कि अभी क्या सोये पड़े हो? लम्बे पाँव पसारकर सोओगे। और फिर कोई उठाएगा तो भी नहीं उठ पाओगे। उससे पहले जागो।
जन्म मिला है तुम्हें, जागरण नहीं मिल गया। और शारीरिक जन्म ले लिया, पर आन्तरिक जागरण नहीं पाया तो शारीरिक जन्म भी व्यर्थ किया।
“कबीरा सोया क्या करे, जाग न जपे मुरार। एक दिन तोहे सोएगा, लम्बे पाँव पसार।।"
~ कबीर साहब
और सोने का अर्थ ये नहीं है कि जो हम आँख बन्द करके रात में सोते हैं, वो वाला सोना नहीं। किस सोने की बात कर रहे हैं? ये जिसको हम कहते हैं कि जगे हुए हैं, ये सोये बराबर हैं। ज्ञानियों की दृष्टि से ये जो हमारा अभी जगना है, ये सोने बराबर ही है। तो कह रहे है, 'उठकर जपो। एक दिन तो लम्बे पाँव पसारकर सो ही जाओगे!'
बोधस्थल में जब किसी का जन्मदिन होता है, तो हमारे ऐडे देवेश जी, पता भर चलना चाहिए कि किसी का जन्मदिन है, वो ताक में रहते हैं कि कौन अपना बर्थडे सेलिब्रेट कर रहा है बताओ। और तुरन्त अपना वो, उनका गिटार है, बजाना ठीक से नहीं जानते, पर लेकर पहुँच जाते हैं। और एकदम सारे अपने सुर खोलकर के गाना शुरू कर देते हैं। क्या? “जनम लिया, तो मरेगा।” ये इनका हैप्पी बर्थडे टू यू है। अगर वैसे ही मनाना हो जन्मदिन वगैरह, तो देवेश जी को पता मत चलने दीजिएगा। सारा काम-धन्धा छोड़कर अपना गिटार उठाएँगे, साफ़-वाफ़ करेंगे, गला खकारेंगे और आकर ज़ोर से चिल्लाएँगे, “जनम लिया तो मरेगा।”
“वैद्य मरे रोगी मरे और मरे सकल संसार।" सब मरते हैं, सब। ये मृत्युधर्मा है। “एक कबीरा ना मरे, जाके राम आधार।" राम आधार बन गये फिर मौत नहीं होती। कौनसी मौत नहीं होती? शरीर की तो होती है, हमारी नहीं होती। “एक कबीरा ना मरे, जाके राम आधार।”
वैद्य मरे रोगी मरे और मरे सकल संसार। एक कबीरा ना मरे, जाके राम आधार।
~ कबीर साहब
अच्छा है, आप लोगों से बात करें तो सब याद आने लगता है। “हरि मरे तो हम मरे, हमरी मरे बलाय।” हम सिर्फ़ तभी मर सकते हैं जब हरि स्वयं मरे। क्योंकि हम अब उन्हीं से जाकर एक हो गये हैं। तो “हरी मरे तो हम मरे, हमरी मरे बलाय।” तो हमारी बलाय मरे, हम नहीं मरते। “साँचे गुरु का बालका, मरे न मारा जाए।" न वो मारा जा सकता है, न वो स्वयं मरता है। जो सच्चे गुरु का शिष्य होता है, माने जो हरि का ही शिष्य होता है, न वो मरता है, न वो मारा जा सकता है।
हरी मरे तो हम मरे, हमरी मरे बलाय। साँचे गुरु का बालका, मरे न मारा जाए।
~ कबीर साहब
(देवेश जी का गाना स्पीकर पर चल रहा है “जनम लिया है तो मरेगा।”) ये संस्था का बर्थडे सॉन्ग है। (सब श्रोतागण हँसते हुए तालियाँ बजाते हैं) अरे, तालियाँ मत बजाइए वो घेर-घेरकर सुनाते हैं।
प्र३: नमस्ते, आचार्य जी। मेरा प्रश्न पिछले प्रश्न से सम्बन्धित है थोड़ा। जैसे आपने बताया कि गोरखनाथ जी बोलते हैं कि ‘हे जोगी मरो, मरण है मीठा’ और मरने के बाद ही ज़िन्दगी शुरू होती है। तो इसको प्रैक्टिकली कैसे अप्लाई (अमल) किया जाए हर एक के लाइफ़ में? इसमें कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य: ज़िन्दगी में जितनी भी मृत धाराएँ हैं, उनको समर्थन देना, उनको जबरन जारी रखना बन्द कर दीजिए। बस यही है। हमारी ज़िन्दगी में बहुत कुछ है जो मृत है, पर हम उसको ढो रहे हैं। तो लाशों को ढोना बन्द करना है। बस यही है। आपकी ऊर्जा इसलिए नहीं है कि जो चीज़ समाप्त हो चुकी है कब की, आप उसको भी ढोते चले, ढोते चले!
आपकी ऊर्जा नये बीज रोपने के लिए है। आपकी ऊर्जा है ताकि नये अंकुर फूटें, नये वृक्ष तैयार हों, नये फल लगें। पुरानी सूखी मरी लकड़ी को ढोये जा रहे हैं कन्धे पर, उसमें से नवीन जीवन अंकुरित होगा क्या? तो “मरो हे जोगी मरो” से यही आशय है — जो मरा हुआ है ही, उसको ढोना बन्द करो।
जहाँ दिख रहा है कि अब जीवन नहीं, चेतना नहीं, सम्भावना नहीं, क्यों उससे चिपटे हुए हो? नहीं बात बन रही? या समझना नहीं चाह रहे आप? सुनना चाह रहे है। क्या बोलूँ कुछ और?
श्रद्धा की कमी रहती है न हममें? हमें लगता है कि कोई चीज़ व्यर्थ है पर है तो सही। मर चुका है, लाश है, पर है तो सही। इसको छोड़ दिया अगर, तो आगे कुछ मिले न मिले, क्या पता! आगे की जो अनिश्चितता है उससे घबराकर हम वर्तमान में लाशों को, मृत्यु को ढोते रहते हैं। और हमारे भीतर कुछ ऐसा है जो जीवन से घबराता है और मृत्यु के साथ वो सुरक्षा का अनुभव करता है। कहता है, ‘जैसी भी चीज़ है, मिली तो हुई है न!’ मिली भी हुई है और साथ-ही-साथ बदलेगी भी नहीं।
मुर्दे को कभी बदलते देखा है? मुर्दा अब कुछ नहीं करेगा न? तो उसके ऊपर आपका पूरा नियन्त्रण रहता है। मुर्दा पूरी तरह से हमारे क़ाबू में आ जाता है, तो उसके साथ अहंकार सुरक्षा का अनुभव करता है। उसको परे रख दें। उसका संस्कार करके, उसको विसर्जित कर दें गंगा में। तो नयी सम्भावनाएँ तो खुलेंगी, पर नयी सम्भावनाएँ अनिश्चित होती हैं। तो हम डरते हैं।
हम कहते है, ‘पता नहीं इसमें क्या हो जाए!’ ये चीज़ मुर्दा है, लेकिन जानी-पहचानी है और इस पर अपना नियन्त्रण भी खूब चलता है। और कुछ नया होगा जीवन में घटित, वो नया तो होगा लेकिन अनिश्चित भी तो होगा! और जो अनिश्चित होगा, उसके साथ रहने के लिए, उसका आनन्द उठाने के लिए अपने भीतर भी साहस होने चाहिए, प्राण होने चाहिए।
हमारे भीतर का मुर्दापन हमे नये को स्वीकार नहीं करने देता और पुराना जो है बस उसको कहता है, 'चलो ठीक है। जैसा भी है पुराना है। अपना है, जाना-पहचाना है।' कोई कहे, ‘इसको छोड़ो।' तो कहते हैं, 'पहले आगे की गारन्टी बताओ।'
लोग उसमें बड़ी बुद्धिमत्ता से कहते हैं, "वन बर्ड इन हैंड, इज़ बेटर दैन टू इन द बुश" (हाथ में एक चिड़िया बेहतर है झाड़ी में दो चिड़िया से)। मैंने कहा, ‘डेड बर्ड इन हैंड , मरी हुई चिड़िया है, काहे को लेकर घूम रहे हो?' कह रहे हैं, ‘वो जो बुश में चिड़िया है, अगर वो नहीं मिली तो?' मैंने कहा, 'कम-से-कम इसकी बदबू से तो छुटकारा पाओगे, वो नहीं भी मिली तो!' कह रहे, 'नहीं, वन बर्ड इन हैंड इज बेटर देन टू इन द बुश।'
श्रद्धा की कमी है। मानते ही नहीं। अहंकार कर्ताभाव में जीता है न! वो कहता है कि कोई मेरा कर्ता-धर्ता थोड़े ही है, मुझसे बाहर! मैंने अगर अपनेआप को असुरक्षित छोड़ दिया, तो न जाने कौनसी दुर्घटना घट जाए मेरे साथ! ऐसे नहीं होता। जीवन की अनिश्चितता में ही जीवन का सौन्दर्य है। और अनिश्चितता का सामना करने में, सामना करने में भी नहीं; अनिश्चितताओं को गले लगाने में ही आपकी ताक़त है।
जिसको सबकुछ तयशुदा चाहिए, सुनिश्चित चाहिए वो आदमी मुर्दा है। और जब मर जाते हो तो सब सुनिश्चित हो भी जाता है। जब आप मर जाते हो, तो फिर वो दिल की धड़कन कैसी दिखायी पड़ती है? सुनिश्चित है न बिलकुल? पहले का पता नहीं कितनी ऊपर जाएगी, कैसी होगी। उसमें कुछ भी ऊपर-नीचे हो सकता है। उसके बाद बिलकुल सुनिश्चित हो जाती है, वाई इक्वल्स एम एक्स प्लस सी (गणित में इसे सीधी रेखा का समीकरण कहते हैं)। बताओ, इनफिनिटी (अनन्त) तक एक्स्ट्रापोलेट करना (बढ़ाना) है? कुछ नहीं बदलेगा, एवरीथिंग इज़ अंडर कंट्रोल (हर चीज़ नियन्त्रण में होगा)। ये चाहत छोड़ दीजिए कि सबकुछ कंट्रोल में, क़ाबू में, नियन्त्रण में रहे। छोड़िए न! जो होगा देखा जाएगा।
क्या? दिल्ली की तरफ़ बोलते हैं न, 'आन दे!' ठीक है। हर चीज़ को तैयारी के साथ जीना, बात-बात में माँग करना कि अभी तैयारी तो हुई नहीं है। ये अच्छी चीज़ नहीं है। हर प्रकार की तैयारी की एक सीमा होनी चाहिए। उसके बाद खेल शुरू कर दीजिए। खेल अगर होना है, तो स्टेडियम में तैयारियाँ करी जाती हैं, करी जाती हैं न? वो तैयारी इतनी बढ़ा दी कि खेल को भी तैयार कर दिया। तो फिर रोते हो, ‘अरे ये तो फिक्स्ड है मैच! ये तो पूरा ही तैयार कर दिया!’ तैयारी इतनी अच्छी चीज़ है तो सबकुछ क्यों नहीं तैयार होने देते, कि पाँचवें ओवर की चौथी बॉल पर छक्का पड़ेगा पहले ही तय है?
क्यों नहीं तैयारी होने देते? क्योंकि मज़ा तभी आता है जब चीज़ें अनिश्चित हों। तब आता है मज़ा! मज़ा चाहिए कि नहीं चाहिए? जिसको मज़ा नहीं चाहिए वो क्या कहलाता है? आप उसको जाकर बढ़िया चुटकुला सुनाइए, ताज़ा-ताज़ा मरा है, हँसेगा? आप पूरा कॉमेडी स्पेशल कर डालिए उसके सामने। आप स्टैंडअप कर रहे है, वो लाइंग डाउन है! कुछ होना ही नहीं उसको। उसको मज़े से अब कोई मतलब नहीं। और मज़ा तभी आता है जब कुछ ऐसा हो जाए जो सोचा नहीं था, चाहा नहीं था, हो गया। और उसको जो आपकी प्रतिक्रिया रहती है, उसी में तो आनन्द है न! सब तय करके क्या करना है, छोड़ो! तैयारी एक सीमा तक, उसके बाद जो चल रहा है, जैसा चल रहा है, ठीक है।
अगर मुझे पहले से पता होता न कि आप ये पूछने वाले हैं, मेरे लिए बड़ी दिक्क़त हो जाती उत्तर देने में। मैं बोल भी इसीलिए पाता हूँ, क्योंकि मुझे नहीं पता होता आप क्या बोलोगे। दो-चार दफ़े ऐसा हुआ है, ख़ासतौर पर जब बाहर कहीं किसी इंस्टीटूशन में, कॉरपोरेशन में बाहर वाले बुला लेते हैं तो उनको नहीं पता होता बहुत। तो पहले ही बता देते हैं उन्हें क्या पूछना है। मेरे लिए आफ़त हो जाती है। वो बता ही नहीं देते, वो ऐसे लिखकर भेजते हैं। उनकी मेल ही आती है, ‘काइंडली स्पीक ऑन दिस टॉपिक’ (कृपया इस मुद्दे पर बोलें)। ये समस्या है, पहले से टॉपिक क्यों बता दिया? आ जाता, बैठ जाता और फिर कोई खड़ा होकर बोलता, ‘इस पर बोलिए’, तो ठीक रहता। पहले से बता दो, तो फिर नहीं समझ में आता अब क्या बोलें। फिर मैं बेईमानी करता हूँ। मैं दो-चार मिनट का मसाला तैयार कर लेता हूँ और फिर कहता हूँ, 'तो हाँ जी, सवाल बताइए। मुझे जो बोलना था मैंने बोल दिया, अब तुम बोलो।'
आने दीजिए, आने दीजिए। यक़ीन रखिए, कुछ इतना ख़तरनाक नहीं होता कि आपकी आत्मा को तोड़ दे। आपमें जो कुछ भी मिट्टी का है, उसकी तो नियति है टूटना। तो उसको लेकर के बहुत घबराइए मत। और जो कुछ भी असली है आपके भीतर, उसी को सत्य बोलते हैं, हृदय बोलते हैं, आत्मा बोलते हैं, उसको खरोंच नहीं लगा सकता कोई। ये जानना ही श्रद्धा कहलाता है। थोड़ी श्रद्धा रखिए।
क्या ले जाओगे? वही तो ले जाओगे न, जो ले जा सकते हो। जो हम हैं, वो थोड़े ही हमसे छीन लोगे! जो हमारा है, वो हमसे छीन सकते हो। जो हमारा है, वो हमारा कभी था ही नहीं। वो तुम्हारा ही था, तो ले जाओ। मुझसे मेरा होना थोड़े ही छीन लोगे!
जीवन के प्रति एक हल्केपन का भाव रखिए। बहुत तनाव, टेंशन , एक सीमा तक ठीक है। एक सीमा तक हम स्टेडियम में भी तैयारी करते हैं। यहाँ भी तैयारी करी थी, आपके लिए कुर्सियाँ लगवायी गयी हैं, बाहर जो भी व्यवस्था करी है वो भी हुई है। उसके आगे नहीं व्यवस्था करनी चाहिए। हो गया, बस। इतनी तैयारी कर ली, अब आगे जो होगा देखेंगे। कैसा चल रहा है? ठीक। जैसे आजकल करते हैं न कन्धे उचकाकर, ‘श्रग इट ऑफ!’
ज़िन्दगी को बहुत भाव नहीं देते। नहीं तो सिर पर चढ़कर नाचती है। कोई भी चीज़ जब बहुत हावी होने लगे, तो उसे बस ऐसा कर देना चाहिए, हट! (कन्धे को उचकाते हुए)। अच्छी-से-अच्छी चीज़, बुरी-से-बुरी चीज़, प्यारी-से-प्यारी चीज़ भी न यहाँ (कन्धे पर) बैठा लेनी है, न यहाँ (मस्तिष्क में) बैठा लेनी है। ये (मस्तिष्क) खाली रखना है, इसको ज़िन्दगी का मन्दिर कहते हैं। मन्दिर को धर्मशाला तो नहीं बनाते न, या बनाते हैं? जिनको रुकना भी है मन्दिर के प्रांगण में, ज़रा दूर जाकर रुकेंगे। वहाँ पर कमरे हैं, वहाँ जाकर रुकिए। गर्भगृह में थोड़े ही घुस जाओगे! ऐसा करते है क्या कि लोग आये हैं मन्दिर में, उनको जगह कहाँ पर दी? कह रहे हैं, ‘मूर्ति पर चढ़कर सो जाओ’, ऐसा करते है क्या?
तो यहाँ पर (सिर पर) बस एक मूर्ति होनी चाहिए। उस पर किसी और को चढ़ने की इजाज़त नहीं है। नाम अपनी ओर से दे लीजिए, कह दीजिए, राम की मूर्ति रहती है, और नहीं कोई चढ़ता। बाक़ी कोई चढ़ता है, तो ऐसे चढ़ रहा था धीरे-धीरे कन्धे तक आता है, फिर हम ऐसे कर देते हैं (कन्धे उचकाते हैं) और गिरता है तो मज़े लेते हैं।
तो ज़िन्दगी से मज़े लेना सीखो। कन्धे से गिरा दिया किसी को, उसके ही मज़े लीजिए। ख़ुद गिरे उसके भी मज़े लीजिए। अपने गिरने के मज़े लेने का लुत्फ़ ही दूसरा होता है। अपने ऊपर हँसने जैसी कोई और बात होती नहीं है। मस्त अपना मज़ाक बनाया करिए। अपने से बड़ा चुटकुला भी कोई होता है? इसको अगर आपने मज़ाक की तरह नहीं लिया, तो ये आपको पागल कर देगी। अच्छे से समझ लीजिए इस बात को। ये चीज बड़ी कातिल है, जिसको आप ज़िंदगी कहते हैं। इसको हल्के में लेना सीखें। और ये इसी ताक में रहती है कि आप इसे गम्भीरता से ले लें। ये जितने विषय हैं न, इन्द्रियों के, ये सब-के-सब बस एक चीज़ चाहते हैं, क्या? ‘हमें महत्व दे दो, हमें गम्भीरता से ले लो, हमें अपनी ज़िन्दगी के केन्द्र पर बैठा लो।' और आपको क्या कहना है? ‘चल ना!' वो पंजाबी लहज़े में।
बम्बईया लहज़े में क्या बोलेंगे?
श्रोता: ‘चल, हवा आने दे!’
आचार्य: क्या? 'चल ना, हवा आने दे'? (सब हँसते हुए)
जो कुछ भी बहुत ज़्यादा चढ़ा जा रहा है, उसको यही कहना है, 'चल ना, हवा आने दे!'
अभ्यास की बात है ये भी। देखिए, ऐसा सोचेंगे तो नहीं होगा। जब हो, तो थोड़ा सा करने की कोशिश करिए। अजीब सा लगेगा, ऑक्वर्ड लगेगा, शुरू में जब करेंगे। क्योंकि भीतर-ही-भीतर तो हालत हो रही है ख़राब और बाहर मज़ाक़िया सा मुँह बनाकर कहना है, ‘आन दे।’ (चहरे पर डर की भावना लाते हुए बोलते हैं) (सब हँसते हैं)
शुरू में दो-चार बार एम्बेरेसिंग (शर्मिन्दा करने वाला) होगा, लजाएँगे भी कि बोल रहा हूँ पर, सबको पता चल रहा है कि भीतर से डरे हुए हैं और अब बाहर से दिखा रहे हैं कि मस्त हूँ। पर अभ्यास करते-करते वो बात आदत ही बन जाएगी। वो भीतरी चीज़ बन जाएगी। फिर कुछ भी हो रहा होगा, आप वैसे ही रहेंगे।
इस बात को पहले भी बोला, और तरीक़े से भी बोला। वो बोले कि अरे! मेरा ये हो गया, वो हो गया। फिर बोलना कि 'मेरा क्या!' या ‘मैंनू की!' और सही बात यही है, आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ता इन सब चीज़ों से। ये जितना झमेला है, जो बनकर बैठा है आपका झमेला, वो वास्तव में आपका नहीं है। आपको उससे कोई फ़र्क पड़ता नहीं है, पड़ना चाहिए नहीं, बस ये आदत डालने की बात है कि कहने लग जाएँ, ‘मैंनू की!'
घर में चोरी हो गयी, 'मैंनू की?' (सब हँसते हुए) ‘मुझे क्यों बता रहा है भाई? मुझे क्यों बता रहा है, घर में चोरी हो गयी?’ आप ही के घर में चोरी हो गयी। ‘मेरा कुछ नहीं है यहाँ।' "चिदानन्द रूप: शिवोहम्, शिवोहम्।"
हमारा यहाँ क्या है? आज ये चुरा ले गया, ये नहीं भी चुराता तो कल वो चुरा ले जाता। सब ठीक है। माया को सिर्फ़ यही माकूल जवाब हो सकता है। क्या? ‘मैंनू की!’ वो इससे बहुत चिढ़ती है। वो आपका नुक़सान खूब करेगी, लेकिन नुक़सान भर कर लेने से उसको सन्तोष नहीं होता। आपका नुक़सान करने के बाद वो चाहती है आपके चेहरे पर डर, पराजय, उदासी, हताशा देखना। और अगर आपके चेहरे पर पराजय का भाव नहीं आया तो ये उसकी पराजय है। कर लेने दीजिए वो कितना भी आपका नुक़सान कर ले, आपका चेहरा ऐसा ही होना चाहिए (चेहरे पर बेपरवाही का भाव दिखाते हुए), वो हार गयी। वो आपका सारा नुक़सान करके भी हार गयी, क्योंकि आपका नुक़सान आपने माना ही नहीं! “मन के हारे हार, मन के जीते जीत।"
‘मैं नहीं हारा।’ बोल रही है, ‘बेईमानी है, बेईमानी। तुझे पूरी तरीक़े से बर्बाद कर दिया, अब तो मान ले तू हार गया!’ 'नहीं, मैं नहीं हारा।' उसे पाँव पटकने दो, अपने ही बाल खींचेगी, चिल्लाएगी खूब 'बेईमानी हो रही, बेईमानी हो रही है' और फिर भग जाएगी। इसको हम क्या बोलते हैं संस्था में? 'लूट जाओ, बर्बाद हो जाओ, उसके बाद भी ऐसे रहो (बेपरवाही का भाव दिखाते हुए)। क्या बोलते है? ‘ठसक!’
कुछ हो जाए, कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ता। अभी यहाँ संजय बैठा हुआ है, पिछले कई शिविरों से, ये जो ऑडियो रिकॉर्डिंग होती है, बर्बाद कर देता है। यहाँ ये निर्मल भाई बैठा है, ये प्रमोशन पर लगे हुए है। ये पैसा उड़ा देगा, कुछ कर देगा। कुछ हो जाए, पूरी बर्बादी हो जाए। मैं बोलूँगा, 'क्या कर दिया?' बोले, आप ही से सीखा है, ‘मैंनू की!’ (सब ठहाके लगाते हुए) 'संजय, पूरा वीडियो बर्बाद हो गया। ऑडियो में गाना बज रहा है, उसमें झींगुर बोल रहे हैं। क्या कर दिया? इतनी नॉइज़ कैसी आयी?' 'अजी छोड़िए! साधो रे! आपको क्या लगता है ये यूट्यूब चैनल बचेगा एक दिन? अरे, ये इंटरनेट बचेगा एक दिन? जब कुछ नहीं बचना है, तो एक वीडियो बर्बाद हुआ तो क्या जाता है?' मैंने कहा, ‘बात तो ठीक ही बोल रहा है, चल भई तू ही जीता।’
सत्य के प्रति संवेदनशील और माया के प्रति निर्लज्ज! सच अगर इतना सा संकेत भी दे दे कि तूने कुछ ग़लत किया, तो मानिए कि जैसे आपके ऊपर घड़ों पानी पड़ गया, सिर एकदम झुक जाए। वो इशारा भी दे दे कि ग़लती कर दी तूने, तो सिर एकदम झुक जाए। और माया आकर के आपको सौ दफ़े बोले कि तू पतित है, पापी है, दुरात्मा है, नालायक़ है, बेवफ़ा है, जो भी है। ऐसे ही खड़े रहिए और कहें, ‘बोलती रह! हम बेशर्म हैं, हमें कुछ नहीं होता। निर्गुण-निराकार की भक्ति करते हैं और स्वयं निर्लज्ज हैं! क्योंकि अगर हम निर्लज्ज नहीं हुए तो निर्गुण की जगह तेरे ही गुण गाते रहेंगे, माया!'
(प्रश्नकर्ता से कहते हैं) अब पूरा पड़ा या अभी और? ये ख़ुराक़ ले रहे हैं, ये सारी बातें समझने के लिए नहीं, ये पिया गया है, 'हाँ दीजिए, और दीजिए। ठीक है। भरिए, और चाबी भरिए।'
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